हिंदी ग़ज़ल में बुजुर्गों की स्थिति / भावना

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आंकड़े पर गौर करूँ तो हेल्पेज इंटरनेशनल नेटवर्क ऑफ चैरिटीज द्वारा तैयार ग्लोबल एंड वॉच इंडेक्स 2015 में 96 देशों में बुजुर्गों की स्थिति के मामले में भारत को 71 वां स्थान दिया गया है। सर्वेक्षण के अनुसार भारत बुजुर्गों के लिए सबसे खराब देश के रूप में शुमार है, वहीं स्विटजरलैण्ड को सबसे अच्छी जगह मानी जाती है। ताज्जुब है कि "मातृ देवो भव: पितृ देवो भव: से अपने जीवन का आरंभ करने वाला मनुष्य आज इतना स्वार्थी हो गया है कि उसे अपने माँ बाप की भी चिंता नहीं रही।" वसुधैव कुटुंबकम" की भावना रखने वाला यह देश आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपने संस्कारों को भूल बैठा है। मैं, मेरी पत्नी, मेरा बच्चा... बस इतनी-सी दुनिया है इनकी। ऐसे में पूरे देश में बुजुर्गों की स्थिति का दयनीय होना स्वभाविक है। आधुनिक हिन्दी ग़ज़ल प्रेमिका से गुफ्तगू की संस्कृति से काफी आगे निकल चुकी है। आज की ग़ज़ल समाज की तमाम विद्रूपताओं को अपने शेरों का विषय बनाते हुए हिन्दी कविता के सामने सीना ताने खड़ी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज की हिन्दी कविता समय की तल्खियों और त्रासदियों को स्वर देते हुए काफी खुरदरी हो गई है, तो हिन्दी ग़ज़ल की कोमल जमीन भला अछूती कैसे रहती? उसके स्वर में भी थोड़ी-सी तल्खी आई है जो स्वाभाविक ही कही जाएगी। कुछ लोग इस तल्खी को ग़ज़ल की जमीन पर हमले की तरह देखते हैं। उन्हें पता होना चाहिए कि पूरा देश जब भ्रष्टाचार, जातिवाद, अमीरी-गरीबी, बच्चों, बुजुर्गों व विधवाओं की स्थिति पर आँसू बहा रहा हो तो भला कोई शायर प्रेमिका की आंखों में आंखें डालकर प्रेमिल शेर कैसे कहे? शायर अपनी जिम्मेदारी को पूरी तरह समझता है और उसे शब्द देने में कोई कोताही नहीं बरतता।

हिन्दी ग़ज़ल में बुजुर्गों की स्थिति जानने के लिए जब प्रसिद्ध ग़ज़लकार अनिरुद्ध सिन्हा जी के शेरों को देखती हूँ तो पाती हूँ कि वे अपने समाज में बुजुर्गों की स्थिति देखकर बेहद आहत हैं। उनकी लेखनी आज के हालात को कुछ इस अंदाज़ में व्यक्त करती है।

बुढ़ापे में हमें यूं कैद कर रक्खा है बच्चों ने
हमारे घर की चौखट से हमारी चारपाई तक

-अनिरूद्ध सिन्हा

या

ज़रा तो मान रक्खो अपने पूर्वज की शराफत का
कि इस बेईमान दुनिया में तो कुछ ईमान रहने दो

-अनिरूद्ध सिन्हा

प्रसिद्ध शायर ज़हीर कुरैशी का कहना है कि बुजुर्गों का होना यानी कि मनुष्य में चिंतन का परिपक्व होना है और यही परिपक्वता हमारे देश का इंजन है, जिस पर युवा पीढ़ी सवार है। यानी कि बुजुर्गों के आशीर्वाद के बिना विकास की बातें बेमानी है। पर, यह भी सच है कि देश की राजनीति की बागडोर युवा पीढ़ी के हाथों में भी आनी चाहिए ताकि देश का इंजन सरपट पटरी पर दौड़ सके. शेर देखें-

उम्र के साथ थकी देह हुआ मन बूढ़ा
मन के पश्चात हुआ व्यक्ति का चिंतन बूढ़ा

-जहीर कुरेशी

या

आज तक तो यही देखा है युवा पीढ़ी ने
देश को खींच रहा है कोई इंजन बूढ़ा

-जहीर कुरेशी

प्रेम किरण एक बेहतरीन शायर हैं। सरल शब्दों में गहरी बात कहना इनकी विशेषता है। उनके शेरों में बुजुर्ग किस तरह से आए हैं। ज़रा देखें-

मेरी इज्जत बुजुर्गों-सी है घर में
मैं सबसे कट के तनहा हो गया हूँ

-प्रेम किरण

या

मरज मुझमें कई घर कर गये हैं
मैं कैसा था मैं कैसा हो गया हूँ

-प्रेम किरण

आजकल बुजुर्गों को साथ रखने की परंपरा खत्म हो गई है। न्यूक्लियर फैमिली के इस जमाने में संस्कारों का क्षरण हो रहा है। लोग भूलने लगे हैं कि वे भी एक दिन बूढ़े होंगे। आज की युवा पीढ़ी साधु महात्माओं के प्रति कम सहानुभूति रखती है। शेर देखें-

मुझे शक है वहाँ कोई बड़ा बूढ़ा नहीं रहता
कि खाली हाथ उस घर से बरहमन लौट आया है

-अशोक मिजाज

या

बुढ़ापा उन पर भी आखिर कभी तो आएगा
जवान होती हुई पीढ़ियाँ ये क्या जाने

-अशोक मिजाज

दिनेश प्रभात गीत और ग़ज़ल दोनों विधाओं में समानान्तर रूप से लिखने वाले ग़ज़लकारों में से एक हैं। उन्होंने बुजुर्गों के लिए कई शेर कहे। शेर देखें-

टूटे सपने, गीली ऑखें, तन-मन आहत नई सदी
हम बूढ़ों के दरवाजे पर तेरा स्वागत नई सदी

-दिनेश प्रभात

या

नई पीढ़ी जो अव्वल दिख रही है अंक सूची में
वही अक्सर यहाँ मां-बाप का आदर नहीं करती

-दिनेश प्रभात

इन दिनों दो ख़बरें समाचार पत्रों एवं सोशल साइट्स पर काफी सुर्खियों में रही। पहला तो यह कि एक बड़े उद्योगपति अपने अरबों की संपत्ति होते हुए भी किराये के घर में रहने को विवश है। वहीं दूसरी खबर यह थी कि विदेश रह रहे बेटे ने अपनी माँ की महीनों खोज-खबर नहीं ली। पड़ोसियों ने ताला तोड़ा तो उसके पलंग पर कंकाल मिला। भारतीय मूल्यों का यह विघटन आत्मा को घायल कर रहा है। शेर देखें-

हासिल न हो सका बड़े-बूढ़ों को सुख कभी
चाहे सपूत उनके कमाते रहे बहुत

-दरवेश भारती

लैपटॉप और मोबाइल में खोई रहने वाली पीढ़ियाँ समझ ही नहीं पातीं कि बुजुर्ग हमारे लिए दरख़्त के समान हैं, जिसकी छाया के बगैर हमारे व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास संभव नहीं।

बुजुर्ग ही न था वह इक घना दरख्त था
कि जिसके साये में पलकर हैं हम जवान हुए

-दरवेश भारती

आज का दौर बेहद जटिलताओं भरा हुआ है। आदमी ने खूब सारे पैसे कमा लिये, संसाधन जुटा डाले, बीमारियों से बचने के लिए मेडिकल इंश्योरेंस तक करवा लिया पर, बीमारी पर दवा के साथ-साथ दुआओं की भी ज़रूरत होती है, यह भूल गया।

भूल मत हस्ती बुजुर्गों की दुआ
काम आती है दवा इक हद तक

-हस्तीमल हस्ती

आज की पाठशालाओं में नैतिक शिक्षा का सर्वथा अभाव है। सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों को ' मिड डे मील" जैसी सरकारी योजनाओं से फुर्सत नहीं, वहीं प्राइवेट स्कूल के बच्चे अलग-अलग सांस्कृतिक कार्यक्रमों एवं ग्रेड को बेहतर बनाने में जुटे रहते हैं। अभिभावक को बच्चों के अच्छे ग्रेड चाहिए तो वहीं विद्यालय सबसे अच्छा परीक्षा परिणाम देकर अभिभावक को लुभाने में कोई कसर छोड़ना नहीं चाहता। नैतिक मूल्यों की भला किसे पड़ी है। अब शिक्षा भी व्यवसाय हो गया है जिसका उद्देश्य अधिक से अधिक धन अर्जित करना है। शेर देखें-

होने लगी शालाओं में ये कैसी पढ़ाई
अब बच्चे बुजुर्गों की भी इज्जत नहीं करते

-हस्तीमल हस्ती

बुढापा अपने आप में रोगों का केंद्र है। हाई ब्लड प्रेशर, शुगर और थायराइड जैसी गंभीर बीमारियों का सामना 40 के बाद अमूमन सभी लोगों को करना पड़ता है। अनेक प्रकार के दर्द कमजोर होते शरीर के लिए असहनीय है। एक दर्द कम होता है तो दूसरा घेर लेता है। दर्द से घिरा तथा परिवार के हाशिए पर बैठा बुजुर्ग आखिर करे भी तो क्या? शेर देखें-

जिस्म का घाव हो गया बूढ़ा
दर्द की ऐनकें बदलता है

-ज्ञान प्रकाश विवेक

लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन यह सच है
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा

-ज्ञान प्रकाश विवेक

डी एम मिश्र की ग़ज़लें हमेशा जन-सरोकारों के प्रति प्रतिबद्ध दिखती है। वे बुजुर्गों की शारीरिक क्षमता कम होने पर असहाय होते देख परेशान हो जाते हैं। जिन बच्चों को हम अपने हाथों से सुग्गा कौर, खरगोश कौर कहकर निवाले खिलाते हैं, वही बड़े होते ही हमारी अनदेखी करते हैं।

शेर देखें-

बहुत बहला के, फुसला के जिसे रोटी खिलाता था
उसी बेटे से रोटी आज हमको माँगनी पड़ती

-डी एम मिश्र

या

अब तो घरों में चाइना की झालरें लगे
बूढ़े चिराग की कोई कीमत नहीं रही

-डी एम मिश्र

युवा होते ही स्त्री पुरुष की शादी कर दी जाती है जिसका मुख्य उद्देश्य संतान प्राप्ति है। स्त्री-पुरुष मां-बाप बनते ही अपनी नींद, अपने चैन खो कर उन्हें पालते-पोसते, शिक्षा-दीक्षा देते कब बुजुर्ग हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। पता चलता है तब जब उनके बच्चे उनके साथ अभद्र व्यवहार करते हैं। जिनको उंगली पकड़कर चलना सिखाया, वही बुढ़ापे में उनकी उंगली थामने के बजाय अंगूठा दिखाते हैं। शेर देखें-

हजारों दुख सहे हैं उम्र-भर औलाद की खातिर
बुढ़ापे में वह बच्चों की रुखाई सह नहीं पाती

-वशिष्ठ अनूप

रहा करते थे बच्चे जिस तरह माँ बाप के घर में
उसी अधिकार से माँ उनके घर क्यों रह नहीं पाती

-वशिष्ठ अनूप

घर के ड्राइंग रूम में अपने आगन्तुकों से खुलकर मिलने वाला कब बालकनी की टूटी कुर्सी पर आसीन हो जाता है, पता ही नहीं चलता। कई बार देखा जाता है जिसने कंधों पर बस्ते रख स्कूल की सीढ़ियाँ चढ़वायी उसने ही उसे सीढ़ियों से उतार फेंका। चार पैसे क्या कमा लिए अपने पिता को अपने दोस्तों से मिलवाने में भी शर्म महसूस होने लगी। अपने तुतलाते, हकलाते बेटों को शान से पड़ोसियों से परिचय कराते कभी पिता शर्मिंदा नहीं हुए.

शेर देखें-

ओसारे में किसी कोने सजा कर
मुझे रक्खा है घर ने हाशिये पर

-देवेंद्र आर्य

बेटों की अपेक्षा बेटियाँ आजकल बुजुर्गों की देखभाल ज़्यादा कर रही हैं। यह परिवर्तन निसंदेह सुकून दायक है।

उन बुजुर्गों की जरा-सा सोचिए
जिनके घर होती नहीं है बेटियाँ

-देवेंद्र आर्य

बुढ़ापे में अगर पिता अपने बेटे से मदद की उम्मीद करते हैं, तो क्या बुरा है? यह उनका अधिकार है। बच्चों का यह कर्तव्य है कि वे अपने बुजुर्गों का भली-भांति ख्याल रखें। उनके साथ थोड़ा समय बिताएँ। उन्हें हाशिये पर नहीं रखें बल्कि अपने जीवन में शामिल करें। आज के युवा गजलकारों ने भी बुजुर्गों की स्थिति पर खूब शेर कहे हैं। शेर देखें-

सहारा दे भी दो अब बेटे मेरे
बुढ़ापे की मेरी टूटी कमर है

-विकास

या

मेरे बच्चे बड़े हुए जब से
ज़िन्दगी अब नहीं हंसाती है

-विकास

कहते हैं कि जितनी दवा नहीं काम करती उतनी संवेदना काम कर जाती है। स्पर्श चिकित्सा बूढ़े शरीर में जान डाल देने के लिए काफी है। बुजुर्गों के पाँव के पास थोड़ी देर बैठकर उनसे उनके जमाने की बात करना, सुनना खुद को इतिहास से जोड़ना भी है। पहले के समय में नई दुल्हन को रात में खाने के बाद 1 घंटे अपनी सास के पाँव दबाने की परिपाटी थी। जिससे सभी महिलाओं को गुजरना होता था। आज के स्त्री विमर्श से इतर बिना किसी शोरगुल से यह विमर्श सबसे उपयोगी विमर्श था। जिस तरह की बातें सास और बहू के बीच होती थी, वही उसके नए घर के सदस्यों को जानने का जरिया था। सासू माँ की कहानियों में ही घर की रस्में, तहजीब व अनुशासन की शिक्षा होती थी। यही कड़ी टूट गई है, जिसकी वज़ह से परिवार में बिखराव शुरू हो गया है।

बुजुर्गों को सुनो, समझो, उन्हें अच्छी तरह रक्खो
ये तुझसे कितनी उम्मीदें लगा कर जी रहे होंगे

-के पी अनमोल

या

बाप नहीं रो पाता बेटों के आगे
बूढ़ी आंखों में भी कितना पानी है

-के पी अनमोल

आधुनिकता के दौर में न केवल बुजुर्ग बल्कि बच्चे भी अकेले हो गए हैं। "नानी तेरी मोरनी को मोर ले गयो" जैसे प्यारे गीतों के साथ इठलाते बच्चे क्रेच में आयाओं के भरोसे पल रहे हैं। दादी की कहानी कहाँ गुम हो गई किसी को नहीं मालूम? अब एक क्लिक में हिलते-डुलते हाथ कार्टून कैरेक्टर के साथ हाजिर हो जाते हैं और बच्चे उन्हीं के साथ लगाव महसूस करते हैं।

अलग करने की इनको भूल कर सोचो न तुम बेटे
कि दादी और पोती को मोहब्बत की ज़रूरत है

-भावना

या

माँ को देखा तो इबादत हो गई
इस तरह अपनी हिफाजत हो गई

-भावना

आपने ऐसे कई घरों को ज़रूर देखा होगा जो महज मुट्ठी भर अन्न के लिए अपने माता-पिता को तरसा देते हैं। दो समय के भोजन के लिए दो बेटों में बँटवारा हो जाता है। एक सुबह खिलाता है, तो दूसरा शाम। संत-महात्माओं की इस धरती पर बुजुर्गों की यह हालत सोचनीय है। शेर देखें-

एक मुट्ठी अन्न की खातिर है अब वह जी रहा
नौजवां बेटों को जो अपनी जवानी दे गया

-राहुल शिवाय

या

जो बुजुर्गों की किसी भी बात को सुनता नहीं
ज़िन्दगी में वह कभी भी आगे बढ़ सकता नहीं

-राहुल शिवाय

इन सब के बावजूद हम बुजुर्गों की स्थिति से परेशान ज़रूर हैं, पर हताश और निराश नहीं। आज भी कई ऐसे युवा है जो न केवल अपने मां-बाप का पूरी तरह ख्याल रखते हैं बल्कि उनके साथ अपना भरपूर समय बिताते हैं। उन्हें अपने घर की तहजीब और संस्कार के रूप में देखते हैं तथा उनकी लाठी बनना अपनी शान समझते हैं। हाँ! यह श्रवण कुमार की धरती है, जो अपने बड़े-बूढ़े को कंधे पर रखकर तीर्थाटन कराने का माद्दा रखता है। इन श्रवण कुमारों की संख्या कम ज़रूर हो गई है पर शून्य नहीं हुई.

डूबती उम्मीद को फिर रोशनाई दे रहा है
वो पिता के हाथ में पहली कमाई दे रहा है

-अशोक अंजुम

या

एक बूढ़े जिस्म से लाखों दुआएँ झड़ रही हैं
एक नन्हा हाथ मुस्काकर दवाई दे रहा है

-अशोक अंजुम

स्पष्ट है कि शायरों ने न केवल बुजुर्गों की दयनीय स्थिति को केंद्र में रखकर शायरी की है बल्कि उनके समाधान भी सुझाये हैं। वरिष्ठ एवं युवा ग़ज़लकारों के शेरों से गुजरते हुए यह कहा जा सकता है कि आज का दौर ख़राब ज़रूर है, पर इतना भी खराब नहीं की उम्मीद ही खत्म हो गई हो।