हिंदी लघुकथा: प्रतिनिधि रचनाकार / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

विष्णु प्रभाकर

साहित्य में भारतीय वाग्मिता और अस्मिता को व्यंजित करने के लिए प्रसिद्ध रहे श्री विष्णु प्रभाकर का जन्म 2 जून, 1912 को मीरपुर, जिला मुजफ्फरनगर (उ।प्र।) में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा पंजाब में हुई. हिसार से मैट्रिक की परीक्षा के पश्चात् नौकरी करते हुए पंजाब विश्वविद्यालय से भूषण, प्राज्ञ, विषारद, प्रभाकर आदि की हिंदी-संस्कृत परीक्षाएं उत्तीर्ण कीं।

हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार विष्णु प्रभाकर मूलतः नाटककार और कहानीकार हैं। इन्होंने कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, निबंध, एकांकी, यात्रा-वृत्तांत, लघुकथा आदि विधाओं में लगभग सौ कृतियाँ हिन्दी को दीं। हिन्दी में एकांकी के जनक के रूप में रामकुमार वर्मा व विष्णु प्रभाकर का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। 'आवारा मसीहा' उनकी सर्वाधिक चर्चित जीवनी है, जिस पर उन्हें 'पाब्लो नेरूदा सम्मान' , सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार सहित अनेक देशी-विदेशी पुरस्कार मिले। वे अपने प्रसिद्ध नाटक 'सत्ता के आर-पार' के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के 'मूर्तिदेवी पुरस्कार' तथा हिन्दी अकादमी, दिल्ली के 'शलाका सम्मान' से भी सम्मानित किए गए. विष्णु प्रभाकर आकाशवाणी, दूरदर्शन, पत्र-पत्रिकाओं तथा प्रकाशन-सम्बंधी मीडिया के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त लोकप्रिय रहे। वे जीवन-पर्यंत पूर्णकालिक मसिजीवी रचनाकार के रूप में साहित्य-साधनारत रहे। 11 अप्रैल 2009 को उनकी मृत्यु हो गई.

विष्णु प्रभाकर ने 1939 ई. में लघुकथा-लेखन आरंभ किया था। 1963 ई. में प्रकाशित इनका पहला लघु-रचना संग्रह 'जीवन पराग' स्वयं इनके शब्दों में 'बोध कथाओं का संग्रह' है। इनमें नई लघुकथाएं जोड़कर 1982 में इनका दूसरा संग्रह 'आपकी कृपा है' आया। इन 46 रचनाओं में 15 और जोड़कर 1989 में 'कौन जीता कौन हारा' लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुआ। अंत में सन् 2009 में 'संपूर्ण लघुकथाएं' नाम से इनकी 101 रचनाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ। इस में इनकी प्रारंभिक दौर की बोधकथाएं और परवर्ती काल की लघुकथाएं दोनों साथ-साथ रखी गई हैं।

इनके दूसरे संग्रह 'आपकी कृपा है' की 'भूमिका' का उल्लेख यहाँ आवश्यक है। वे आदर्श लघुकथा के बारे लिखते हैं-'आदर्श लघुकथा वह है, जो किसी कहानी का कथानक न बन सके.' लघुकथा आंदोलन के महत्त्व का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं, "आज लघुकथा को लेकर जो आंदोलन उभरा है, यदि वह न उभरा होता तो संभवतः मेरा ध्यान इस ओर इतनी गंभीरता से न जाता।"

विष्णु प्रभाकर की परवर्ती लघुकथाएं मुख्य रूप से मानवीय संवेदनाओं की लघुकथाएं हैं। उन्होंने मुख्यतः द्वन्द्व के माध्यम से मनुष्य में छिपे शुभ और संुदर तत्वों को उभारने का सफल प्रयास किया है। भाषा का सहज प्रवाह इनकी लघुकथाओं में सर्वत्र देखा जा सकता है।

फर्क, ईश्वर का चेहरा, दोस्ती, पानी की जाति, क्षमा, सहानुभूति, तर्क का बोझ, इतनी-सी बात इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

'फर्क' लघुकथा में मनुष्य-मनुष्य के बीच बनाई हुई व्यर्थ की सीमाओं व दीवारों पर पषु-जगत के माध्यम से सहज व्यंग्य किया गयाहै।

'ईश्वर का चेहरा' लघुकथा भावनात्मक धरातल पर आकर सांप्रदायिक भेद-भाव को भुलाने की मानवीय प्रेरणा देती है। अस्पताल में सबीना की प्रभा के प्रति चिंता व लगाव को देखकर प्रभा सोचती है कि "ईश्वर का अगर कोई चेहरा होगा तो सबीना के जैसा ही होगा।"

'दोस्ती' लघुकथा बड़ी सहजता से विधायक और डाकू की दोस्ती को सार्वजनिक करती है। डाकू बस में सबको लूटते हैं, सिवाए विधायक-परिवार के. लोग चाहते हैं कि इस लूट की रिपोर्ट वे मुख्यमंत्री से करें, लेकिन विधायक बदले में दोस्ती निभाने की बात कह लोगों की बात टाल जाता है।

'पानी की जाति' मनुष्यता को उभारने वाली प्रभावषाली लघुकथा है। यह समाज की बनायी संकीर्णताओं को तोड़ने का सफल कथात्मक उपक्रम करती है।

'क्षमा' लघुकथा अनकहे के माध्यम से मानवीयता को उभारती है। नर्सों से घृणा करने वाला एक युवक एक नर्स को पत्थर से घायल कर देता है। किंतु वही नर्स कोयला-खान में धमाके के बाद उस घायल युवक की भी सबके साथ मन से सेवा करती है। युवक को अंत में पता चलता है कि नर्स ने उसे अस्पताल आते ही पहचान लिया था।

'सहानुभूति' लघुकथा भी हिंसा-प्रतिहिंसा, क्रिया-प्रतिक्रिया की सोच के विपरीत नए इन्सानी रास्ते खोजती है। अराजकतावादियों की सभा में एक शराबी लुई माइकेल को गोली मारकर घायल कर देता है। न्यायालय में लुई माइकेल शराबी की पैरवी करती हुई कहती है कि वह अपराधी होकर भी दुष्ट नहीं है। अतः सजा देने की बजाए सहानुभूति से ही उसकी निर्बलता दूर हो सकती है। लुई कहती है कि उसे मामूली-सी चोट ही आई है।

'इतनी-सी बात' भीड़-मनोविज्ञान को दर्शाने वाली लघुकथा तो है ही, समस्या को सुलझाने के साथ ही रचना का अंत पाठकों को बहुत प्रभावित करता है।

विष्णु प्रभाकर की लघुकथाएं मानवीयता की पक्षधर हैं, इस कारण मानव-मानव के बीच समाज द्वारा खड़ी की गई दीवारों का सहज विरोध करती हैं। इस विरोध में कहीं संवेदना है, तो कहीं तार्किकता। विष्णु प्रभाकर की लघुकथाओं का ताना-बाना मुख्यतः इन्हीं प्रवृत्तियों के आधार पर बुना गया है।

हरिशंकर परसाई

"हरिशंकर परसाई भारतीय साहित्य का एक ऐसा ऐतिहासिक चेहरा है, जिसने मानव-समाज की बेहतरी के लिए न केवल विसंगतिपूर्ण चुनौतियों का निरंतर सामना किया, उनके विरूद्ध साहित्यिक हथियार उठाए, अपितु उनके विरूद्ध दिशापूर्ण संघर्ष के संस्कार भी दिए." (प्रेम जनमेजय)

भारतीय साहित्य के शीर्षस्थ व्यंग्यकार के रूप में प्रतिष्ठित हरिशंकर परसाई का जन्म 22 अगस्त 1924 को जमानी नामक गाँव, जिला होशंगाबाद (म।प्र।) में हुआ। गहन आर्थिक अभावों के बीच पारिवारिक दायित्व निभाते हुए इन्होंने हिन्दी में एम.ए, किया। विभिन्न स्कूलों में अध्यापन के बाद 1958 से केवल स्वतंत्र लेखन का कार्य किया। 1956 में जबलपुर से 'वसुधा' नामक साहित्यिक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया।

हरिशंकर परसाई ने निबंध, उपन्यास, कहानी व लघुकथा क्षेत्र में निरंतर कलम चलाई. प्रगतिशील हिन्दी साहित्य में जो स्थान आजादी से पूर्व प्रेमचंद का है, वही स्थान आजादी के बाद हरिशंकर परसाई का है। स्वातन्न्न्योत्तर सामाजिक और राजनीतिक जीवन की मूल्यहीनता का कोई पहलू उनकी विवेक-दृष्टि से बच नहीं पाया है। 'हँसते हैं रोते हैं" से प्रारंभ होकर उनकी रचना-यात्रा' सदाचार का ताबीज़ वैष्णव की फिसलन'निबंध-संग्रहों जैसे अनेक पड़ाव पार कर' विकलांग श्रद्धा का दौर' (1980) पुस्तक में अपने उत्कर्ष को प्राप्त कर लेती है। इसी पुस्तक पर उनको 1982 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। लगभग दो दर्जन पुस्तकों के रचयिता हरिशंकर परसाई का 10 अगस्त 1995 में देहांत हो गया।

जिस प्रकार अन्य विधाओं में हरिशंकर परसाई को केवल 'व्यंग्यकार' कहकर उपेक्षित किया जाता रहा है, इसी प्रकार लघुकथा-क्षेत्र में प्रांरभिक समकालीन दौर में परसाई को उपेक्षित किया गया। हिन्दी लघुकथा के इतिहास पर महत्त्वपूर्ण कार्य करने वाले जगदीष कश्यप इन्हें लघुकथा लेखक न मानकर व्यंग्यकार मानते थे।

हरिशंकर परसाई की लघुकथाएं 1948 ई. से मिलती हैं। इनकी अधिकतर परवर्ती लघुकथाएं इनके व्यंग्यात्मक निबंध-संग्रह 'विकलांग श्रद्धा का दौर' (1980) में मिलती हैं। अपने जीवन-काल में परसाई ने लगभग सौ लघुकथाएं लिखीं जिनमें से सन् 1984 तक की उनकी लघुकथाएं परसाई रचनावली (भाग-2) में संकलित हैं। इनकी प्रतिनिधि लघुकथाओं में संस्कृति, जाति, सूअर, खेती, बात, यस सर, आफ्टर आल आदमी, बाप बदल शामिल हैं।

परसाई की कहानियों-उपन्यासों की भांति उनकी लघुकथाएं भी समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक परिदृश्य में एक नैतिक और रचनात्मक हस्तक्षेप हैं, जो हमें वर्तमान भारतीय समाज में क्रांतिकारी बदलाव के लिए संस्कारित करती हैं।

हरिशंकर परसाई ने अपने समग्र लेखन में राजनीतिक विषयों पर खुलकर कलम चलाई है, जबकि उनकी लघुकथाओं में सामाजिक धरातल मुख्य रहा है। आकार में छोटी इन कथा-रचनाओं में देश की बड़ी सच्चाइयां असरदार ढंग से उजागर की गई हैं। जैसे-विज्ञापन-तंत्र ने अच्छी और सड़ी-गली चीजों में कोई अंतर नहीं रहने दिया (ईडन के सेब) , राजनीतिक पार्टी के लोगों की निष्ठा किसी भी नेता के प्रति न होकर केवल अपने करियर के प्रति होती है (बाप बदल) , प्रशासन में मानवीयता नहीं है, लेकिन दूसरों से वह ऐसी अपेक्षा करता है (अनुशासन) , धर्म का राजनीतिक अस्त्र के रूप में इस्तेमाल हो रहा है (अयोध्या में खाता-बही) , आज क्रान्ति शाब्दिक और व्यक्तिगत धरातल पर अधिक सिमट गई है (क्रांतिकारी की कथा) , सरकारी कर्मचारी अपने स्वतंत्र विचारों व विवेक को शासक पार्टी के पास गिरवी रख देते हैं (आफ्टर आल आदमी) , सरकारी कार्यालयों में सब काम कागज पर होते हैं, वहाँ काम की फ़िक्र नहीं, सिर्फ़ ज़िक्र होता है (खेती, यस सर) । इन लघुकथाओं में लेखक अपने अनुभव को, बहुत-सी हिन्दी लघुकथाओं की भांति, हू-ब-हू नहीं कहता, बल्कि उसका सूक्ष्म विश्लेषण करता है, जो किसी बड़ी सच्चाई के एक अंग के रूप में सामने आता है। इसलिए कई बार इनकी लघुकथाओं की एक पंक्ति भी समाज की विसंगति को उजागर करने की स्थिति से कहीं आगे जाकर व्यंग्य की तर्क-आधारित चोट करने में सक्षम होती है। जैसे, 'जाति' लघुकथा का अंतिम वाक्य है-'व्यभिचार से जाति नहीं जाती, शादी से जाती है।' यह बात अपनी जाति से चिपके पिता द्वारा कहलायी गई है, जिसमें छिपा व्यंग्य और विसंगति से बुना गया तर्क एक साथ पाठक की चेतना तक पहुँचकर जड़ संस्कारों पर चोट करता है। परसाई आदमी की कमजोरी को उसी के मुंह से कहलाकर पाठक को उसके खिलाफ खड़ा करने की कला में माहिर हैं। 'देव-भक्ति' का अंतिम वाक्य-तेलियों के गणेश की ऐसी-तैसी, हमारा (ब्राहा्रणों का) गणेश आगे जाएगा। 'और' गोभक्त'में सेठजी का अंतिम वाक्य-' हमारी माता को कोई और कैसे मार सकता है, उसे हम ही मारेंगे। ' ऐसी ही तासीर लिए हुए हैं।

इन लघुकथाओं में लेखक ने विसंगतियों व अंतर्विरोधों को उनके मूल रूप में पकड़कर उनके पीछे सक्रिय जड़ता, संस्कारबद्धता, स्वार्थपरता आदि से जोड़ कर उन्हें व्यापक अर्थ में उद्घाटित किया है। अतः इनकी लघुकथाएं अपने प्रभाव में अपने आकार का अतिक्रमण कर जाती हैं। इनका आलोचनात्मक टीका-टिप्पणी का जो तरीका आरंभिक लघुकथाओं में है, परवर्ती रचनाओं में वह कलात्मक पकड़ के साथ सामने आता है। परसाई ने अपने समग्र लेखन की भांति इन लघु आकारीय रचनाओं में भी अपने अनुभव का सूक्ष्म विश्लेषण किया है, जो यथार्थ के किसी बड़े पक्ष के एक अंग के रूप में सामने आता है। इनका व्यंग्य तर्क आधारित है, इसलिये पाठकीय चेतना में अपना स्थान बनाता जाता है। वे हास्यात्मक स्थिति का भी सोद्देश्य व्यंग्यात्मक प्रयोग करने की कला में सिद्ध्हस्त हैं। इन्होंने यथार्थ के दबाव व विषय को अधिक प्रभावान्विति से प्रस्तुत करने की दृष्टि से लघुकथा के रूपाकार में परिवर्तन और प्रयोग करने में संकोच नहीं किया है। इनकी अधिकतर लघुकथाओं में तर्क और व्यंग्य की चरम परिणति रचना की चरम परिणति के साथ ही होती है। इसी कारण वह अपने प्रभाव में अधिक मारक सिद्ध होती हैं। जहाँ प्रसाद की लघुकथाएं सघन बिम्ब निर्मित करती हैं, वहीं परसाई की लघुकथाएँ सशक्त तर्क निर्मित करती हैं।

'जाति' लघुकथा हर क्षेत्र में जातिगत संकीर्णता से चिपकने वाली मानसिकता पर, उसके ज़रिये विद्रूप को उभारकर, प्रहार करती है। संकीर्णता पर गर्व करने वाला समाज उनके लिये अन्य विकृतियों को भी स्वीकार करने को तैयार है।

'सूअर' में पेट की भूख को संस्कृति के प्रश्न की अपेक्षा प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण माना गया है। तर्क और व्यंग्य की बुनावट से यह रचना आशातीत प्रभाव छोड़ती है।

'खेती' में कला का अद्भुत संयम और सौन्दर्य है। सरकारी विभागों की कार्य-शैली को बीस लाख एकड़ कागज पर हुई खेती के माध्यम से उभारा गया है। लेखक की कला यहाँ वर्णनात्मकता को सशक्त शैली के रूप में सिद्ध कर देती है।

'बात' लघुकथा आठ पात्रों के माध्यम से मध्यवर्ग की इस कमजोरी को व्यक्त करती है कि उसके मन में गोपनीय बात भी नहीं टिकती। यह रचना 'काल-दोष' जैसी गैर-रचनात्मक बातों की व्यर्थता सहज ही सिद्ध कर देती है।

हरिशंकर परसाई की लघुकथाएं अपनी आकारगत सीमा को तोड़कर प्रभावान्विति में बाहर फैलती हुई दिखाई देती हैं। इनकी लघुकथाएं रचना की आवश्यकतानुसार विभिन्न स्तरों-सीमाओं का अतिक्रमण कर अपना संसार रचती हैं। इनमें एक सहज विश्वनीयता है, व्यंग्य की महीन बुनावट के कारण तीव्र प्रभाव है, पाठक को अपने से जोड़ने और अपने तर्क व सहजता के बहाव में बहा ले जाने की अद्भुत क्षमता है। इसलिए ये लघुकथाएं एक शिखर पर खड़ी दिखाई देती हैं।

सतीश दुबे

हिंदी लघुकथा के पुनर्स्थापना-काल में जो लेखक अपनी रचनाओं, आलेखों, संपादन आदि के माध्यम से निरंतर सक्रिय रहे, उनमें सतीश दुबे का नाम प्रमुख है।

सतीश दुबे का जन्म 12 नवम्बर 1940 को इन्दौर में हुआ। एम.ए. (हिंदी व समाजशास्त्र) व पी-एच.डी. तक शिक्षा प्राप्त सतीश दुबे व्यवसाय से प्राध्यापक रहे हैं। दिनांक 25.12.2016 को उनका देहान्त हो गया।

कथाकार सतीश दुबे के अब तक छह कहानी संग्रह, छह लघुकथा-संग्रह नवसाक्षरों के लिए छह पुस्तकें तथा एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी पहली लघुकथा 'डेªस का महत्त्व' 1965 में 'सरिता' पत्रिका के 15 फरवरी 1965 अंक में प्रकाशित हुई. इनके 'सिसकता उजास' (1974) , भीड़ में खोया आदमी (1990) , राजा भी लाचार है (1994) , प्रेक्षागृह (1998) , समकालीन सौ लघुकथाएं (2007) , 'बूँद से समुद्र तक' (2011) और 'प्रेम के रंग' (2017) लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। 2013 में 'डॉ। सतीश दुबे की श्रेष्ठ लघुकथाएं' (सं। सुरेश जांगिड़ उदय) पुस्तक प्रकाशित हुई है। सतीश दुबे की चयनित लघुकथाओं के पंजाबी, मराठी, गुजराती, बांग्ला व तेलुगु में एक-एक अनूदित संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त इन्होंने समय-समय पर अपने लघुकथा-सम्बंधी विभिन्न आलेखों के द्वारा लघुकथा-साहित्य से जुड़ी अपनी अवधारणाओं को स्पष्ट किया है।

सतीश दुबे की प्रमुख लघुकथाओं में 'बर्थ-डे गिफ्ट' , 'बजट' , 'स्टेच्यु' , 'भीड़' , 'श्रद्धांजलि' , 'पासा' , 'फैसला' , 'कत्ल' , 'रीढ़' आदि शमिल हैं।

इनकी 'बर्थ-डे गिफ्ट' लघुकथा सहज संवेदनशील पारिवारिक रचना है। दादा के जन्म-दिन पर पोती के उत्साह को संतुलन के साथ उभारा गया है। घर में सिर्फ़ पोती को दादा का जन्मदिन याद था, जो उसने अपनी बचाकर रखी टॉफी को दादा के मुँह में डालकर मनाया। यह रचना ज्ञान प्रकाश विवेक की 'मेहमाननवाजी' लघुकथा की याद दिलाती है।

'बजट' निम्न मध्यवर्ग के परिवार पर केंद्रित रचना है। यह वर्ग बेहतरी के सपनों को निरंतर स्थगित करने को विवश है। तीन सौ का एरियर कपड़े खरीदने में नहीं, दवा दारू जैसी तुरन्त की आवश्यकताओं तक सिमट जाता है। विवशता-बोध की यह रचना मधुदीप की 'हिस्से का दूध' लघुकथा का स्मरण करा देती है।

'पासा' संवाद शैली में रचित पारिवारिक धरातल की श्रेष्ठ लघुकथा है। संवादों से ही स्पष्ट होता है कि पति की रुचि घर के कामों में बहुत कम है। लेकिन जब पत्नी बताती है कि उनकी क्लास-फेलो कुमुद आई थी, तब उसका उत्साह एकदम जाग जाता है। पर अब उसकी पत्नी इस बात में अरुचि दिखाती है।

'कत्ल' लघुकथा में संवेदनहीन होते समाज की तस्वीर उकेरी गई है। मुस्लिम बस्ती के लोग इस चर्चा में मशगूल हैं कि हसन साहब का कत्ल किसने और क्यों किया होगा। किसी को उसके जनाजे़ को कंधा देने या साथ चलने की बात सूझती तक नहीं।

स्थितियों को हू-ब-हू तथा संतुलन के साथ उकेरने में डॉ। दुबे कुशल हैं। इन लघुकथाओं की सहजता इतनी पुष्ट है कि वैचारिकता भी उसमें बाधा नहीं डालती। इनकी कई लघुकथाएं बहुत सरल-सपाट लग सकती हैं, किंतु उनके पीछे लेखक की मानवीय चिंताओं तथा उसके संघर्षशील व्यक्तित्व को साफ पहचाना जा सकता है।

सतीश दुबे की अधिकतर लघुकथाएं समाज और परिवार की विभिन्न सच्चाइयों पर केंद्रित हैं। वे वर्तमान समय के महत्त्वपूर्ण लघुकथा-लेखक हैं।

युगल

हिन्दी साहित्य में चुपचाप साहित्य-साधना में लीन रहने वाले युगल का वास्तविक नाम युगल किशोर है। इनका जन्म सन् 1925 की दीपावली को हुआ था। हिन्दी में बी.ए. (ऑनर्स) और साहित्यरत्न युगल आरम्भ में समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं के संपादन से जुडे़ रहे।

युगल विभिन्न साहित्य-विधाओं में निरंतर लिखते-छपते रहे हैं। अब तक इनके तीन उपन्यास, तीन कहानी-संग्रह, तीन नाटक, दो कविता-संग्रह, दो निबंध-संग्रह और एक इतिहास-विषयक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी हैं।

युगल की पहली लघुकथा 'गंगा आज भी चुप है' सन् 1965 में समस्तीपुर की एक स्कूली पत्रिका 'कल्पना' में प्रकाशित हुई थी। किंतु नियमित रूप से लघुकथा-लेखन का क्रम 1985 से प्रारंभ हुआ। अब तक इनके पांच लघुकथा संग्रह- 'किरचें' (1993) , 'जब द्रोपदी नंगी नहीं हुई' (2002) , 'गर्म रेत' (2005) , 'पड़ाव से आगे' (2006) और 'फूलों वाली दूब' (2009) प्रकाशित हो चुके हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने लघुकथा-केंद्रित पत्रिका 'फलक' का 2003 से दो वर्ष तक संपादन किया।

परिणाम और गुणवत्ता की कसौटी पर युगल की लघुकथाओं को देखें, तो लगता है कि उन्हें लघुकथा के क्षेत्र में अपेक्षित स्थान व सम्मान नहीं मिला। युगल की लघुकथाओं को मुख्य रूप में पाँच वर्गो में रखा जा सकता है-

(क) सामाजिक विसंगतियों, अभावों और विंडबनाओं पर लिखी 'पेट का कछुआ' , 'नामांतरण' और 'उतरन' प्रमुख रचनाएं हैं।

(ख) सांप्रदायिक समस्या व सद्भाव पर इनकी अनेक श्रेष्ठ रचनाएं मिलती हैं, जिसमें 'ेकर्फ्यू की वह रात' , 'मन-गंगा' अपनी सकारात्मक दृष्टि के लिए प्रमुख हैं।

(ग) राजनीतिक अधः पतन और भ्रष्ट प्रशासन पर युगल ने जमकर कलम चलाई है। इस दृष्टि से इनकी रचनाओं में 'लड़की और जामुन का पेड़' , 'सियासती मामला' , 'सत्ता' , 'चौथी आँख' , 'कृष्ण और सुदामा' उल्लेखनीय हैं।

(घ) प्रेम और काम-सम्बंधांे, यौन-विच्युति पर युगल ने खुलकर लिखा है। ऐसी लघुकथाओं में 'धरोहर' , 'सिलसिला' आदि प्रमुख हैं।

(ड।) स्त्री-संदर्भ की रचनाओं में 'जीवट' और 'तमाचा' विशेष रूप से ध्यान खींचती हैं।

युगल की 'पेट का कछुआ' लघुकथा सहज ही प्रेमचंद की 'कफन' कहानी का स्मरण करा देती है। दोनों में अभावग्रस्तता का चित्रण है। 'कफ़न' जहां काल्पनिक यथार्थ पर आधारित है, वहाँ 'पेट का कछुआ' कठोर सामाजिक यथार्थ पर टिकी है। दोनों में संवेदनहीन होते समाज की सहज कलात्मक प्रस्तुति है। 'कफ़न' में जहां घीसू-माधव बहू की मृत्यु पर गांव से इकट्ठे किए पैसों से कफ़न न खरीदकर उन्हें शराब में उड़ा देते हैं, वहीं 'पेट का कछुआ' लघुकथा में बाप ही बेटे के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है। गरीब बन्ने को बारह वर्षीय लड़के के पेट में कछुए का पता चलता है। ऑपरेशन के पैसे न होने पर लोगों द्वारा उन्हें आपरेशन के लिए पैसे दिए जाते हैं। अब बाप लोगों को बेटे के पेट का कछुआ हिलता दिखाकर इधर-उधर से पैसा संजोने लगता है। बेटा ऑपरेशन के बारे पूछता है, तो वह कहता है-"थोड़ा दर्द ही होता है न? बर्दाश्त करता चल। यों जिन्दा तो है। मरने में कित्ती देर लगती है? असल तो जीना है।" अभावजन्य विवशता और संवेदनहीनता को उभारने वाली यह श्रेष्ठ शक्तिशाली लघुकथा है।

संाप्रदायिकता की समस्या और उसमेंसे समाधान के बिंदुओं की तलाश करने वाली युगल की लघुकथाएं 'फूलों वाली दूब' पुस्तक के रूप में सामने आई हैं। इनमें संभावित व इच्छित यथार्थ को उभारने वाली, सकारत्मक दृष्टि की अनेक लघुकथाएं हैं। 'कर्फ्यू की वह रात' में तीन दिन के कर्फ्यू में पस्त हुए बच्चे की मुस्लिम माँ को राधे का पति घर में दूध न होने की बात कर टाल देता हे। बच्चे की चीखें सुन राधे की पत्नी हसनू के घर घुस जाती है और उनके बच्चे की मुंह में अपनी छाती लगा देती है। यह लघुकथा संवेदना और चेतना-दोनों धरातलों पर स्पष्ट करती है कि मानवीयता के सामने धार्मिक मतभेद या विभाजन व्यर्थ हैं।

राजनीति और प्रशासन पर 'लड़की और जामुन का पेड़' इनकी श्रेष्ठ लघुकथा है। राजनीति में इस कदर गुंडागर्दी फैली है कि किसी मंत्री का कोई रिश्तेदार किसी भी चीज़ पर दबंगई से हक जमा लेता है। इस रचना में बेटी उनके खिलाफ़ खड़ी होती है, तो उसे उसी पेड़ से लटका दिया जाता है। प्रशासन तो शासन के खिलाफ़ जा ही नहीं सकता। 'किरचें' पुस्तक में राजनीतिक संदर्भो की कई बेहतर लघुकथाएं हैं। राजनीति में अपनों को चुपके से कैसे लाभ पहुँचाया जाता है, इस विषय पर युगल की 'कृष्ण और सुदामा' श्रेष्ठ लघुकथा है। इनकी 'सियासती मामला' में राजनीति में व्याप्त क्षुद्रता का चित्रण सहज ही सुरेन्द्र मंथन की 'राजनीति' लघुकथा का स्मरण करा देता है। काम-सम्बंधों की इनकी रचनाएँ कहीं-कहीं कुछ लाउड हो गई हैं।

लघुकथा के वर्णनात्मक शिल्प में भी समकालीन यथार्थ के विविध आयामों को शिद्त के साथ व्यक्त करने वाले युगल हिन्दी लघुकथा के बड़े महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं।

रमेश बतरा

समकालीन हिन्दी लघुकथा को सही दिशा देने वाले रचनाकारों में कथाकार रमेश बतरा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। इन्होंने आठवें दशक के आरम्भ से ही एक ओर अपने विभिन्न लेखों के माध्यम से लघुकथा की शक्ति और सीमाओं को निरन्तर रेखांकित किया, साथ ही लघुकथाएँ लिखकर इस साहित्य-प्रकार को समृद्ध किया। 1971-72 में करनाल से पाक्षिक अखबार 'बढ़ते कदम' सम्पादित कर इसमें लघुकथाओं को स्थान दिया। फिर अगस्त 1973 में अम्बाला छावनी से 'तारिका' का लघुकथांक और जून 1974 में चण्डीगढ़ से 'साहित्य निर्झर' का लघुकथांक निकाला। तत्पश्चात 'सारिका' में, फिर 'संडे मेल' में उपसम्पादक के रूप में हिन्दी लघुकथा के स्वरूप को निखारने का कार्य निरन्तर करते रहे। रमेश बतरा का कोई लघुकथा संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है। 'सूअर' , 'खोया हुआ आदमी' , 'अनुभवी' 'बीच बाज़ार' , 'नौकरी' , 'लड़ाई' , 'नागरिक' आदि इनकी प्रतिनिधि, बहुप्रशंसित लघुकथाएँ हैं। 'कहूँ कहानी' नामक इनकी लघुकथा हिन्दी की सबसे छोटी लघुकथा है। देखिए-

-ए रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिये रात में कारखाने से घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही-एक लाजा है, वह बोत गलीब है! '

रमेश बतरा की लघुकथाएँ अँधरे में रोशनी का काम करती हैं। कलात्मकता और सांकेतिकता के ज़रिये वे अपने कथन को सशक्त रूप में उभारते हैं। इनकी 'सूअर' लघुकथा साम्प्रदायिक उन्मादियों को सचेत करती है कि मस्जिद में सूअर नहीं घुस आया, सूअर तो राजनीतिक गलियारे से निकली संकीर्णता का नाम है। इस संकीर्णता की समाप्ति से सद्भावना की नई इबारत लिखी जाएगी। इनकी लघुकथा 'नौकरी' में समझौता-परस्त और संशोधनवादी उस नीति व तौर-तरीके की कलई खोली गई है, जहाँ मुँह-देखी बात करना युग-धर्म है।

'बीच बाजार' में मुहल्ले की औरतें एक कैबरे डांसर बनने वाली लड़की की माँ को भला-बुरा कहती हैं। पर इसी धंधे से उसका घर सम्पन्न हो जाने का पता चलने पर निंदा-रस छोड़कर प्रशंसेक्तियों की बौछार करने लगती हैं। 'नागरिक' लघुकथा बताती है कि अब नागरिक-बोध का पालन करना भी खतरे से खाली नहीं रहा। पुलिस-चौकी में एक नागरिक द्वारा कहीं खून-खराबा होने की सूचना देने पर पुलिस उसीको दोषी समझकर पकड़ लेती है।

रमेश बतरा की लघुकथाएँ रचनात्मक लेखन का श्रेष्ठ प्रमाण प्रस्तुत करती हैं।

भगीरथ

भगीरथ हिन्दी लघुकथा के मुक्तिबोध हैं। प्रगतिशील चेतना से सम्पन्न भगीरथ आठवें दशक के प्रारंभ से ही हिन्दी लघुकथा से जुड़े रहे हैं। इनका जन्म 2 जुलाई 1944 को गांव सेवाड़ी, जिला पाली (राजस्थान) में हुआ। एम.ए. तक शिक्षा-प्राप्त भगीरथ केंद्र सरकार की नौकरी के बाद आजकल स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

हिंदी लघुकथा को रचना, आलोचना और संपादन-तीनों स्तरों पर संवारने में भगीरथ ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इनकी पहली लघुकथा इनके व रमेश जैन के द्वारा संपादित पत्रिका 'अतिरिक्त' के 4 मई 1972 अंक में 'खामोशी' नाम से प्रकाशित हुई थी। यह पत्रिका अंतर्देशीय पत्र के आकार की थी। इसके अतिरिक्त 1974 में रमेश जैन के साथ मिलकर ऐतिहासिक महत्त्व के लघुकथा संकलन 'गुफाओं से मैदान की ओर' का संपादन किया, जिसमें तीन लेख और 32 लेखकों की 66 लघुकथाएं हैं। आजकल भगीरथ राज्यवार लघुकथा संकलन संपादित कर रहे हैं, जिनमें से राजस्थान (2004) और पंजाब (2004) पर पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। लघुकथा के विभिन्न आयामों पर निरंतर लेख लिखकर भगीरथ ने इसके आलोचना पक्ष को समृद्ध किया है। अब तक भगीरथ का एक लघुकथा संग्रह 'पेट सबके हैं' (1996) प्रकाशित हुआ है। इसके अतिरिक्त लघुकथा पर केंद्रित तीन ब्लाग-ज्ञानसिंधु, पलाश और अतिरिक्त का संपादन कर रहे हैं।

कहानी में जो परंपरा प्रेमचंद और यशपाल ने स्थापित की थी, लघुकथा में उस धारा को बनाने का कार्य भगीरथ ने किया। वे लघुकथा के समकालीन दौर के सबसे महत्त्वपूर्ण रचनाकारों में हैं।

भगीरथ की लघुकथाओं में मुख्य रूप से श्रम शक्तियों के सुख-दुख और संघर्ष को स्थान मिला है। इनकी रचनाएं समाज के उपेक्षित और तिरस्कृत वर्ग के प्रति व्यापक चिंता और तज्जन्य परिवर्तन की आकांक्षा से प्रेरित हैं। इस कारण इनकी लघुकथाएं परम्परापगत शिल्प को कहीं तोड़ती हैं, तो कहीं नवीनीकरण करती हैं। समकालीन यथार्थ के सूक्ष्म तंतुओं को, उनके जटिल सम्बंधों को पकड़ने व कलात्मक यथार्थ में ढालने के प्रयास के कारण भगीरथ महत्त्वपूर्ण कथाकार हैं।

भगीरथ की प्रतिनिधि लघुकथाओं में आग, युद्व, दोज़ख, फूली, आत्मकथ्य, बैसाखियों के पैर, शहंशाह और चिड़ियां, शिक्षा, दुपहरिया, सोते वक्त, फेसबुक की एक पोस्ट आदि प्रमुख हैं। भगीरथ की लघुकथाओं में विषयों के चार आयाम उभरकर आते हैं। दोज़ख, चिनगारी और चेतना आदि रचनाओं में संघर्ष-चेतना का स्वर उभरकर आया है। बैसाखियों के पैर, शहंशाह और चिड़ियाँ, समृद्धि की सड़क, आग, आत्मकथ्य, यस प्राइम मिनिस्टर आदि में व्यवस्था (शासन व प्रशासन) के विविध आयाम मिलते हैं। युद्ध, फेतकार आदि में आपातकाल के समय अपने को बचाने का उपक्रम है, तो 'फूली' जैसी लघुकथाएं पाखंड का पर्दाफाश करती हैं।

'दोज़ख' जीवन में पलायन की अपेक्षा जुझारूपन को तर्कपूर्ण ढंग से स्थापित करती है। इसमें तर्क अपनी पूर्ण रचनात्मक क्षमता के साथ उभरता है।

'फूली' लघुकथा की बुनावट तार्किकता और आंचलिकता के तारों से हुई है। समाज किसी विसंगति को स्वयं भी अपने में आने देता है-इसे बताती हुई रचना अपने परिवेश में से ही समाधान भी खोजती है।

'बैसाखियों के पैर' में महत्त्वाकांक्षी व्यक्ति दूसरों का इस्तेमाल करके किस प्रकार सत्ता के मचान पर जा बैठता है-इसे सजगता से दिखाया गया है। भगीरथ शब्द-प्रयोग के प्रति बहुत सजग हैं। रचना में बिम्ब और प्रतीक भी इस तरह ढाल लेते हैं कि वे रचना में से ही उभरे हुए लगते हैं।

'शहंशाह' और चिड़ियाँ' लघुकथा जनता, शासक व उसके सलाहकार के सम्बंधों पर रची गयी है। यथार्थ के कलात्मक पुननिर्माण व लेखकीय चिंता का यह अच्छा उदाहरण है। लोकतंत्र में जनता की स्वतंत्रता का हनन करते हुए एक शासक किस प्रकार कानून और न्यायालय के दुरुपयोग द्वारा तानाशाह बन बैठता है-इसे बड़े संयम के साथ दिखाया गया है।

'शिक्षा' देशी ज़मीन पर अंग्रेज़ी के आतंक के कारणों और इसके दुष्प्रभावों को सहज रूप में अंकित करती है।

'आग' लघुकथा में क्रांतिकारी मजदूर-वर्ग व कथित सदाशयी पूंजीपतियों के बीच रिश्ते को उजागर किया गया है। श्रमिक वर्ग के प्रति लेखकीय प्रतिबद्धता, व्यंग्य और प्रतीक के यथावश्यक प्रयोग ने इस रचना को श्रेष्ठ बना दिया है, व्यंग्य की ये पंक्तियां देखिए-

"शहर के गणमान्य व्यक्तियों-यानी जिनमें दान दे सकने की हैसियत थी, जिनकी जमीनें थीं, जायदादें थीं, धन्धे थे, व्यापार थे, ठेके थे, मिलें थीं-की मदद से कम्बल खरीदे गए."

'दुपरिया' दोपहर जैसे अमूर्त विषय पर केवल एक विचार को प्रतीक के साथ सफलतापूर्वक अंत तक ले जाने वाली एक कठिन लघुकथा है।

भगीरथ की लघुकथाएं वस्तु, रूप और भाषा-तीनों स्तरों पर हिन्दी लघुकथा को समृद्ध करती हैं।

असग़र वज़ाहत

हिंदी के सुप्रसिद्ध कथाकार और नाटककार असग़र वज़ाहत का जन्म सन् 1946 में फतेहपुर (उ।प्र।) में हुआ। हिन्दी में जे.एन.यू. से पोस्ट डाक्टरल रिसर्च तक अध्ययन किया। जामिया मिलिया इस्लामिया युनिवर्सिटी के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर रहे। आजकल स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

असग़र वज़ाहत के अब तक पांच उपन्यास, छह नाटक, पाँच कथा-संग्रह, एक नुक्कड़ नाटक-संग्रह और एक आलोचनात्मक पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है। उनकी कृतियों का अनुवाद अंग्रेजी, इतालवी, जर्मन, रूसी व हंगेरियन भाषाओं में हो चुका है। साहित्य के अतिरिक्त इन्होंने फ़िल्म-लेखन और निर्देशन में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सन् 1980 से वे हिन्दी फ़िल्मों के लिए पटकथाएं लिख रहे हैं, जिनमें मुजफ्फर अली की चर्चित फ़िल्म 'आगमन' भी शामिल है। उन्होंने कुछ वृत्तचित्रों का निर्माण भी किया है, जिसमें 1984 में उर्दू ग़ज़लों के विकास पर बनाई गई डॉक्यूमेंट्री भी शामिल है। अपनी साहित्यिक उपलब्धियों के लिए उन्हें विभिन्न सम्मानों से नवाजा जा चुका है, जिसमें 1979 में संस्कृति पुरस्कार तथा 'कैसी आगी लगाई' नामक बहुचर्चित उपन्यास के लिए हाउस ऑफ लार्ड्स में कथा यू, के, सम्मान शामिल हैं।

असग़र वज़ाहत का एक लघुकथा-संग्रह 'मुश्किल काम' (2010) प्रकाशित हुआ है। इनकी बहुत-सी लघुकथाएं 'दिल्ली पहुँचना है' कहानी-संग्रह में भी शामिल हैं। असग़र वज़ाहत ने सन् 1975 में आपातकाल लगने के बाद लघुकथाएं लिखना शुरू किया। ज़रूरत के मुताबिक इनकी लघुकथाओं में अनेक शैलियों का प्रयोग मिलताहै। आपातकाल के समय 'कुत्ते' , 'शेर' और 'डंडा' जैसी प्रतीकात्मक लघुकथाएं लिखीं, जिनके बारे इनका मत है-"इस दौर की लघुकथाओं में कुछ प्रतीकात्मक लघुकथाएं हैं। कुछ बहुत हद तक पंचतंत्र की कहानियों की शैली में लिखी गई हैं।"

इमरजैंसी जाने के बाद भी लघुकथाओं के प्रति इनका आकर्षण कम नहीं हुआ। इसके बाद इन्होंने गद्य-काव्य की शैली में 'कवि' सीरिज़ की लघुकथाएं लिखीं। इसके बाद 1980 से 1986 के दौरान इन्होंने कहानी के यूरोपीय ढांचे को तोड़ने के उपक्रम में उसे मौखिक परंपरा से जोड़ने का प्रयास किया। इस प्रकार 'बंदर' , 'वीरता' जैसी लघुकथाएँ सामने आई.

इनकी लघुकथाओं में नया मोड़ 1989-90 के आस-पास आया, जब इन्होंने सीरीज़ में केवल संवादों में लघुकथाएं लिखीं। 'हरिराम और गुरु-संवाद' की दस तथा 'गुरु-चेला संवाद' की सात कहानियाँ इसी प्रकार की लघुकथाएँ हैं।

'मुश्किल काम' लघुकथा-संग्रह की भूमिका में असग़र वज़ाहत ने समाज में बढ़ती पतनशीलता और कुंठित होती जा रही संवेदना के संदर्भ में नयी भाषा-शैली ईजाद करने पर बल दिया है। उनके शब्दों में-' हम पतनशीलता के एक ऐसे दौर में आ गए है, जिसकी कल्पना करना भी कठिन है। हम इतने हिंसक हो गए हैं, इतने क्रोधी, इतने लालची हो गए हैं कि हमारे लिए बड़े से बड़ा अपराध या हत्या कर देना कोई बड़ी बात नहीं बल्कि मज़ाक है। ... इस स्थिति में शब्द कहाँ तक साथ देंगे? अभिधा से तो काम चल ही नहीं सकता है। सब शब्द बौने हो गए हैं और छोटे पड़ गए हैं। ...जब शब्द कम पड़ने लगते हैं तो शब्दों को मारना पड़ता है, ताकि नए शब्द जन्म ले सकें। शब्दों को मारने से एक उलझाव पैदा होता है, पर शायद वही सुलझाव है। "

असग़र वज़ाहत की लघुकथाएं समकालीन सामाजिक यथार्थ का संवेदनात्मक धरातल पर रोचक शैली में कलात्मक रूपांतरण कही जा सकती हैं। इस दृष्टि से गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि में लिखी गई 'शाह आलम कैंप की रूहें' शीर्षक से दस लघुकथाएं विशेष उल्लेखनीय हैं, जो सआदत हसन मंटो की 'सियाह हाशिए' शीर्षक से लिखी लघुकथाओं की याद ताज़ा कर देती हैं। ये लघुकथाएं मिलकर एक भयावह कोलाज निर्मित करती हैं। चार हाथ, वीरता, मुश्किल काम, हरिराम और गुरु संवाद (दस लघुकथाएं) , गुरु-चेला संवाद (सात लघुकथाएं) , श्री टी. पी. देव की कहानियाँ (दस लघुकथाएं) इनकी प्रमुख लघुकथाएं हैं। ये लघुकथाएं इस बात का प्रमाण हैं कि आज की सच्चाइयों को सहज-सजग-रोचक रूप में प्रस्तुत कर पाठकों का ध्यान अवश्य ही खींचा जा सकता है। एक उदाहरण देखें-

हरिराम: गुरुदेव, अगर एक हड्डी के लिए दो भूखे कुत्ते लड़ रहे हों तो उन्हें देखकर एक सरल आदमी क्या करेगा?

गुरु: बीच-बचाव कराएगा।

हरिराम: और चतुर आदमी क्या करेगा?

गुरु: हड्डी लेकर भाग जाएगा।

हरिराम: और राजनीतिज्ञ क्या करेगा?

गुरु: दो भूखे कुत्ते वहाँ और छोड़ देगा। "

असग़र वज़ाहत की लघुकथाएं अपनी विशिष्ट शैलियों तथा व्यापक कथ्य-प्रयोगों के कारण चर्चा में रही हैं। उनकी लघुकथाएं किसी विशेष शैली के सामने समर्पण नहीं करतीं। पंचतंत्र की शैली से लेकर अत्याधुनिक अमूर्तन शैलियों की परिधि को अपने भीतर समेटे असग़र वज़ाहत की लघुकथाएं पाठकों का व्यापक अनुभव-जगत् से साक्षात्कार कराती हैं। 'मुश्किल काम' पुस्तक की लघुकथाएं व्यापक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक विषयों तक फैली हुई हैं। इनके माध्यम से मानवीय सम्बंधों, सामाजिक विषमताओं और राजनीतिक ऊहापोह के विभिन्न आयामों को उभारा गया है।

पृथ्वीराज अरोड़ा

कथाकार पृथ्वीराज अरोड़ा का जन्म 10 अक्टूबर 1939 को गांव बूचेकी (ननकाना साहिब, अब पाकिस्तान) में हुआ था। इन्होंने एम.ए. हिन्दी तक शिक्षा प्राप्त की। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में अधीक्षक के पद से सेवा-निवृत्त हुए. 20.12.2015 को उनका देहान्त हो गया।

पृथ्वीराज अरोड़ा का एक कहानी संग्रह, एक कविता-संग्रह तथा दो लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आठवें दशक में हिन्दी लघुकथा के नए रूप में उभार के समय इनके उन्नयन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वालों में पृथ्वीराज अरोड़ा भी रहे हैं। इनकी पहली लघुकथा 'साहस' थी, जो 'तारिका' के लघुकथा विशेषांक (1973) में प्रकाषित हुई थी। इनके दो लघुकथा-संग्रह 'तीन न तेरह' (1997) 'और' आओ इंसान बनाएं'(2007) प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी अधिकतर लघुकथाएं तत्कालीन प्रमुख कथा-पत्रिका' सारिका' के माध्यम से सामने आईं। सन् 1977-78 से सन् 1994-95 तक का इनका लेखन-काल इनकी बेहतर रचनाधर्मिता को प्रमाणित करता है।

पृृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाओं का मूल स्वर अन्याय और कुप्रथाओं का विरोधी है। इनकी रचनाएं मुख्यतः मध्यवर्ग की संवेदनशीलता की उपज हैं। इनकी लघुकथाएं पाठक को संघर्षशील होने व अन्याय के विरूद्ध सक्रिय होने की प्रेरणा देती हैं। इनकी रचनाएँ सामाजिक व पारिवारिक विंसगतियां तथा नौकरीशुदा ज़िन्दगी के विभिन्न आयामों के इर्द-गिर्द घूमती हैं। दया, दुःख, कथा नहीं, विकार आदि पृथ्वीराज अरोड़ा की श्रेष्ठ लघुकथाएं हैं, जो हिन्दी लघुकथा साहित्य को समृद्ध करती हैं।

'दया' इनकी श्रेष्ठ लघुकथाओं में महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। दया भाव भी धन पर निर्भर है इसे रचनात्मक माध्यम द्वारा स्पष्ट करते हुए यह रचना इतिहास की छोटी-सी कड़ी को नयी दृष्टि से देखने का आग्रह करती है।

'दुःख' लघुकथा की संरचना में भी दो स्थितियां आमने सामने रखी गयी हैं-एक इतिहास की, एक वर्तमान की। इस कारण लघुकथा का प्रभाव बढ़ गया है।

'विकार' रचना सिद्ध करती है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह और अंहकार नामक विकार मन में आने पर व्यक्ति अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाता। यह सरल शैली में लिखी गयी सशक्त रचना है।

'कील' प्रतीकात्मक लघुकथा है। समाज में किसी बुराई या परेशानी को हर व्यक्ति देखते हुए भी उससे बच कर निकल जाने में ही उपलब्धि मानता है। कोई उसकी समाप्ति के लिए सोचने को भी तैयार नहीं है।

'प्रभु-कृपा' में उच्च मध्यवर्ग द्वारा निम्न वर्ग से काम लेने की युक्तियां तथा उनके प्रति वास्तविक रवैया-इसका दो स्थितियों के माध्यम से प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण किया गया है।

'कथा नहीं' में मध्यवर्गीय परिवारों के यथार्थ को जीवन्त पात्रों और नाटकीय शैली में प्रस्तुत करने वाली श्रेष्ठ लघुकथा है। इसमें पृथ्वीराज अरोड़ा ने असंवाद के चलते टूटते जा रहे संयुक्त परिवारों की मनोदशा एवं विवशता को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। ...समापन बिंदु जहां पुत्र की मानसिक स्थिति को रेखांकित करता है, वहीं छीजते पर्यावरण में मिलावट-भरे खान-पान के साथ जीने को अभिशप्त असमय वृद्ध होते युवाओं के दर्द को बहुत मार्मिक ढंग से पेश करता है।

'अपनी बार' में पारिवारिक रिश्तों पर आर्थिक विसंगतियों का प्रभाव अत्यंत कुशलता से दिखाया गया है। 'अहसास' में अफसर और मातहत के मनोविज्ञान को विशिष्ट ढंग से चित्रित किया गया हैं 'रामबाण' में जायदाद हड़प जाने के षडयंत्र को स्लो पायज़न की रीति-नीति में आवेष्ठित दिखाया गया है। 'पढ़ाई' और 'दस पैसे' इनकी अन्य उल्लेखनीय लघुकथाएं हैं।

लघुकथा की भाषा और शिल्प के प्रति पृथ्वीराज अरोड़ा विशेष सजग रहे हैं।

चित्रा मुद्गल

प्रसिद्ध कथाकार चित्रा मुद्गल लघुकथा-क्षेत्र में आठवें दशक में उभरने वाले महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों में हैं। इनका जन्म 10 दिसम्बर 1944 को चेन्नई में हुआ। इन्होंने फाइन आर्ट्स में बंबई वि।वि। से डिप्लोमा किया है। आजकल स्वतंत्र लेखन कर रही हैं।

चित्रा मुद्गल हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार हैं। अब तक इनके बारह कहानी-संग्रह, छह उपन्यासों के अलावा पंद्रह और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। 'आवा' इनका विशेष चर्चित उपन्यास है।

चित्रा मुद्गल की प्रारंभिक लघुकथाएं 'गरीब की माँ' और 'पत्नी' 1975-76 में सामने आईं। इनका एकमात्र लघुकथा-संग्रह 'बयान' 2004 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ। इनकी चर्चित लघुकथाओं में गरीब की मां, बोहनी, रिश्ता, नसीहत, पहचान, ऐब, दूध, नाम आदि प्रमुख हैं। 'बयान' लघुकथा-संग्रह में सतीश दुबे इनकी लघुकथाओं के बारे में लिखते हैं-"मराठी तथा गुजराती पाठकों तक 'पहचान' , 'कचरा' तथा 'गरीब की मां' के माध्यम से पहुंचने वाली चित्रा मुद्गल का नाम इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि इन्होंने लघुकथा को सबसे पहले आकाशवाणी के माध्यम से पूरे देश में घर-घर तक पहुंचाया।"

चित्रा मुद्गल की अनेक लघुकथाओं में निम्नवर्गीय और झोपड़पट्टी की सूक्ष्म जीवन-स्थितियों का चित्रण मिलता हैं। इस दृष्टि से वे हिन्दी लघुकथा-लेखकों में अद्वितीय हैं। निम्न तथा निम्न मध्यवर्ग की संस्कृतियों, परंपराओं, मजबूरियों और ज़िन्दगी की मौजूद हकीकतों का टकराव इनकी लघुकथाओं में सजगता के साथ मिलता है। उपेक्षित वर्ग के दुःख को उभारने वाली लघुकथाओं में आंचलिक (बम्बइया) भाषा का पुट इन्हें और भी स्वाभाविक और पठनीय बना देता है।

'गरीब की माँ' रचना में निम्नवर्ग की आर्थिक विवशताजन्य स्थिति का वस्तुपरक चित्रण दर्शनीय है। देश में गरीब आदमी को किसी तरह गुजर-बसर करने के लिए बार-बार झूठ बोलना पड़ता है। 'मुलुक में हमारा माँ मर गया'-इस झूठ के लिए दूसरा झूठ-'दो का मरने का पिचू, तीसरा सादी बनाया' बोलना पड़ता है। मात्र संवाद शैली में सशक्त रचना का यह बेहतर प्रमाण है।

'पहचान' लघुकथा में टिकट-चेकर और दैनंदिन यात्रियों की एक महिला यात्री के प्रति रैडिमेड सोच को दिखाया गया है। एक अन्य पुरुष यात्री द्वारा जुर्माना भरने की बात के माध्यम से सकारात्मक सोच को उभारा गया है। इस प्रकार रचना इकहरी न रहकर एक स्थिति के यथार्थ को पूर्णता से व्यक्त करती है।

इसी प्रकार 'बोहनी' भी एक स्थिति में से दूसरी स्थिति को सामने लाने वाली लघुकथा है। भिखारी की इच्छानुसार उसे भीख की 'बोहनी' कराने के फेर में दैनिक कर्मचारी की गाड़ी छूट जाती है।

'नसीहत' लघुकथा में मेमसाहब के सामने भीख के लिए गिड़गिड़ाया भिखारी अंत में मेमसाहब की अविश्वास-भरी झूठी सीख के साथ भीख भी लौटा देता है।

'रिश्ता' लघुकथा में अस्पताल में सेवारत, वात्सल्य की प्रतिमूर्ति मारथा मम्मी के सेवाभाव को मरीज़ ठीक होकर अपने साथ स्मृति के रूप में ले जाते हैं। किंतु मारथा मम्मी का ममत्व किसी एक के लिए न होकर तमाम मरीज़ों के लिए समान है। आदर्श और यथार्थ के सीमांत पर खड़ी यह एक श्रेष्ठ रचना है।

स्त्री-संदर्भ में देखें तो चित्रा मुद्गल के स्त्री पात्र अपने अधिकारों के लिए कई लघुकथाओं में सिर उठाते नज़र आते हैं। 'नाम' और 'दूध' ऐसी ही लघुकथाएं हैं। 'नाम' लघुकथा में रतिया डोम अपने बेटे का नाम स्कूल में देवेन्द्र सिंह लिखवाती है, जो सरपंच के गले नहीं उतरता। सरपंच के तीखे बोल सुन जब उसका धैर्य चुक जाता है तो अपने साथ हुए अन्याय को सार्वजनिक कर कहती है-'ठाकुर के बेटे का नाम ठाकुरों जैसा न धरें तो क्या डोम-चमारोवाला धर दें?' स्त्री व दलित-दोनों संदर्भो की यह शक्तिशाली रचना है। इसी प्रकार 'दूध' लघुकथा में स्त्री के प्रति हो रहे भेदभाव का तार्किक प्रतिकार किया गया है।

'ऐब' में ग्रामीण स्त्रियों की दहेज-सम्बंधी संकीर्ण सोच व तज्जनित प्रक्रिया को चित्रात्मक शैली में उजागर किया गया है।

चित्रा मुद्गल की लघुकथाओं में प्रायः संवेदना का एक बिन्दु होता है, जिसके ईद-गिर्द वे कहानी को बुनती हैं। इनकी लघुकथाओं में व्याप्त सहज प्रवाह और कहानीपन इनके कहानीकार रूप की देन है। लघुकथा के सौंदर्यशास्त्र का निर्माण करने के लिए इनकी लघुकथाओं का भी अनुशीलन किया जाना आवश्यक है।

जगदीश कश्यप

हिंदी लघुकथा के पुनर्स्थापना के दौर में इसके महत्त्व को गंभीरता से प्रतिष्ठित करने वाले व्यक्तियों में जगदीश कश्यप का नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता है। इन्होंने आठवें दशक के प्रारंभ से ही रचना, आलोचना और संपादन-तीनों स्तरों पर लघुकथा को उभारने और संवारने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई. जगदीश कश्यप का जन्म 1 दिसम्बर 1949 को गाजियाबाद में हुआ था। एम. ए. तक शिक्षा-प्राप्त जगदीश कश्यप दफ़्तरी नौकरी करते हुए 17 अगस्त 2004 को मृत्यु को प्राप्त हुए.

लघुकथा क्षेत्र में जगदीश कश्यप के ऐतिहासिक कार्यो में से दो रेखांकन-योग्य हैं। एक, अक्टूबर 1972 से 'मिनीयुग' पत्रिका का संपादन प्रारंभ कर लघुकथा में नए-नए लेखकों को उभारना और दूसरा, हिन्दी लघुकथा के इतिहास की खोज करना। इतिहास के लेखन के लिए जगदीश कश्यप अनेक पुस्तकालयों की धूल फांकते रहे। 'कोहरे से गुजरते हुए' (1992) जगदीश कश्यप की लघुकथाओं का एकमात्र संग्रह है। इनकी प्रारंभिक लघुकथाओं में 'आत्मा के जाने के बाद' , 'पहला गरीब' , 'अंतिम गरीब' शामिल हैं। अंतिम गरीब, रिश्ते, बबूल, उपकृत, लौटते हुए, ब्लैक हॉर्स, स्टेटस, सूखे पेड़ की हरी शाख जगदीश कश्यप की प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

जगदीश कश्यप की लघुकथाओं में मुख्य रूप से निम्न मध्यवर्गीय समाज में व्याप्त निर्धनता, भूख, शिक्षित बेरोजगारी और इनसे उत्पन्न अपमानजनक स्थितियां, द्वन्द्व और छटपाहट को सहज संवेदनशीलता के साथ व्यक्त किया गया है। इनकी लघुकथाएं वंचित तबके के पक्ष में खड़ी हैं। इनके पात्र व्यवस्था की विसंगतियों में फंसे अभावों को झेल रहे हैं। कहीं वे अपमान का विष चुपचाप पीते हैं, कहीं आक्रोश व्यक्त करते हैं, तो कहीं-कहीं विद्रोह पर भी उतर आते हैं।

'अंतिम गरीब' लघुकथा एक ओर घोर गरीबी में भूख की छपटाहट को, तो दूसरी ओर तंत्र की संवेदनहीनता और पाखंड को नाटकीय शैली में व्यक्त करती है।

'रिश्ते' लघुकथा में निम्न-मध्यवर्ग में विवशताजन्य बनते-बिगड़ते सम्बंधों और दबी इच्छाओं को बड़ी सहजता से व्यक्त किया गया है। माँ की बीमारी की पृष्ठभूमि में बेटी और युवक राकेश के सम्बंध और उसमें व्याप्त ज़रूरत और मजबूती-दोनों की ओर संकेत करती यह प्रभावषाली रचना है।

गिरिजाकुमार माथुर की काव्य-पंक्ति-'मन के संघर्षो से बाहर के संघर्ष अधिक बोझिल हैं' जगदीश कश्यप की लघुकथा 'बबूल' पर चरितार्थ होती है। विम्मो और छोटे बाबू शादी करना चाहते हैं। लेकिन छोटे बाबू के पास रोजगार नहीं, तो विम्मो के पास खूबसूरती नहीं अपने-अपने अभाव में दोनों हीन भावना से ग्रस्त हैं। कहानी का कहानीपन पाठक पर असर डालने वाला है।

'उपकृत' एक श्रेष्ठ लघुकथा है। इसमें एक ओर नौकर रामदीन की परिश्रमशीलता, उसके परिवार की दयनीय स्थिति है, तो दूसरी ओर मालिक की क्षुद मानसिकता और संवेदनहीनता को उभारा गया है। रचना के पहले दो दृष्यबंध ही इसको एक असाधारण रचना की ओर ले जाते हैं।

'ब्लैक हॉर्स' लघुकथा रमेश बतरा की 'बीच बाजार' लघुकथा की याद दिला देती है। 'लौटते हुए' भी अपनी बुनावट के कारण बेहतर रचना का उदाहरण बन पड़ी है।

अपनी प्रारंभिक लघुकथाओं में जगदीश कश्यप ने दृष्टांत शैली को अधिक महत्त्व दिया। उनकी ये लघुकथाएं खलील जिब्रान की शैली से प्रभावित हैं। इस सीमा से मुक्त होने के बाद उनकी लघुकथाओं में सहजता और प्रवाहमयता बढ़ती गई है। जगदीश कश्यप ने हिन्दी लघुकथा को महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

बलराम अग्रवाल

बलराम अग्रवाल हिन्दी के ऐसे सक्रिय रचनाकार हैं, जिन्होंने आठवें दशक के प्रारंभ से ही लघुकथा-क्षेत्र में विविध आयामी भूमिका को गंभीरता से निभाया है। इनका जन्म 26 नवंबर 1952 को बुलंदशहर (उ।प्र।) में हुआ था। हिन्दी में एम. ए., पी-एच.डी. तक शिक्षित बलराम अग्रवाल ने डाक विभाग में नौकरी की। आजकल स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। कहानी, लघुकथा, एकांकी, आलोचना व बालकथा क्षेत्रों में अब तक इनकी आठ मौलिक और अनेक संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। ये प्रारंभ में कई वर्ष तक रंगमंच से जुड़े रहे।

लघुकथा में बलराम अग्रवाल रचना, आलोचना, अनुवाद और संपादन-चारों क्षेत्रों में निरंतर सक्रिय है। इनकी पहली लघुकथा 'लौकी की बेल' जून 1972 में 'कात्यायनी' पत्रिका में छपी थी। 'सरसों के फूल' (1994) इनका पहला लघुकथा-संग्रह है, जिसमें 25 नई लघुकथाएं जोड़कर 'जुबेदा' संग्रह (2004) प्रकाशित हुआ। 'चन्ना चरनदास' (2004) में कहानियां और लघुकथाएं शामिल हैं। इनकी 17 संपादित पुस्तकें हैं, जिनमें 'दरवाजा' (2005) और 'कलावती की शिक्षा' (2008) नाम से क्रमशः प्रेमचंद और प्रसाद की छोटी कहानियां संकलित हैं। इनके अतिरिक्त 'मलयालम की चर्चित लघुकथाएं' (1997) , 'तेलुगु की मानक लघुकथाएं' (2010) पुस्तकों के माध्यम से बलराम अग्रवाल ने लघुकथा की राष्ट्रीय व्याप्ति व इसके माध्यम से सांस्कृतिक-कलात्मक आदान-प्रदान के नए द्वार खोले हैं। 'समकालीन लघुकथा और प्रेमचंद (2012) इनकी अन्य संपादित पुस्तक है। इनके अतिरिक्त अपने एक दर्जन से अधिक लेखों और' सहकार संचय',' आलेख, संवाद',' द्वीप लहरी 'व' अविराम'पत्रिकाओं के लघुकथाकों के संपादन द्वारा इन्होंने लघुकथा के प्रति अपने गंभीर अध्ययन का परिचय दिया है।' लघुकथा का मनोविज्ञान'इनकी शोधपरक महत्त्वपूर्ण आलोचना-पुस्तक है। लघुकथा पर मुख्य रूप से केंद्रित पत्रिका' मिनीयुग'के संपादन से 1972 से जुड़े रहे। आजकल लघुकथा पर केंद्रित' लघुकथा वार्ता 'और' जनगाथा' ब्लॉग के संपादक हैं। गोभोजन कथा, नागपूजा, जुबेदा, ओस, अलाव के इर्द-गिर्द, मन अंनत में, तीसरा पासा, सरसों के फूल, गांठ, जहर की जड़ें इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

बलराम अग्रवाल की लघुकथाओं का मूल स्वर वर्तमान ग्रामीण-समाज के यथार्थ के सूक्ष्म तंतुओं को पहचानना व उन्हें सहज अभिव्यक्ति प्रदान करना है। गांवों में पुरानी और नयी पीढ़ी की आस्थाओं का संघर्ष और वहाँ बच रहे मूल्यों को इन्होंने कुषलता से उभारा है।

इसके अतिरिक्त वर्तमान समाज की विभिन्न समस्याओं को मानवीय धरातल पर उकेरा गया है। इनकी लघुकथाओं में सहजता और कलात्मक सजगता दोनों अनिवार्यतः विद्यमान रहते हैं। इस कारण वर्णनात्मक पद्धति पर लिखी ये लघुकथाएं पाठकीय आकर्षण का केन्द्र बनी रहती हैं।

जिन लघुकथाओं में यथार्थ को संश्लिष्ट रूप में देखने और व्यक्त करने का प्रयास हुआ है, वे अपने सौन्दर्य और प्रभाव में अधिक सघन हैं। 'गोभोजन कथा' हिन्दी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में स्थान रखती है। यह रचना लुप्त हो रही व की जा रही मानवता के पुनर्संस्कारीकरण की गाथा है। इन्दर की पत्नी माधुरी संतान-प्राप्ति के लिए गर्भवती गाय की तलाश में गोशाला से भी निराश लौटती है। फिर इंदर के कहने पर बशीर के घर जाती है। पर बशीर की गाय को आटा-गुड़ खिलाने की बजाय वह बशीर की विधवा गर्भवती की दुर्दशा देख उसी को आटा-गुड़ दे आती है। सामासिक संस्कृति की सहज रचनात्मक पैरोकारी यहाँ श्रेष्ठ रूप में मौजूद है।

'गोभोजन कथा' सहज सांप्रदायिक सद्भावना तथा जीव-मात्र के प्रति नारी-सुलभ संवेदना के सहज प्रस्फुटन के कारण याद रखी जाएगी। नारी के प्रति नारी की सहज संवेदना अवसर पाते ही ऐसी सक्रिय होती है कि स्वार्थ को भी भूल जाती है।

'ओस' इनकी संश्लिष्ट यथार्थ की अन्य सहज रचना है। छायावादी तत्वों से संपृक्त यह रचना लघुकथा की शक्ति को प्रमाणित करती है। करुणा और व्यंग्य के तत्वों से बुनी गयी यह रचना अपने उद्ेदश्य, प्रकृति चित्रण, चित्रात्मक और काव्यात्मक शैली के कारण उल्लेखनीय है। यहाँ करुणा और व्यंग्य के तत्व एक-दूसरे की शक्ति को बढ़ाते हैं।

'नाग-पूजा' में सेक्रेटरी क्रिश्चियन युवती द्वारा नागपंचमी के दिन अपने साहब को दूध पिलाने की एक प्रतीकात्मक कथा है।

'गाँठ' की शक्ति उसके अंत में प्रतीकात्मक बिम्ब में छिपी है। श्रम-शक्तियों की अपरिहार्य सामाजिक उपस्थिति व उसकी उपेक्षा से सुविधा-भोगी वर्ग में उत्पन्न मति-भ्रम की कथा से यह बिम्ब सहज रूप में स्फुरित होता है।

'जुबेदा' के माध्यम से लेखक ने एक ओर अन्याय के प्रतिरोध को सहज स्थिति में से असरदार ढंग से उभारा है, दूसरी ओर सुविधा और पलायन में रमे हुए वर्ग की चतुराई व उपदेश-वृत्ति के खोखलेपन को भी व्यंग्यात्मक स्थिति के द्वारा उघाड़ा गया है।

बलराम

हिंदी लघुकथा की स्थापना के लिए सतत संघर्ष करने वाले लेखकों-संपादकों में बलराम का नाम विशेष उल्लेखनीय है। बलराम का जन्म 15 नवंबर 1951 को उत्तर प्रदेश के गांव भाऊपुर-बिठूर (कानपुर) में हुआ। एम.ए. हिन्दी तक शिक्षित, व्यवसाय से पत्रकार बलराम ने 1977 से आज तक अनेक पत्र-पत्रिकाओं में संपादन-कार्य संभाला। इनमें 'दैनिक आज' (1977-79) , प्रसिद्व कथा-पत्रिका 'सारिका' (1979-95) , नवभारत टाइम्स, शिखर, नांदी के अलावा 'कथा-भाषा' व 'कथालोचन' के विशेषांक शामिल हैं। सन् 2005 से बलराम 'लोकायत' (हिंदी पाक्षिक) के संपादक हैं। कहानी, उपन्यास, लघुकथा, आत्मकथात्मक संस्मरण की सीरीज़ (माफ करना यार, धीमी-धीमी आंच, मेरा कथा-समय...) , साक्षात्कार (वैष्णवों से वार्ता) , बाल साहित्य आदि विभिन्न विधाओं की लगभग एक दर्जन कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं।

बलराम स्वयं में लघुकथा की एक संस्था रहे हैं। जिस भी पत्र-पत्रिका के संपादन विभाग में गए, उसी में लघुकथाओं को महत्त्व के साथ छापा। हिन्दी से लेकर विश्व की प्रमुख भाषाओं तक के लघुकथा-लेखकों को एक मंच पर लेकर आए और उन भाषाओं के माध्यम से सांस्कृतिक आदान-प्रदान के नए द्वार खोले। बलराम ने लघुकथा-क्षेत्र में किए गए संपादन-कार्यो द्वारा लघुकथा को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और विश्व-दृष्टि देने का प्रयास किया है। इनके द्वारा संपादित लघुकथा संकलनों में 'काफिला' (कहानियां व लघुकथाएं, दो भाग) कथानामा, भारतीय लघुकथा कोश (1990, दो भाग) , विश्व लघुकथा कोश (1995, चार भाग) , बीसवीं सदी की लघुकथाएं (2003, चार भाग) आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त बलराम के अब तक दो लघुकथा-संग्रह 'मृगजल' (1990 ई.) और 'रुकी हुई हंसिनी' (1995) प्रकाश में आ चुके हैं। बलराम की प्रतिनिधि लघुकथाओं में 'बहू का सवाल' , 'माध्यम' , 'आदमी की खोज' , 'मृगजल' , 'मशाल और मशाल' शामिल हैं। इनकी पहली प्रकाशित लघुकथा 'आदमी' है, जो 1970 में 'चौमासा' (लखनऊ, सं। बंधु कुशावर्ती) नामक लघुकथा-पत्रिका के एक अंक में प्रकाशित हुई.

बलराम मूलतः कहानीकार हैं। उनकी रचनाओं में उनका प्रगतिशील और उदार दृष्टिकोण उभरता है। इनकी लघुकथाओं में गांव और शहर, समाज और परिवार-हर क्षेत्र में संकीर्णता, शोषण, अवमानना व असामानता का तर्कपूर्ण विरोध किया गया है। वे अपनी लघुकथाओं में आवश्यकतानुसार रचनात्मक कल्पना का आकर्षक प्रयोग करते हैं।

इनकी 'आदमी की खोज' लघुकथा में मनुष्य की संकीर्ण वृृत्ति पर व्यंग्य किया गया है। जाति और धर्म के चश्मों ने मनुष्य की सोच को बौना बना दिया है-इनका अहसास कराने में प्रस्तुत लघुकथा सफल रही है।

'बहू का सवाल' इन्सान की संकीर्णता को पारिवारिक धरातल पर उठाती है। बेटे और बहू को हमारे मध्यवर्गीय संस्कार अलग-अलग लाठियों से हांकते हैं। रचना में बहू का यह सवाल पूरी स्त्री जाति का सवाल बन जाता है-"मैं माँ तो बन सकती हूँ, पर वे बाप नहीं बन सकते और अब, यह जानने के बाद आप क्या मुझे दूसरी शादी करने की अनुमति दे सकते हैं?"

'मशाल और मशाल' लघुकथा हमें यह सोचने पर विवश करती है कि हमारी धार्मिक संकीर्णता हमें विनाश की ओर ले जाती है। हमें मानवीय उदारता की मशाल की ज़रूरत है।

'माध्यम' एक यथार्थवादी रचना है, जो स्पष्ट करती है कि गांव में अब भी शोषक शक्तियों का ही बोलबाला है। शोषण का विरोध व्यक्ति-स्तर पर संभव नहीं है।

'मृगजल' में गांव से शहर आकर युवक किस तरह पढ़ाई के बहाने घरवालों के खून-पसीने की कमाई को फ़िल्म और फैशन में फूंकते हैं-इसे किशन के ज़रिए दिखाया गया है। घर वाले इस आशा से बैल की तरह कमाकर उसे पैसे भेजते हैं कि एक दिन वह पढ़-लिखकर बड़ा आदमी बनेगा।

अशोक भाटिया

आठवें दशक से लघुकथा के रचना, आलोचना व संपादन-तीनों क्षेत्रों में सक्रिय रहने वाले लेखकों में इन पंक्तियों के लेखक (अशोक भाटिया) का नाम भी लिया जाता है। इनका जन्म 05 जनवरी 1955 को अंबाला छावनी (हरियाणा) में हुआ। पी-एच. डी. तक शिक्षित, अॅसोशिएट प्रोफेसर के पद से सेवा-निवृत्त होकर अब ये स्वतन्त्र लेखन करते हैं।

अशोक भाटिया की अब तक तीन कविता पुस्तकें, पांच आलोचना पुस्तकें, दो बाल-साहित्य व सात लघुकथा-पुस्तकें (दो स्वरचित, पाँच संपादित) प्रकाशित हो चुकी हैं।

इनकी पहली लघुकथा 'अपराधी' सन् 1978 में 'समग्र' के बहुचर्चित विशेषांक (1978) में प्रकाशित हुई थी। अब तक इनके दो लघुकथा-संग्रह-'जंगल में आदमी' (1990) और 'अंधेरे में आँख' (2010) प्रकाशित हो चुके हैं। 'अंधेरे में आँख' पुस्तक मराठी व तमिल में क्रमशः 'कथांजली व' इरुलिल ओलि'नाम से प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त पंजाबी की प्रमुख लघुकथाओं का हिन्दी में अनूदित-संपादित संकलन' श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएं'(1990) प्रकाशित हुआ जो किसी हिंदीतर भाषा की लघुकथाओं की, हिन्दी में प्रकाशित पहली पुस्तक है। पाठयक्रम के लिए' पैंसठ हिन्दी लघुकथाएं'(2001) पुस्तक संपादित की। हिन्दी लघुकथा की संपूर्ण यात्रा' निर्वाचित लघुकथाएं'(2005) के रूप में तथा विश्व लघुकथा की झलक' विश्व साहित्य से लघुकथाएं'(2007) नाम से प्रकाशित हुई. इसी का परिवर्धित रूप-देश-विदेश से कथाएं (2017) नाम से आया है। 1990 से 1970 तक की हिन्दी लघुकथाओं का शोधपूर्ण संकलन' नींव के नायक'(2010) नाम से आया।' समकालीन हिन्दी लघुकथा' इनकी आलोचना-पुस्तक है।

इनकी 'रिश्ते' , 'रंग' , 'पीढ़ी-दर-पीढ़ी' , 'तीसरा चित्र' , 'श्राद्ध' , 'कपों की कहानी' , 'पहचान' , स्त्री कुछ नहीं करती! सपना', रो मांस' आदि लघुकथाएं ज़्यादा पसंद की गई हैं। इसके अतिरिक्त लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर इनके लगभग एक दर्जन लेख हैं। इनमें 'पैंसठ हिन्दी लघुकथाएं' पुस्तक में 40 पृष्ठ का लेख 'हिंदी लघुकथा की यात्रा' तथा 'लघुकथा और शास्त्रीय सवाल' , 'परिहासिनी के बहाने कुछ बातें' विशेष रूप से पसंद किए गए.

राधेलाल बिजघावने के शब्दों में-

"रिश्ते' सेवा-निवृत्ति के आत्म-दुःख और परिवेशगत आत्मीय स्नेह के बीच की अन्तर्धारा की लघुकथा है, जो सोच को नया आयाम देती है, जबकि' रंग' प्रेम-स्नेह से दूर भागती अलगाववादी संस्कृति के आत्म-दुःख की भाषा को नया अर्थ देती है। यह सतही मानसिकता और कुंठित भावना की विस्फोटक कथा है।"

रामयतन यादव के शब्दों में- 'रंग' संवेदनात्मक अनुभूति पर आधारित सहज रूप में तिलमिला देने वाली लघुकथा है। यह लघुकथा सूक्ष्म विचार-शक्ति और सर्जनात्मक क्षमता का विस्मयकारी प्रमाण है। "

बलराम अग्रवाल के शब्दों में, 'तीसरा चित्र' में यथार्थ की प्रस्तुति भावनात्मक और कोमल ढंग से हुई है, न कि किसी प्रकार की कठोरता के साथ। प्रकृति के हिसाब से देखें तो यह प्रस्तुति काफी सटीक है, क्योंकि इसमें पिता और पुत्र दोनों ही कलाकार हैं। ...यहां पुत्र में विधाता का निरूपण है। इसे हम दार्शनिक पृष्ठभूमि की एक पूर्ण लघुकथा मान सकते हैं। "

राधेलाल बिजघावने के शब्दों में "अशोक भाटिया की 'चौथा चित्र' किंचित पोयटिक टच् वाली रचना है। 'पीढ़ी-दर-पीढ़ी' हिन्दी की बेहद प्रभावशाली रचनाओं में गिनी जा सकती है। बहुत छोटे और सरल वाक्य इस रचना को सहज सुंदर और बोधगम्य बनाते हैं। यह शिक्षा के लिए तरसती मजदूर पीढ़ी की युगों-युगों से चली आ रही व्यथा की यथार्थ कथा है। किसी भी गरीब देश के आम नागरिक की पीड़ा को प्रस्तुत करने में अशोक भाटिया किस कदर सफल रहे हैं, यह जानने के लिए इस लघुकथा की अंतिम पंक्तियाँ ही काफी हैं।"

'रो मांस' में दिखाया गया है कि निम्न मध्यवर्गीय संयुक्त परिवार द्वारा एक कमरे के मकान में जीवन-यापन करते हुए रोमांस के कुछ पल चुराना अत्यंत कठिन है।

'कपों की कहानी' छूआछूत को लेकर नायक के संस्कार और विवेक के द्वन्द्व पर आधारित है। इस विषय में बलराम अग्रवाल का मत है-"अपनी जिन विशेषताओं के कारण 'कपों की कहानी' समकालीन लघुकथाओं के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में सक्षम है, उनमें एक भी है कि यह अस्पृश्यता को त्यागने-सम्बंधी सामाजिक दायित्व के उस उफान की ओर संकेत करती है, जो पिछले अनेक वर्षो से हमारे मन व मस्तिष्क में रह-रहकर आता है, लेकिन अपनी अभिजात्य-संकीर्णताओं के चलते जिसे कार्याविन्त न होने देकर हम ऐन मौके पर बदलाव का उफान पैदा करने वाली उस आँच को धीमा कर देते हैं।"

कमल चोपड़ा

हिंदी लघुकथा के पुनर्स्थापना काल (आठवें दशक) से अपनी उपस्थिति निरंतर दर्ज कराने वालों में कमल चोपड़ा भी रहे हैं। इनका जन्म सितंबर 1955 में पंजाब में हुआ। चिकित्सा स्नातक डा। कमल चोपड़ा चिकित्सक हैं और स्वतंत्र लेखन करते हैं।

कथाकार कमल चोपड़ा कहानी, लघुकथा और बाल-कहानी क्षेत्रों में निरंतर लिख रहे हैं। अब तक इनका एक कहानी-संग्रह और तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी पहली लघुकथा 'तरकीब' जून 1975 में 'साहित्य निर्झर' (चंडीगढ़) के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई थी। तब से अब तक इनके तीन लघुकथा-संग्रह 'अभिप्राय' (1990) , 'फंगस' (1996) तथा 'अन्यथा' (2001) प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अतिरिक्त कमल चोपड़ा की लघुकथाएं पंजाबी में 'सिर्फ इन्सान' तथा मराठी में 'संवेदना' नाम से अनूदित होकर प्रकाशित हो चुकी हैं।

इन्होंने लघुकथा-लेखन के साथ-साथ संपादन के क्षेत्र में भी सक्रिय भूमिका निभाई है। प्रत्येक दो वर्षो की प्रमुख लघुकथाओं का संचयन कर 'हालात' (1981) , 'प्रतिवाद' (1984) , 'अपवाद' (1986) तथा 'अपरोक्ष' लघुकथा संकलन निकाले थे। उसी क्रम को पुनः प्रारंभ कर 2008 से 'संरचना' नाम से प्रति वर्ष की लघुकथाओं का संकलन प्रकाशित कर रहे हैं। इनके अतिरिक्त कमल चोपड़ा ने 'अयन' पत्रिका का सांप्रदायिकता विरोधी लघुकथांक संपादित किया था, जो बाद में 1986 में 'आयुध' नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ।

कमल चोपड़ा मध्यवर्गीय चेतना के कथाकार हैं। इस कारण इनकी लघुकथाओं में मध्यवर्ग की सोच, संवेदना और सीमाएं-तीनों दिखाई देते हैं। इनकी प्रमुख लघुकथाओं में खेल, छोनू, खेलने के दिन, असलियत, है कोई, इतनी दूर, शांति-शांति, कैद-बा-मशक्कत, मलबे के ऊपर आदि को गिना जा सकता है।

कमल चोपड़ा मुख्य रूप से सामाजिक विसंगतियों के कथाकार हैं। इनकी लघुकथाएं दंगे, समाज में बढ़ता दोगलापन और स्वार्थ, दहेज, सम्बंधों में बढ़ रही संवेदनहीनता आदि विषयों पर लिखी गई हैं। कहीं-कहीं वे मूल्यों के क्षरण की चिंता करते हुए मूल्यों की पैरोकारी भी करते हैं। इन्होंने स्त्री-संदर्भ की भी अनेक लघुकथाएं लिखी हैं।

'शांति-शांति' कमल चोपड़ा की अहिंसा और शांति के मूल्यों की पैरोकार लघुकथा है। एक कबूतर के माध्यम से लेखक अंत में संदेश देता है-'अहिंसा और शांति का संदेश देना कठिन अवश्य है पर असंभव नहीं।'

स्त्री-जीवन पर कमल चोपड़ा की लघुकथाओं में 'मलबे के ऊपर' , 'कैद-बा-मशक्कत' और 'निशानी' प्रमुख हैं। 'मलबे के ऊपर' लघुकथा में बेटे की शादी के दो दिन बाद ही जब मकान-गिराऊ दस्ता उनका मकान गिरा देता है तो सास बपनी बहू को 'मनहूस चुडै़ल' शब्दों से नवाजती है। लेकिन उधर उसकी माँ का मकान भी गिराये जाने पर उसकी माँ कहती है-'तेरे जाने से हम घर से बेघर हो गए.' ये दो स्थितियां सोचने को विवश ज़रूर करती हैं कि यह बेटी बनाम बहू वाली सोच कब बदलेगी! 'कैद-बा-मशक्कत' में पत्नी के लिए कैद-भरा वातावरण बनाने वाला पति जब कामवाली को भी उसी तीखी भाषा से हांकना चाहता है, तो वह उसे आइना दिखाती है-'ओ मालिक, ये चिकचिक मुझे पंसद नहीं। मैं तेरी बीवी नहीं हूँ। मुफ्त में नहीं देते हो पैसा।' 'निशानी' में जब बहू को पता चलता है कि कैंसरग्रस्त बेटे की निशानी के लिए ही उसके साथ बूढ़ी सास ने धोखा किया है, तो ऐसी बात सुनते ही बहू भड़ाक से दरवाजा खोल देती है। 'छोनू' में बच्चे के माध्यम से दंगों, नफ़रत व संकीर्णता का मज़ाक उड़ाया गया है। 'खेलने के दिन' बाल-मजदूरी की मार्मिक लघुकथा है। 'इतनी दूर' में दिखाया है कि वैश्वीकरण के इस दौर में बच्चे अपने बूढ़े मां-बाप से कितनी दूर चले गए हैं। इनकी कई लघुकथाओं में मूल्य-चेतना के उद्देश्य से बच्चे की सार्थक उपस्थिति दिखाई पड़ती है।

सुकेश साहनी

बीसवीं सदी के नवें दशक के प्रारंभ में जो लेखक लघुकथा के साथ पूरी गंभीरता और ईमानदारी से जुड़े, उनमें सुकेश साहनी का नाम उल्लेखनीय है। अन्य विधाओं में लिखते हुए भी इनकी साहित्यिक सक्रियता के केन्द्र में लघुकथा रही है।

सुकेश साहनी का जन्म 5 सितंबर 1956 को लखनऊ में हुआ। एम. एस-सी. (जियोलाजी) डी. आई. आई. टी. (एप्लाइड हाइड्रोलाजी) तक शिक्षा प्राप्त सुकेश साहनी भूगर्भ जल विभाग में निदेशक के पद से सेवा-निवृत्त हुए हैं।

अब तक इनका एक कहानी-संग्रह, एक बालकथा-संग्रह और दो लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं।

लघुकथा-लेखन की ओर सुकेश साहनी का नियमित रूझान 1982 से हुआ। तब से इन्होंने लघुकथा-क्षेत्र में निरंतर अपनी रचनात्मक क्षमता का प्रमाण दिया है। 'डरे हुए लोग' (1991) और 'ठंडी रजाई' (1998) इनके लघुकथा संग्रह हैं। 'डरे हुए लोग' पंजाबी, गुजराती, मराठी और अंग्रेज़ी में भी उपलब्ध है। सुकेश साहनी की प्रतिनिधि लघुकथाओं में 'गोश्त की गंध' , 'आइसबर्ग' , 'कस्तूरी मृग' , 'स्वीकारोक्ति' , 'ठंडी रजाई' , 'विजेता' , 'नंगा आदमी' , 'फ़ॉल्ट' , 'आधे-अधूरे' , 'कसौटी' आदि उल्लेखनीय हैं।

रचनात्मक लेखन के साथ-साथ आयोजन, संपादन, अनुवाद के द्वारा भी साहनी ने लघुकथा-साहित्य को समृद्ध किया है।

1982 के आसपास वे जगदीश कश्यप के साथ 'मिनीयुग' पत्रिका के संपादन से जुड़े। सन्् 2000 से अद्यावधि वे रामेश्वर कांबोज 'हिमाशु' के साथ मिलकर हिन्दी लघुकथा की पहली वेबसाइट ूूूण्संहीनांजींण्बवउ (मासिक) का संपादन कर रहे हैं। लघुकथा-अनुवाद के क्षेत्र में इनकी दो पुस्तकें 'खलील जिब्रान की लघुकथाएं (1985)' पागल एवं अन्य लघुकथाएं (2010) आई हैं। लघुकथा-संपादन के क्षेत्र में इनकी एक दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें आयोजन (1989) महानगर की लघुकथाएं, स्त्री-पुरुष सम्बंधों की लघुकथाएं (1992) , देह-व्यापार की लघुकथाएं (1997) , बीसवीं सदीः प्रतिनिधि लघुकथाएं (2000) , विश्व प्रसिद्ध अपराध लघुकथाएं (2001) समकालीन भारतीय लघुकथाएं (2006) , बाल-मनोवैज्ञानिक लघुकथाएं (2009) , लघुकथाएं मेरी पसंद (2012) , लघुकथा: 'देश-देशांतर' (2013) , लघुकथाएं, जीवन मूल्यों की (2013) शामिल हैं। इनमें से अंतिम चार पुस्तकें रामेश्वर कांबोज 'हिमांशु' के साथ संयुक्त रूप से संपादित की गई हैं। सुकेश साहनी द्वारा संपादित ये लघुकथा-संकलन लघुकथा की सार्वभाषिक उपस्थिति एवं समृद्धि-दोनों के जीवंत प्रमाण हैं।

सुकेश साहनी की लघुकथाएं मूलतः मानवीयता के तत्व से संचालित हैं, जिसके विविध आयाम इनकी रचनाओं में दिखाई देते हैं, यह मानवता मूलतः व्यक्ति-केंद्रित है, अतः ह्नदय-परिवर्तन की अनेक रचनाएं यहाँ मिलेंगी। आदर्श और पुनरुत्थान की चिंता इनमें व्यक्ति स्तर पर सक्रिय दीखती है। इसी का दूसरा आयाम विभिन्न क्षेत्रों में भ्रष्ट-तंत्र को उघाड़ता है। यहाँ लेखक द्वारा दिखाया आदर्षवाद उनकी सदिच्छा का प्रमाण है, वह मध्यवर्ग पर आधारित है। सुकेश साहनी की रचनाएं इस कला-विरोधी एवं भौतिकता की अंधी दौड़ के युग में हमारी संवेदना को कहीं जगाती हैं, तो कहीं समृद्ध करती हैं। इस संवेदनात्मक सक्रियता के पीछे उनकी सहज कलात्मकता भी एक कारक है। इनकी प्रारंभिक लघुकथाओं में मुख्यतः वर्णनात्मक, जबकि परवर्ती लघुकथाओं में डायरी, नाटकीय व अन्य शैलियों का भी पर्याप्त प्रयोग मिलता है। 'खेल' केवल नाटकीय शैली में, (हालांकि यह अंग्रेज़ी भाषा की लघुकथा है) जबकि 'उतार' केवल डायरी शैली में लिखी गई है।

'गोश्त की गंध' फेंटसी और प्रतीक के माध्यम से भारतीय समाज की उस विकृति को प्रभावपूर्वक दर्शाती है, जिसमें दामाद को खुश रखने के लिए असाधारण प्रयास करने पड़ते हैं। घटना और प्रतीक का कलात्मक मिश्रण यहाँ देखते ही बनता है।

'आइसबर्ग' लघुकथा सांप्रदायिक तनाव में मध्यवर्ग के व्यक्ति द्वारा स्थितियों के अनुसार अपने बयान बदलते जाने की प्रभावशाली रचना है, जो यथार्थ को सहज रूप में लेकर चलती है।

'कस्तूरी मृग' में एक पूँजीपति की गाथा है, जिसे पहली बार स्वयं कोई काम करने पर जीवन के आनंद का रहस्य ज्ञात होता है। ह्नदय-परिवर्तन की यह सहज प्रवाहमान रचना है।

'स्वीकारोक्ति' में चेतना-प्रवाह पद्धति के आधार पर मध्यवर्ग के व्यक्ति की मानसिक विकृति को दिखाकर बदलते दिखाया है।

'ठंडी रजाई' में व्यक्ति की बाह्य कठोरता के पीछे छिपी कोमल मानवीय भावना और सम्बंधों को सहजता से दिखाया गया है।

सुकेश साहनी मानवीय सम्बंधों के संवेदनशील रचनाकार हैं। उनकी लघुकथाओं में कथ्य की दृष्टि से आदर्श और यथार्थ का तथा शिल्प की दृष्टि से सहजता और सजगता का आकर्षक समन्वय मिलता है।

माधव नागदा

कवि-कथाकार माधव नागदा का जन्म 20 दिसम्बर 1951 को नाथद्धारा, जिला राजसमंद (राजस्थान) में हुआ था। इन्होंने रसायनशास्त्र में एम. एस-सी. तक शिक्षा प्राप्त की और सरकारी वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में अध्यापन किया। आजकल स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

माधव नागदा कहानी, कविता, लघुकथा और डायरी विधाओं में लिखते हैं। अब तक हिन्दी में इनके चार कहानी संग्रह, दो लघुकथा संग्रह और एक डायरी पुस्तक प्रकाशित हो चुकी हैं। राजस्थानी में भी इनका एक कहानी-संग्रह और एक डायरी पुस्तक आ चुकी है।

माधव नागदा की लघुकथा-यात्रा नवें दशक के साथ प्रारंभ होती है। इनकी पहली लघुकथा- 'हड़ताल' थी, जो 'जय राजस्थान' (दैनिक) में फरवरी 1980 के किसी अंक में प्रकाशित हुई थी। इनका पहला लघुकथा-संग्रह 'आग' 2004 में प्रकाशित हुआ। सजगता और सुगठितता की विशेषताओं के कारण माधव नागदा की लघुकथाएं बरबस ही पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींच लेती हैं। इनका दूसरा लघुकथा-संग्रह 'अपना-अपना आकाश' 2013 में प्रकाशित हुआ है।

नवें दशक में हिन्दी लघुकथा की दो धाराएं अलग से पहचानी जाने लगी थीं। बड़ी धारा उन लेखकों की थी, जो रातों-रात नामी-गिरामी साहित्यकार हो जाना चाहते थे। उन्होंने थोक के भाव लिखा और छपवाया, थोक के भाव संपादन करके लघुकथाओं की पुस्तकों का अंबार लगा दिया, जो प्रस्तरीकृत संवेदना को स्वयं प्रमाणित करती थीं। दूसरी ओर छोटी-सी धारा उन सजग, संवेदनशील, जिम्मेवार लेखकों की थी, जिनके सामाजिक सरोकार प्रमुख थे। इस धारा में माधव नागदा भी एक थे। माधव नागदा की लघुकथाओं के विषय में डा। वेदप्रकाश अमिताभ लिखते हैं-"उनकी लघुकथाओं से गुजरते हुए ऐसा लगता है कि वे पहले कथ्य को पकड़ते हैं, फिर उसके लिए एक ढांचा खड़ा करते हैं और अन्त में, अपने लेखकीय कौशल से उसे प्रभावषाली रचना बना डालते हैं। ...माधव नागदा की वे लघुकथाएं उत्तम हैं जिनमें संवेदना की तरलता के साथ विचार की सघनता भी संश्लिष्ट है।"

विषय की दृष्टि से माधव नागदा ने मुख्यतः पुलिस, शिक्षा जगत्, बचपन, प्रेम, सांप्रदायिकता की समस्या आदि पर कलम चलाई है। स्त्री-पुरुष सम्बंधों पर भी इनकी लघुकथाएं ध्यान खींचती हैं। भारतीय पुलिस पर इनकी 'खोजी कुत्ते' , 'हिस्ट्रीशीटर' और 'डाकू' प्रमुख लघुकथाएं हैं। चोरी पकड़ने के लिए एस. पी. खोजी कुत्ते मंगवाने से इसलिए इन्कार कर देता है कि एक बार खोजी कुत्ते मंगाए गए थे, तो वे सीधा थाने में जा घुसे थे। 'हिस्ट्रीशीटर' लघुकथा बताती है कि भारतीय पुलिस झूठे गवाह पैदा करने और किसी से भी अपराध कबूल करवाने में कितनी सिद्धहस्त है।

'उस पार' और 'शिखर' प्रेम पर लिखी प्रभावशाली रचनाएं हैं। युवती का कहा गया एक वाक्य भी युवक को देह के दायरों से बहुत ऊपर उठकर शिखर तक पहुंचा सकता है, इसे 'शिखर' लघुकथा में दिखाया गया है। 'उस पार' प्रेम की बड़ी असरदार लघुकथा है। स्त्री के लिए ऐश्वर्य नहीं, प्यार अधिक महत्त्व रखता है-इसे 'वह चली क्यों गई' लघुकथा में दिखाया गया है।

इनकी 'उत्तराधिकारी' लघुकथा में चार पीढ़ियों के माध्यम से सोच में आ रहे बदलाव को रचनात्मक कौशल के साथ रेखांकित किया गया है।

माधव नागदा की रचनाओं को तीन शैलियों में बांट सकते हैं। आग, खोजी कुत्ते, रूपला कहाँ जाए आदि अधिकतर लघुकथाएं वर्णनात्मक शैली की हैं। टयूशन, अपने पराये, निर्णय आदि संवाद शैली में हैं। माधव नागदा की कई लघुकथाएं संश्लिष्ट शैली की हैं, जिसमें अभिव्यक्ति के कई उपकरणों का प्रयोग हुआ है। वे यथावश्यक आंचलिक भाषा का भी प्रयोग करते हैं।

सजगता व गंभीरता से सामाजिक यथार्थ को नपे-तुले शब्दों में वाणी देने वाले लघुकथा-लेखकों में माधव नागदा एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं।

रामकुमार आत्रेय

कवि-कथाकार रामकुमार आत्रेय का जन्म 01 फरवरी 1944 को गाँव करोड़ा, जिला कैथल (हरियाणा) में हुआ। प्रभाकर व एम.ए. हिन्दी तक शिक्षा प्राप्त रामकुमार आत्रेय स्कूल के हिन्दी प्राध्यापक पद से सेवा-निवृत्त होकर अब स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

रामकुमार आत्रेय की अब तक सोलह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें पांच कविता-संग्रह, चार लघुकथा-संग्रह, चार बालकथा-संग्रह, दो हरियाणवी पुस्तकें तथा एक कहानी-संग्रह शामिल हैं।

आत्रेय की पहली प्रकाषित लघुकथा 'जवानी' है जो 'दैनिक ट्रिब्यून' के 10 अक्टूबर 1982 अंक में छपी थी। तब से विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उनकी लघुकथाएं निरंतर प्रकाशित हो रही हैं। अब तक उनके चार लघुकथा-संग्रह-'इक्कीस जूते' (1993) , आंखों वाले अंधे (1999) , छोटी-सी बात (2006) और 'बिन शीशों का चश्मा' (2012) प्रकाशित हो चुके हैं।

रामकुमार आत्रेय की प्रमुख लघुकथाओं में 'बिन शीशों का चश्मा' , 'आँखों वाले अंधे' , 'टूटी चूड़ियां' , 'यक्ष प्रश्न' , 'हरिद्वार' , 'इक्कीस जूते' , 'कीमती डिबिया' , 'कानूनी अपराध' आदि शामिल हैं। आत्रेय सरल व्यक्तित्व तथा ग्रामीण पृष्ठभूमि के व्यक्ति हैं, जिसका प्रभाव इनकी लघुकथाओं पर भी दिखाई देता है।

'बिन शीशों का चश्मा' में गांधी जयंती के अवसर पर स्कूल के कबाड़खाने से गांधी की मूर्ति खोज ली जाती है। बातचीत में मूर्ति एक छात्र से अपने पिता के चश्में को एक दिन के लिए ले आने को कहती है। उस चश्मे में शीशे नहीं हैं। मूर्ति कहती है-अच्छा है, मैं भी अपने नाम पर होने वाले पाखंडपूर्ण नाटक को नहीं देख पाऊँगा। ' यह तरल संवेदना की सहज रची गई लघुकथा है।

'आँखों वाले अंधे' में दो धार्मिक स्थल आमने-सामने खड़े हैं, जिनका वार्तालाप दिखाया गया है। उनके संवादों में ही धार्मिक स्थलों की निरर्थकता सिद्ध की गई है। 'टूटी चूड़ियाँ' लघुकथा में करवाचौथ के माध्यम से पुरुष की पितृसत्तात्मक भौतिक दृष्टि व पत्नी की परंपरा और पवित्रता को महत्त्व देने वाली दृष्टि को उभारा गया है। 'कानूनी अपराध' लघुकथा में देश की व्यवस्था में जड़ तक घुसे भ्रष्टाचार को उभारा गया है। खेत का इंतकाल बिना घूस दिए दर्ज करवाने के लिए आदमी को सब भाग-दौड़ के बावजूद किस कदर अपमानित और निराश होना पड़ता है-इसका सजग चित्रण हुआ है। 'हरिद्वार' लघुकथा में नयी पीढ़ी की स्वच्छंद सोच के संदर्भ में वृद्धा की उपेक्षा को चित्रित किया गया है। 'यक्ष प्रश्न' में बादषाह एक ऐसे ईमानदार आदमी को इक्कीस जूते लगाने के दंड की घोषणा करता है, जो भ्रष्टाचार के युग में भूखा रहकर अभावों की ज़िन्दगी जी रहा होता है।

रामकुमार आत्रेय की लघुकथाएं राजनीति, समाज और परिवार-तीनों क्षेत्रों के यथार्थ को सहज वर्णनात्मक शैली में पाठकों के सन्मुख इस प्रकार रखती हैं कि पाठक उन रचनाओं से सहज ही जुड़ जाता है।

श्याम सुन्दर दीप्ति

पंजाबी-हिंदी दोनों भाषाओं में समान रूप से लिखने वाले कवि-कथाकार, समाजवादी चिंतक श्याम सुन्दर दीप्ति पंजाबी मिन्नी कहानी (लघुकथा) की रीढ़ हैं। 30 अप्रैल 1954 को अबोहर (पंजाब) में जन्मे श्याम सुन्दर दीप्ति एम.बी.बी.एस., एम.डी. तथा डबल एम.ए. तक षिक्षित हैं और व्यवसाय से डॉक्टर हैं।

पंजाबी में लघुकथा को मिन्नी कहानी कहते हैं। श्याम सुन्दर दीप्ति ने इस क्षेत्र में लेखन और संपादन, अनुवाद और आयोजन-चारों दिशाओं में अपने प्रयासों के घोड़े दौड़ाकर लघुकथा को गंभीरता और गरिमा प्रदान की। लघुकथा पर केंद्रित 'मिन्नी' (त्रैमासिक) पत्रिका का 1988 से अब तक निरंतर संपादन (जिसके एक सौ सोलह अंक प्रकाशित हो चुके है) तथा सत्ताईस वर्षो तक निरंतर अन्तर्राज्यीय मिन्नी कहानी सम्मेलनों का प्रति वर्ष आयोजन इस दिशा में किए गए इनके कार्यो की गंभीरता का स्वयं प्रमाण है। इन कार्यो में श्याम सुन्दर दीप्ति के साथ श्याम सुन्दर अग्रवाल भी प्रारंभ से सक्रिय रहे, बाद में बिक्रमजीत नूर और अनूप सिंह भी जुड़ गए. इन कार्यो के ज़रिए इन्होंने कई लेखकों को संवारा-उभारा।

श्याम सुन्दर दीप्ति की पहली प्रकाशित हिन्दी लघुकथा 'संघर्ष' 1987 के 'अस्तित्व' त्रैमासिक के एक अंक में छपी थी, जिसके संपादक डा। दीप्ति और देविंदर बिमरा थे। अब तक पंजाबी में इनकी, श्याम सुन्दर अग्रवाल के साथ मिलकर, लघुकथा पर 26 संपादित पुस्तकें आ चुकी हैं। हिन्दी में इन दोनों की दो संपादित पुस्तकें 'पंजाबी लघुकथाएं' और 'विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएं' आ चुकी हैं। इसके अलावा हिन्दी में तीन कविता-संग्रह और सेहत व ज्ञान-विज्ञान सम्बंधी लगभग बीस पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनके अतिरिक्त हिन्दी और पंजाबी लघुकथाओं का परस्पर अनुवाद भी निरंतर कर रहे हैं। 'गैर हाज़िर रिश्ता' नाम से इनका हिन्दी लघुकथा-संग्रह प्रकाशित है।

श्याम सुन्दर दीप्ति मुख्य रूप से सम्बंधों और स्त्री-संदर्भो के लेखक हैं। 'रिश्ता' , 'गैर हाजर रिश्ता' , 'रिश्ते की बुनियाद' , 'नाइटी' आदि लघुकथाएं सम्बंधों की खोज करती हैं, तो 'दीदी' , 'बैड गर्ल' , 'स्वागत' आदि लघुकथाएं स्त्री-संदर्भो को सामने लाती हैं। 'बीच' , 'दीवारें' , 'जोगे की बेटी' आदि इनकी अन्य उल्लेखनीय लघुकथाएं हैं, जो क्रमशः प्रशासन, वृद्धावस्था और समाज की पड़ताल करती हैं।

'रिश्ता' लघुकथा सामाजिक सम्बंधों में व्याप्त नकारात्मक और सकारात्मक पहलुओं को आमने-सामने ला खड़ा करती है और पाठक के मन में मानवीयता का बीज सहज ही बो जाती है। बस में बैठे निहाल सिंह को बिना स्टॉप के उतारना ड्राइवर को मंजूर नहीं। निहाल सिंह कभी दोनों के जट भाई होने का, कभी सिख होने का वास्ता भी रास्ता नहीं निकाल पाता। जब निहाल कहता है-'आदमी ही आदमी की दवा होता है' , तो ड्राइवर ब्रेक लगा देता है। कंडक्टर के चिल्लाने पर कहता है-एक रिश्ता निकल आया था। 'नियमों और संकीर्ण सोच से ऊपर उठकर ही यह बेहतरीन रिश्ता बन सकता है-' रिश्ता' लघुकथा यही संदेश देती है।

इस लघुकथा के सामने 'गैर-हाज़िर रिश्ता' रचना रखने पर दोनों का प्रभाव बढ़ जाता है। 'रिश्ते की बुनियाद' रचना रतनसिंह की श्रेष्ठ लघुकथा 'लकड़हारा और परी' का स्मरण करा देती है। मजबूत आर्थिक आधार रिश्तों को परिभाषित करने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। यू.पी.-बिहार से आया अनिल एक घर में काम करता है। थोड़े समय में ही उसका रंग-रूप बदल जाता है। किटी पार्टी में महिलाएं कहती हैं कि वहाँ माँ ने तुझे पहचानना नहीं है। उसका उत्तर है-अच्छा ही है। नहीं पहचानेगी तो मैं यहाँ ही रह जाऊंगा, बीबी जी के पास। "

'दादी' और 'बैड गर्ल' भारतीय समाज में लड़कियों के बारे संकीर्ण सोच को सामने लाने वाली यथार्थपरक लघुकथाएं हैं। 'बैड गर्ल' लघुकथा में घूमने जाते हुए भी बच्ची का स्कूल बैग साथ रखवाया जाता है। वह कहानी सुनना चाहती है, चिप्स खाना चाहती है, कलर करना चाहती है, लेकिन पिता पहले पोयम सुनने पर उतारू हैं। कहानी वाली परी का क्या होगा?-यह बच्ची की स्थिति से स्पष्ट है। लेकिन इन दोनों लघुकथाओं के विपरीत 'स्वागत' लघुकथा में होटल में रुके हुए अपने सीनियर अफसर की बेहूदगी का जवाब युवती होटल के वेटर के सामने उसे थप्पड़ रसीद कर और दफा हो जाने को कहकर देती है। डा। दीप्ति लघुकथाओं में सहज वर्णनात्मक शिल्प के पक्षधर हैं।

पंजाब में मिन्नी कहानी को सहज रचनात्मक आंदोलन का रूप देने और उसमें अपना रचनात्मक योगदान देने में श्याम सुन्दर दीप्ति का उल्लेखनीय स्थान है।

(17) श्याम सुन्दर अग्रवाल

पंजाबी और हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में समान रूप से सक्रिय श्याम सुन्दर अग्रवाल का जन्म 8 फरवरी 1950 को कोटकपूरा (पंजाब) में हुआ। बी.ए. तक शिक्षित पंजाबी भाषी श्याम सुन्दर अग्रवाल लोक निर्माण विभाग पंजाब से सेवानिवृत्त होकर अब स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं।

मूल रूप से लघुकथा लेखक अग्रवाल के अब तक पंजाबी में दो लघुकथा-संग्रह और एक बालकथा संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हिन्दी में लिखित इनका लघुकथा-संग्रह 'बेटी का हिस्सा' प्रकाशनाधीन है। लघुकथा क्षेत्र में संपादन और अनुवाद-कार्य से लघुकथा की समृद्धि और विस्तार को इन्होंने निरंतर रेखांकित किया है। हिन्दी में इन्होंने श्याम सुन्दर दीप्ति के साथ-पंजाबी लघुकथाएं'(1994) ,' बीसवीं सदीः पंजाबी लघुकथाएं'(2005) और' विगत दशक की पंजाबी लघुकथाएं'(2011) तीन संकलन संपादित किए हैं। पंजाबी में लघुकथा को मिन्नी कहानी कहते हैं। पंजाबी में श्याम सुन्दर अग्रवाल ने कुल 26 मिन्नी कहानी-संकलन संपादित किए हैं, जिनमें से 19 में श्याम सुन्दर दीप्ति और बिक्रमजीत सिंह नूर के साथ संपादन-कार्य किए हैं। इसके अतिरिक्त सन् 1988 से अब तक तीन अन्य संपादकों-ष्याम सुन्दर दीप्ति, बिक्रमजीत नूर व अनूप सिंह के साथ मिलकर' मिन्नी कहानी' (त्रैमासिक पत्रिका) के अब तक निरंतर 116 अंक संपादित कर चुके हैं। इसके साथ ही हिन्दी से पंजाबी में चार पुस्तकें अनूदित कर प्रकाशित करा चुके हैं। इसके साथ ही लघुकथा लेखक, मेहमान मिन्नी कहानी आदि लघुकथा को समर्पित छह ब्लॉग भी चला रहे हैं।

श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथाओं का मूल स्वर शासन-प्रशासन-समाज-परिवार में विसंगतियों व अन्याय का विरोधी स्वर है। अभावग्रस्त लोगों, मां, वृद्धों के प्रति इनकी लघुकथाओं में संवेदना और मानवीय मूल्यों का उभार बड़ी सहजता से उभरकर आया है। टूटी हुई ट्रे, उत्सव, माँ का कमरा, चमत्कार, बेड़ियां, मरुस्थल के वासी, संतू, राह में पड़ता गांव, बेटी का हिस्सा इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं। वृद्ध जीवन की स्थितियों, संवेदनाओं और विवशताओं को व्यक्त करने वाली श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथाओं में 'टूटी हुई ट्रे' , 'मां का कमरा' , 'बुजुर्ग रिक्शावाला' , 'राह में पड़ता गांव' और'बेटी का हिस्सा' प्रमुख हैं। इनमें अंतिम दो लघुकथाओं में प्रकारान्तर में वृद्ध-जीवन की स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। 'टूटी हुई ट्रे' बुढ़ापे में दिवंगत जीवन-साथी की मधुर स्मृतियों की भावनापूर्ण रचना है। टूटी हुई ट्रे का कहानी में प्रयोग रचना को प्रतीक रूप में भी बल देता है। टूटी ट्रे उसकी दिवंगत पत्नी का प्रतीक है।

'मां का कमरा' संवेदनहीन होते जा रहे परिवेश में सकारात्मक मूल्य की रचना है। हालांकि बुजुर्ग बसंती को उसकी पड़ोसन अपने बेटे के पास न जाने के तर्क देती है-'न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।' लेकिन जब वह बेटे के साथ जाती है, तो डबल बैड वाले कमरे (जिसमें टीवी, टेप रिकॉर्ड, गुसलखाना आदि सुविधाएं है) को पाकर माँ को अपना सपना साकार होता लगता है। 'राह में पड़ता गांव' लघुकथा में माँ के प्रति बेटे की मानसिकता पर अप्रत्यक्ष व्यंग्य उभर आता है।

आज का इलैक्ट्रानिक मीडिया मिशन न होकर केवल कौशल का क्षेत्र रह गया है। मीडिया की गला-काट स्पर्धा के माहौल को उभारती 'उत्सव' लघुकथा एक अन्य अर्थ में मनोज रूपड़ा की 'उत्सव' कहानी का स्मरण कराती है। बोरवेल में फंसे प्रिंस को प्रशासन निकाल लेता है। किंतु फिर ऐसा हादसा न हो-इस बात में मीडिया की दिलचस्पी न होकर फिर हादसा होने पर सबसे पहले उसे प्रसारित करने का श्रेय लेने की है।

'चमत्कार' भारतीय समाज में व्याप्त पाखंड को उघाड़ने के कारण महत्त्वपूर्ण लघुकथा है। यहाँ निर्धन को तो दूध नहीं मिलता, पर देवताओं की मूर्तियों पर सारे शहर का दूध चढ़ा दिया जाता है। मूर्ति भला दूध कहाँ से पिएगी, वह सारा दूध पीछे सूनी गली की नाली में बहता है। अंधविश्वासी समाज में पत्थरों और नालियों के लिए दूध है, इन्सानों के लिए नहीं-इसी अमानवीय कृत्य और पाखंड को यह रचना सफलता से उजागर करती है।

श्याम सुन्दर अग्रवाल की लघुकथाएं भाषा और शैली-शिल्प की दृष्टि से एक सीधी लकीर पर चलती हैं। यह लकीर उनकी लघुकथाओं की शक्ति भी है, सीमा भी।

अन्य प्रमुख लघुकथा लेखकों में सिमर सदोश, मधुदीप, विक्रम सोनी, मार्टिन जॉन, जसबीर चावला, मोहन राजेश, विष्णु नागर, सुभाष नीरव, चैतन्य त्रिवेदी, रवीन्द्र वर्मा, मुकेश वर्मा, रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' , अमरीक सिंह दीप, ज्ञानदेव मुकेश, सुशांत सुप्रिय, दीपक मशाल आदि ने कुछ उल्लेखनीय लघुकथाएं दी हैं।

सिमर सदोष (02.04.1943)

कवि-कथाकार पत्रकार सिमर सदोष हिन्दी लघुकथा के पुनर्स्थापना के दौर से इसके साथ जुड़े हुए हैं। अब तक इनका एक लघुकथा-संग्रह 'एक मुट्ठी आसमां' (2010) प्रकाशित हो चुका है। इनमें 'पंजाबी पुत्तर' और 'चादर' लधुकथाएं बड़ी लोकप्रिय हुई हैं। 'देश' , 'चढ़ता हुआ जहर' इनकी अन्य प्रमुख लघुकथाएं हैं। सिमर सदोष की लघुकथाएं पंजाब की मिट्टी में रच-बसकर बनी हैं। पंजाब के गांवों की संस्कृति इनकी लघुकथाओं में से झांकती दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त 'हिंदी मिलाप' (दैनिक) से 'अजीत समाचार' (दैनिक) तक में संपादक के रूप में इन्होंने लघुकथा-साहित्य को समुचित स्थान दिया है।

मधुदीप (01.05.1950)

कथाकार मधुदीप के अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। इनके दो लघुकथा-संग्रह 'मेरी बात तेरी बात' और 'समय का पहिया' प्रकाशित हैं। लघुकथा पर 'पड़ाव और पड़ताल' नाम से अब तक 25 खंडों में महत्त्वपूर्ण शृंखला का संयोजन-संपादन-प्रकाशन किया है। 'शासन' , 'हिस्से का दूध' , 'अस्तित्वहीन नहीं' , 'समय का पहिया' इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

विष्णु नागर (14.06.1950)

प्रसिद्व कवि-कथाकार और पत्रकार विष्णु नागर शुरू से कहानियों के साथ लघुकथाएं लिखते रहे हैं। 'ईश्वर की कहानियां' और 'बच्चा और गेंद' (2005) इनके लघुकथा-संग्रह हैं। विष्णु नागर ने प्रचलित कथाओं को नए संदर्भो में व्यंग्य के प्रयोग द्वारा रोचक लघुकथाएं लिखी हैं। भाषा के साथ खिलंदड़ा और कलात्मक व्यवहार इनकी लघुकथाओं में रोचकता और नई अर्थ-छवियाँ भरता है। 'झूठी औरत' तथा ईश्वर से जुड़ी कई कहानियाँ इनकी प्रमुख लघुकथाएं हैं।

जसबीर चावला (07.09.1953)

अपनी मौलिक शैली और टटकी व रोचक भाषा में लघुकथाएँ लिखने वाले जसबीर चावला के अब तक पाँच लघुकथा-संग्रह 'नीचे वाली चिटखनी' (1996) , 'सच के सिवा (2004) ,' आतंकवादी'(2006) ,' कोमा में मछलियाँ'(2008) और' शरीफ जसबीर'(2013) प्रकाशित हो चुके हैं।' लस्से',' विलायती बोल',' कवच-कुंडल',' बिल्लियाँ' आदि इनकी प्रमुख लघुकथाएँ हैं।

सुरेन्द्र मंथन (04.04.1937-2012)

कथाकार अध्यापक सुरेन्द्र मंथन का लघुकथा-लेखन 1961 में 'वीर प्रताप' (जालंधर) में प्रकाशित 'उसका खजाना' लघुकथा से शुरू हुआ। इनके दो लघुकथा-संग्रह 'घायल आदमी' (1984) और 'भीड़ में' (2008) हैं। इनकी लोकप्रिय लघुकथा 'राजनीति' के अतिरिक्त 'पिता' , 'भूख' , 'फल' , 'हरियाली' , 'दुश्मन' , 'चोट खाया आदमी' और 'सूर्य ग्रहण' इनकी प्रमुख लघुकथाएं हैं।

विक्रम सोनी (25.05.1943)

सन् 1984-85 से लगभग 10 वर्ष तक लघुकथा की केंद्रीय पत्रिका 'लघु आघात' त्रैमासिक (पहला अंक 'आघात' नाम से) संपादित कर लघुकथा के विकास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई. इनकी चुनिंदा लघुकथाएं 'उदाहरण' (1989) पुस्तक के रूप में मिलती हैं। 'जूते की जात' , 'मुआवज़ा' , 'बनैले सूअर' , 'अंतहीन सिलसिला' , 'खेल-खेल में' , 'लावा' , 'मंझली उगली का दर्द' इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं। विक्रम सोनी की लघुकथाएं वर्तमान व्यवस्था में व्याप्त अन्याय व संकीर्णता पर तीखी टिप्पणियां हैं।

मोहन राजेश (12.04.1952)

1968 से लेखन में उतरने वाले मोहन राजेश व्यवसाय से पत्रकार व प्राध्यापक रहे हैं। संख्या में काफी लघुकथाएं लिखने पर भी इनका कोई लघुकथा-संग्रह अब तक प्रकाशित नहीं हुआ। इनकी लघुकथाओं की विषय-वस्तु समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण पर आधारित है। मोहन राजेश की लघुकथाओं में मुख्य रूप से सामाजिक विसंगतियों और यौन कुंठाओं का प्रस्फुटन बड़े जीवंत रूप में मिलता हैं। 'अंधविश्वास' , 'आजादी' , 'असल बात' , 'अछूत' , 'रिपोर्ट' , 'पति' इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

सुभाष नीरव (27.12.1954)

कवि-कथाकार सुभाष नीरव लंबे समय से हिंदी-पंजाबी लघुकथा से जुड़े हैं। 1990 से पंजाबी लघुकथा-साहित्य को हिन्दी में लाने में जुट गए. इस समय 'कथा पंजाब' , 'सृजन-यात्रा' 'सेतु साहित्य' आदि छह ब्लॉगों के माध्यम से हिन्दी व पंजाबी साहित्य को एक मंच पर लाने का कार्य कर रहे हैं। 'सफर में आदमी' , (2010) इनका लघुकथा-संग्रह है। 'बारिश' , 'धूप' , 'धर्म-विधर्म' , 'जानवर' , 'बाजार' , 'मकड़ी' इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं। मानव-मन की पर्तो को सहजता से सामने लाने में इनकी लघुकथाएं सफल हैं। सुभाष नीरव की लघुकथाओं का स्वभाव 'सहजता में आकर्षण' है।

रवीन्द्र वर्मा (01.12.1936)

कथाकार रवीन्द्र वर्मा के कहानी संग्रह 'कोई अकेला नहीं है' (1994) में उनकी तैंतीस लघुकथाएं शामिल हैं। हालांकि उन्हें 'कहानी' ही कहा गया है, लेकिन अपने शिल्प में ये लघुकथाएं ही हैं। अपनी विशिष्ट कला-शैली गढ़ने के कारण ये लघुकथाएं सबसे अलग दीखती हैं। सामाजिक यथार्थ किस प्रकार कलात्मक यथार्थ में बदलता है-इसका सुन्दर उदाहरण रवीन्द्र वर्मा की ये लघुकथाएं हैं। प्रेम कहानी, घर का छठा सदस्य, पर्वतारोही, कोई अकेला नहीं, पानी की कहानी इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं। इन लघुकथाओं में बड़े परिवर्तनों और प्रक्रियाओं के बिंब उभरते हैं, जो पाठक की चेतना को सक्रिय बनने में सक्षम हैं।

मुकेश वर्मा (02.02.1947)

कथाकार मुकेश वर्मा ने संख्या में चाहे अधिक लघुकथाएँ नहीं लिखीं, किंतु उसमें समृद्ध अनुभव और उनकी कलात्मक प्रौढ़ता लघुकथा के दायरे को थोड़ा व्यापक अवश्य बनाती है। इनकी अधिकतर लघुकथाएं इनके दूसरे कथा-संग्रह 'इस्तगासा' (2004) में संकलित हैं। 'मुक्त करो' , 'इस मकान में' , 'कांच पर छाप की तरह स्थिर' , 'प्लेटफॉर्म से लौटते हुए' , 'अनंत में अम्मा हंसती है' आदि इनकी श्रेष्ठ लघुकथाएं हैं। मुकेश वर्मा की लघुकथाएं काव्यात्मक व्यवहार के कारण पाठकों का संवेदनात्मक विस्तार भी करती हैं और नई अर्थ-व्यंजनाएं भी उभारती हैं। लघुकथा को घिसी-पिटी लकीर पर चलती देखने वालों को यहाँ निराशा हाथ लग सकती है।

रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' (19.03.1949)

कवि-कथाकार रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु' के तीन कविता संग्रह और व्यंग्य, हाइकु, ताँका, व्याकरण, बाल साहित्य आदि पर पुस्तकें प्रकाशित हैं। 'असभ्य नगर एवं अन्य लघुकथाएँ' इनका लघुकथा संग्रह है। लघुकथा की एकमात्र मासिक हिन्दी वेब पत्रिका लघुकथा डॉट कॉम के संयुक्त संपादक हैं। 'ऊँचाई' , धर्म-निरपेक्ष',' एजेण्डा',' कालचिड़ी',' आँख का तिल',' धारणा' आदि इनकी प्रमुख लघुकथाएँ हैं।

चैतन्य त्रिवेदी (17.02.1955)

कवि-कथाकार-व्यंग्यकार चैतन्य त्रिवेदी की लघुकथाएं भाषा के साथ काव्यात्मक व्यवहार करती हुई अपना संसार रचती हैं। सन् 2000 में प्रकाशित इनके लघुकथा-संग्रह 'उल्लास' की लघुकथाएं हिन्दी लघुकथा में अपनी मौलिक व रोचक शैली निर्मित करती हैं। 'खुलता बंद घर' , 'जूते और कालीन' , 'सम्बंध जिए जाते हैं' , 'मां तो है' , 'चश्मा' , 'शैतान ले आया था किताबें' आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएं हैं।

ज्ञानदेव मुकेश

सन् 2000 के बाद लघुकथा-लेखन में तेज़ी से उभरने वाले लेखकों में ज्ञानदेव मुकेश का नाम उल्लेखनीय है। इनका एक लघुकथा-संग्रह 'भेड़िया जिंदा है' (2008) प्रकाशित हुआ है। 'दूर का सपना' , 'हत्या' , 'फर्ज' , 'फर्क' , 'हम मनुष्य नहीं हैं' , 'भेड़िया जिंदा है' , हाशिए का डर',' झूठ की जीत' इनकी प्रमुख लघुकथाएं हैं। ज्ञानदेव मुकेश अपनी रचनाओं में कहीं तुलना, कहीं व्यंग्य और कहीं संकेत द्वारा अर्थवत्ता को इस तरह उभारते हैं कि साधारण लगने वाली रचना प्राणवान हो उठती है।

दीपक मशाल (24.09.1980)

मौलिक शैली में लघुकथाएं लिखने के कारण दीपक मशाल चर्चा में आए हैं। 'अनुभूयिाँ' कविता-संग्रह और 'ब्रेवहार्ट्स ऑफ इंडिया' के अनुवाद के बाद 2017 में इनका लघुकथा-संग्रह 'खिड़कियों से' प्रकाशित हुआ है। 'बेचैनी' , 'पानी' , 'दूध' आदि इनकी बहुप्रशंसित लघुकथाएँ हैं।

हिन्दी लघुकथा में नई पीढ़ी बहुत तेज़ी से उभर रही है।