हिंदी में लिंग नियम / रामचन्द्र शुक्ल
12 मई के लीडर में एक महाशय हिन्दी भाषा के लिंग सम्बन्धी नियमों के विषय में लिखते हैं
1. वर्तमान समय में बिहार और छोटानागपुर के लोग अपने युक्त प्रान्त और पंजाब के भाइयों के साथ हिन्दी बोलने में बड़ा संकोच करते हैं क्योंकि बिहारी लोग सम्बन्ध कारक, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया में उर्दू व्याकरण के नियमों का सदैव पालन नहीं कर सकते। इससे पश्चिमी प्रान्त के लोग इनकी कुछ हँसी उड़ाते हैं जोकि इन्हें बहुत बुरी लगती है। परिणाम यह होता है कि इन दोनों के बीच न वैसी घुलकर बातचीत होती है और न हेलमेल होता है। यह मेल की बाधा बहुत जल्दी दूर हो सकती है यदि उर्दू के लिंग सम्बन्धी अनावश्यक नियम हिन्दी से निकाल दिए जायँ।
2. हिन्दी बोलने वाले लड़कों के मस्तिष्क पर इन सम्बन्ध कारक, सर्वनाम, विशेषण और क्रिया के लिंग सम्बन्धी नियमों के सीखने में व्यर्थ का बोझ पड़ता है। इन लड़कों के अपनी भाषा सीखने के मार्ग में यह एक बड़ी भारी अड़चन है जिसके कारण वे अपनी भाषा अच्छी तरह सीख नहीं सकते। इन नियमों को उड़ा देने से हिन्दी भाषा बहुत जनप्रिय और घर के बच्चों के लिए बहुत सुगम हो जायगी।
3. भारतवर्ष के भिन्न भिन्न भागों में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का बहुत सच्चा प्रयत्न हो रहा है। पर दूसरे प्रान्त के निवासियों को इस भाषा को सीखने में जो बड़ी भारी अड़चन है वह सम्बन्ध कारक, विशेषण और क्रिया आदि का लिंग सम्बन्धी नियम है। हम हिन्दी भाषियों को इस बात पर गर्व करना चाहिए कि हमारी भाषा राष्ट्रभाषा बनाई जानेवाली है। हम सब लोगों को उन अन्य भाषा भाषियों की हर प्रकार से सहायता करनी चाहिए जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का प्रशंसनीय प्रयत्न कर रहे हैं तथा उन लोगों के लिए जिनकी वह मातृभाषा नहीं है जहाँ तक हो सके उसका सीखना आसान कर देना चाहिए।
4. दूसरा प्रशंसनीय उद्योग हिन्दी भाषा और हिन्दी साहित्य की उन्नति के लिए हो रहा है। इस उद्योग में तभी सफलता होगी जब हम ऑंख मूँदकर दूसरी भाषाओं का अनुकरण करना छोड़ दें। उर्दू हमारी मातृभाषा नहीं है, इसलिए कोई आवश्यक नहीं है कि हम व्यर्थ के बन्धन में अपने को डालें। जब हम जानते हैं कि उस बन्धनसे भाव और विचार प्रकट करने में किसी प्रकार की सहायता नहीं मिलती और जो केवल मकतब के मुसलमान मौलवियों का सिखाया हुआ है। अब तक उर्दू हिन्दी का पोषण करनेवाली समझी जाती रही है जो इतिहास के बिलकुल विरुद्ध है। अत: जब तक हम उर्दू के अनावश्यक बन्धनों को न तोड़ फेंकेंगे तब तक हमारी भाषा की उन्न:ति होगी, क्योंकि स्वच्छन्दता ही वृद्धि का मूल और उसका अभाव ही उसका बाधाक है।
5. इस समय उच्च श्रेणी के लोगों और निम्न श्रेणी के लोगों की हिन्दी में बड़ा अन्तर है। व्याकरण सम्बन्धी बन्धन जिसके कारण शुद्ध भाषा का सीखना साधारणजनों के लिए कठिन होता है जितने ही अधिक होंगे उतना ही शुद्ध हिन्दी और गँवारू हिन्दी, लिखने पढ़ने की हिन्दी तथा बोलने चालने की हिन्दी में अन्तर पड़ेगा। इन व्याकरण के अनावश्यक नियमों को दूर कर दीजिए, फिर शुद्ध हिन्दी और साधारण हिन्दी, लिखने की हिन्दी और बोलने की हिन्दी में वह अन्तर नहीं रह जायगा और हमारी भाषा और अपभ्रष्ट न होगी।
6. भिन्न भिन्न वस्तुओं के नाम हिन्दी में 2000 से कम न होंगे अत: सम्बन्ध कारक, विशेषण और क्रिया आदि के नियमों का पालन करने के लिए इनमें से प्रत्येक शब्द के जुदे लिंगों को जो मनमाने निधर्रित किए गए हैं, याद करना पड़ता है। यह धारणाशक्ति पर एक बड़ा भारी बोझ डालता है जिसका जीवन में कुछ फल नहीं है। हिन्दी में उन जड़ पदार्थों के लिंग का निर्णय करने के लिए कोई नियम नहीं है जो और सब भाषाओं में क्लीव माने जाते हैं। ऍंगरेजी भाषा में बहुत थोड़े से जड़ पदार्थ हैं जो स्त्रीरलिंग माने जाते हैं, जैसेShip, Train, Earth etc. पर उसमें सम्बन्ध विशेषण वा क्रिया के लिए कोई लिंग नियम नहीं है। पर हिन्दी में ऐसे शब्दों की संख्या पर ध्यान दीजिए उसमें न जाने कै हजार शब्द ऐसे मिलेंगे जिनके लिंग का कोई नियम नहीं और जिनके अनुसार सम्बन्ध, विशेषण और क्रियाओं के रूप होते हैं। इनको सीखना व्यर्थ के लिए परिश्रम करना है जबकि इनसे विचारों के प्रकाशित करने में कोई विशेष सहायता नहीं मिलती।
7. भाषा का उद्देश्य एक दूसरे पर अपने विचारों को प्रगट करना है। अत: व्याकरण का कोई ऐसा नियम जो उसमें सहायता देने के स्थान पर बाधा डाले सर्वथा त्याज्य है, यदि भाव पर विचार किया जाय तो उसकी बीबी और उसका बीबी, गाड़ी आती है और गाड़ी आता है तथा लू चलती है और लू चलता है में कोई अन्तर नहीं है। अस्तु, अपनी भाषा को हम ऐसे अनावश्यक बन्धनों से क्यों जकड़ दें जिससे सीखने वालों के मस्तिष्क और धारणा शक्ति पर व्यर्थ का बोझ पड़े और वे हतोत्साह होकर उससे किनारा खींचें।
8. उर्दू को छोड़ और कोई ऐसी भाषा नहीं है जिसमें भूमंडल की समस्त वस्तुओं के लिए इस प्रकार मनमाने लिंग नियम हों और जिसमें सम्बन्ध, विशेषण और क्रियाओं के रूपों में लिंग का नियम हो। उड़िया, बंगाली और ऍंगरेजी आदि किसी भाषा में यह बात नहीं है। क्यों कोई बुद्धि सम्पन्न मनुष्य यह कहेगा कि इसके बिना ये भाषाएँ कम भधुर हैं? यह सच है कि कई पीढ़ियों से सुनते सुनते हमें उनका अभ्यास पड़ गया है। पर यह भी सच है कि थोड़े ही दिनों के अभ्यास से वह दूर भी हो सकता है। यह आशा की जा सकती है कि यदि यह अनावश्यक बन्धन न केवल पुस्तकों और सामाजिक पत्रों से वरन् लोगों की बोलचाल से भी निकाल दिया जाए तो बहुत नहीं दस वर्षों में हमें उसके अभाव का फिर अभ्यास हो जाएगा।
9. प्राय: यह देखा गया है कि बंगालिन स्त्रियों को हिन्दी सीखने की अभिलाषा होती है जिससे वे अपनी हिन्दी बोलनेवाली बहिनों से हिलमिल सकें। भिन्न भिन्न प्रान्तों की स्त्रियों के परस्पर मिलने की आवश्यकता पुरुषों के परस्पर हेल मेल बढ़ाने की आवश्यकता से भी बढ़कर है, क्योंकि इसके लिए एक भाषा का होना परम आवश्यक है और हिन्दी ही इस योग्य है कि वह परस्पर की भाषा हो सके, यदि उसका व्याकारण सम्बन्धी यह मूढ़ विश्वास दूर हो जाय जो कई सौ वर्ष के मुसलमानी शासन के कारण उत्पन्न हो गया है। हिन्दी अब अपनी उन्नति के लक्षण दिखा रही है अत: इस अवसर पर उसे राष्ट्रभाषा होने योग्य करने का यत्न करना चाहिए।
इस लेख में जो विषय उठाया गया है वह अवश्य हिन्दी प्रेमियों के ध्यान देने योग्य है पर उसमें जो दो चार बातें कही गई हैं वे ठीक नहीं हैं, पहले तो सम्बन्ध कारक विशेषण और क्रियाओं के लिंग सम्बन्धी नियमों को उर्दू के नियम बतलाना बिलकुल असम्भव है। यह रूपान्तर का नियम हिन्दी का है और बराबर चन्द कवि से लेकर आज तक व्यवहृत होता आया है। प्रान्तिक बोलचाल में भी इन नियमों का पालन पंजाब से लेकर बिहार तक बराबर होता है। यह लिंग नियम संस्कृत से हिन्दी में आया है, मुसलमानों के समय से नहीं चला है। विशेषण में लिंग भेद तो संस्कृत के अनुसार ही है। अब रही क्रिया की बात। लेखक महाशय को जानना चाहिए कि हिन्दी की क्रियाएँ प्राय: कृदन्त हैं। कृदन्त प्रतिपदिक के तुल्य माना जाता है। अत: इसमें लिंग आदि का विधान होगा ही।
काशी राज्य के स्टेट गजट को केवल अंगरेजी और उर्दू में देख समस्त हिन्दीभाषियों को बड़ा खेद हुआ है। काशिराज से हिन्दी प्रेमी बहुत कुछ उपकार की आशा रखते हैं। बनारस के जिले में प्राय: सब लोग हिन्दी ही जानते हैं औरनागरीअक्षरोंही से परिचित हैं। उर्दू बहुत थोड़े से लोग जानते हैं। बनारस के जुलाहे तथा अन्य रोजगारी मुसलमानों के हिसाब किताब हिन्दी में हैं। न जाने क्या समझकर महाराज काशिराजने हिन्दी को अपने दफ्तरों में स्थान देना उचित नहीं समझा। मैं समझताहूँ किसी अस्थायी कारणवश ही महाराज साहब ने ऐसा किया है और आगे चलकर वेइस आवश्यक विषय की ओर ध्यान देंगे और हिन्दी को स्थान देकर राज्य के शुभ की वृद्धि करेंगे।
(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, मई, 1911 ई.)
[ चिन्तामणि, भाग-4 ]