हिंदी जाति और रामविलास शर्मा / रूपेश कुमार
‘हिंदी जाति की अवधारणा’ रामविलास शर्मा की महत्वपूर्ण स्थापनाओं में से एक है। उन्होंने सर्वाधिक बल अपनी इसी मान्यता पर दिया। अपनी इसी स्थापना के कारण वे सर्वाधिक विवादित और चर्चित भी हुए।
डॉ. रामविलास शर्मा की ‘जाति की अवधारणा’ में जाति शब्द का प्रयोग नस्ल (race) या बिरादरी (caste) के लिए न होकर कौम (nationality) के अर्थ में हुआ है। ‘निराला की साहित्य साधना’ द्वितीय खण्ड में इसे स्पष्ट करते हुए रामविलास जी ने लिखा है- “भारत में अनेक भाषाएँ बोली जाती हैं। इन भाषाओं के अपने-अपने प्रदेश हैं। इन प्रदेशों में रहने वाले लोगों को ‘जाति’ की संज्ञा दी जाती है। वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पाँत से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है। किसी भाषा को बोलने वाली, उस भाषा क्षेत्र में बसने वाली इकाई का नाम जाति है।” (पृष्ठ 68) अर्थात जाति का सीधा संबंध भाषा से है।
रामविलास शर्मा की इस अवधारणा ने हिंदी जगत में एक बहस को जन्म दिया। कुछ लोग इसके समर्थन में आये तो कुछ ने इसका विरोध किया। यह स्वाभाविक था क्योंकि हिंदी भाषा तथा उसके विस्तृत क्षेत्र और प्रयोक्ताओं की स्थिति बहुत जटिल है, साथ ही हिंदी पट्टी में जाति शब्द भिन्न अर्थ में रूढ़ तथा काफी प्रसिद्ध है, जिसकी तरफ संकेत इतिहासकार शम्सुर्रहमान फारूकी करते हैं। वे जातीयता का इस तरह से प्रयोग उचित नहीं मानते, उनका मत है- “रामविलास शर्मा ‘हिंदी जाति’ जैसा कोई पद जब इस्तेमाल करते हैं तो मुझे उसकी कोई खास सार्थकता नजर नहीं आती। एक तो यह कि ‘जाति’ शब्द से जो छवि निकलती है, उससे ही एक गलत तरफ ध्यान चला जाता है। भले ही यह लिख दिया जाय कि वर्ण-व्यवस्था वाली जाति-पाँति से इस ‘जाति’ का अर्थ बिल्कुल भिन्न है लेकिन इस शब्द में परम्परा से चले आ रहे अर्थ वाला एक ऐसा ‘लोड’ है, जो तुरन्त भेद-भाव वाले संस्कार से जोड़ ही देता है। दूसरे, मान लीजिए, इस शब्द का प्रयोग अगर एक ‘कम्युनिटी’ के मायने में करें, जैसा कि रामविलास जी करते हैं, तो मुझे इसकी उपयुक्तता पर संदेह है।” (हिंदी जाति और उर्दू जाति, 2001, आलोचना, सहस्राब्दी अंक पाँच) निश्चय ही रामविलास शर्मा का यह प्रयास धारा के विरुद्ध आगे बढ़ने जैसा है किन्तु हिंदी पट्टी में जिस तरह से आये दिन जातीय हिंसा देखने को मिलती है इसकी उपयुक्तता पर संदेह करना व्यर्थ है। फारूकी जी भले ही इस अवधारणा को संदेह की दृष्टि से देखते हों, पर स्वयं रामविलास शर्मा को कभी इस पर संदेह नहीं रहा। इसीलिए अपने जीवन के अंतिम वर्षों में लिखी गई महत्वपूर्ण पुस्तक ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ में जहाँ वे अपनी कई स्थापनाओं में फेर बदल करते हैं, वहीं ‘हिंदी जाति की अवधारणा’ को और बल प्रदान करते हैं। फिर यह आधार यूरोप के कई देशों में पहले से मौजूद रहा है। भारत में रवीन्द्रनाथ टैगोर भाषाई आधार पर जातीयता के निर्माण की बात कर चुके थे। हिंदी में इस आधार पर जाति निर्माण की बात रामविलास शर्मा से पहले भारतेंदु हरिश्चंद्र ‘जातीय संगीत’ नामक निबंध में करते हैं। इसके बाद महावीर प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचंद, निराला, राहुल सांकृत्यायन आदि ने हिंदी जाति के निर्माण के लिए किस तरह से संघर्ष किया इसका उल्लेख रामविलास शर्मा अपनी पुस्तक ‘हिंदी जाति की अवधारणा’ में विस्तार से करते हैं। वे लिखते हैं कि “भारतेंदु ने ‘जातीय संगीत’ नाम के निबंध में प्रदेशगत संगीत की चर्चा की थी, किसी पेशेवर बिरादरी के संगीत की नहीं। श्यामसुन्दर दास सम्पादित जनवरी 1902 की ‘सरस्वती’ में कार्तिक प्रसाद के लेख का शीर्षक था - ‘महाराष्ट्रीय जाति का अभ्युदय’। जाति और साहित्य के बारे में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1923 के साहित्य सम्मलेन के कानपुर अधिवेशन में कहा था- ‘जिस जाति विशेष में साहित्य का अभाव, उसकी न्यूनता देख पड़े आप यह निसंदेह निश्चित समझिए कि वह जाति असभ्य किंवा अपूर्ण सभ्य है।’ अतः स्पष्ट है कि रामविलास शर्मा की महत्ता इसमें नहीं है कि उन्होंने ‘हिंदी जाति की अवधारणा’ का मौलिक सिद्धांत दिया, बल्कि महत्ता इसमें है कि इन्होंने हिंदी जाति को संगठित करने के लिए उसे विकसित करने का प्रयास किया।
डॉ. रामविलास शर्मा हिंदी जाति के साथ-साथ तमिल, तेलगू, उड़िया, बंगाली आदि जातियों की चर्चा भी करते हैं और उनके विकास पर बल देते हैं। लेकिन इस बात पर वे खेद प्रकट करते हैं कि अन्य भाषा-भाषी क्षेत्रों में जातीयता की धारणा जितनी प्रबल है उतनी हिंदी के अंदर नहीं है, इसी कारण साम्प्रदायिकता और जातिवाद (casteism) सर्वाधिक इसी क्षेत्र में देखने को मिलता है। यह क्षेत्र आज भी राजनितिक रूप से विभक्त है, इसका क्षेत्र उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश तक विस्तृत है। रामविलास शर्मा भाषावार राज्यों के गठन वाले फार्मूले को हिंदी क्षेत्र में न अपनाए जाने का लगातार विरोध करते रहे। इस संबंध में पी.एन. सिंह ठीक ही लिखते हैं- “रामविलास जी को यह बात आजीवन सालती रही कि भारत में बंगाली, पंजाबी, तमिल, मराठी, गुजराती, तेलगू इत्यादि जातियों का निर्माण तो हो सका और ये राजनीतिक इकाई के रूप में विकसित हो सकीं लेकिन हिंदी प्रदेश में जातीय बोध का अभाव रहा जिसके चलते यह राजनीतिक रूप से विभक्त रहा।” (रामविलास शर्मा और हिंदी जाति, आलोचना, 2001, सहस्राब्दी अंक पाँच) जबकि ऐतिहासिक आर्थिक विकास के साथ बदलते पूँजीवादी संबंधों में जातीय निर्माण व गठन की लंबी प्रक्रिया के बाद हिंदी यहाँ रहने वालों की जातीय भाषा बनी है।
‘हिंदी जाति की अवधारणा’ को विकसित करने के पीछे रामविलास शर्मा का स्पष्ट उद्देश्य निहित है। वे मानते हैं कि साम्प्रदायिक संघर्ष, नस्ली भेद-भाव के कारण भारतीय राष्ट्रीयता के विकास में बाधा पैदा होती है और भारत में हिंदी भाषियों की संख्या सर्वाधिक है, अगर इनको भाषाई आधार पर संगठित किया जाय तो राष्ट्रीयता के विकास में काफी हद तक सहायता मिलेगी। फारूकी रामविलास शर्मा की इस अवधारणा को साम्राज्यवादी मानते हुए लिखते हैं कि “यह एक प्रकार का ‘साम्राज्यवाद’ है और तकलीफ की बात यह है मेरे लिए, कि यह रामविलास शर्मा जैसा शख्स कर रहा है जो साम्राज्यवाद विरोध को अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी मानता रहा। ‘हिंदी प्रदेश’ की कल्पना के पीछे न कोई भूगोल है न इतिहास, न ही कोई विज्ञान है - भाषाविज्ञान वगैरह। यह केवल राजनीति है कि यह जो हमारे मुल्क का ‘हृदय प्रदेश’ है, उसे ‘हिंदी प्रदेश’ कहा जाए और यह भुला दिया जाय कि उसमें और लोग भी रहते हैं- जो इस बात से अलग हैं कि उनका धर्म क्या है, कि वो किसान हैं, मजदूर हैं या बुद्धिवादी लेकिन वो और-और जबानें बोलते हैं; सबको अपनी जबान बोलने का हक है। हिंदी प्रदेश कहकर आप उनके मन में बेवजह आप एक शक का बीज डाल रहे हैं कि उनकी जबान, उनकी तहजीब के ऊपर एक खास जबान, एक खास तहजीब को तरजीह दे रहे हैं और इस तरह की भेद-भाव की राजनीति कर रहे हैं।” (‘शम्सुर्रहमान फारूकी, हिंदी जाति और उर्दू जाति) ‘जाति की अवधारणा’ को साम्राज्यवादी, इतिहास विरुद्ध और राजनीतिक कहना रामविलास शर्मा का सतही मूल्यांकन है। वास्तव में रामविलास शर्मा की यह अवधारणा उनके साम्राज्यवाद विरोध का ही अंग है। फारूकी जैसे लोगों के अंदर यह भ्रम ‘हिंदी प्रदेश’ में उर्दू तथा विभिन्न बोलियों को हिंदी से अलग मानने के कारण है, जिसका बीज 1857 के स्वाधीनता संग्राम के बाद साम्राज्यवादियों ने बोया था। डॉ. रामविलास शर्मा ने ‘हिंदी जाति का साहित्य’ तथा ‘भाषा और समाज’ जैसी पुस्तकों में ‘हिंदी प्रदेश’ में प्रचलित उर्दू तथा विभिन्न बोलियों को लेकर विस्तृत अध्ययन प्रस्तुत किया है, जिससे साफ पता चलता है कि वे उर्दू तथा जनपदीय बोलियों को नकारते नहीं बल्कि उनके साथ हिंदी का सामंजस्य स्थापित कर ‘हिंदी जाति’ और भारतीय राष्ट्रीयता का विकास करना चाहते हैं।
‘हिंदी जाति’ और ‘जातीय चेतना’ के विकास में सबसे अधिक बाधा उर्दू और हिंदी को स्वतन्त्र भाषाएँ मानने वालों ने पैदा की। इस संदर्भ में रामविलास शर्मा कहते हैं- “बहुत से लोग हिंदी जातीयता का विरोध करते हुए कहते हैं कि हिंदी उर्दू बुनियादी तौर पर दो भाषाएँ हैं। हमारे प्रदेश में ये दो भाषाएँ काम में आती हैं, इसलिए ‘हिंदी जाति’ की कल्पना गलत है। यदि इस सिद्धांत को मान लिया जाय तो दो राष्ट्रों का सिद्धांत स्वीकार करना चाहिए। मुहम्मद अली जिन्ना ने मुस्लिम लीग के मंच से दो राष्ट्रों के सिद्धांत की घोषणा की थी। वही आज भी लागू है।... अगर हिंदी उर्दू दो भाषाएँ हैं, तो जहाँ-जहाँ इसके बोलने वाले लोग रहते हैं, मानना चाहिए वहाँ दो राष्ट्र हैं। (इतिहास दर्शन, पृष्ठ 370) नेशन की भारतीय अवधारणा यही कहती है। दरअसल हिंदी को महाजाति के रूप में विकसित करने की अपनी कुछ सीमाएं हैं, जिसकी ओर प्राय: इन विद्वानों का ध्यान नहीं जाता है। इसकी ओर संकेत करते हुए भगवान सिंह लिखते हैं कि- “जहाँ तक उर्दू का प्रश्न है, फर्क वाचिक स्तर पर कम लिपि के स्तर पर अधिक है। अगर हम उर्दू की शब्द संपदा को हिंदी में समाहित कर एक ही लिपि देवनागरी का प्रयोग करें तो ‘हिंदी जाति’ का निर्माण संभव हो सकता है। क्योंकि भाषा के स्तर पर फर्क केवल लिपि का है, जो सिनेमा की भाषा से सिद्ध होता है। एक क्षेत्र में रहने वाले लोग बात करते समय धार्मिक कारणों से दो भाषाओं में बात नहीं करते। कुछ लोग अपनी झक के कारण अपनी भाषा अधिक फारसी-अरबी बोझिल बना सकते हैं या बीच-बीच में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं, पर इससे भाषा अलग नहीं हो जाती। उर्दू को मुसलमानों की और हिंदी को हिंदुओं की भाषा कहना और भी मूर्खतापूर्ण है। परन्तु यह एकता ही हिंदी भाषी क्षेत्र में एक तनाव का कारण भी है। एक बार लोगों ने मुस्लिम पहचान को उर्दू से जोड़ दिया, उसके बाद मुस्लिम सोच का हिस्सा बन हिस्सा बन गया। इसके प्रति तर्क और युक्ति नहीं, आवेग संवेदन के नुक्ते प्रधान हो गए।” (परम्परा बोध और संस्कृति बोध, आलोचना, जुलाई-सितम्बर, 2000) हिंदी और उर्दू को सम्प्रदाय विशेष से जोड़े जाने के संदर्भ में अमरनाथ जी का कथन महत्वपूर्ण है। वे लिखते हैं- “हमारे देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियाँ अघोषित रूप से उर्दू को मुसलमानों की भाषा के रूप में प्रोजेक्ट कर रही हैं, जबकि किसी भाषा का संबंध मजहब से नहीं होता। यदि हिंदी हिंदुओं की भाषा होती तो दक्षिण भारत में तमाम हिंदू हिंदी को संघ की राजभाषा बनाए जाने का विरोध नहीं करते और उर्दू यदि मुसलमानों की भाषा होती तो बंगलादेश के मुसलमान उर्दू को राजभाषा बनाए जाने के विरोध में शानदार कुर्बानियां न देते।” (हिंदी जातीयता और हिंदी जाति का साहित्य, वसुधा-51, जुलाई-सितम्बर, 2001) उर्दू का उद्भव फारसी और हिदी के सम्मिलित प्रयोग से वैसे ही हुआ जैसे आज हिंदी और अंग्रेजी के सम्मिलित प्रयोग से ‘हिग्लिश’ का प्रारंभ हो चुका है। 1857 के पहले हिंदी उर्दू में यह बैर न था। अंग्रेजों द्वार पैदा किये गये इस बैर ने हिंदी साहित्य की समृद्धि और उर्दू रचनाकारों के विस्तार को सीमित किया है। क्या आज का कोई हिंदी/उर्दू रचनाकार गालिब की तरह लोगों के दिलों में अपनी जगह बना पाया है? क्या “हिंदी जाति के साहित्य की कोई अवधारणा मीर, सौदा, गालिब, जौक, जफर, फैज, आतिश और इकबाल को छोड़कर बन सकती है?” (वही) अगर नहीं तो “इस भाषिक चेतना को बल देने के लिए पहली जरूरत है कि जिन्हें हम उर्दू के कवि और लेखक कहते हैं, उन्हें हिंदी पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाया जाए। इस तरह नहीं कि एम.ए. स्तर पर एक पर्चा उर्दू कवियों का होगा। बल्कि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्तम स्तर के उर्दू रचनाकारों को स्थान देते हुए। जातीय चेतना को सुदृढ़ करने में इसके नीचे कोई उपाय कारगर नहीं हो सकता। उल्टे विरक्ति को बढ़ाएगा। बाधक उतनी लिपि नहीं है, जितनी यह चेतना कि वह सांस्कृतिक विरासत हमसे छिन जायेगी।” (भगवान सिंह, परम्परा बोध और संस्कृति बोध) इस बाधा को दूर किये बिना, उर्दू भाषा-भाषी को लिए बिना ‘हिंदी जाति’ की कल्पना बेमानी है।
हिंदी की जातीय चेतना के विकास में जितनी बाधा उर्दूपरस्त लोगों नें पैदा की उससे कम हिंदी की क्षेत्रीय बोलियों को स्वतन्त्र भाषा मानने वालों ने नहीं की। इसकी बोलियों को स्वतन्त्र भाषा देने के लिए आये दिन माँग होती रहती है। इसके लिए इनमें एकता के सूत्र खोजने के बजाय इनके अंतरों को अधिक दर्शाया जाता है। यह किसी एक बोली को लेकर नहीं है, अनेक बोलियों के साथ ऐसा है। इससे हिंदी की जातीय चेतना के विकास में बाधा पहुँची है। हिंदी भाषा के अंतर्गत बोलियों को समझने के लिए रामविलास शर्मा, मार्क्स-एंगेल्स के जातीय निर्माण की प्रकिया के सूत्र वाद-विवाद-संवाद का सहारा लेते हैं, जिसमें खड़ी बोली हिंदी (वाद) क्षेत्रीय बोलियाँ (विवाद) से संघर्ष करती हुई जातीय हिंदी (संवाद) के रूप में सामने आती है। यह प्रकिया कैसे घटित होती है इसको लेकर रामविलास जी केवल फतवाशाही नहीं करते; बल्कि ‘भाषा और समाज’ नामक पुस्तक में अन्य देशों की जातीय भाषा के साथ तुलनात्मक अध्ययन के आधार पर दिखाते है कि ‘जातीय भाषा का गठन और प्रसार’ किस तरह होता है। चीन का उदाहरण देते हुए वे लिखते हैं कि “हिंदी भाषी क्षेत्र में बोलियों की जैसी भिन्नता है, वैसी ही और उससे अधिक भिन्नता चीनी भाषी प्रदेश में है। पेकिंग की बोली के आधार पर हाँ जाति की भाषा का प्रसार अभी भी हो रहा है।” पेकिंग व्यापार का प्रसिद्ध केन्द्र रहा है, साथ ही यह चीन नगर की राजधानी रहा है। दिल्ली भी व्यापारिक और राजनीतिक जीवन का केन्द्र और भारत की राजधानी रही है। इसीलिए दिल्ली/मेरठ की बोली (खड़ी बोली) का प्रसार संभव हो सका।
रामविलास शर्मा ने अपने अध्ययन में यह विस्तारपूर्वक दिखाया है कि जातीय भाषा का प्रसार, जातीय प्रदेश का गठन एक लंबी प्रक्रिया है, जिसकी शुरुआत बहुत पुरानी है। जातीय निर्माण की यह प्रक्रिया हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के आने से बहुत पहले शुरू की जाती है। उनका मत है कि “ईस्वी तेरहवीं सदी में हिंदी जाति का निर्माण आरम्भ हो चुका है। ब्रज और खड़ी बोली के जनपदों में सामान्य आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों का इतना प्रसार हो गया है कि एक जनपद का कवि दूसरे जनपद की भाषा में कविता करता है और उसे दोनों जनपदों के लोग समझ सकते हैं।” (रामविलास शर्मा, हिंदी जाति का साहित्य, पृष्ठ 28) लेकिन इसका स्पष्ट रूप सोलहवीं-सत्तरहवीं सदी में देखने को मिलता है, जब वर्ण-व्यवस्था शिथिल होती है और दिल्ली, आगरा जैसे व्यापारिक केन्द्रों का विस्तार होता है। इस युग में “सामंती व्यवस्था के गर्भ से जैसे-जैसे व्यापार बढ़ता है, विनिमय के नये केन्द्र स्थापित होते हैं, वैसे-वैसे विभिन्न जनपदों में सामान्य जातीय भाषा के व्यवहार के लिए भी जमीन तैयार होती है। पूँजीवाद के नये आर्थिक संबंधों से किसी नई भाषा का जन्म नहीं होता, इन संबंधों से किसी जनपदीय बोली का अन्तर्जनपदीय व्यवहार संभव होता है, हमारे यहाँ यह प्रक्रिया पूरी हुई खड़ी बोली के माध्यम से। विनिमय केन्द्रों में स्वभावत: अनेक जनपदों के लोग एकत्र होते हैं, वे अपने घरों में जनपदीय बोलियों का व्यवहार करते हैं, अन्य जनपदों के लोगों से संपर्क कायम करने के लिए एक सामान्य शिष्ट भाषा का व्यवहार करते हैं।” इस तरह यह शिष्ट भाषा एक महाजाति का निर्माण करती है।
हिंदी जातीयता के विकास को अंग्रेजों ने अपनी भेद-नीति के द्वारा सबसे अधिक बाधित किया। रामविलास शर्मा का मत है कि “भारत में अंग्रेजी राज्य कायम होने से पहले यहां की अनेक भाषाओं और उनके साहित्य के विकास में मुसलमानों ने योग दिया है। उनका यह योग इतना महत्वपूर्ण है कि अनेक मुसलमान सूफी लेखक कुछ भाषाओं के साहित्य के आदि संस्थापक माने जायेंगे। यहाँ पर जिन मुसलमान सामंतों ने धार्मिक उत्पीड़न किया और मूर्तियाँ तोड़ीं, उनसे सूफियों और साहित्यकारों की नीति भिन्न थी। इन्होंने हर प्रदेश की भाषा और संस्कृति को अपनाया और हिंदुओं और मुसलमानों का भेद-भाव बहुत कुछ दूर करके जातीय संस्कृति और राष्ट्रीय भावना का आधार मजबूत किया।” (रामविलास शर्मा, भाषा और समाज, पृष्ठ 311) यद्यपि कुछ कमियाँ थीं - “एक भाषा और लिपि का चलन जातीय विकास के लिए अनिवार्य सामाजिक आवश्यकता है। सामंतवाद के ह्रासकाल में फारसी के राजभाषा रहने और ईरानी संस्कृति के प्रभाव से दरबारों के आस-पास जो काव्य साहित्य रचा गया, वह अलगाव का ऐसा बीहड़ कारण न था कि एक उभरती हुई जाति उसे दूर न कर पाती। अंग्रेज कूटनीतिज्ञों ने यहाँ एकता के तत्त्वों को बराबर दबाने की कोशिश की और अलगाव के तत्त्वों को भरसक बढ़ावा दिया। जिन हिंदुओं और मुसलामानों ने मध्यकालीन धर्म की खाई को पाट लिया था और हर प्रदेश में एक संयुक्त जातीयता का विकास किया था, वे शब्दावली और लिपि के भेद को भी अवश्य दूर कर लेते और एक शक्तिशाली राष्ट्र का निर्माण करते। लेकिन अंग्रेजों ने इन संभावनाओं को खत्म कर दिया। उन्होंने हिंदी-उर्दू की दो शैलियों को दो जातियों की भाषा का रूप दे दिया और भाषा को जातीय उत्पीड़न का साधन बनाया। इसीलिए यह बात बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों की समझ में आती है कि अंग्रेजी राज से पहले ‘हिन्दुस्तान’ के हिन्दू और मुसलमान एक जाति के थे और आज भी एक ही जाति के हैं।” (वही, पृष्ठ 310) इस जातीय शक्ति की एकता का ही परिणाम 1857 का संग्राम था, जहाँ से अंग्रेजों ने इस एकीकृत जाति को विभाजित करने का लगातार प्रयास किया।
रामविलास शर्मा ने ‘हिंदी जाति’ और ‘भारतीय राष्ट्रीयता’ के विकास के लिए जाति की समस्या को महत्वपूर्ण माना। इनके अनुसार ‘जातीय समस्या को गौण समझकर उसे छोड़ देना हानिकर है। यदि जन साधारण का संगठन करने वाले प्रगतिशील विचारक इस समस्या की उपेक्षा करेंगे, तो साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ उसे अपने हित में इस्तेमाल करेंगी और श्रमिक जनता के संगठन और आंदोलन पर ही वार करेंगी। इसीलिए जातीय समस्या और श्रमिक जनों की शोषण मुक्ति-समस्या में कौन गौण है, कौन प्रधान इस बात का ध्यान रखते हुए प्रगतिशील विचारकों को जातीय समस्या के समाधान की ओर बढ़ना चाहिए।’ (वही, पृष्ठ 281) इस ओर बढ़ते हुए रामविलास जी ने स्वयं हिंदी जाति में चेतना जगाने और संगठित करने का प्रयास आजादी के बाद ही प्रारंभ कर दिया था। तब भाषाई आधार पर राज्यों का गठन भी नहीं हुआ था। भाषाई आधार पर राज्यों के गठन के कारण परिस्थितियाँ और अनुकूल हुई हैं। यह सब हिंदी राज्य के गठन में सहायक हो सकता है। अगर यह संभव हो सका तो जातीय और सांप्रदायिक भेद-भाव खत्म करने और साझा संस्कृति के विकास की दिशा में एक बड़ा कार्य होगा, साथ ही राष्ट्रीयता भी मजबूत होगी।