हिंदी नवजागरण की समस्याएँ / नामवर सिंह

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भारतेंदु हरिश्‍चंद्र के उदय के साथ हिंदी में एक नए युग का आरंभ हुआ, यह मान्‍यता तो बहुत पहले से प्रचलित रही है; किंतु इस नए युग को 'नवजागरण' नाम देने का श्रेय हिंदी में डॉ. रामविलास शर्मा को है। 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिंदी नवजागरण' (1977) नामक पुस्‍तक के द्वारा उन्‍होंने 'नवजागरण' की नहीं बल्कि 'हिंदी नवजागरण' की संकल्‍पना प्रस्‍तुत की। इससे पहले भारत में नवजागरण की चर्चा प्राय: 'बंगाल नवजागरण' के रूप में ही होती रही है। शब्‍द के प्रयोग पर प्रकाश डालते हुए डॉ. शर्मा ने कुछ वर्ष बाद 'भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिंदी नवजागरण की समस्‍याएँ, (1984) नामक एक अन्‍य पुस्‍तक के तीसरे संस्‍करण की भूमिका में लिखा है कि 'नवजागरण' यह शब्‍दबंध नया था, धारणा पुरानी थी। पुरानी धारणा से तात्पर्य संभवत: 'रिनेसांस' से है।

हिंदी साहित्‍य के पुराने इतिहास ग्रंथों को देखने से पता चलता है कि पादरी एफ.ई. के ने 1920 ई. में ही इस 'रिनेसांस' की चर्चा की थी। अपनी छोटी-सी पुस्‍तक 'ए हिस्‍ट्री ऑफ हिंदी लिट्रेचर' के पहले अध्‍याय में ही के ने लिखा है : 'उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के आरंभ में यूरोप की संस्कृति के संपर्क के द्वारा हिंदी साहित्‍य में एक नया प्रभाव आया।... इसी समय के आसपास भारत में एक सशक्‍त साहित्यिक नवजागरण शुरू हुआ जो अब तक प्रगतिपर है।'

कहते हैं कि उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरणके अग्रदूत राजा राममोहन राय स्‍वयं भी उस समय की नई सांस्‍कृतिक चेतना को एक 'रिनेसांस' समझते थे। पादरी अलेक्‍जेंडर डफ से एक बार उन्‍होंने कहा था : 'मुझे ऐसा लगने लगा कि यहाँ भारत में यूरोपीय रिनेसांस से मिलता-जुलता कुछ घटित हो रहा है।'

लेकिन उसी नवजागरण की एक अन्‍य महान विभूति बंकिमचंद्रचट्​टोपाध्‍याय की दृष्टि में 'रिनेसांस' पंद्रहवीं शताब्‍दी के भारत का सांस्कृतिक जागरण था। अपने निबंध 'बाड्लार इतिहास संबंधे कयेकटि कथन' (1980) में उन्‍होंने लिखा है : 'यूरोप कितना पहले सभ्‍य हुआ? सिर्फ चार सौ साल पहले पंद्रहवीं सदी तक यूरोप हमसे अधिक असभ्‍य था। सभ्‍यता यूरोप में एक घटना से आई। अकस्‍मात् यूरोप ने चिर-विस्‍मृत ग्रीक संस्‍कृति का पुनराविष्‍कार किया।... पेट्रार्क, लूथर, गैलिलियो, बेकन; अकस्‍मात् यूरोप का भाग्‍योदय हो गया। हमारे यहाँ भी एक बार वही दिन आया था। अकस्‍मात् नवद्वीप में चैतन्‍य चंद्रोदय, उसके बाद रूप सनातन प्रभूति असंख्‍य कवि धर्मतत्त्वविद् पंडित। दर्शन में रघुनाथ शिरोमणि, गदाधर, जगदीश: स्‍मृति में रघुनंदन एवं उनके अनुयायी। फिर बंगला काव्‍य का जलोच्‍छ्​वास। विद्यापति, चंडीदास, चैतन्‍य के पूर्वगामी। किंतु उसके बाद जो चैतन्‍य परवर्तिनी बंगला कृष्‍णविषयक कविता लिखी गई वह अपरिमेय तेजस्विनी और जगत में अतुलनीय है। यह सब कहाँ से आया? हमारा यह 'रिनेसांस' कैसे घटित हुआ? सहसा जाति की यह मानसिक उद्​दीप्ति कहाँ से हुई?'

प्रसंग बंगाल के इतिहास का था, इसलिए बंकिम के सारे उदाहरण भी स्‍वभावत: बंगाल तक ही सीमित हैं। फिर भी इस कथन का विस्‍तार पूरे भारत के व्‍यापक संदर्भ में किया जा सकता है, जिससे स्‍पष्‍ट निष्‍कर्ष निकलता है कि यूरोप के 'रिनेसांस' के समान भारत में भी पंद्रहवीं शताब्‍दी में नवजागरण की लहर उठी थी। सामान्‍यत: इसे अपने यहाँ भक्ति आंदोलन कहा जाता है। सवाल यह है कि 'रिनेसांस' किसे कहा जाए-पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन को या उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक नवजागरण को?

यदि केवल शब्‍द के स्‍तर पर ही देखें तो स्‍वयं यूरोप में भी समस्‍या इतनी स्‍पष्‍ट न थी। 'प्रकृति का द्वंद्ववाद' नामक पुस्‍तक में 'महान रिनेसांस' का वर्णन करते हुए एंगेल्‍स ने लिखा है : 'प्रकृति की आधुनिक खोज... हाल के समूचे इतिहास की भाँति उस महान युग से आरंभ होती है, जिसे हम जर्मन अपने ऊपर आई राष्‍ट्रीय विपदा के नाम पर 'रिफार्मेशन' का काल कहते हैं और फ्रांसीसी लोग 'रिनेसांस' कहते हैं तथा इतावली लोग 'चिंक्‍वेचेंती' कहते हैं, य‍द्यपि इनमें से कोई भी नाम उसके सार को पूर्णत: अभिव्‍यक्‍त नहीं करता। यह वह युग था जिसका उदय पंद्रहवीं शताब्‍दी के उत्तरार्ध में हुआ था।

कहने की आवश्‍यकता नहीं कि भारतीय भाषाओं में भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण के लिए पुनरुत्‍थान, नवजागरण, प्रबोधन, समाज सुधार आदि अनेक शब्‍द प्रचलित हैं। निस्संदेह इनमें से प्रत्‍येक शब्‍द के साथ एक निश्चित अर्थ, एक निश्चित प्रत्‍यय जुड़ा है। किंतु मुख्‍य प्रश्‍न तो यह है कि यदि भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण 'रिनेसांस' था तो पंद्रहवीं शताब्‍दी का सांस्‍कृतिक नवजागरण क्‍या था?

उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण को 'रिनेसांस' कहने में एक कठिनाई तो यही है कि इस युग के भारतीय विचारकों और साहित्‍यकारों के प्रेरणा-स्‍त्रोत यूरोप के पंद्रहवीं शताब्‍दी के चिंतक और साहित्‍यकार न थे। बल्कि इसके विपरीत प्रेरणा-स्‍त्रोत के रूप में अधिकांश विचारक उस काल के थे जिसे यूरोप में 'एनलाइटेनमेंट' का काल तथा उसके बाद का काल कहा जाता है। स्‍वयं बंकिम की सहानुभूति रूसो और प्रूधों के साथ थी और वे कोन्‍त, जान स्‍टुअर्ट मिल तथा हर्बर्ट स्‍पेंसर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। कमोबेश यही ‍स्थिति बंगाल में राममोहन राय, ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, देरोजियो आदि की दिखती है और हिंदी में महावीरप्रसाद द्विवेदी तथा रामचंद्र शुक्‍ल की भी। उल्‍लेखनीय है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी की 'सरस्‍वती' ज्ञान की पत्रिका कही गई है और उनका गद्य हिंदी साहित्‍य का ज्ञानकांड। इस प्रकार भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' की चेतना के अधिक निकट प्रतीत होता है और पंद्रहवीं शताब्‍दी का नवजागरण 'रिनेसांस' के तुल्‍य। अब यदि यह अंतर प्रत्‍यय के स्‍तर पर स्‍पष्‍ट हो तो दोनों के लिए अलग-अलग नाम निश्चित करने में विशेष कठिनाई नहीं रहती। संभवत: इस अंतर को ध्‍यान में रखकर ही डॉ.रामविलास शर्मा ने पंद्रहवीं शताब्‍दी के भक्ति आंदोलन के लिए 'लोकजागरण' और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के सांस्‍कृतिक जागरण के लिए 'नवजागरण' शब्‍द का प्रयोग किया है। इन शब्‍दों के बदले और नए शब्‍द गढ़ने की अपेक्षा इन्‍हीं शब्‍दों को प्रचलित करना बेहतर है और सुविधाजनक भी। 'लोक जागरण' और 'नवजागरण' से पंद्रहवीं शताब्‍दी और उन्‍नीसवीं शताब्‍दी की सांस्‍कृतिक प्रतिक्रियाओं के बीच परंपरा का संबंध भी बना रहता है और अंतर भी स्‍पष्‍ट हो जाता है। इसके अतिरिक्‍त यूरोपीय इतिहास के अनावश्‍यक अनुषंग से मुक्ति भी मिल जाती है। क्‍या अपने इतिहास की व्‍याख्‍या के लिए हम हमेशा अंग्रेजी प्रत्‍ययों का अनुवाद ही करते रहेंगे?

उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण पर ठीक से विचार करने के लिए पंद्रहवीं शताब्‍दी के लोकजागरण के बारे में भी स्‍पष्‍टता आवश्‍यक है। नवजागरण, लोकजागरण का पुनरुत्‍थान मात्र नहीं है, किंतु एक में दूसरे की चेतना अंशत: विद्यमान है। बंकिमचंद्र ने ब्राह्मों विचारकों को वेदों और उपनिषदों तक दौड़ लगाते देखकर साफ शब्‍दों में कहा था कि 'समतावादी और आधुनिक मूल्‍यों के लिए वेदों और उपनिषदों की दूरी तक दौड़ लगाना क्‍यों जरूरी है जबकि बंगाल ने चैतन्य जैसे समाज-सुधारक को जन्‍म दिया जिन्‍होंने अभी सोलहवीं शताब्‍दी में ही जातिगत असमानता और धार्मिक असहिष्‍णुता की भर्त्‍सना की है।' हिंदी से उदाहरण लें तो भारतेंदु की वैष्‍णव-निष्‍ठा सर्वविदित ही है। सन् 1884 ई. में जीवन के अंतिम दिनों में उन्‍होंने 'वैष्‍णवता और भारतवर्ष' शीर्षक एक लंबा लेख लिखकर सप्रमाण सिद्ध करने का प्रयत्‍न किया था कि ' वैष्‍णव मत ही भारतवर्ष का मत है और वह भारतवर्ष की हड्​डी, लहू में मिल गया है।' ऐसे उदाहरण उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अन्‍य भाषाओं के साहित्‍यकारों में भी मिल जाएँगे।

उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्‍न इस बात में है कि यह उपनिवेशवादी दौर की उपज है, इसलिए इसकी ऐतिहासिक अंतर्वस्‍तु भी भिन्‍न है। यह उस लोकजागरण से इसलिए भी भिन्‍न है कि इसके पुरस्‍कर्ता और विचारक नए शिक्षित मध्‍यवर्ग के हैं, जिन्‍हें बंगाल में 'भद्रलोक' की संज्ञा दी गई है। यह नया भद्रलोक भक्‍त कवियों की तरह न तो सामान्‍यलोक के बीच से आया था और न लोकजीवन के साथ घुल-मिल पाने में ही सफल हो सका। इनमें से कुछ विचारों में लोकोन्‍मुख अवश्‍य थे, लेकिन आचार में लोक के साथ तादात्‍म्‍य स्‍थापित न कर पाए। इसलिए भक्तिकालीन लोकजागरण की तुलना में इस नवजागरण का प्रसार भी सीमित था। इसका प्रभाव बहुत कुछ नए नगरों तक ही सीमित था।

उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण की चर्चा के क्रम में यूरोपीय 'रिनेसांस' का जिक्र इतना आया है कि उसे एकदम स्‍मृति-पटल से मिटा देना मुश्किल है, और उसे शाश्‍वत-सार्वभौम मान लेने का एक प्रलोभन भी है किंतु हमारे नवजागरण की एक देन वह 'आलोचनात्‍मक' दृष्टि भी है जो यूरोप के 'प्राच्‍यविद्यावाद' (ओरिएंटलिज्‍म) के इस उपनिवेशवादी मायापाश को छिन्‍न करने की चेतावनी देती है।

भारतीय नवजागरण की मूल समस्‍या है भारतेंदु के शब्‍दों में 'स्‍वत्‍व निज भारत गहै।' यह 'स्‍वत्‍व' वही है जिसे आजकल 'अस्मिता' कहते हैं। राजनीतिक स्वाधीनता इस 'स्‍वत्व' की पहली शर्त है। नवजागरण के उन्‍नायक इस आवश्‍यकता का अनुभव करते रहे होंगे, यह सोचना कठिन है, फिर भी तथ्‍य यही है कि नवजागरणकालीन प्रकाशित साहित्‍य में राज‍नीतिक स्‍वाधीनता का स्‍पष्‍ट स्‍वर कम ही सुनाई पड़ता है। पहले ईस्‍ट इंडिया कंपनी और फिर महारानी विक्‍टोरिया के शासन-काल में राज के विरुद्ध निश्‍चय ही किसानों के छिटपुट विद्रोह बराबर होते रहे, जिनमें सबसे संगठित और सशक्‍त सन् सत्तावन की राजक्रांति है, फिर भी समकालीन शिष्‍ट साहित्‍य में उसकी गूँज सुनाई नहीं पड़ती-लोक साहित्‍य भले ही प्रचुर मात्रा में मौखिक रूप में रचा गया हो। यह स्थिति सन् सत्तावन के पहले तो थी ही, उसके बाद भी कम-से-कम तीन दशकों तक बनी रही। आर्थिक शोषण के खिलाफ जरूर लिखा गया, पुलिस तथा अन्‍य अफसरों के अत्‍याचार और अन्‍याय की भी शिकायत की गई, पर राजसत्ता पलटने के विचार को जैसे अंतर्गुहावास दे दिया गया। निश्‍चय ही इसका एक कारण-और बहुत बड़ा कारण था राजा का दमन से पैदा होनेवाला आतंक। भारतेंदु के शब्‍दों में 'जेहि भय भय सिर न हिलाय सकत कहुँ भारतवासी।' फिर भी देशभक्ति के साथ राजभक्त्‍िा नवजागरण का अभिन्‍न स्‍वर है - इतना अभिन्‍न कि इससे किसी प्रदेश और किसी भाषा का कोई भी लेखक अछूता नहीं है। यह कटु सत्‍य है और इसके लिए किसी प्रकार की क्षमायाचना आज आवश्‍यक नहीं है और न कोई सफाई ही जरूरी है। सच तो यह है कि अधिकांश लेखक सुरक्षा, सुशासन, शिक्षा, उन्‍नति और शांति के लिए ब्रिटिश राज के प्रति उपकृत अनुभव करते हैं - विशेष रूप से मुगलों के शासन की तुलना में। इस प्रवृत्ति के अवशेष बीसवीं शताब्‍दी के दूसरे दशक तक मैथिलीशरण गुप्‍त की 'भारत भारती' जैसी राष्‍ट्रीय कही जानेवाली काव्‍य-कृति में भी मिलती है। यहाँ तक कि कभी-कभी तो नवजागरण के अनेक उन्‍नायक राजसत्ता के साथ सहयोग करते भी दिखाई पड़ते है। अब इसे कोई चाहे तो नवजागरण के उन्‍नायकों का मध्‍यवर्गीय अथवा भद्रलोक चरित्रकह ले, अथवा किसी संगठित राजनीतिक प्रतिरोध के अभाव के द्वारा इस निरुपायता की व्‍याख्‍या कर ले, किंतु हर हालत में यह तथ्‍य विस्‍मृत न हो कि कु ल मिलाकर था यह मूलत: नवजागरण ही - सांसकृतिक नवजागरण, जिसे राष्‍ट्रीय स्‍वाधीनता संघर्ष का पूर्व रंग भले कह लें किंतु उसका पर्याय न समझें।

जैसा कि सच्चिदानंद वात्‍स्‍यायन ने मैथिलीशरण गुप्‍त के प्रसंग में एक जगह कहा है, 'हम यह तो कह सकते हैं कि अंग्रेजी सरकार का विरोध किए बिना भारतीयता की प्र‍तिष्‍ठा चाहनेवाले हेतु और हेतुमत् का सही रिश्‍ता नहीं पहचान पाए थे। ... पर आर्थिक-राजनीतिक आधार को स्‍वीकार कर लेने पर भी यह बात नहीं कटती कि बिना एक जीवंत और प्रेरणाप्रद आत्‍म-बिंब के वह लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती थी जो लड़ी गई; न वैसे लड़ी जा सकती थी जैसे लड़ी गई।'

यह बात कम मूल्‍यवान नहीं है कि राजनीति‍क मुक्ति का मार्ग अवरुद्ध पाकर नवजागरण के उन्‍नायक हाथ-पर-हाथ धरकर बैठ नहीं गए, बल्कि उन्‍होंने स्‍वत्व-रक्षा के अन्‍य मोर्चों पर संघर्ष जारी रखा। यह संघर्ष था सांस्‍कृतिक मोर्चे का-सांस्‍कृतिक मोर्च पर औपनिवेशक मानसिकता और दिमागी गुलामी के खिलाफ संघर्ष। कहना न होगा कि यह संघर्ष राजनीतिक संघर्ष से कम कठिन न था। उपनिवेशवाद की छाया में भारतीय संस्‍कृति के लोप का खतरा था। इ‍सलिए अपनी संस्‍कृति की रक्षा का प्रश्‍न स्‍वत्व-रक्षा का प्रश्‍न बन गया था। 1840 में अक्षयकुमार दत्त ने एक ब्राह्मों सभा में भाषण देते हुए कहा था : 'हम एक विदेशी शासन के अधीन हैं, एक विदेशी भाषा में शिक्षा प्राप्‍त करते हैं, और विदेशी दमन झेल रहे हैं, जबकि ईसाई धर्म इतना प्रभावशाली हो चला है गोया वह इस देश का राष्‍ट्रीय धर्म हो। …मेरा हृदय यह सोचकर फटने लगता है कि हिंदू शब्‍द भुला दिया जाएगा और हम लोग एक विदेशी नाम से पुकारे जाएँगे।'

इस उद्धरण से स्‍पष्‍ट हो जाता है कि भारतीय नवजागरण धार्मिक रूप लेने के लिए क्‍यों विवश हुआ। नवजागरण काल का शायद ही कोई लेखक या विचारक हो जिसने धार्मिक प्रश्‍नों पर न लिखा हो। जब स्‍वयं उपनिवेशवादी राजसत्ता का दमन ही धार्मिक रूप ले रहा था तो प्रतिरोध का धार्मिक रूप में प्रकट होना अनिवार्य था। माक्‍स म्यूलर ने इस धार्मिक दमन के आँकड़े देकर बताया था कि 1885 तक भारत में 38 ईसाई मिशन-समाज काम कर रहे थे, जिनके विदेशी सदस्‍यों की संख्‍या 887 थी और देशी प्रचारक 751 तथा गैर-ईसाई सहायक 2856 थे। ये ईसाई मिशन अन्‍य साधनों के अतिरिक्‍त स्‍कूलों और अस्‍पतालों के जरिए भी धर्मपरिवर्तन करवा रहे थे। ऐसे वातावरण में स्‍वत्त्व का प्रश्‍न धर्म का प्रश्‍न बन गया था।

भारतीय अस्मिता समाप्‍त करने के लिए अंग्रेजी सरकार की ओर से भारत के इतिहास को भी तोड़-मरोड़कर पेश करने की कोशिश की गई। उपनिवेशवाद ने एक ओर तो भारत के प्राचीन इतिहास की सामग्री को खोज-खोदकर एकत्र किया और दूसरी ओर उसका उपयोग अपनिवेशवादी सत्ता के हक में किया। यह था उपकार के आवरण में अपकार का षड्​यंत्र। भारतीय अस्मिता को एक बड़ा खतरा इस 'प्राच्‍य-विद्या' (ओरिएंटलिज्‍म) से था जिसने पश्चिम से भिन्‍न एक ऐसे 'पूर्व' का मिथक गढ़ा जो अनंत काल तक गुलाम रहने के लिए अभिशप्‍त था। इस 'प्राच्‍य - विद्यावाद' के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए भारतीय नवजागरण ने इतिहास की प्रतिदृष्टि विकसित की। बंकिमचंद्र ने एक जगह लिखा है कि : 'कोई राष्‍ट्र अपने इतिहास में अस्तित्‍व ग्रहण करता है; इसलिए अपने इतिहास का ज्ञान ही किसी जाति का आत्‍मज्ञान है।' आकस्मिक नहीं है कि नवजागरण के अधिकांश लेखक किसी-न-किसी स्‍तर पर इतिहासकार भी थे। नवजागरण की एक बहुत बड़ी देन संभवत: वह इतिहास दृष्टि है जिससे अपने अतीत को शत्रु से मुक्‍त करके उसके विरुद्ध वर्तमान में इस्‍तेमाल करने की कला आती है और भविष्‍य के लिए एक स्‍वप्‍नदृष्टि भी मिलती है।

स्‍वत्व-संघर्ष में उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के नवजागरण का सबसे निर्णायक कदम भाषा के क्षेत्र में उठा।यह आकस्मिक नहीं है कि जिस भारतेंदु ने 'स्‍वत्व निज भारत गहै' की आवाज बुलंद की उन्‍हीं ने 'निज भाषा उन्‍नति अहै सब उन्‍नति कौ मूल' की भी घोषणा की। भारतीय भाषाओं को नवजागरण की सबसे मूल्‍यवान देन गद्य है और निराला के शब्‍दों में 'गद्य जीवन-संग्राम की भाषा है।' विदेशी भाषा के विरुद्ध अपनी भाषा की रक्षा और विकास विदेशी सत्ता के विरुद्ध स्‍वदेशी का जातीय अस्‍त्र है। वस्‍तुत: भाषा-विकास का स्‍तर वह कसौटी है जिस पर भारत के किसी प्रदेश के नवजागरण की गहराई और व्‍यापकता जाँची जा सकती है। उदाहरण के लिए, हिंदी की तुलना में बंगला और मराठी गद्य का विकास चार-पाँच दशक पहले हो गया तो इसलिए कि वहाँ नवजागरण भी पहले हुआ। बंगला को उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के मध्‍य में ही ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर मिल गए और उत्तरार्ध में पहले बंकिमचंद्र, फिर रवींद्रनाथ। मराठी एक तो मराठा राज के जमाने से ही राजकाज की भाषा थी, दूसरे 1840 तक मराठी माध्‍यम से शिक्षा देनेवाले सत्तावन स्‍कूल खुल गए थे। इसके अतिरिक्‍त मराठी का मानक रूप स्थिर करने में बंबई सरकार ने महत्‍वपूर्ण भूमिका अदा की। इस प्रक्रिया में कोश-निर्माण का स्‍थान विशेष रूप से महत्त्‍वपूर्ण है। मराठी-मराठी 'पंडित कोश' 1829 में, मोल्‍सवर्थ का मराठी-अंग्रेजी कोश 1831 में सरकारी सहायता से छप चुका था। आगे चलकर मराठी को विष्‍णु शास्‍त्री चिपलूणकर, महात्‍मा ज्‍योतिबा फुले, आगरकर, रानाडे और लोकमान्‍य तिलक - जैसे प्रश्‍स्‍त गद्यकार मिले। यदि बंकिम का गद्य बंगला नवजागरण के वर्चस्‍व का दर्पण है तो चिपलूणकर का गद्य मराठी नवजागरण की प्रखरता का प्रमाण।

यदि हिंदी गद्य बंगला और मराठी का पिछलगुआ रहा तो इसकी जड़ें जितनी प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थिति में है उतनी ही हिंदी प्रदेश के विलंबित नवजागरण में। स्‍वयं भारतेंदु के अनुसार 1873 में हिंदी 'नए चाल में ढली'। एक तो पाँच शताब्दियों तक राजभाषा के रूप में फारसी का दबाव, फिर अंग्रेज सरकार द्वारा उर्दू को बढ़ावा,हिंदी को अस्मिता के लिए सबसे लंबा संघर्ष करना पड़ा। बिहार में हिंदी 1881 ई. में कचहरियों की भाषा स्‍वीकृत हुई और यू.पी. में 1900 ई. में। उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतिम पाँच दशक भाषा तो भाषा, नागरी लिपि के स्‍वत्व की रक्षा के संघर्ष में खप गए। इन बाधाओं के बावजूद उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में जैसा जानदार हिंदी गद्य लिखा गया, वह आज भी स्‍पर्धा का विषय है।

भाषा के क्षेत्र में भारतीय नवजागरण के स्‍वत्व के लिए जो संघर्ष किया उसका सबसे शानदार पहलू है प्रत्‍येक जातीय भाषा के विकास के साथ आपसी आदान-प्रदान के लिए एक अखिल भारतीय भाषा का विकास। बंगला नवजागरण के उन्‍नायकों ने, चाहे वे ब्राह्म हो या गैर-ब्राह्म सनातनी, बंगला के साथ ही हिंदी को भी बढ़ावा दिया; यहाँ तक कि संस्‍कृ‍त के पंडित और गुजराती दयानंद सरस्‍वती को संस्‍कृत छोड़ हिंदी में बोलने और लिखने की नेक सलाह कलकत्ते में केशवचंद्र सेन से ही मिली।

हिंदी प्रदेश के नवजागरण की अपनी विशिष्‍टता का निरूपण नवजागरण के इस अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में ही समीचीन है। यदि हिंदी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु बंगाल नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे तो उसके समर्थ सार्थवाह महावीरप्रसाद द्विवेदी की निष्‍पलक दृष्टि मराठी नवजागरण के अंतर्गत चलनेवाले 'संशोधन' पर थी। प्रसंगवश यह भी उल्‍लेखनीय है कि हिंदी प्रदेश में नवजागरण का कार्य मुख्‍यत: स्‍वयं लेखकों और साहित्‍यकारों को ही संपन्‍न करना पड़ा क्‍योंकि यहाँ बंगाल और महाराष्‍ट्र की तरह प्रखर समाज-सुधारक और विचारक अगुआई करने के लिए नहीं मिले। हिंदी प्रदेश को मिले भी तो दयानंद सरस्‍वती जिनकी भूमिका का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि उन्‍नीसवीं शताब्दी के बड़े हिंदी लेखकों में से एक भी उनसे प्रभावित न हो सका। स्‍वयं भारतेंदु दयानन्‍द की अपेक्षा बंगाल के केशवचंद्र सेन को श्रेयस्‍कर समझते थे। 1885 ई. में लिखित 'स्‍वर्ग में विचार सभा का अधिवेशन' शीर्षक लेख में भारतेंदु दयानंद के बारे में यह निर्णय देते हैं कि उन्‍होंने 'जाल, को छुरी से न काटकर जाल ही से काटना चाहा,' जबकि केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्‍कृत पथ प्रकट किया।' केशवचंद्र सेन के महत्तर होने का कारण यह है कि भारतेंदु के मन के अनुकूल केशव ने 'अपनी भक्ति की उच्‍छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया।'

बंगाल नवजागरण से हिंदी नवजागरण को अलगाते समय यह न भूलना चाहिए कि भारतेंदु का सीधा संपर्क ईश्‍वरचंद्र विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, बंकिमचंद्र, राजेंद्रलाल मित्र और सुरेंद्रनाथ बैनर्जी से था। भारतेंदु ने बँगला नवजागरण की मनपसंद रचनाओं से छाया ग्रहण तो की ही, अपने नाटकों में जहाँ उन्‍हें क्रांतिकारी विचारो को व्‍यक्‍त करना होता था, प्राय: बंगाली चरित्रों की अवतारणा करते थे और उन्‍हीं को प्रवक्‍ता भी बनाते थे।

इन तथ्‍य को देखते हुए हिंदी नवजागरण की विशिष्‍टता बतलाने के लिए सन् सत्तावन की राजक्रांति को उसका बीज मानना कठिन है। भारतेंदु तथा उनके मंडल के लेखक सन् सत्तावन की राजक्रांति की अपेक्षा बंगाल के उस नवजागरण से प्रेरणा प्राप्‍त कर रहे थे जो उससे पहले ही शुरू हो चुका था। कारण यह कि भारतेंदु और उनके मंडल के लेखकों की दृष्टि में अंग्रेजी राज की चुनौती राज‍नीतिक से अधिक सांस्‍कृतिक थी और इस सांस्‍कृतिक संघर्ष में बंगाल नवजागरण से अस्‍त्र-शस्‍त्र मिलने की संभावना अधिक थी।

सन् सत्‍तावन की राजक्रांति को हिंदी नवजागरण का गोमुख मानने में एक कठिनाई यह भी है कि राजक्रांति के नितांत असांप्रदायिक पक्ष का संदेश हिंदी नवजागरण तक पूरा-पूरा नहीं पहुँच सका। हिंदी प्रदेश के नवजागरण के संमुख यह बहुत गंभीर प्रश्‍न है कि यहाँ का नवजागरण हिंदू और मुस्लिम दो धाराओं में क्‍यों विभक्‍त हो गया। जिस प्रदेश में हिंदू-मुस्लि‍म दोनों धर्मों के लोग एक साथ मिलकर सन् सत्तावन में अंग्रेजी राज के खिलाफ लड़े वहाँ दस वर्ष बाद ही जो नवजागरण शुरू हुआ वह हिंदू और मुस्लिम दो अलग-अलग खानों में कैसे बँट गया? यह प्रश्‍न इसलिए भी गंभीर है कि बंगाल और महाराष्‍ट्र का नवजागरण इस प्रकार विभक्‍त नहीं हुआ। हैरानी की बात यह है कि हिंदी प्रदेश का नवजागरण धर्म, इतिहास, भाषा सभी स्‍तरों पर दो टुकड़े हो गया। स्‍वत्व रक्षा के प्रयास धर्म तथा संप्रदाय की जमीन से किए गए।

यदि हिंदी नवजागरण को सन् सत्तावन की राजक्रांति का उत्तराधिकारी कहने का अर्थ यह है कि वह अंग्रेजी राज का विरोध करने में सबसे आगे थे तो इसके लिए भी पर्याप्‍त प्रमाण नहीं मिलते। इस दृष्टि से वस्‍तुत: बंगला और महाराष्‍ट्र की तरह हिंदी प्रदेश के भी उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के लेखकों में दो वर्ग दिखाई पड़ते हैं। एक वर्ग उन लेखकों का है जो अंग्रेजी राज का घोर विरोधी है तो दूसरा वर्ग इस मामले में कुछ नरम दिखाई पड़ता है। विचित्र बात यह है कि अंग्रेजी राज का घोर विरोध करनेवाला वर्ग धर्म-संस्‍कृति आदि नैतिक-सामाजिक मान्‍यताओं में या तो मूलगामी है या फिर सुधारवादी। प्रथम भारतीय होने का दावा करता है तो दूसरा पश्चिमोन्‍मुख है। यह ढाँचा लगभग समूचे भारतीय नवजागरण का है। यदि हिंदी नवजागरण में पश्चिमोन्‍मुख लोग कम दिखते हैं और इस कारण अंग्रेजपरस्‍तों की संख्‍या कम है तो उसका एक कारण वह अंग्रेजी शिक्षा हो सकती है जो इस प्रदेश में देर से पहुँची और उसका प्रसार भी बहुत सीमित रहा। किंतु एक बात तय है कि हिंदी नवजागरण के अंग्रेज-विरोध का स्‍त्रोत सन् सत्‍तावन की राजक्रांति में स्‍पष्‍ट नहीं है।

इसी प्रकार हिंदी नवजागरण में प्रखर बुद्धिवाद की प्रधानता भी संदिग्‍ध ही दिखाई पड़ती है। इस नवजागरण के अग्रदूत स्‍वयं भारतेंदु में वैष्‍णव भावुकता कहीं अधिक है। निश्‍चय ही उनमें बौद्धिकता भी है जो व्‍यंग्‍य-रचनाओं में पूरी प्रखरता के साथ व्‍यक्‍त होती है किंतु पद्य के साथ ही उनके अधिकांश गद्य में कृष्‍ण-भक्ति की भावुकता अधिक मुखर है और कहना न होगा कि यह स्‍त्रोत बंगाल से अधिक स्‍वयं हिंदी के अपने कृष्‍ण-भक्ति काव्‍य में है। भारतेंदु की यह भावुकता यदि उनकी दुर्बलता है तो उससे अधिक उनके मानवतावाद का उत्‍स है और साथ ही उस मस्‍ती और स्‍वाभिमान का भी सुदृढ़ आधार है जो उन्हें अंग्रेजों के कोप की उपेक्षा करने का साहस प्रदान करता है। भारतेंदु की इस वैष्णव भावुकता ने उन्‍हें दयानंद के आर्यसमाजी खंडन-मंडनवाले बुद्धिवाद से दूर रखा था। भावुकता की यह प्रधानता भारतेंदु-मंडल के प्रतापनारायण मिश्र, प्रेमघन, जगमोहन सिंह आदि अन्‍य सदस्‍यों में भी दिखाई पड़ती है।

निश्‍चय ही एक विशेष प्रकार की बौद्धिकता महावीरप्रसाद द्विवेदी और उनके मंडल के मैथिलीशरण गुप्‍त सदृश कवियों में अधिक है, जिसका दुखद परिणाम 'इतिवृत्तात्‍मकता' है। लेकिन द्विवेदी मंडल समूचा हिंदी नवजागरण नहीं है और न उसकी मुख्‍य धारा है। श्रीधर पाठक से रामनरेश त्रिपाठी तक जो तथाकथित स्‍वच्‍छंदवादी कवियों की धारा है तथा सरदार पूर्णसिंह, चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालमुकुंद गुप्‍त-जैसे विदग्‍ध गद्यलेखकों की जो लंबी परंपरा है वह कोरी बौद्धिकता की कोटि में नहीं आती।

इसी प्रकार जिस रहस्‍यवाद को हिंदी नवजागरण पर बंगाल के प्रभाव के रूप में निरूपित किया जाता है वह भी एक तरह से समूचे भारतीय नवजागारण का अभिन्‍न अंग है। यह रहस्‍यवाद उस नववेदांत की देन है जिसका एक रूप रवींद्रनाथ में विकसित हुआ तो दूसरा रामकृष्‍ण परमहंस और विवेकानंद में। हिंदी के प्रमुख छायावादी कवियों में कितनों ने रवींद्रनाथ से रहस्‍यवाद ग्रहण किया, इस विषय में संदेह भले ही हो पर इसमें संदेह की गुंजाइश कम ही है कि निराला के रहस्‍यवाद का आधार विवेकानंद का नववेदांत था और प्रसाद के रहस्‍यवाद का आधार शैवागम। यह सच है कि यह नववेदांत हिंदी में उसी तरह बंगाल से आया जैसे हिंदी नवजागरण में और भी बहुत-सी बातें बंगाल से आईं। किंतु इस नववेदांत के सहारे निराला और प्रसाद ने जिस प्रकार सामंत-विरोधी और साम्राज्‍य-विरोधी संघर्ष का साहित्‍य रचा वह रहस्‍यवाद-विरोधी बौद्धिकता द्वारा रचे हुए साहित्‍य से घटकर है, ऐसा कहने का साहस कम ही लोग करेंगे।

वास्‍तविकता यह है कि भावबोध और विचारबोध की दृष्टि से समूचा भारतीय नवजागरण एक संश्लि‍ष्‍ट प्रक्रिया है जिसमें बौद्धिकता के साथ भावुकता है, ऐहिकता के साथ आमुष्मिकता भी है और यथार्थवाद के साथ ही रहस्‍यवाद के भी तत्त्व घुले-मिले हैं। यूरोप के 'एनलाइटेनमेंट' अथवा 'ज्ञानोदय' दौर के विचारकों से प्रेरणा लेने के बावजूद भारत का उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण नितांत बुद्धिवादी न हो सका, क्‍योंकि स्‍वयं यूरोपीय 'ज्ञानोदय' भी इतना इकहरा न था। अंतर्विरोध इस नवजागरण की प्रक्रिया में भी थे और कहने की आवश्‍यकता नहीं कि यह अनिवार्यत: नवजागरण की दुर्बलता नहीं बल्कि एक तरह से उसकी समृद्धि का सूचक है।

आज उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के भारतीय नवजागरण के इस संश्‍लि‍ष्‍ट रूप पर बल देने की आवश्‍यकता विशेष रूप से इसलिए आ पड़ी है कि इकहरे साँचे में ढालकर तरह-तरह से हस्‍तगत करने की कोशिश की जा रही है। नव-उपनिवेशवादी प्राच्‍यविद्याविद् इसे एकदम 'अंग्रेजी राज का सबसे मूल्‍यवान उपहार' बता रहे हैं तो आधुनिकतावादियों की दृष्टि में यह मुख्‍यत: आधुनिकीकरण की प्रक्रिया का श्रीगणेश है, जिसमें विज्ञान, औद्योगीकरण, बुद्धिवाद, प्रगति, धर्मनिरपेक्षता आदि मूल्‍य प्रधान हैं। दूसरी ओर भिन्‍न पक्ष के विचारक इन्‍हीं बातों के लिए इस नवजागरण को तिरस्‍कृत करने की कोशिश कर रहे हैं। अति वामपंथी दृष्टि में यह नवजागरण एक परजीवी और वर्ग-सहयोगी मध्‍य वर्ग कारनामा होने के कारण ऐतिहासिक 'धोखा' है तो उत्तर-आधुनिकतावादी विचारकों के लेखे 'छद्​मचेतना' है - ऐसी 'छद्​मचेतना' जो यूरोप की ऐतिहासिक चेतना के प्रभाव में देश को एक अमानुषिक केंद्रीकृत राजसत्ता की ओर ठेल रही है। तात्‍पर्य यह है कि आज की समस्त समस्‍याओं के लिए यदि कोई जिम्‍मेदार है तो उन्‍नीसवीं शताब्‍दी का नवजागरण। यदि आज के बुद्धिजीवियों में औपनिवेशिक मानसिकता है तो नवजागरण के फलस्‍वरूप; अध्‍यात्‍मवाद, रहस्‍यवाद, अंधविश्‍वास आदि में वृद्धि हो रही है तो वह भी उसी के कारण। हिंदू-मुस्लिम-सिख सांप्रदायिकता के विष-बीज भी वहीं के हैं और भाषायी झगड़ों और क्षेत्रीय अलगावाद की जड़ें भी ढूँढ़कर उन्‍नीसवीं शताब्‍दी में बतायी जा रही हैं।

अंतत: ये तमाम बातें उन्‍नीसवीं शताब्‍दी के अंतर्गत अंग्रेजी उपनिवेशवाद और भारतीय सभ्‍यता के बीच चलनेवाले उस वस्‍तुगत संघर्ष की जटिलता और संश्‍लि‍ष्‍टता की ओर संकेत करती हैं। इस विषम युद्ध में मुख्‍य प्रश्‍न स्‍वत्‍व रक्षा का था, जिसे बचाने की छटपटाहट में परंपरा के वे प्रेत भी जग गए जो आगे चलकर खतरनाक साबित हुए; फिर प्रगति की आकांक्षा से हड़बड़ी में पश्चिम से ऐसे भी उपकरण लिए गए जिनके दूरगामी परिणामों की समझ न थी। आज उस रंगभूमि में उतरनेवाले पूर्व सूरियों पर राय देते समय अपने गरेबाँ में मुँह डालकर देख लेना भी जरूरी है। वैसे इस नवजागरण से भी अपनी-अपनी पसंद के मूल्‍य अथवा व्‍यक्ति चुनने के लिए हर कोई स्‍वतंत्र है लेकिन शर्त यह है कि खंड को ही समग्र न कहने का आग्रह न किया जाए। न इतिहास कल्‍पवृक्ष है और न नवजागरण कामधेनु!

[1986]