हिंदी दरअसल शर्म की नहीं गर्व की भाषा है / प्रभात रंजन
साक्षात्कार:Isahitya
फिक्शन लेखक, अनुवादक और संपादक प्रभात रंजन (जन्म 1970) एक युवा पीढ़ी के लेखक हैं । ‘जानकीपुल’ (कहानी संग्रह), ‘मार्केस की कहानी’ और ‘बोलेरे क्लास’ के लेखक प्रभात रंजन और जानकीपुल-डॉट-कॉम के संपादक प्रभात रंजन के जरिये हिन्दी के प्रचार प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं । प्रभात रंजन इंडियन एक्सप्रेस समूह के हिंदी दैनिक और जनसत्ता के सहायक के तौर पर काम कर चुके हैं और महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय पत्रिका , वर्धा - पत्रिका बहुवचन के कुछ अंश भी संपादित कर चुके हैं । इनकी जानकी पुल, कहानी, को समय कथा पुरस्कार (2004) प्राप्त हैं । प्रभात जी को 2007 प्रेमचंद सम्मान से सम्मानित किया गया । प्रभात रंजन दिल्ली में रहते हैं और DU के हिन्दी विभाग से जुड़े हुये हैं ।
सबसे पहले हम आपके अब तक के सफर के बारे में जानना चाहेंगे ? आपका हिन्दी साहित्य से जुड़ाव कैसे हुआ? कब से आप लेखन से जुड़े?
प्रभात- हिंदी साहित्य से मेरा जुड़ाव तब हुआ जब मैं अपने कस्बे सीतामढ़ी में स्कूल में पढ़ता था। यह महज संयोग था कि वहां जिन लोगों से भी मैं गहरे जुड़ा वे सब साहित्य से लगाव रखते थे। प्रोफ़ेसर मदन मोहन झा थे, जिनके यहां मुझे ‘सारिका’ के पुराने अंक पढ़ने को मिले, नवगीतकार रामचंद्र चंद्रभूषण थे, जिनके गीत नवगीत दशक-१ समेत नवगीत के सभी प्रमुख संकलनों में शामिल हैं। साहित्य के आरंभिक संस्कार मुझे रामचंद्र चंद्रभूषण से ही मिले और मैं भी उनकी तरह छंदों में लिखने की कोशिश करता था। लेकिन छंद में मेरा हाथ जमा नहीं। सीतामढ़ी में सनातन धर्म पुस्तकालय था, साहित्य के प्रति असली आकर्षण उसी पुस्तकालय ने पैदा किया। वहां प्रेम वाजपेयी से लेकर कमलेश्वर, मोहन राकेश तक की किताबें थीं। एक पाठक के तौर पर साहित्य से तभी जुड़ा। मैं दिल्ली के हिंदू कॉलेज में पढ़ने आया, वहां का पुस्तकालय बहुत समृद्ध था। कृष्णदत्त पालीवाल जैसे अध्यापक थे। लेकिन लिखने के मामले में उदासीन ही बना रहा। मैंने कॉलेज मैगजीन्स के अलावा कहीं कुछ लिखा नहीं।
आप टेलीविज़न से भी जुड़े रहे हैं , क्या मनोहरश्याम जोशी के कारण आप टेलीविज़न से जुड़े ? आप मनोहर श्याम जोशी से बहुत प्रभावित रहे हैं । इसके बारे में कुछ बताइये?
प्रभात- एम ए करने के बाद मैं टेलीविजन लेखन से जुड़ा। तब रोजी-रोटी के अवसर हिंदी वालों के लिए कम ही होते थे। ९० के दशक तक दिल्ली में टीवी के क्षेत्र में खूब काम हो रहा था। मनोहर श्याम जोशी जैसे टेलीविजन धारावाहिकों का सबसे लोकप्रिय लेखक दिल्ली में ही रहते थे। कमलेश्वर जी ने भी दिल्ली में स्थायी रूप से रहना शुरु कर दिया था। मैं मनोहर श्याम जोशी से मिलता था। उन्होंने एक प्रोडक्शन हाउस में काम दिलवा दिया। वहां मैं नियमित रूप से गैर-कथात्मक कार्यक्रम लिखता था। उन दिनों होम टीवी नाम का एक टीवी चैनल हिन्दुस्तान टाइम्स ने लॉन्च किया था। उसके लिए मैंने खूब लिखा।
जहाँ तक मनोहर श्याम जोशी के प्रभाव की बात है तो मैं सच बताऊँ तो मैं अधिक से अधिक उनका नकलची ही बनकर रह गया। वे अनेक विधाओं में बड़ी सहजता से लिख लेते थे। साहित्य का मैंने उतना बड़ा जानकार नहीं देखा। जावेद अख्तर उनको ‘वोलकैनो ऑफ राइटिंग’ कहते थे। यह ज़रूर है कि उनके साथ मैं करीब १० साल तक जुड़ा रहा और यह उनका ही प्रभाव है कि मैं नियमित रूप से लेखन करने लगा। उनके जीते-जी मैंने जो भी लिखा उनको दिखाया। वे बड़े सख्त संपादक थे। अक्सर मेरे लिखे को फाडकर फेंक देते थे। उनसे मैंने किस्से गढना सीखा, भाषा का विधिवत संस्कार भी उनसे ही मिला- किस तरह के लेखन में किस तरह की भाषा होनी चाहिए।
आपने कई बड़े हस्तियों के साथ युवा उम्र में काम किया हैं ,कैसा रहा अनुभव ?
प्रभात- मैंने सबसे पहले उदयप्रकाश से जुड़ा। उन दिनों वे ‘कृषि कथा’ नामक एक धारावाहिक का लेखन-निर्देशन कर रहे थे। फिर मनोहर श्याम जोशी के साथ काम करता रहा। उन दिनों वे ‘गाथा’ नामक धारावाहिक लिख रहे थे। जिसका निर्देशन रमेश सिप्पी ने किया था और जिसका प्रसारण स्टार प्लस पर हुआ था। मैं उनके लिए मूलतः शोध का काम करता था। बहुत सारी अन्य महत्वाकांक्षी योजनाओं पर उनके साथ काम किया लेकिन वे धारावाहिक बन नहीं पाए।
बाद में अशोक वाजपेयी के साथ काम करने का मौका मिला। वे महात्मा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति बने थे। वहां से निकलनेवाली पत्रिकाओं से जुड़ा। पहले अंग्रेजी में निकलनेवाली पत्रिका ‘हिंदी’ में सहायक संपादक रहा। बाद में मैंने ‘बहुवचन’ का संपादन भी किया। लेखन-संपादन के गुर मैंने इन दो मूर्धन्यों के साथ सीखा। सबसे बढ़कर इनके साथ जुड़कर आत्मविश्वास पैदा हुआ। जिसके कारण मैं लेखन कर सका। मैंने लेखन बहुत देर से शुरु किया।
जानकीपुल , आपकी रचना , आपकी एक बड़ी उपलब्धि रही । इस रचना के बारे में कुछ बताइये ?
प्रभात- मैं कम उम्र में ही संपादन से जुड़ गया इसलिए मेरा लेखन पीछे छूट गया। जानकी पुल मेरी पहली कहानी नहीं है लेकिन एक तरह से इसी कहानी ने मेरी पहचान लेखक के तौर पर स्थापित की। बड़ी उपलब्धि इसलिए लगती है क्योंकि ‘सहारा समय’ नामक एक प्रसिद्ध साप्ताहिक ने एक कहानी प्रतियोगिता का आयोजन किया था। जिसमें १५०० से अधिक कहानियों में इसे प्रथम पुरस्कार मिला था। उसके निर्णायक मंडल में काशीनाथ सिंह, नामवर सिंह, मनोहर श्याम जोशी, सुधीश पचौरी जैसे विद्वान थे। मैंने अपने गाँव के एक पुल की कहानी लिखी थी, जो शिलान्यास के २० साल बाद भी नहीं बन पाया था। मैंने लिखने के बाद वह कहानी अखिलेश को दी थी ‘तद्भव’ के लिए, लेकिन उन्होंने उसमें कुछ सुधार सुझाये जो मुझे जंचे नहीं। मुझे लगा कि यह कहानी अपने आप में पूर्ण है। तब मैंने उसे ‘सहारा समय कथा प्रतियोगिता’ के लिए भेज दिया। अच्छी पुरस्कार राशि थी। मैं उन दिनों बेरोजगार भी था।
अपने कविताओ पर भी काम किया , जिसमे आपकी सुमित्रानन्दन पंत जी की आपका प्रकाशन प्रमुख हैं। कविता लेखन से आप कैसे जुड़े ?
प्रभात- सुमित्रानंदन की जनशताब्दी के साल उनकी कविताओं का एक संचयन मैंने अशोक वाजपेयी, अपूर्वानंद जी के साथ मिलकर तैयार किया था, जिसे बाद में राजकमल प्रकाशन ने छापा। मैं पहले कविताएँ लिखता था। सीतामढ़ी में रामचंद्र चंद्रभूषण के प्रभाव में मैंने ग़ज़लें लिखी थीं। लेकिन संयोग से उनमें से ज़्यादातर पत्रिकाओं से सखेद लौट आईं। अब तो मेरे पास कुछ है भी नहीं उन दिनों का लिखा। बाद में दिल्ली में आने पर कॉलेज के दिनों में कविताएँ लिखता था। मैं और मेरा मित्र तुषार धवल उन दिनों कविताएँ लिखते थे। तुषार तब भी अच्छी कविताएँ लिखते थे, अब तो उनको प्रमुख युवा कवि के रूप में जाना-माना जाता है। लेकिन मैं मूलतः ग़ज़लें लिखना चाहता था। छंदमुक्त कविताएँ लिखना मुझे सहज नहीं लगता था। इसलिए कविता लिखने से मैं दूर होता गया। ग़ज़लें आज भी लिखता हूँ लेकिन उनको छपवाने लायक क्या मैं किसी को सुनाने लायक भी नहीं समझता।
आपके अनुवाद से जुडने का क्या कारण था ? आपने बहुत से अनुवाद में अपना कार्य किया हैं । कैसा रहा अनुभव ? ‘मार्केस की कहानी’ आपकी प्रमुख प्रकाशित पुस्तक हैं । मार्केस को अपने लेखन में शामिल करने की क्या मुख्य वजह रही ?
प्रभात- ईमानदारी से बताऊँ तो शुरु-शुरु में अनुवाद की तरफ आजीविका के कारण जुड़ा। यह एक कड़वी सच्चाई है हिंदी के लेखक के लिए कि उसे हिंदी में मौलिक पुस्तक लिखने के लिए कुछ भी धन नहीं मिलता। लेकिन अनुवाद के अच्छे पैसे मिल जाते हैं। एक कारण तो यह रहा है। दूसरे, लेखक होने के कारण एक उपन्यास या कहानी का अनुवाद करके वैसा ही सुकुन मिलता है जैसे मौलिक लेखन से। यह सच्चाई है कि हिंदी का पाठक अपनी भाषा के लेखकों को पढ़ने में भले कम रूचि दिखाता हो लेकिन दुनिया के बड़े-बड़े लेखकों की कृतियाँ पढ़ने के लिए वह लालायित रहता है। लेकिन हिंदी का बहुत बड़ा पाठक-वर्ग आज भी अंग्रेजी उतनी सहजता से नहीं पढ़ पाता। अनुवाद के माध्यम से मैं वैसे पाठक वर्ग तक पहुँच पाता हूँ। जो लोग मुझे कथाकार के रूप में नहीं जानते या कमतर मानते हैं उनको मैं ‘एन फ्रैंक की डायरी’ के अनुवादक के रूप में, ‘नीम का पेड़’ के रूपान्तरकार के रूप में शायद पसंद आता हूँ।
‘मार्केस की कहानी’ पुस्तक का नाम है। लेकिन यह अनुवाद की नहीं उनके जीवन और लेखन पर एकाग्र पुस्तक है। जिसे मैंने उन्हीं की तरह रोचक शैली में लिखने की कोशिश की है। मार्केस से तो पूरा संसार प्रभावित रहा है। हर भाषा में उनके प्रभाव दिख जाते हैं। उनकी किस्से-कहानियों वाली शैली मुझे अपने गाँव की कहानियों की तरह लगते हैं। अच्छा लगा उनके ऊपर पुस्तक लिखकर। मुझे संतोष है कि लोगों ने उस पुस्तक को पसंद भी किया।
आप अनुवाद से जुड़े हैं , आप हिन्दी साहित्य और बाकी भाषाओ में कार्यो को कैसे देखते हैं ? तुलना तो नहीं लेकिन फिर भी अगर साथ में देखे तो , क्या कहेंगे?
प्रभात- अच्छा सवाल है। मेरा जाती तौर पर यह मानना है कि हिंदी अकेली भारतीय भाषा है जो हर भाषा को सम्मान देती है, उसके साहित्य को अपनी भाषा में उपलब्ध करवाती है। आज उर्दू भाषा का साहित्य उर्दू से अधिक हिंदी में उपलब्ध है, छप रहा है। मैंने मलयालम, बांग्ला, कन्नड़ आदि भाषाओं के साहित्य अनुवाद में पढ़े हैं। मुझे लगता है कि अधिकतर भारतीय भाषाओं का साहित्य अपने समाज में ‘रुटेड’ है, लेकिन हिंदी भाषा का साहित्य अंग्रेजी से अधिक प्रभावित है। रेणु जैसे जिन लेखकों ने अपने समाज में धंसकर जो साहित्य लिखा उसे ‘आंचलिक’ ठहरा दिया गया। हिंदी को इससे मुक्त होना होगा, तभी उसका अपना साहित्य प्रमुखता से उभर पायेगा।
आपकी बुक बोलेरे क्लास के बारे में कुछ बताइये । हम इसके शीर्षक और इसकी प्रष्ठभूमि के पीछे आपके विचार जानना चाहेंगे।
प्रभात- देखिये, मेरी अधिकतर कहानियों का परिवेश बिहार के परिवेश को लेकर है। वहां के युवाओं के लिए राजनीति का आकर्षण आज भी सबसे अधिक होता है- बोलेरो गाड़ी में चढ़ना। बोलेरो क्लास उसी राजनीतिक वर्ग का प्रतीक है। युवाओं के इस चमकते भारत के पीछे बड़ी संख्या उन युवाओं की है जो इस चमकते भारत का हिस्सा नहीं बन पाए, उनके सपनों ने उनके साथ छल किया। मेरी कहानियों में अक्सर ऐसे टूटे हुए लोग आते हैं, जिनको इस चमकते भारत के हो-हल्ले में भुला दिया गया।
जानकीपुल ब्लॉग कैसे शुरू हुआ और कैसा रहा अब तक का सफर ? आपके मुताबिक वेब के आने से हिन्दी के विकास में प्रगति हुयी हैं या हिन्दी लेखन सीमित हो गया , कहने का मतलब की कहीं ब्लॉग प्रकाशन की जगह तो नहीं लेने लगे , भले ही ब्लॉग आसानी से पढे जा सकते हैं लेकिन ये बहुत कम लोगो तक ही जा पाते हैं , ब्लॉग से हिन्दी में आकर्षण भले ही बढ़े लेकिन पुस्तके बूक स्टोर तक न जाए तो हिन्दी का विकास कठिन दिखता हैं । आपकी राय ?
प्रभात- जानकी पुल ब्लॉग की शुरुआत मैंने पिछले साल ही की। कोशिश थी कि मैं जो पढ़ता हूँ, जो लिखता हूँ उसको अपने मित्रों से साझा किया जाए। ब्लॉग मुझे सहज तरीका लगा। लेकिन इससे जुड़कर मैंने पाया कि यह बहुत बड़ा संसार है। यहां सचमुच में पाठक हैं। उससे पहले लेखक के रूप में अनुभव था कि लेखक ही लिखते हैं लेखक समाज ही उसे अच्छा या बुरा कहता है। एक तरह का सामंती परिवेश है हिंदी का- अगर कुछ बड़े लेखक आपको अच्छा कहने लगें तभी आपको स्वीकृति मिलती है। वेब पर पाठक आपको पढते हैं, अच्छा या बुरा कहते हैं, सच बताऊँ लेखक के रूप में अधिक संतोष मिलता है।
देखिये, ब्लॉग्स के कारण पुस्तक प्रकाशन या पत्रिकाओं में कोई कमी नहीं आई है। उनका विस्तार ही हुआ है। हिंदी की सबसे बड़ी समस्या आज यह नहीं है कि इसमें पाठक नहीं हैं, समस्या यह है कि पाठकों तक साहित्य पहुँच नहीं पा रहा है। पाठकों को ही साहित्य ढूँढना पड़ता है, हिंदी का साहित्य उसको अपने आसपास नहीं मिल पाता। ब्लॉग्स या साहित्यिक पोर्टल उस कमी को पूरा कर रहे हैं। अगर ऐसा न होता तो लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाएं आज ऑनलाइन नहीं होती, सारे प्रकाशक अपने वेब साईट नहीं बनाते। फेसबुक के माध्यम से फ्रेंड्स नहीं बनाते। भविष्य में हिंदी किताबों की बिक्री का भी वेब एक बड़ा माध्यम बनने वाला है, जैसे आज फ्लिपकार्ट। कॉम है। इससे हिंदी का विस्तार होगा, पुस्तक व्यवसाय में अधिक पारदर्शिता आएगी।
जानकीपुल लगातार प्रमुख कार्य कर रहा हैं और कई युवा लेखक को हिन्दी लेखन के प्रति उत्साहित कर रहा हैं । जानकीपुल हिन्दी ब्लॉग में एक अग्रणी नाम हैं । आने वाले समय में जानकीपुल के कोई विशेष योजना ?
प्रभात- जानकी पुल को सक्रिय हुए एक साल ही हुआ है। इस दौरान एक लाख से अधिक पाठक इससे जुड़े। अनेक युवा लेखकों को इसने पहली बार स्थान दिया। अग्रणी ब्लॉग तो मैं इसे नहीं मानता, लेकिन गंभीर साहित्य का एक लोकप्रिय मंच यह जरूर बन गया है। आने वाले समय में मैं चाहता हूँ कि एक ऐसा वेबसाईट विकसित करूँ जिसके माध्यम से उपन्यास और नाटकों को पाठकों तक पहुँचाया जा सके। हिंदी में पाठक बहुत हैं और संभावनाएं भी अपार हैं। जानकी पुल का अनुभव तो यही कहता है।
ये युवा पीढ़ी के लेखक और पत्रकार की नजर से हिन्दी साहित्य की वर्तमान स्थिति के बारे में आपकी क्या राय हैं ? संतुष्ठ होना तो कठिन हैं लेकिन क्या हिन्दी लेखन में हो रहे हैं कार्य से आप हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा में वापसी की आशा रखते हैं ? आज युवाओ का हिन्दी लेखन में रीडर्स के तौर पर आकर्षण न के बराबर हैं ? अनुवाद के सहारे हिन्दी साहित्य को एक विकल्प दिया जा रहा हैं लेकिन हिन्दी पढ़ने में आई भरी गिरावट भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं देते । हमारे पास हिन्दी का एक पूरा का पूरा इतिहास हैं , जो उच्चकोटी का हैं लेकिन फिर भी हम उसकी महत्ता नहीं समझ पा रहे हैं ।
प्रभात- देखिये, मुझे नहीं लगता कि हिंदी की हालत खराब है। आज तो मीडिया के कारण हिंदी का दबदबा बढ़ा ही है, ग्लैमर भी बढ़ा है। पाठक भी हैं, समस्या है कि प्रकाशक उन तक पहुंचना नहीं चाहता, उसे अधिक सुविधाजनक लगता है घूस देकर लाइब्रेरी में पुस्तकें बेच देना। हिंदी साहित्य एक ऐसा व्यवसाय है जिसका लाभ केवल प्रकाशकों को मिलता है। हिंदी के प्रकाशक अपने लेखकों को ‘ब्रांड’ के तौर पर इसलिए प्रचारित नहीं करना चाहते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इससे लेखकों को व्यवसाय में हिस्सा देना पड़ेगा। मुझे लगता है देर-सबेर यह बात प्रकाशकों को समझ में आएगी।
एसा तो नहीं की आज के लेखक , एक दबाव महसूस कर रहे हैं ? यानि कई बार अगर कोई लेखक प्रकाशन की तरफ जाता हैं तो उसकी तुलना पुराने हिन्दी लेखन शेलियों से होती हैं , अच्छा लिखने के बाद भी उसे वो प्रशंसा नहीं मिल पाती जो उसे मिलना चाहिए । आज रीडर्स बहुत कम दिखते हैं ,और उनके बीच अपने श्रेष्ठ कार्य को देना आज एक चुनौती सी लगती हैं ? क्या आप इससे सहमत हैं ?
प्रभात- मैं आपकी इस बात से सहमत नहीं हूँ कि हिंदी में पाठक कम हैं। हाँ, एक बात मुझे दिखाई देती है वह यह है कि हिंदी में विविध प्रकार के लेखन के लिए स्पेस नहीं है। जबकि भाषा के विस्तार के लिए यह आवश्यक होता है। मुख्यधारा के बड़े प्रकाशक अगर खास तरह के ‘साहित्य’ को ही प्रकाशन योग्य समझते हैं तो इसका कारण मुझे यह लगता है कि पुस्तकालयों की खरीद में ऐसी किताबों को ही खपाए जाने की सम्भावना अधिक होती है। इसके कारण ‘बड़े’ प्रकाशक पाठक को ध्यान में नहीं रखते। उनका ध्यान आज भी ‘गंभीरता’ पर अधिक होता है, जबकि सब तरह के साहित्य के लिए ‘स्पेस’ होना चाहिए।
आपकी राय में अब से हिन्दी साहित्य को (वेब और मीडिया के जमाने) में किस तरह आगे बढना चाहिए ? इसमे वेब , मीडिया और प्रकाशक का आपके नजरिए से इसमे रोल ?
प्रभात- वेब और मीडिया में हिंदी के ‘साहित्य’ को लेकर भले आलोचनात्मक रुख लगता हो लेकिन सच्चाई यही है इनमें सका स्पेस बड रहा है। आज अदम गोंडवी जैसे शायर का निधन होता है तो उसकी खबर भी सबसे पहले टीवी समाचार के माध्यम से लोगों तक पहुंची। हिंदी में प्रकाशन तो खूब बढ़ा है, लेकिन प्रकाशकों को पुस्तकालय खरीद से आगे बढ़कर सोचना होगा। इसमें मीडिया के माध्यमों का सार्थक उपयोग किया जा सकता है। लेखकों को भी सोचना होगा कि कैसे पाठकों के लिए साहित्य लिखा जाए। आज अधिकतर साहित्य हिंदी में विद्वानों का ध्यान आकर्षित करने के लिए लिखा जा रहा है। लेखकों को भी यह समझना होगा कि अगर पाठकों तक पहुंचना है तो उनकी रुचियों को समझना होगा।
प्रतिलिपी बुक प्रकाशन से आपके जुड़ाव की बारे में भी कुछ बताइये ?
प्रभात- मुझे लगता है कि मेरी भाषा का हर लेखक यह चाहता होगा कि उसे छापने वाला प्रकाशक भी उसके लेखन को सही सन्दर्भ में समझे और खुद पढकर समझे। प्रतिलिपि बुक्स के निदेशक गिरिराज किराडू स्वयं विद्वान लेखक-संपादक हैं। ‘मार्केस की कहानी’ जैसी पुस्तक हिंदी के अधिकतर प्रकाशक शायद समझ ही नहीं पाते कि क्या है। एक लेखक के रूप में प्रतिलिपि बुक्स से जुड़ना उत्साहवर्धक रहा और मुझे लगता है कि इस तरह के पढ़े-लिखे लोग जब हिंदी प्रकाशन में अपने हितों से ऊपर उठकर काम करेंगे तो हिंदी प्रकाशन का परिदृश्य बदलेगा, जो अंततः हिंदी-लेखकों के लिए हितकारी होगा।
आपका रीडर्स को कोई मैसेज , खासकर उस युवा वर्ग को जिनहोने केवल साहित्यकारो को अपने स्कूल में हिन्दी की किताबो तक ही सुना पढ़ा हैं । और साथ साथ हिन्दी लेखको को कोई सलाह, जो कम रीडर्स और प्रकाशन न मिलने के भय के कारण आगे नहीं आ पा रहे हैं
प्रभात- मुझे यही कहना है कि हिंदीभाषी समाज के युवाओं को हिंदी को शर्म की भाषा नहीं समझना चाहिए, जब वे उसके साहित्य से जुडेंगे तो उनको यह महसूस होगा कि हिंदी दरअसल शर्म की नहीं गर्व की भाषा है। हिंदी लेखकों से मैं विनम्रता से यही कहना चाहता हूँ कि उनको पाठकों को ध्यान में रखना चाहिए। कभी-कभी मनोरंजन के रूप में साहित्य लिखने से परहेज़ नहीं करना चाहिए। साहित्य केवल संघर्ष का ही नहीं होना चाहिए, नहीं हो सकता।