हिंदी रंगमंच / मोहन राकेश
पहली बार सुनने पर यूँ तो हिन्दी रंगमंच, यह प्रयोग ही ठीक नहीं प्रतीत होता, क्योंकि भाषा का सम्बन्ध नाटक के साथ हो सकता है, रंगमंच के साथ नहीं। परन्तु नाटक जनजीवन की सांस्कृतिक मान्यताओं के अतिरिक्त एक भाषा की साहित्यिक उपलब्धियों का भी प्रतिनिधित्व करता है, इस नाते एक भाषा के नाट्य साहित्य के अनुकूल रंगमंच की कुछ विशेषताओं की कल्पना की जा सकती है। आज हिन्दी रंगमंच का प्रश्न इसी सन्दर्भ में उठा है। कहने को यह भी कहा जाता है कि हिन्दी का, अर्थात् हिन्दी नाटक का विशेष रंगमंच अभी विकसित हुआ ही नहीं है, न ही उसके विकसित होने की विशेष सम्भावना दिखाई दे रही है, क्योंकि हिन्दी नाटक रंगमंच की किसी विशेष परंपरा के साथ अनुस्यूत नहीं है। गाहे-बगाहे, जहाँ-तहाँ नाटक खेलने के जो शौकिया प्रयत्न किये जाते हैं, उन्हीं से प्रेरणा लेकर और आंशिक रूप से पाश्चात्य रंगमंच के रूप-विधान से प्रभावित होकर कुछ ही नाटक, विशेषतया एकांकी, ऐसे लिखे गये हैं, जिनकी अभिनेयता के सम्बन्ध में लेखकों की स्पष्ट धारणा का परिचय मिलता है। इसके अतिरिक्त सिनेमा और रेडियो-नाटक के विशिष्ट शिल्प का विकास हो जाने से, रंगमंच की सीमित परिधि में खेले जानेवाले नाटक के लिए वैसे भी ख़ास सम्भावनाएँ नहीं रह गयी हैं। इसलिए हिन्दी रंगमंच और उसके विकास का प्रश्न वास्तविक न होकर हवाई-सा ही है।
परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। हिन्दी नाटक को रंगमंच की निश्चित परंपरा नहीं मिलती है, इसका यह अर्थ नहीं है कि आगे एक परंपरा के विकास की सम्भावना भी नहीं है। सिनेमा और रेडियो के विशिष्ट और विकसित शिल्प के बावजूद उनकी अपनी सीमाएँ हैं। रेडियो-नाटक मात्र ध्वनि की सीमाओं में आबद्ध है, और श्रोता को अपने लिए अपनी कल्पना से चित्रों के निर्माण का आयास करना पड़ता है। तीसरे आयाम का अभाव सिनेमा नाटक की सीमा है,जिसके कारण पर्दे पर दिखाई देनेवाली रंगीन या कृष्ण-श्वेत छायाकृतियाँ अयथार्थ के भ्रम को नहीं मिटा पातीं। सिनेमा में तीसरे आयाम का विस्तार हो जाने पर भी कैमरे की आँख से देखे गये चरित्र जीते-जागते इन्सानों का स्थान न ले पाएँगे, इसलिए रंगमंच की सम्भावनाएँ असन्दिग्ध हैं। रंगमंचीय नाटकों में बढ़ती हुई लोकरुचि इस बात का प्रमाण है।
दूसरे, समाज के सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोगों में अभिनय की रुचि वर्तमान रहती है। सिनेमा और रेडियो सबकी अभिनय-रुचि की परितृप्ति का साधन नहीं बन सकते, उनके लिए रंगमंच ही एक एकमात्र साधन है। रंगमंग सिनेमा और रेडियो के लिए अच्छे चरित्रों के चयन का केन्द्र भी बन सकता है।
बहुत बार ऐसा होता है कि रंगमंच की अपेक्षाओं के अनुसार नाटकों की रचना की जाती है, पर कई बार ऐसा भी होता है कि एक नाटक के लिए विशेष रंगमंच का संयोजन किया जाता है। परन्तु दोनों ही स्थितियों में नाटककार के सामने रंगमंच के रूपविधान का स्पष्ट होना आवश्यक है। तथाकथित साहित्यिक नाटक साहित्य-कृति होते हुए भी नाटक नहीं होता। विचार और भावपूर्ण गुम्फित भाषा नाटकीयता की कसौटी नहीं है। संवादों और घटनाओं को दृश्यों और अंकों में बाँट देना ही पर्याप्त नहीं, नाटककार के लिए यह आवश्यक है कि वह जो कुछ लिखता है उसे आँख मूँदकर अपनी कल्पना के रंगमंच पर घटित होते हुए भी देखे। लिखा हुआ नाटक अपने में पूर्ण कृति नहीं होती। रंगमंच की पृष्ठभूमि और पात्रों का अभिनय उसे पूर्णता प्रदान करते हैं। एक कृति के रूप में नाटक तभी सफलता प्राप्त कर सकता है जबकि उसमें रंगमंच पर अभिनीत होने की सम्भावनाएँ निहित हों। अन्यथा कहानी और उपन्यास उससे कहीं पूर्ण रचनाएँ हैं। उनमें पृष्ठभूमि और चरित्रों की भाव-भंगिमाओं आदि का वर्णन विस्तारपूर्वक कर दिया जाता है। कहानी और उपन्यास अपना वातावरण अपने में लिये रहते हैं जबकि नाटक का वातावरण रंगमंच पर ही प्रस्तुत होता है। लिखा गया नाटक एक हड्डियों के ढाँचे की तरह है जिसे रंगमंच का वातावरण ही मांसलता प्रदान करता है।
जहाँ हिन्दी नाटक का उदय सदियों के व्यवधान के बाद संस्कृत नाटक की परंपरा में और उसी की विरासत लेकर हुआ, वहाँ हिन्दी रंगमंच ने उन पारसी कम्पनियों की हीन और गली-सड़ी विरासत लेकर जन्म लिया, जो स्वयं घटिया दर्जे के यूनानी रंगमंच से प्रेरणा लेकर पनपी थीं। लकड़ी के तख्ते, चार-छ: भोंडे रँगे हुए गोल होकर उठनेवाले पर्दे, एक ड्राप सीन और रंगमंच तैयार। पर्दों के दृश्यों का भी एक निश्चित-सा फ़ार्मूला था। एक पर्दा उद्यान का, जिसके पीछे सरोवर या नदी का दृश्य होता था। एक बाज़ार का पर्दा होता था, जिसमें लाल रंग के लैटर-बॉक्स होना ज़रूरी था। राम-लक्ष्मण ऋषि विश्वामित्र के साथ बात करते हुए उसी लैटर-बॉक्स वाले बाज़ार से गुज़रा करते थे। रामायण काल, महाभारत काल और आधुनिक काल के लोगों की वेशभूषा प्राय: एक सी होती थी। राजा दशरथ और राक्षसराज रावण एक सी मुगलिया फ़ैशन की कन्धारी जूतियाँ पहनते थे। पर्दे के पीछे राम और लक्ष्मण में इस बात पर लड़ाई हो जाती थी कि दोनों में से किसका पार्ट ज़्यादा लम्बा है और किसे ठर्रे की मात्रा अधिक मिलनी चाहिए। एक बार एक ऐसी ही कम्पनी के लक्ष्मण स्टेज पर जाने से पहले ठर्रा ज़रा ज़्यादा चढ़ा गये थे, इसलिए उन्हें एक बार जो मूर्छा पड़ी तो हनुमान के संजीवनी लेकर लौट आने पर भी नहीं टूटी। बेचारे राम रो-रोकर और गा-गाकर परेशान हुए जा रहे हैं, मगर लक्ष्मण को वारुणी का ऐसा तीर लगा है कि होश ही नहीं आता। आखिर राम और सुग्रीव को मिलकर लक्ष्मण को स्टेज से उठाकर ले जाना पड़ा। कई बार मूर्छित होने या मरने के हृदयविदारक दृश्यों पर जनता की इतनी दाद मिलती थी कि मूर्छित होने या मरनेवाले को फिर से उस अभिनय को दोहराना पड़ता था। चक्रव्यूह में घिरा हुआ वीर बालक अभिमन्यु मरता हुआ दुर्योधनादि की भर्त्सना कर रहा है :
कायरो, पापियो, माता का दूध लजानेवाले निर्लज्जो, क्षत्रियों के वंश को कलंकित करने वाले राक्षसो, इधर देखो-
मेरे सोने के लिए है पृथ्वी पर्यंक।
और तुम्हारे वास्ते है यह वीर कलंक॥
हट जाओ, हट जाओ, अब भी मैं तुम सबके लिए बहुत हूँ। मरते-मरते भी अपनी मुष्टिका से दो चार को चूर्ण कर दूँगा। कार्य सम्पूर्ण कर दूँगा। आह!
अभिमन्यु गिर जाता है, सारे हॉल में तालियाँ बजती हैं और मरहबा-मरहबा की आवाज़ें आती हैं और अभिमन्यु एक बार फिर उसी तरह मरने के लिए उठकर खड़ा हो जाता है :
कायरो, पापियो, माता का दूध लजाने वाले निर्लज्जो...! इत्यादि।
हिन्दी में कविरत्न पंडित राधेश्याम कथावाचक की कृतियाँ ही इस रंगमंच के अनुकूल बन सकीं। इससे अधिक की शायद आशा भी नहीं की जा सकती थी। हिन्दी नाटक के उदय काल में भारतेन्दु बाबू ने इस दकियानूसी परंपरा से हटकर नए रंगमंच की स्थापना का प्रथम प्रयत्न किया था। परन्तु अपने सीमित साधनों और व्यापक सहयोग के अभाव के कारण उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली। भारतेन्दु के मौलिक नाटकों में रंगमंच के सम्बन्ध में उनकी स्पष्ट दृष्टि का परिचय अवश्य मिलता है। लोकरुचि और परंपरा दोनों को मान्यता देते हुए उन्होंने संस्कृत नाटक के रंगशिल्प को नए साँचे में ढालने का प्रयत्न किया। भारतेन्दु की पात्र-कल्पना तथा उनके दृश्य-संयोजन जन-साधारण में नाटक की स्थापना की दृष्टि को व्यक्त करते हैं। यह हिन्दी रंगमंच का प्रथम उत्थान था। भारतेन्दु की दृष्टि को आगे विकसित किया जाता तो अब तक हिन्दी रंगमंच का एक निश्चित रूप हमारे सामने आ गया होता। परन्तु उनके बाद रंगमंच का क्षेत्र 'वीर अभिमन्यु' जैसे नाटकों के लिए छोडक़र हिन्दी के साहित्य-स्रष्टाओं ने एक दूसरा ही मार्ग चुन लिया। प्रसादजी ने पारसी कम्पनियों की परंपरा से तो नाता तोड़ा पर न उन्होंने भारतेन्दु की परंपरा को आगे ले जाने का प्रयत्न किया और न ही रंगमंच की किसी नई परंपरा का संकेत दिया। यद्यपि उनका विचार था कि परिष्कृत बुद्धि के अभिनेता हों, सुरुचि-सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाए तो उनके नाटक अभिनीत होकर अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, पर उनके नाटकों के शिल्प को देखते हुए उनसे सहमत होना असम्भव प्रतीत होता है। उन्होंने अपने विचार की पुष्टि के लिए 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' जैसे संस्कृत नाटकों का उदाहरण दिया है। परन्तु 'शाकुन्तलम्' तथा अन्य संस्कृत नाटकों में जो अपनी ही एक यूनिटी है, वह प्रसादजी के नाटकों में नहीं पायी जाती। 'शाकुन्तलम्' पूरा का पूरा अभिनेय है। रथ के दृश्यों के सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि वे रंगमंच पर प्रस्तुत नहीं किये जा सकते, परन्तु वास्तव में वहाँ रंगमंच पर रथ की उपस्थिति का आभास-मात्र देना अभिप्रेत है-'पश्य' के बाद वर्णित किया जानेवाला सब कुछ नेपथ्य में संकेतित होता है, रंगमंच पर घटित होता नहीं दिखाया जाता। इसी तरह भास के नाटक भी असंदिग्ध रूप से अभिनेय हैं। परन्तु प्रसादजी के नाटकों के सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता। प्रसादजी का रंगमंच के साथ सम्पर्क नहीं रहा, शायद इसीलिए वे रंगमंच की सीमाओं से परिचित नहीं हो सके। 'चन्द्रगुप्त' नाटक के द्वितीय अंक के आठवें दृश्य में मालविका और चन्द्रगुप्त रावी के तट पर कुछ सैनिकों के साथ खड़े हैं और नदी में दूर पर कुछ नावें दिखाई दे रही हैं। सिंहरण के संकेत करने पर नावें चली जाती हैं। फिर एक नाव तेज़ी से आती है और उस पर से अलका उतर पड़ती है। हमें आश्चर्य होता है कि ऐसे-ऐसे दृश्यों की योजना करते समय प्रसादजी ने किस तरह के रंगमंच की कल्पना की होगी? यदि यह कहा जाए कि चित्रपट को दृष्टि में रखकर उनहेंने ऐसा किया होगा तो और भी खेद होता है क्योंकि चित्रपट के नाटक की और कई अपेक्षाएँ हं और उसमें संवाद बहुत कम होते हैं। 'चन्द्रगुप्त' जैसे नाटक को यदि ज्यों का त्यों चित्रपट पर प्रस्तुत किया जाए तो उसके लिए शायद लगभग पचास हज़ार फुट फ़िल्म की ज़रूरत पड़ेगी और दर्शक को हॉल में लगभग बारह घंटे बैठना होगा।
प्रसादजी के नाटकों को प्रांजल भाषा, भाव-गम्भीरता और साहित्यिक उपलब्धि का कुछ ऐसा प्रभाव पड़ा कि रंगमंच के साथ नाटक के सम्बन्ध की चेतना ही लुप्त हो गयी। इस चेतना का पुनर्विकास हिन्दी में एमेच्योर रंगमंच के उदय के साथ हुआ है। एमेच्योर रंगमंच की बढ़ती हुई माँग के कारण पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में रंगमंच के अनुकूल सामाजिक और ऐतिहासिक नाटक, विशेष रूप से एकांकी नाटक की रचना की गयी है। परन्तु हमारे एमेच्योर रंगमंच का निर्माण भी पाश्चात्य रंगमंच की नक़ल में ही हुआ है, इसलिए उसका अपना व्यक्तित्व अभी तक भी नहीं निखर पाया है। पाश्चात्य नाटक प्राय: ड्राइंग-रूम के सेट पर लिखा जाता रहा है, इसलिए हमारे यहाँ का सामाजिक नाटक भी अधिकांशत: मध्यम वर्ग के घर के ऐसे सेट को दृष्टि में रखकर लिखा जाता रहा है, जहाँ मेज़-कुर्सियाँ, बुक-शेल्फ़ और टेबल-लैम्प इत्यादि चीज़ें अनिवार्य-सी होती हैं। ज़्यादा हिंदुस्तानीपन लाना हुआ तो महावीर आदि की तस्वीरें पृष्ठभूमि में लटका दी गयीं। इस तरह के सेट की कल्पना नाटक को अधिकांशत: शहरी वर्ग तक सीमित कर देती है और नाटककार के लिए जीवन के वस्तुविस्तार को भी सीमित कर देती है। रंगमंच के विषय में सोचते हुए हम पाश्चात्य नाटक के रंग-शिल्प को दृष्टि में रखें और हिन्दी के निजी रंगमंच के विकास की बात करें,इसमें असंगति ही प्रतीत होती है। हिन्दी रंगमंच के विकास से नि:सन्देह हमारा यह अभिप्राय नहीं है कि अत्याधुनिक सुविधाओं से सम्पन्न रंगशालाएँ राजकीय या अर्द्ध-राजकीय संस्थाओं द्वारा बनवा दी जाएँ, जहाँ हिन्दी के नाटककारों की रचनाओं का प्रदर्शन किया जा सके। यह प्रश्न केवल आर्थिक सुविधा का नहीं, एक सांस्कृतिक दृष्टि का है। हिन्दी का वास्तविक रंगमंच राजकीय आयोजनों से नहीं, समर्थ नाटककारों और अभिनेताओं तथा दिग्दर्शकों के हाथों विकसित होगा। यदि नाटक जीवन के द्वन्द्वों का चित्रण करेगा तो रंगमंच को भी जीवन की परिस्थितियों के अनुकूल ढलना होगा। हिन्दी रंगमंच को हिन्दी-भाषी प्रदेश की सांस्कृतिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का प्रतीक बनना होगा। हमारा रंगों और राशियों का विवेक नए रंगमंच की सज्जा को बल देगा। हमारे दैनन्दिन जीवन के राग-रंग को प्रस्तुत करने के लिए, हमारे ब्याह-त्योहारों के स्पन्दनों को आकार देने के लिए जिस रंगमंच की आवश्यकता है, वह पाश्चात्य शैली के रंगमंच से कहीं खुला होना चाहिए। हरे या स्लेटी रंग की पृष्ठभूमि की बजाय हम हल्दी, चन्दन और गेरू के रंगों का स्पर्श देकर ऐसी पृष्ठभूमि की रचना कर सकते हैं जो सभी तरह के दृश्यों को प्रस्तुत करने के लिए उपयुक्त और आँखों पर सुखकर प्रभाव छोडऩे वाली हो। आधुनिक पाश्चात्य रंगमंच की तरह कैनवस, गत्ते और लकड़ी की सेटिंग देने और पाश्र्व संगीत तथा लाइट और साउंड के इफेक्ट इत्यादि की चर्चा बाद की चीज़ है। यदि हम स्पेशलाइज्ड रंगमंच की कल्पना से आरम्भ करें तो उसे साधारण जन-जीवन की चीज़ नहीं बना सकेंगे। जगदीशचन्द्र माथुर ने हिन्दी रंगमंच के तीन रूपों की कल्पना की है-यथार्थवादी, व्यावसायिक और देहाती। व्यावसायिक रंगमंच का विकास तो हमारे हाथों न होकर किन्हीं और लोगों के हाथों ही हो सकता है, पर समस्या-प्रधान यथार्थवादी नाटक और देहाती अभिनयों के लिए हम एक से रंगमंच की कल्पना लेकर न चल सकें, ऐसा नहीं है। यदि हम रंगों और ध्वनियों पर उचित ध्यान रख सकें तो साधारण से साधारण सेट पर खेला गया नाटक भी प्रभावशाली हो सकता है। दूर जाने से पहले हमें वर्तमान एमेच्योर रंगमंच के रूप का परिष्कार करने का प्रयत्न करना चाहिए। कई बातों में अभी तक हम पारसी कम्पनियों की विरासत लेकर चल रहे हैं। पारसी रंगमंच पर जहाँ पुरुष-कंठ से सीता-विलाप सुनना पड़ता था, वहाँ हिन्दी-भाषी प्रदेश के बहुत से भागों में आज भी शेव करके पाउडर लगाये हुए नवयुवक चारुमित्रा और अंजो दीदी का अभिनय करते दिखाई देते हैं। मिश्रित अभिनय के सम्बन्ध में बड़े-बड़े शहरों में तो लोकरुचि का संस्कार हुआ है, पर अन्यत्र बहुत जगह यह संस्कार होना रहता है। दूसरे, एमेच्योर रंगमंच से प्रांप्टर नाम के व्यक्ति को जितनी जल्दी हटाया जा सके, उतना ही अच्छा है। स्टेज पर आल-पिकर का प्रयोग होने से कई बार ऐसी-ऐसी आवाज़ें सुनाई दिया करती हैं :
प्रांप्टर की आवाज़: हेमलता..तुम...आप पढ़े-लिखे हैं?
हेमलता: तुम...आप पढ़े-लिखे हैं?
प्रांप्टर: लोचन...पढ़ा-लिखा?
लोचन: पढ़ा-लिखा?
प्रांप्टर: हाँ भी और नहीं भी...
लोचन: हाँ भी और नहीं भी...
प्रांप्टर: अच्छा चलता हूँ।
लोचन: अच्छा चलता हूँ।
प्रांप्टर: हाँ, यह तस्वीर आपने बनायी है?
लोचन: हाँ, यह तस्वीर आपने बनायी है?
प्रांप्टर: हेमलता...कोई त्रुटि है क्या?
हेमलता: कोई त्रुटि है क्या?
दर्शक के कान में पड़ती हुई ये दोहरी आवाज़ें रसभंग ही नहीं करतीं, सारे वातावरण को उसके लिए अयथार्थ बना देती हैं। उपेन्द्रनाथ अश्क ने अपने नाटक 'पर्दा उठाओ, पर्दा गिराओ' में प्रांप्टिंग के परिणामों का अच्छा खाका खींचा है। हम इन छोटे-छोटे सुधारों से आरम्भ करके रंगमंच को अधिकाधिक सादा और सर्व-सुलभ बनाने का प्रयत्न करें तो नि:सन्देह बहुत जल्दी निश्चित परिणामों की ओर बढ़ रहे होंगे।