हिंदी फिल्मों में रॉबिनहुड व मनोरंजन क्षेत्र की रबड़ी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :27 अप्रैल 2016
अरबाज खान 'दबंग' के दो भाग बना चुके हैं और तीसरे भाग की पटकथा उनके भाई नायक सलमान खान पसंद कर चुके हैं। शूटिंग अगले वर्ष शुरू होगी। जिन फिल्मों के नाम ब्रैंड बन जाते हैं, उनकी अगली कड़ी अधिक रोचक होने पर ही वे सफल हो पाती हैं। नई रोचकता की तलाश में नए दांव पेंच खोजे जाते हैं। ऐसी फिल्मों में वरीयता दी जाती है खलनायक पात्र को, क्योंकि वह जितना अधिक शक्तिशाली और विध्वंसक होगा, उतना नायक का पात्र साहसी होगा। विगत दशकों में जितनी विविधता खलनायक के पात्र में रची गई है, उतनी नायक के पात्र में नहीं है। आज 'आवारा' के जग्गा डाकू और 'मिस्टर इंडिया' के मोगेम्बो मासूम नज़र आते हैं। अावारा का खलनायक जग्गा अपहरण की गई जज की पत्नी को गर्भवती पाता है तो वह उसे बाइज्जत छोड़ देता है अर्थात उसमें कुछ मानवीयता तो थी।
खलनायक के पात्रों को भयावह बनाने के साथ नए किस्म के गाने आने लगे हैं जैसे 'कपड़े कम पहनती तो क्या बात थी,' जरा नग्नता के लिए आग्रह देखिए। इसी के साथ हास्य पात्र भी गायब होने लगे हैं। गुरुदत्त जैसे संजीदा फिल्मकार ने भी 'सर जो तेरा चकराए' या वैष्णव कवि जैसे फिल्मकार बिमल राय ने 'जंगल में मोर नाचा किसने देखा, हम पीके बहके तो जमाने ने देखा' गीत का समावेश अपनी जन्म जन्मांतर की प्रेमकथा 'मधुमति' में इस्तेमाल किया है। 'मधुमति' के गीतों का वैविध्य शैलेंद्र की प्रतिभा का परिचायक है, जिसमें प्रेमगीत, लोकगीत (बिछुआ) और विरह गीत के साथ एक कोठेवाली की ठुमरी भी है। सभी पक्षों में सूक्ष्म से स्थूल की ओर पलायन हुआ है। राजनीति से भी नेहरू, ख्रुश्चेव और जॉन एफ कैनेडी जैसे नेता गायब हो चुके हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार गैर-जवाबदार हिंसक बातें करता है और उसके दृष्टिकोण में धर्मनिरपेक्षता कतई नहीं है। भयावह यह है कि वह अपने प्रलाप के लिए लोकप्रिय है गोयाकि सामूहिक अवचेतन का भी पराभव हो गया है।
इस प्रवृत्ति को विज्ञान और टेक्नोलॉजी की प्रगति या बाजार की चकाचौंध का ही परिणाम बताने में भी हम सुविधाजनक निष्कर्ष तक पहुंच रहे हैं। विज्ञान तो मानवीय प्रेम के समय को कम कर रहा है ताकि हम सृजन की ओर जा सकें परंतु कहीं खाली दिमाग शैतान का घर तो नहीं बन रहा है? धर्मांधता इस असहिष्णुता को जन्म दे सकती है, क्योंकि उसका उपजाया हुआ अंधापन हमें कुछ देखने नहीं देता। धर्मांधता का पहला चरण ही आस्था के नाम पर तर्क को तजना है। याद कीजिए 'गाइड' का वह दृश्य, जिसमें दो कूपमंडुक संस्कृत के रटे हुए श्लोक बोलकर अवाम को प्रभावित करते हैं और जवाब में नायक अपनी धाराप्रवाह अंग्रेजी से चौंका देता है। दोनों के ही संवाद केवल प्रलाप हैं और उनमें कोई अर्थ नहीं। स्पष्ट है कि भारी भरकम शब्द खूब गरजते हैं परंतु वर्षा नहीं करते। दवा कंपनी के प्रतिनिधि भी अपनी दवा का बखान धाराप्रवाह करते हैं परंतु इस कारण वे अंग्रेजी के जानकार नहीं माने जा सकते। तोते भी मानवीय भाषा सुनकर उसे बोलने लगते हैं। राज कपूर त्वरित लोकप्रिय होने वाले गीत को तोतापरी बोलते थे। तोता रटंत छात्र होते हैं, जिनके अंक खूब आते हैं परंतु ज्ञान से उनका कोई वास्ता नहीं होता।
राज कुमार हीरानी की 'थ्री इडियट्स' की थीम यही थी। एक लोकप्रिय नाम के दोहन के लिए अनेक भाग बनाए जाते हैं। फिल्म बाजार की यह रीति कभी प्रकाशन व्यवसाय में भी देखी गई है। बाबू देवकीनंदन खत्री की 'चंद्रलेखा' और 'भूतनाथ' के भाग दो भी लोकप्रिय हुए हैं। अनेक लोगों ने इन किताबों को पढ़ने के लिए हिंदी सीखी और इसे उस दौर का लुगदी प्रकाशन माना जा सकता है। सभी भाषाओं में लुगदी किताबों का प्रकाशन लाभप्रद रहा है। लुगदी किताबें वो खोटे सिक्के हैं, जो बाजार से खरे सिक्कों को प्रचलन के बाहर फेंक देते हैं। इन फिल्मों और किताबों को धारावाहिक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनमें मूल कथा विचार की अगली कड़ियां होती हैं। इन फिल्मों में केवल फिल्म के ब्रैंड नाम का दोहन होता है। 'दबंग' का नायक खिलंदड़ है, वह बेफिक्र है और शोषण के खिलाफ लड़ता है। मस्ती मंत्र का जाप करता है। वह एक तरह क रॉबिनहुड है। यह एक तरह से लोकप्रियता की रबड़ी है, जो दूध को घोटने से बनती है। यह कभी-कभी पाचन क्रिया के लिए चुनौती बन जाती है।