हिंदी पत्रकारिता के उन्नायक गोपाल राम गहमरी / संजय कृष्ण
हिंदी की लेखक बिरादरी की कृतघ्नता रह-रह कर उजागर होती ही रहती है। यहाँ लेखक जीते जी हाशिए पर डाल दिए जाते हैं और हिंदी समाज को पता ही नहीं चलता कि अमुक लेखक जिंदा भी है। स्वर्गीय लेखकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। हिंदी की लेखक बिरादरी जाति, कथित विचारधारा, गुटबाजी जैसे गैर साहित्यिक कामों में ही व्यस्त रहती है। उसे वही पूर्वज याद आते हैं जो उसकी विचारधारा के होते हैं या उसके विचारों को संबल प्रदान करते हों।
हिंदी के अनन्य सेवी गोपाल राम गहमरी एक ऐसे ही लेखक हैं, जिन्हें विस्मृत कर दिया गया है। ऐसे लेखक को जो 38 वर्षों तक बिना किसी सहयोग के जासूस नामक पत्रिका निकालता रहा, जिसने सौ से ऊपर उपन्यास लिखे, सैकड़ों कहानियों के अनुवाद किए, यहाँ तक कि रवींद्रनाथ टैगोर की 'चित्रागंदा' काव्य का भी (पहली बार हिंदी अनुवाद गहमरीजी द्वारा किया गया) अनुवाद किए, ऐसे लेखक-पत्रकार को हम भूल गए हैं। वह ऐसे लेखक थे, जिन्होंने हिंदी की अहर्निश सेवा की, लोगों को हिंदी पढ़ने को उत्साहित किया, ऐसी रचनाओं का सृजन करते रहे कि लोगों ने हिंदी सीखी। यदि देवकीनंदन खत्री के बाद किसी दूसरे लेखक की कृतियों को पढ़ने के लिए गैरहिंदी भाषियों ने हिंदी सीखी तो वे गोपालराम गहमरी ही थे। ऐसे रचनाकार को हम भूल गए हैं।
गोपाल राम गहमरी के कृतित्व पर आने से पूर्व आज की पीढ़ी के लिए उनके व्यक्तित्व की जानकारी भी जरूरी है। गोपाल राम गहमरी का जन्म पौष कृष्ण 8 गुरुवार संवत् 1923 (सन 1966 ई) में बारा गाजीपुर जिले में हुआ था। इनके प्रपितामह श्री जगन्नाथ साहू फ्रांसीसी छींट के व्यापारी थे। उनके दो पुत्र थे - रघुनंदन और बृजमोहन। रघुनंदनजी के तीन पुत्र हुए राम नारायण, कालीचरण और रामदास। गोपालराम गहमरी, रामनारायण के पुत्र थे। कालीचरण निःसंतान थे और रामदास के एक ही पुत्र थे महावीर प्रसाद गहमरी। गोपालराम गहमरी को भी एक ही पुत्र थे इकबाल नारायण। महावीर प्रसाद गहमरी के दो पुत्र थे देवता प्रसाद गहमरी एवं दुर्गा प्रसाद गहमरी। देवता प्रसाद गहमरी बहुत दिनों तक काशी से प्रकाशित होने वाले दैनिक 'आज' और 'सन्मार्ग' से जुड़े रहे।
गोपाल राम गहमरी जब छह मास के थे तभी पिता का देहांत हो गया और इनकी माँ इन्हें लेकर अपने मैके गहमर चली आईं। गहमर में ही गोपाल राम का लालन-पालन हुआ। प्रारंभिक शिक्षा-संस्कार यहीं संपन्न हुए। गहमर से अतिरिक्त लगाव के कारण उन्होंने अपने नाम के साथ अपने इस ननिहाल को जोड़ लिया और गोपालराम गहमरी कहलाने लगे।
गहमरी जी की प्रारंभिक शिक्षा गहमर में हुई थी। वहीं से वर्नाक्यूलर मिडिल की शिक्षा ग्रहण की। 1879 में मिडिल पास किया। फिर वहीं गहमर स्कूल में चार वर्ष तक छात्रों को पढ़ाते रहे और खुद भी उर्दू और अंग्रेजी का अभ्यास करते रहे। इसके बाद पटना नार्मल स्कूल में भर्ती हुए, जहाँ इस शर्त पर प्रवेश हुआ कि उत्तीर्ण होने पर मिडिल पास छात्रों को तीन वर्ष पढ़ाना पड़ेगा। आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण इस शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन बीच में ही पढ़ाई छोड़कर गहमरी जी बेतिया महाराजा स्कूल में हेड पंडित की जगह पर कार्य करने चले गए। सन 1888 ई में सब कामों से छुट्टी कर हाई फर्स्ट ग्रेड में नार्मल की परीक्षा पास की। इसके तुरंत बाद 1889 में रोहतासगढ़ में हेडमास्टर नियुक्त हो गए। मगर, यहाँ भी वे टिक नहीं पाए और बंबई के प्रसिद्ध प्रकाशक सेठ गंगाविष्णु खेमराज के आमंत्रण पर 1891 में बंबई चले गए।
गहमरी जी जब रोहतासगढ़ में थे तो वहीं से पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएँ भेजा करते थे। बंबई में जब रहने लगे तो वहाँ भी उनकी कलम गतिशील रही। यह अलग बात है कि वे वहाँ भी अधिक दिनों तक नहीं टिक सके। चूँकि खेमराज का व्यवसाय पुस्तकों के प्रकाशन का था, इसलिए वहाँ उनके लिए रचनात्मकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन वहाँ से होता नहीं था। इसलिए, यहाँ अपने अनुकूल अवसरों को न देखकर वहाँ से त्यागपत्र देकर कालाकांकर चले आए। कालाकांकर (प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश) से निकलने वाले दैनिक 'हिंदोस्थान' के गहमरी जी नियमित लेखक थे। इसके साथ ही उस समय की श्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएँ 'बिहार बंधु', 'भारत जीवन', 'सार सुधानिधि' में भी नियमित लिखते थे।
जब 1892 में गहमरी जी राजा रामपाल सिंह के निमंत्रण पर कालाकांकर चले आए तो यहाँ वे संपादकीय विभाग से संबंद्ध हो गए और एक वर्ष तक रहे। यहीं पर काम करते हुए बांग्ला सीखी और अनुवाद के जरिए साहित्य को समृद्ध करने का प्रयास भी किया। कहा जाता है कि कालांकार में उन दिनों एक नवरत्न सभा थी, जिसमें पं प्रतापनारायण मिश्र, बाबू बालमुकुंद गुप्त, पं राधारमण चौबे, पं गुलाब चौबे, पं रामलाल मिश्र, बाबू शशिभूषण चटर्जी, पं गुरुदत्त शुक्ल एवं स्वयं राजा साहब थे। गहमरी जी अपने संस्मरण में लिखते हैं, 'हिंदोस्थान' दैनिक आज का आधा केवल चार पेज निकलता था। बाबू बालमुकुंद गुप्त अग्रलेख के सिवा टिप्पणियाँ भी लिखते थे। बाकी समाचार, कुछ साहित्य और स्तंभ के लिए मेरे ऊपर भार था। पं प्रताप नारायण मिश्र हिंदोस्थान पत्र के काव्य भाग के संपादक थे। वे फसली लेखक थे। जब कोई फसल जैसे जन्माष्टमी, पितृपक्ष, दशहरा, होली-दीवाली आती, तब इन अवसरों पर हम लोग उनसे कविता लिया करते थे। पं राधारमण चौबे और चौबे गुलाब चंद जी अंग्रेजी अखबारों का सार संकलन करते थे। इंगलिश मैन, पायनियर, मार्निंग पोस्ट और सिविल मिलिटरी गजट उन दिनों एंग्लों इंडियन अखबारों में मुख्य थे। उनका मुँहतोड़ जवाब राजा रामपाल सिंह हिंदोस्थान में दिया करते थे।' इस तरह यह पत्र अपने समय से संवाद स्थापित करते हुए लोगों की आकांक्षाओं और उनके स्वर का साझा मंच था।
गहमरी जी एक जगह बहुत दिनों तक नहीं टिकते थे। इसे आप उनका दुर्गुण कहिए या उनकी विशेषता। वैसे भी किसी पत्रकार को एक जगह बहुत दिनों रहना भी नहीं चाहिए। पत्रकार को तो विभिन्न जगहों पर रहते हुए अपने अनुभवों का विस्तार करना ही चाहिए। उसकी गतिशीलता ही उसे व्यापक और व्यावहारिक बनाती है। ठहरना, केवल सड़ांध पैदा कर सकता है और संभावनाओं के अनंत द्वार को बंद कर सकता है। शायद इस तथ्य से बखूबी परिचित थे गहमरी जी। इसीलिए एक बार फिर सन 1893 में वे बंबई की ओर उन्मुख हुए और यहाँ से निकलने वाले पत्र 'बंबई व्यापार सिंधु' का संपादन करने लगे। इस पत्र को वहाँ के एक निर्भीक और असीम साहसी पोस्टमैन निकालते थे। लेकिन इस पत्र का दुर्भाग्य कहें या गहमरी जी का कि यह पत्र छह महीने के बाद बंद हो गया, लेकिन गहमरी जी बेकार नहीं हुए। वहीं के एक हिंदी प्रेमी एसएस मिश्र ने गहमरी जी को बुलाकर उन्हें 'भाषा भूषण' के संपादन का भार सौंपा। यह पत्र मासिक था। लेकिन यह पत्र भी बंद हो गया। लेकिन इसके बंद होने के पीछे न आर्थिक कारण थे न अन्य दूसरी तरह की प्रकाशकीय समस्याएँ। बल्कि इस पत्र को एक दंगे के कारण बंद कर देना पड़ा। गहमरी जी लिखते हैं, 'इसमें स्वतंत्र भाव से मैंने लिखा और उस समय तक उसको लोग बड़े चाव से पढ़ते थे। इसी साल अर्थात 1893 में वहाँ सांप्रदायिक दंगा हो गया। चार दिनों तक मार काट होती रही। पूना की पलटनें जब बंबई आकर बड़े रोब से सड़कों पर गश्त लगाने लगी, तब हजारों नर-नारियों की बलि लेकर बलवाराम शांत हुए। उसी चपेट में भाषा भूषण को बंद कर देना पड़ा।'
समय-परिस्थिति-काल का आदमी दास होता है। चाहे-अनचाहे हर आदमी इस चक्र में वर्तुल घूमता है। गहमरी जी भी इससे मुक्त नहीं थे। 'भाषा भूषण' के बंद होने के बाद नए ठौर की तलाश में चल पड़े। इनके चाहने वालों और इन पर स्नेह रखने वालों की कमी नहीं थी। उन्हीं में थे पं बालमुंकुद पुरोहित। इन्हीं की कृपा से गहमरी जी मंडला की ओर रुख किए। लेकिन यहाँ भी बहुत दिनों तक नहीं रह सके। यहाँ से मासिक 'गुप्तकथा' का प्रकाशन तो शुरू हुआ, लेकिन अर्थाभाव के कारण इस पत्र को असमय बंद कर देना पड़ा। एक बार फिर चौराहे पर आ गए गहमरीजी। लेकिन इस चौराहे से एक रास्ता फूटा जो बंबई की ओर जाता था। खेमराज जी ने 'श्री वेंकटेश्वर समाचार' नाम से पत्र का प्रकाशन शुरू कर दिया था। यह पत्र गहमरी जी के कुशल संपादन में थोड़े समय में ही लोकप्रिय हो गया। इसी दौरान प्रयाग से निकलने वाले 'प्रदीप' (बंगीय भाषा) में ट्रिब्यून के संपादक नगेंद्रनाथ गुप्त की एक जासूसी कहानी 'हीरार मूल्य' प्रकाशित हुई थी। गहमरीजी ने इस कहानी का हिंदी में अनुवाद कर श्री वेंकटेश्वर समाचार में कई किश्तों में प्रकाशित किया। यह जासूसी कहानी पाठकों को इतनी रुचिकर लगी कि कई पाठकों ने इस पत्र की ग्राहकता ले ली। गहमरी जी लिखते हैं, 'उस समय वेंकटेश्वर समाचार के सैकड़ों नए ग्राहक हुए और सबने यही कहा था कि जिस अंक से 'हीरे का मोल' शुरू हुआ है, उस अंक से हम ग्राहक होते हैं।' पत्र की लोकप्रियता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है और उस दौर की चित्तवृत्ति का भी।
उस दौर में जासूसी ढंग की कहानियों में पाठकों की गहरी रुचि जग रही थी। इसमें रोचकता और रहस्य की ऐसी कथा गुंफित होती कि पाठकों के भीतर एक तरह की जुगुप्सा जगाती और पढ़ने को विवश। गहमरी जी पाठकों के मन-मस्तिष्क को समझ चुके थे। 'हीरे का मोल' के अनुवाद की लोकप्रियता और 'जोड़ा जासूस' लिखकर पाठकों की प्रतिक्रियाओं से वे अवगत हो चुके थे। इस लोकप्रियता के कारण वे कई तरह की योजनाएँ बनाने लगे। वे यह भी समझ चुके थे कि जासूसी ढंग की कहानियों के जरिए ही पाठकों का विशाल वर्ग तैयार किया जा सकता है। गहमरी जी पूरी तैयारी के साथ जासूसी ढंग के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए। उल्लेखनीय बात यह भी है कि उनके साथ घटी कुछ घटनाओं ने भी जासूसी ढंग के लेखन की ओर उन्हें ढकेला। बकौल गहमरी जी, 'तब से मुझे जासूसी किस्से लिखने और जासूसी काम करने की रुचि अधिक पैदा हो गई।'
इस तरह 1899 में ही वे घर आकर जासूस निकालना चाहते थे, किंतु बालमुकुंद गुप्त के पुत्र की शादी होनी थी और वे 'भारत मित्र' के संपादन का भार गहमरी जी को देकर अपने गाँव गुरयानी चले गए। कुछ दिनों तक गहमरी जी ने 'भारत मित्र' का कुशलतापूर्वक संपादन किया। इसकी वजह से जासूस का प्रकाशन थोड़े समय के लिए स्थगित हो गया। उनकी इच्छा थी कि 'सरस्वती' के साथ ही 'जासूस' का भी प्रकाशन हो, लेकिन यह इच्छा उनके मन में ही रह गई। इस तरह जासूस का प्रकाशन जनवरी, 1900 में 'सरस्वती' के साथ न होकर चार महीने बाद यानी मई 1900 में हुआ।
गहमरी जी ने 'भारत मित्र' के संपादन के दौरान जासूस के निकलने की सूचना दे दी थी। इसका लाभ यह हुआ कि सैकड़ों पाठकों ने प्रकाशित होने से पहले ही पत्रिका की ग्राहकी ले ली। जाहिर है पत्रकारिता की दुनिया में उस समय गहमरी जी की एक साख बन चुकी थी। इस साख की बदौलत ही उन्हें पत्रिका के प्रकाशन से पूर्व सैकड़ों ग्राहक मिल गए थे। आज से सौ साल पहले पाठकों की क्या स्थिति रही होगी, इसका अनुमान लगा सकते हैं। पत्रकारिता की दुनिया में उनकी एक साख, एक विश्वास और एक पहचान के कारण यह संभव हुआ होगा।
एक और उल्लेखनीय बात यह है कि हिंदी में 'जासूस' शब्द के प्रचलन का श्रेय गहमरी जी को ही जाता है। उन्होंने लिखा है कि '1892 से पहले किसी पुस्तक में जासूस शब्द नहीं दिख पड़ा था।' उन्होंने अपनी पत्रिका का नामकरण ऐसे किया जिससे आम पाठक आसानी से उसकी विषय वस्तु को समझ सके। जासूस शब्द से हालाँकि यह बोध होता है कि इसमें जासूसी ढंग की कहानियाँ ही प्रकाशित होती होंगी, लेकिन ऐसी बात नहीं थी। उसके हर अंक में एक जासूसी कहानी के अलावा समाचार, विचार और पुस्तकों की समीक्षाएँ भी नियमित रूप से छपती थीं।
जासूस निकालने के लिए उन्हें कुछ धन की आवश्यकता थी, इसकी पूर्ति उन्होंने 'मनोरमा' और 'मायाविनी' लिखकर कर ली। 'जासूस' का पहला अंक बाबू अमीर सिंह के हरिप्रकाश प्रेस से छपकर आया और पहले ही महीने में वीपीपी से पौने दो सौ रुपए की प्राप्ति हुई। इसने अपने प्रवेशांक से ही लोकप्रियता की सारी हदों को पार करते हुए शिखर को छू लिया था। इसकी अपार लोकप्रियता को देखकर गोपालराम गहमरी जब जासूसी ढंग की कहानियों और उपन्यासों के लेखन की ओर प्रवृत्त हुए तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा और न इसकी परवाह की कि साहित्य के तथाकथित अध्येता उनके बारे में क्या राय रखते हैं। अपने प्रवेशांक में जासूस की परिचय कुछ इस अंदाज में पेश किया - 'डरिये मत, यह कोई भकौआ नहीं है, धोती सरियाकर भागिए मत, यह कोई सरकारी सीआईडी नहीं है। है क्या? क्या है? है यह पचास पन्ने की सुंदर सजी-सजायी मासिक पुस्तक, माहवारी किताब जो हर पहले सप्ताह सब ग्राहकों के पास पहुँचती है। हर एक में बड़े चुटीले, बड़े चटकीले, बड़े रसीले, बड़े गरबीले, बड़े नशीले मामले छपते हैं। हर महीने बड़ी पेचीली, बड़ी चक्करदार, बड़ी दिलचस्प घटनाओं से बड़े फड़कते हुए, अच्छी शिक्षा और उपदेश देने वाले उपन्यास निकलते हैं... कहानी की नदी ऐसी हहराती है, किस्से का झरना ऐसे झरझराता है कि पढ़ने वाले आनंद के भँवर में डूबने-उतराने लगते हैं।'
इस तरह यह पत्रिका अपनी पाठकों की बदौलत और उनके अपार स्नेह के कारण एक दो वर्ष नहीं, पूरे 38 वर्ष तक गहमर जैसे गाँव से निकलती रही। जिस तरह बाल कृष्ण भट्ट ने भूख से जूझते हुए 33 वर्षों तक 'हिंदी प्रदीप' को प्रदीप्त रखा, वैसे ही गोपाल राम गहमरी ने 'हैंड टू माउथ' ही सही, 38 साल तक इसे जीवित रखा।
इस बीच उन्हें एक बार फिर बंबई जाने का अवसर मिला। वेंकटेश्वर समाचार पत्र निकल रहा था। उन्हें संपादक की जरूरत थी। यद्यपि उस समय उस पत्र के संपादक यशस्वी लेखक लज्जाराम मेहता जी थे। उन्हें अपने घर बूँदी जाना था। इसलिए पत्र को एक संपादक की जरूरत थी। गहमरी जी उनके बुलावे पर गए और कार्यभारा सँभाला, लेकिन जासूस बंद नहीं हुई। वह लगातार निकल रही थी। इस बीच गहमरी जी के समक्ष सेठ रंगनाथ ने प्रस्ताव रखा कि जासूस उनको दे दिया जाए और आजन्म रु 50 बतौर गुजारा लेते रहें। सेठ जी ने उनके समक्ष यह भी प्रस्ताव रखा कि बंबई में रहने की इच्छा न हो जो गहमर से ही लिखकर भेज दिया करें, प्रकाशित करता रहूँगा। लेकिन, गहमरी जी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और अपने गाँव लौट आए।
इस दौरान गहमरी जी ने जासूसी विधा से हटकर अध्यात्म विषयक दो पुस्तकें लिखीं। 'इच्छाशक्ति' उनकी बंगला से अनुवादित रचना थी और 'मोहिनी विद्या', मैस्मेरिज्म पर अनूठी और हिंदी में संभवतः पहली रचना थी। ये दोनों पुस्तकें हिंदी पाठकों द्वारा काफी पसंद की गईं। बाद के दिनों में जासूसी लेखन से उनकी विरक्ति भी हो गई थी और वे धर्म-अध्यात्म की ओर मुड़ गए थे।
गहमरी जी का कहना था कि 'जिसका उपन्यास पढ़कर पाठक ने समझ लिया कि सब सोलहो आने सच है, उसकी लेखनी का परिश्रम सफल समझना चाहिए।' गहमरी जी अपनी रचनाओं में पाठकों की रुचि का विशेष ध्यान रखते थे कि वे किस तरह की सामग्री पसंद करते हैं। साहित्य के संदर्भ में उनके विचार भी उच्च कोटि के थे। वे साहित्य को भी इतिहास मानते थे। उनका मानना था कि साहित्य जिस युग में रचा जाता है, उसके साथ उसका गहरा संबंध होता है। वे उपन्यास को अपने समय का इतिहास मानते थे। गुप्तचर, बेकसूर की फाँसी, केतकी की शादी, हम हवालात में, तीन जासूस, चक्करदार खून, ठन ठन गोपाल, गेरुआ बाबा, मरे हुए की मौत आदि रचनाओं में केवल रहस्य रोमांच ही नहीं हैं, बल्कि युग की संगतियाँ और विसंगतियाँ भी मौजूद हैं। समाज की दशा और दिशा का आकलन भी है। यह कहकर कि वे जासूसी और केवल मनोरंजक रचनाएँ हैं, उनकी रचनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है, न उनके अवदानों से मुँह मोड़ा जा सकता है। गहमरी जी की बाद की पीढ़ी को जो लोकप्रियता मिली, उसका बहुत कुछ श्रेय देवकीनंदन खत्री और गहमरी जी को ही जाता है। इन्होंने अपने लेखन से वह स्थितियाँ बना दी थी कि लोगों का पढ़ने की ओर रुझान बढ़ गया था। आज अनुवाद के टोटे पड़े हैं। हिंदी में हर साल कितनी पुस्तकों का अनुवाद होता है, इसे बताने की जरूरत नहीं। लेकिन गहमरी जी ने अकेले सैकड़ों कहानियों, उपन्यासों के अनुवाद किए।
गौतम सान्याल ने हंस के एक विशेषांक में लिखा कि, 'प्रेमचंद के जिस उपन्यास को पठनीयता की दृष्टि से सर्वोच्च स्थान प्राप्त है, उस 'गबन' की अनेक कथा स्थितियाँ एक विदेशी क्राइम थ्रिलर से मिलती-जुलती हैं और जिसका अनुवाद गोपालराम गहमरी सन 1906 में जासूस पत्रिका में कर चुके थे।' इस उद्धरण से गोपालराम गहमरी के बारे में कुछ और कहने की जरूरत नहीं है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने तो अपने साहित्य के इतिहास में गोपालराम गहमरी के कृतित्व को सराहा, लेकिन बाद के आलोचकों ने उन्हें बिसरा दिया। याद किया भी तो लानत-मलानत करने की गरज से, मूल्यांकन की दृष्टि से कतई नहीं। क्या सचमुच गोपालराम गहमरी हिंदी जगत और पत्रकारिता जगत के लिए भुला दिए जाने के काबिल थे?