हिंदी व्यंग्य की अवसान बेला / ओमप्रकाश कश्यप
मैं यह मान लेता हूं कि साहित्यिक विधाएं कभी मरती नहीं। वे अपने पाठकों, लेखकों, आलोचकों, समीक्षकों और प्रशंसकों के बीच सदैव जीवंत बनी रहती हैं। यूं भी साहित्य को अक्षयवट कहा जाता है। सदाबहार, उसकी शाखाओं के विस्तार का सिलसिला कभी थमता नहीं। भू-स्पर्श के साथ ही वे नया रूप ले लेती हैं। जीवन की तरह उतार-चढ़ाव के दौर साहित्य में भी आते हैं। कभी कोई विधा विकास की तेज रफ्तार पकड़ लेती है, कभी ठहराव की शिकार हो जाती है। विधाएं जब-तब स्थानापन्न भी होती रहती हैं। जैसे कहानी पहले लोक कथा के रूप में घर, चौपाल, गली, नुक्कड़, अलाव के आसपास कही-सुनी जाती थी, फिर वह किताबों में सिमटने लगी। एक समय किस्सागो का समाज में सम्मानजनक स्थान था। उनके नाम पर गली-मुहल्लों के नाम रखे जाते थे। वक्त के साथ पहले उनका मान-सम्मान गया, फिर पेशा। कहानी दादा-दादी, नाना-नानी के माध्यम से नौनिहालों का मनोरंजन करने लगी। इस लंबे अंतराल में प्रस्तुतीकरण का रूप बदला था, उद्देश्य नहीं। लोक साहित्य की उपयोगिता भी समय के साथ निरंतर परवान चढ़ती गई। लेकिन भागम-भाग के इस युग में आज वह परंपरा दम तोड़ रही है, चौपालों पर घंटों तक अपनी किस्सागोई का जलवा बिखेरने वाले किस्सागो अब कहीं नजर नहीं आते, किंतु पुस्तकों, पत्र-पत्रिकाओं, टेलीविजन, इंटरनेट आदि पर कहानी साहित्य की प्रमुख विधा के रूप में अपना सम्मान बनाए हुए है। चार-साढ़ चार सौ वर्ष पहले तक चौपाई नामक छंद पद्य साहित्य की जान हुआ करता था। तुलसी ने 'मानस और जायसी ने 'पदमावत' इसी छंद में रचा था। अतुकांत कविता के दौर में चौपाई, सवैया जैसे छंदों का प्रयोग घटा है। इधर छंदबद्ध कविता पर ही संकट-सा है। हालांकि लोकमानस में उद्धरणों, किवदंतियों के रूप में उसकी पैठ आज भी पहले जितनी ही है। अतः इस लेख के शीर्षक को लेकर व्यंग्य के प्रति यदि अवसादजन्य विचार उमड़ते हैं, तो उनको लेकर बहुत चिंतित होने की आवश्यकता नहीं है। न इसके द्वारा चौंकाने का मेरा कोई इरादा है। इस सब के बावजूद इस शीर्षक का चयन अन्यथा नहीं है। बल्कि काफी सोच-विचार के उपरांत तय किया गया है। कुछ वर्षों से व्यंग्य को लेकर जो विचार मेरे मन में उठते रहे हैं, मैं कोशिश करूंगा कि उन्हें इस लेख के माध्यम से आपके समक्ष प्रस्तुत कर सकूं।
अपनी संपूर्ण आशावाद और सकारात्मक बोध के बावजूद मैं कहना चाहूंगा कि हिंदी व्यंग्य के लिए यह सबसे बुरा दौर है। ऐसे समय में जब हमारे समक्ष अनगिनत चुनौतियां हैं, जिस दौर में व्यंग्यकारों के नश्तर को और अधिक नुकीला और प्रहारक होना चाहिए, वे लगभग दिशाहीन और निस्तेज अवस्था में हैं। प्रतिकूल परिस्थितियों तथा उनके लिए जिम्मेदार कारकों को पहचान कर, उन पर व्यंग्य लिखने, जीवन समर में आगे बढ़कर चुनौतियों के साथ खेल खेलने तथा इसके लिए दूसरों को प्रेरित करने की सामर्थ्य वे खोते जा रहे हैं। व्यंग्य को लेकर होने वाली गोष्ठियों, सभाओं की संख्या निरंतर घट रही है। अखबारों में उसे लघुकथा जितना स्पेस दिया जाता है। पांच-छह सौ शब्दों से अधिक शब्दों की व्यंग्य-रचना इधर समाचारपत्रों में दिखाई नहीं देती। पत्रिकाएं 1000-1500 शब्दों से बड़ी रचना से बचती हैं। हालांकि आज भी व्यंग्य को समर्पित दर्जन-भर पत्रिकाएं देश भर में प्रकाशित होती हैं। बाकी भी व्यंग्य को किसी न किसी रूप में प्रकाशित करती ही हैं। पुस्तक रूप में हर वर्ष पचीसियों व्यंग्य-कृतियां सामने आती हैं। मगर मुझे याद नहीं आता कि पिछले पांच-छह वर्षों में किसी व्यंग्य कृति ने हिंदी-समाज में व्यापक चर्चा बटोरी हो, पाठकों और समीक्षकों का मन समान रूप से मोहा हो। प्रायोजित विमर्श को छोड़ दिया जाए तो पुस्तकें आती हैं और गुमनामी में खो जाती हैं। साहित्य की दूसरी विधाओं के साथ भी कमोबेश यही स्थिति है, मगर व्यंग्य मुझे सर्वाधिक उपेक्षित लगता है। खासकर तब जब व्यंग्य का पाठक वर्ग विशाल हो। हर वर्ग, हर उम्र का पाठक उसको पसंद करता हो। हिंदी व्यंग्य के स्वर्णिम दौर जब हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, रवींद्रनाथ त्यागी जैसे दिग्गज व्यंग्यकार थे, की वापसी की आहट तक नहीं है। ज्ञान चतुर्वेदी से उम्मीद थी। मगर उनकी कलम की धार कभी की भोथरी हो चुकी है। वे कॉलमजीवी बनकर रह गए हैं। वर्षों पहले 'इंडिया टुडे' की साहित्य वार्षिकी में प्रकाशित एक व्यंग्य रचना, जिसमें उन्होंने मुर्गे के बहाने समाज और राजनीति पर व्यंग्य कसा था, के अलावा उनकी कोई और यादगार रचना मेरी नजर से नहीं गुजरी। हिंदी व्यंग्य के हरावल दस्ते के लेखकों को यह सुनकर शायद बुरा लगे, मगर मुझे कहने में किंचित संदेह नहीं है कि यह हिंदी व्यंग्य की अवसान बेला है। व्यंग्य का पाठक-प्रशंसक होने के नाते मैं चाहूंगा कि इसके वर्तमान परिदृश्य को लेकर उनके मन में यदि कुछ खुशफहमियां हैं, तो वे खरी साबित हों।
व्यंग्य को छोड़कर शायद ही किसी और विधा में सृजनधर्मियों को पहले और दूसरे नंबर पर रखने का चलन हो, लेकिन व्यंग्य लेखन में यह काम न केवल पूरी ठसक के साथ किया जाता है, बल्कि इसे समीक्षकों की मान्यता भी प्राप्त है। तदनुसार इस विधा में पहला और दूसरा स्थान हरिशंकर परसाई और शरद जोशी के लिए सुरक्षित है। तीसरे-चौथे की मारा-मारी में श्रीलाल शुक्ल और रवींद्रनाथ त्यागी आ जाते हैं। प्रथम चार में पहले दो लेखन को समर्पित फ्रीलांसर थे तो बाकी दो सरकार के वरिष्ठ ओहदेदार। पांचवे-छठे के लिए लंबी कतार है। रवींद्रनाथ त्यागी पांचवा स्थान लतीफ घोंघी को देते हैं। स्तरीकरण की इस परंपरा को व्यंग्यकारों और व्यंग्य-समीक्षकों के लिए छोड़ मैं कहना चाहूंगा कि व्यंग्य की जो मारक क्षमता परसाई और जोशी की रचनाओं में है, बाकी किसी व्यंग्यकार के पास न तो वैसी क्षमता है, न दृष्टि। परसाई अपनी देशज शैली में मारक हैं तो शरद के पास व्यंग्यात्मक स्थितियों को पकड़ने की सूक्ष्म दृष्टि है। दोनों की ताकत निर्भीक प्रस्तुति में है। रवींद्रनाथ त्यागी अपनी नौकरी की सीमाओं के चलते सीधा प्रहार करने से कतराते रहे। सरलीकरण के लिए उन्होंने हास्य-मिश्रित व्यंग्य की शरण ली। इसके बावजूद जब वे अपनी रंगत में हों तो लाजवाब हैं। श्रीलाल शुक्ल 'राग दरबारी' में सिमटे हैं। उससे बाहर उनका व्यंग्यकार करवट तक नहीं लेता। साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए इस उपन्यास की राही मासूम रजा के 'आधा गांव' से स्पर्धा थी। उस समय शुक्ल जी का अधिकारी होना काम आया। इस उपन्यास के कारण ही शुक्ल जी को हिंदी के शीर्षस्थ व्यंग्यकारों में पहचान मिली। शंकर पुणतांबेकर और लतीफ घोंघी ने लिखा खूब, परंतु उनके पास विट की कमी थी। साथ में विषय की सीमाएं भी।
परसाई और जोशी की शैली में भी मूलभूत अंतर था। परसाई की पारसाई लोकतत्व को साथ लेकर चलती है। वही उनकी रचनाओं को अधिक संप्रेषणीय और ग्राह्य बनाकर उनमें सहज किस्सागोई भर देता है। उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता रचना की प्रहार क्षमता को बढ़ाती है, उसे स्वाभाविक विस्तार देती है।अतीत और वर्तमान दोनों के प्रति विवेकसम्मत आलोचना दृष्टि, जो शरद जोशी में उनसे कम और बाकी रचनाकारों में, जिन्हें उन दोनों से निचले क्रम में दिखाया जाता है, अत्यल्प है। परसाई स्थितियों पर चोट करते हैं। उनका व्यंग्य विसंगतियों से अपने आप उभरता है। इस कारण वह अधिक प्रभावी है। वे धर्म के नाम पर पाखंड रचने वालों की खबर लेते हैं तो मार्क्सवादियों की छद्म क्रांतिकारिता भी उनकी वक्रोक्तियों से बच नहीं पाती। 'रानी नागफनी की कहानी' के माध्यम से वे सामंतवाद पर निशाना साधते हैं। 'भोलाराम का जीव' तथा 'वैष्णव की फिसलन' में उनके सामने धार्मिक पाखंड और रूढ़ियां होती हैं। भारतीय समाज के चरित्र निर्माण में धर्म की भूमिका बहुत व्यापक और बहुआयामी है। उसमें लंबे समय से अनेक कुरीतियां, भ्रांतियां और आडंबर जड़ जमाए हुए हैं। परसाई उनके सामने झुकते नहीं। रूढ़ियों और पाखंडों पर लिखते समय उनकी कलम और भी नुकीली हो जाती है। वहां वे सीधे व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। विट तो शरद जोशी के पास भी खूब था। 'अतृप्त आत्माओं की रेलयात्रा' में उन्होंने धार्मिक पाखंड को तार-तार किया है। धर्म के नाम पर दिखावा करने वाले साधुओं की खबर ली है। परसाई के पास ऐसी रचनाओं का खजाना है। शरद जोशी अपनी लेखन ऊर्जा का उपयोग राजनीति की पैमाइश में अधिक करते हैं, उनका लगभग सत्तर प्रतिशत साहित्य राजनीति को लक्षित है। लेकिन दलीय राजनीति के प्रति तटस्थता के अभाव में वे सत्ता-विरोध का वैसा रूपक नहीं रच पाते जो परसाई अपनी लोकशाही की रौ में सहज ले आते थे। परसाई की रचनाओं में ऊंचे वर्ग का अनाचार है। 'जीप पर सवार इल्लियां' में शरद जोशी भ्रष्टाचार के मुद्दों पर अपनी जमीनी पकड़ का प्रमाण देते हैं, जिससे उनका व्यंग्य कुछ-कुछ इलीट बन जाता है। इसके बावजूद अपनी देहाती कड़क में परसाई उन पर सवाये पड़ते हैं। एक सामान्य पढ़ा-लिखा व्यक्ति भी परसाई के व्यंग्य को समझ सकता है, जबकि अन्य व्यंग्यकारों की थाह को पाने के लिए दिमागी कसरत करनी पड़ सकती है।
परसाई और शरद जोशी दोनों ने ही कलम को अपनी आजीविका का माध्यम बनाया था। दोनों का लेखन जिन दिनों परवान चढ़ रहा था, समाज में स्वप्नभंग की अवस्था में था। देश उन सपनों का हश्र देख रहा था, जो स्वाधीनता संग्राम के दौरान नेताओं द्वारा दिखाए गए थे। उनमें नेहरू का पंचशील का नारा भी था, जो चीन से मिली बुरी शिकस्त के बाद तार-तार हो चुका था। देश की जनता सकते जैसी हालत में थी। परसाई देख रहे थे कि दोष अकेले नेताओं का ही नहीं है, उन लोगों का भी है जो उन्हें चुनकर अपना भविष्य संवारने की जिम्मेदारी के साथ संसद में भेजते हैं, लेकिन मतदान के समय उम्मीदवार के चरित्र के बजाय उसकी जाति, धर्म या सामाजिक हैसियत के अनुसार निर्णय लेते हैं। उन लोगों में वे भी थे जो विभाजन के दौरान एक-दूसरे के खून के प्यासे हो उठे थे। दोष उन पुजारियों, मौलवियों, तांत्रिकों और पादरियों का भी है जो स्वार्थ के लिए धर्म के नाम पर पाखंड रचते तथा लोगों को बरगलाते तथा प्रकारांतर में उनका भावनात्मक, आर्थिक, सामाजिक शोषण करते हैं। वे जानते थे कि धर्म और जाति जैसी संस्थाओं की सदाशयता को लेकर चाहे जो दावे किए जाएं, अपनी मूल संरचना में हर धर्म सामंतवाद का पोषण करता है। जातीय विभाजन उसको मजबूती प्रदान करता है। धर्म का पहला हमला व्यक्ति के विवेक और सहिष्णुता पर होता है। परिणामस्वरूप वह अपनी दुर्दशा के कारणों की पहचान पराभौतिक, असांसारिक शक्तियों के रूप में करने लगता है, जिससे दुरवस्था की वास्तविक जिम्मेदार शक्तियों को मनमानी करते रहने का अवसर मिल जाता है। निहित स्वार्थ के लिए सामंत और पूंजीपति धार्मिक पाखंड को संरक्षण प्रदान करते हैं। व्यक्तिमात्र का विवेकीकरण न बाजार चाहता है, न राजनीतिज्ञ और न पूंजीपति। बाजार को उपभोक्ता चाहिए, राजनीतिज्ञों को मतदाता-ऐसे जो कभी कोई तर्क न करें। कठपुतली की तरह इशारों पर नाचें। धर्म आदमी का ध्यान जीवन समस्याओं और उसके कारकों से हटाकर वायवी दुनिया की ओर ले जाता है और शोषण के सहायक, उत्पीड़क और संरक्षक की भूमिकाएं एक साथ निभाता है। इस समझ के साथ परसाई ने धर्म और राजनीति दोनों को अपनी आलोचना के दायरे में रखा और व्यंग्य के सिद्ध कलमकार बने।
'नवभारत टाइम्स' में 'प्रतिदिन' लिखने से पहले जोशी 'नई दुनिया' के लिए कॉलम लिखा करते थे। वे तब भी व्यंग्य के मुखर हस्ताक्षर थे। 'प्रतिदिन' लिखने के दौरान हिंदी के बड़े पाठक समूह से उनका साबका पड़ा। उन दिनों भारतीय जनता राजनीति का खेल देखकर हैरान थी। आपातकाल थोपने के लिए इंदिरा गांधी को सजा देने वाली जनता, 'जनता पार्टी' के नेताओं की उच्छृंखलता और आपसी खींचतान से उकता चुकी थी। विकल्प के अभाव में उसने पुनः इंदिरा गांधी को सत्ता सौंपी थी। फिर एक ऐतिहासिक घटनाक्रम के दौरान इंदिरा गांधी की हत्या, सहानुभूति की लहर के चलते राजीव गांधी की ताजपोशी को भी उसने देखा था। 'जनता पार्टी' के प्रयोग के रूप में असफल हो चुकी दक्षिणपंथी शक्तियां इस बार विश्वनाथ प्रताप सिंह के पीछे लामबंद थीं, जो पूरे देश में राजीव गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता और उनके शासन में पल रहे भ्रष्टाचार के विरुद्ध अलख जगाने में लगे थे। शरद जोशी विश्वनाथ प्रताप सिंह के व्यक्तित्व से सम्मोहित थे। उन्होंने राजीव गांधी की राजनीतिक अपरिपक्वता से उत्पन्न स्थितियों तथा बाद में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार के विरुद्ध रचे जा रहे कांग्रेसी-गैरकांग्रेसियों के षड्यंत्र पर तीखे प्रहार किए। 'प्रतिदिन' की लोकप्रियता के साथ 'नवभारत टाइम्स' और शरद जोशी का नाम भी लोगों की जुबान पर छाने लगा। कहा जा सकता है कि शरद जोशी में राजनीतिक परिपक्वता थी। बारीक अन्वीक्षण की क्षमता थी उनमें। इसलिए उनके कॉलम व्यंग्य के साथ-साथ राजनीतिक विश्लेषण का भी आनंद देते थे। 'प्रतिदिन' की लोकप्रियता का कारण भी यही था, लेकिन उसका बड़ा हिस्सा कांग्रेस विरोध और प्रकारांतर में राजीव गांधी के विरोध तक सीमित था। एक अच्छा साहित्यकार सत्ता के प्रतिपक्ष में रहता है। परसाई सदैव प्रतिपक्ष को साधते रहे। दल विशेष का समर्थन-विरोध शरद जोशी को स्थितियों के बारीक अन्वीक्षण-विश्लेषण का अवसर तो देता है, लेकिन उनकी सीमाओं को संकुचित भी करता है। इसलिए परसाई की पारसाई जोशी के 'नावक के तीर' पर सवाई पड़ती है। परसाई और जोशी के अलावा भी अनेक व्यंग्यकारों ने समाचारपत्रों में नियमित कॉलम लेखन किया, लेकिन प्रतिबद्ध दृष्टि के अभाव में वे अपेक्षित सफलता पाने में नाकाम रहे। इस कमी को कुछ व्यंग्यकारों ने 'हास्य-व्यंग्य' लिखकर पाटने की कोशिश की, जिसका खामियाजा अंततः व्यंग्य विधा को उठाना पड़ा।
'कॉलम लेखन' ने हिंदी व्यंग्य को लोकप्रिय बनाया। उसको ढेर सारे पाठक भी दिए। लेकिन एक गंभीर मानी जाने वाली विधा का लोकप्रियता की डगर पर चल पड़ना, अंततः उसी के लिए हानिकर सिद्ध हुआ। 'नई दुनिया' और 'नवभारत टाइम्स' की देखा-देखी लगभग सभी समाचारपत्रों ने व्यंग्य के लिए कॉलम तय कर दिए। व्यंग्यकारों के लिए अभिव्यक्ति के रास्ते खुलते गए। उसने व्यंग्यकारों की बड़ी पौध तैयार की, लेकिन समाचारपत्रों को व्यंग्य के बजाय बाजार से मोह था। इसलिए उन्हें उतने ही लंबे व्यंग्य की दरकार थी, जिसको पाठक खड़े-खड़े बांच सके। उनके लिए व्यंग्य-रचना का महत्व दावत में चटनी या अचार जितना था। हिंदी व्यंग्यकार उसी को अपना लक्ष्य मानकर अपनी ऊर्जा खपाने लगे। परिणाम यह हुआ कि कॉलम की सीमा-रेखा से बाहर की रचनाएं लिखना, समाचारपत्र-पत्रिकाओं की शब्द सीमा को लांघकर अपने और पाठकों के मनोनुकूल लेखन करना-हिंदी व्यंग्यकारों के लिए मुश्किल होता गया। छपास-मोह से ग्रस्त लेखक भूल गए कि मीडिया के लिए व्यंग्य केवल एक 'उत्पाद' है, जिसके द्वारा वह अपने कुछ नए उपभोक्ता बना सकता है। उसको व्यंग्य की मारक क्षमता, उसकी उद्देश्यपरकता से कुछ लेना-देना नहीं है। बाजार सदैव उन वस्तुओं पर ध्यान केंद्रित रखता है, जो उसके काम की हों। उन कार्यों को बढ़ावा देता है जो उसकी स्वार्थ-सिद्धि के आड़े न आते हों। जो भी वस्तु अथवा विचार उसकी सुखसत्ता को चुनौती देने का प्रयास करता है, उसके चारों ओर वह इतना महीन और मारक जाल बिछाता है कि अच्छे से अच्छे विद्वान, अर्थशास्त्री और समाजविज्ञानी धोखा खा जाते हैं। समाचारपत्रों द्वारा व्यंग्य-कॉलमों को प्रमुखता देना उनका अपना स्वार्थ था। 'सर्कुलेशन' की स्पर्धा के बीच किसी भी तरह बाजार से अधिकाधिक पाठक बटोर लेना। जैसे-जैसे समाचारपत्र-पत्रिकाओं का 'ब्रांड' सफल होने लगा, उन्होंने व्यंग्य के प्रति उपेक्षा दर्शाना आरंभ कर दिया। व्यंग्य-कालमों के प्रबंधन की जिम्मेदारी ऐसे कर्मचारियों को सौंपी जाने लगी जिन्हें न तो व्यंग्य की समझ थी, न साहित्यिक रचनात्मकता। थी। परिणामस्वरूप व्यंग्य कॉलमों की रचनाओं का स्तर गिरने लगा। इसका प्रतिकूल प्रभाव उसकी लोकप्रियता पर भी पड़ा। ऊपर से बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में पूंजीवाद ने जैसे-जैसे अपना प्रभाव जमाना आरंभ किया, नकार और आलोचना को 'अनुत्पादकता' एवं 'अनुशासनहीनता' का पर्याय माना जाने लगा। पूंजीवाद प्रेरित 'सकारात्मक सोच' के प्रति सम्मोहन ऐसा बढ़ा कि असहमति को भी नकार का प्रतीक बन गई। 'बी पॉजिटिव' विकास और प्रबंधनकला का मूलमंत्र मान लिया गया। परिणामस्वरूप व्यंग्य, जो 'नकार' के रास्ते 'निर्माण' को समर्पित होता है उपेक्षित होने लगा। व्यंग्य-कॉलमों के आकर सिकुड़ने लगे। शरद जोशी के जमाने में जो कॉलम सात-आठ सौ शब्दों की जगह लेता था, वह डेढ़-दो सौ शब्दों पर सिमट गया। इससे गंभीर व्यंग्यकारों का कॉलम लेखन से मोहभंग होना ही था। यहां उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि व्यंग्य कॉलम शरद और परसाई से पहले से ही लिखे जा रहे थे। गोपाल प्रसाद व्यास 'दैनिक हिंदुस्तान' में अर्से से 'नारद जी खबर लाए हैं' लिखते आ रहे थे। लेकिन व्यास जी हास्य कवि थे। उनके लेखन में विट का अभाव था। दूसरे, उनका अतीत के प्रति अतिरेकी सम्मोहन भी गंभीर व्यंग्यकार बनने की सबसे बड़ी बाधा था।
व्यंग्य की अवसानोन्मुखी अवस्था तक पहुंचाने के लिए राजनीतिक परिवर्तनों का योगदान भी कम न था। शरद जोशी के लेखन का इतना प्रभाव रहा कि व्यंग्य मुख्यतः राजनीति और भ्रष्टाचार तक सिमट गया। चूंकि अधिकांश व्यंग्यकार नौकरीपेशा मध्य वर्ग से थे, इसलिए यह भी कहा जा सकता है कि व्यंग्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का सबसे सुरक्षित कोना चुना था। धर्म के नाम पर आडंबर, जातिगत विभाजन, सांप्रदायिकता, ऊंच-नीच, समाज में उत्तरोत्तर जड़ जमाते पूंजीवाद और उपभोक्तावाद, सरकार द्वारा बहुराष्ट्रीय कंपनियों, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के समक्ष निःशर्त समर्पण, समाज में निरंतर कमजोर पड़ते नागरिकबोध जैसी प्रमुख समस्याओं पर वे प्रायः मौन साधे रहे हैं। भ्रूण हत्या, घटते लैंगिक अनुपात जैसे विषयों पर अच्छी तो अच्छी, साधारण कोटि की रचनाएं भी देखने को नहीं मिलीं। बीच में 1992 में बाबरी मास्जिद के ध्वंस के समय भी ऐसी स्थितियां बनी थीं, जब व्यंग्यकार सरकार और प्रशासन को आड़े लेकर साहित्यिक मोर्चा संभाल सकते थे। परंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। 'भारतीय जनता पार्टी' के शासनकाल में तो अधिकांश व्यंग्यकारों ने संभवतः मान ही लिया था कि उनका अभीष्ट प्राप्त हो चुका है। यह कुछ ऐसा ही था, जैसे बसपा की सरकार बनने पर कुछ दलितों द्वारा यह मान लेना कि दलित अस्मिता का संघर्ष पूरा हो चुका है। मेरी निगाह में यही सोच व्यंग्य के पराभव का प्रमुख कारण बना।
इकीसवीं शताब्दी व्यंग्य के लिए और भी भारी सिद्ध हुई। संतोष की बात इसके पहले दशक में 'व्यंग्य-यात्रा' जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन आरंभ होना रहा। 'अट्टहास' और 'व्यंग्य तरंग' भी इस अवधि में नियमित बनी रहीं। लेकिन ये पत्रिकाएं व्यंग्य के गए वैभव को पटरी पर लाने में नाकाम सिद्ध हुईं। आज व्यंग्य लेखन से ऊर्जा गायब है। इस अवसान बेला में यदि उसमें कुछ हलचल बाकी है तो निश्चित रूप से इसका श्रेय प्रेम जनमेजय को दिया जाना चाहिए जो 'व्यंग्य-यात्रा' को नियमित रूप से निकाल रहे हैं। लेकिन किसी पत्रिका को निकालने के लिए केवल संपादकीय समर्पण पर्याप्त नहीं होता। उसके लिए मौलिक लेखकीय ऊर्जा की दरकार भी होती है। 'व्यंग्य यात्रा' और बाकी व्यंग्य पत्रिकाएं इस मोर्चे पर बहुत आश्वस्त नहीं कर पातीं। व्यंग्य आज भी बासी पड़ चुके विषयों से काम चला रहा है। नए विषय, नया जीवनबोध, नई चेतना और ऊर्जा उससे नदारद है। उसकी मुख्य प्रेरणाएं आज भी राजनीति के गलियारों से निकलती हैं, भ्रष्टाचार आज भी व्यंग्यकारों के सर्वाधिक पसंदीदा विषयों में से है। यहां स्पष्ट कर दें कि व्यंग्य का राजनीतिक और भ्रष्टाचार केंद्रित होना बुरा नहीं है। कूड़ा-करकट जहां अधिक हो वहीं ज्यादा सफाई की जरूरत पड़ती है। ऐसी अवस्था में प्रस्तुतीकरण का रचनापन व्यंग्य की मौलिकता को बढ़ा सकता है। यह काम निरी मध्यवर्गी मानसिकता द्वारा संभव नहीं है, जिसका प्रमुख चरित्र आज समझौतावादी हो चुका है। वर्षों पहले रवींद्र कालिया ने त्रिवेणी सभागार में अपने वक्तव्य में व्यंग्य को 'निठल्लों का लेखन' कहा था। उसकी तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। उन दिनों शरद जोशी संभवतः जीवित थे और उनका 'प्रतिदिन' व्यंग्य के क्षेत्र में हलचल मचा रहा था। आज हालात बदल चुके हैं। रवींद्र कालिया की टिप्पणी में मुझे सच नजर आने लगा है। मुझे लगता है कि व्यंग्य इन दिनों सुविधाभोगी मध्य वर्ग का लेखन बना है। वे सिर्फ लिखने के लिए लिखते हैं। कलावादी दृष्टिकोण व्यंग्यकारों पर हावी है। प्रतिबद्धता के अभाव में ही दृष्टि बासी पड़ चुके विषयों से परे नहीं जा पाती, जबकि परिस्थितियां व्यंग्य के लिए आज पहले से कहीं अधिक अनुकूल हैं।
लेखकीय चुनौतियां लगातार बढ़ रही हैं। व्यंग्यकार के लिए नए विषयों की कमी नहीं। संसदीय लोकतंत्र अधोगति की ओर है। बाजार ने संबंधों और सांस्कृतिक प्रतीकों पर कब्जा कर लिया है, राजनीति पर परिवारवाद हावी है। एक नए वर्णाश्रम धर्म का उदय हो रहा है। भविष्य में जनता जनता रहेगी, नेता नेता। भ्रष्टाचार अंतरराष्ट्रीयकरण की डगर पर है। टेलीविजन 'लीलाकेंद्र' बनता जा रहा है। धार्मिक 'लीलाओं' की बाढ़ आई हुई है। इधर कुछ वर्षों से एक नए देवता 'शनि' का अवतार हुआ है। आदमी के दिल में पैठे डर और असुरक्षाबोध को भुनाने के लिए 'शनिदेव' के मंदिर तेजी से बनाए जा रहे हैं। टेलीविजन भी 'शनि-लीलाओं' का प्रदर्शन कर रहा है। कैसी विडंबना है, मंगल ग्रह की यात्रा को तत्पर लोग कंप्यूटर से खेल खेलते, मोबाइल पर 'चैट' और इंटरनेट से संवाद करते हैं, लेकिन देवताओं से हमेशा डरे रहते हैं। उन देवताओं से जो अपने भविष्य को लेकर स्वयं आक्रांत हैं। इन विसंगतियों पर व्यंग्यकार मौन हैं। बदली हुई परिस्थितियों के अनुकूल अपने विचारों, अभिव्यक्ति कला में परिवर्तन करने में वे असमर्थ रहे हैं। उनके निजी पूर्वग्रह व्यंग्य-लेखन पर हावी हैं। दक्षिणपंथी शक्तियों से ऊर्जस्वित जन लोकपाल समर्थक आंदोलन और सरकार के मंत्रियों के बेलगाम, मर्यादाविहीन आचरण ने समाज को महीनों से उद्वेलित बनाए रखा, जनता और संसद के अधिकार-क्षेत्र को लेकर महीनों बहस चली, अनेक व्यंग्यात्मक स्थितियां बनीं। व्यंग्यकार इस मुद्दे पर भी चुप्पी साधे रहे। उनका यह मौन व्यंग्य और व्यंग्यकार दोनों के लिए नुकसानदेह सिद्ध हो रहा है। उपर्युक्त का अभिप्राय यह नहीं कि व्यंग्यकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता अनिवार्य है। प्रतिबद्ध होना दूसरी विधाओं के लिए अनिवार्य हो सकता है। व्यंग्यकार के लिए वैचारिक प्रतिबद्धता से ज्यादा जरूरी है अपने लेखन के प्रति निष्ठावान होना। यदि वह दक्षिणपंथी है तो रहे, लेकिन व्यंग्यकार होने के नाते उसका दायित्व है कि वह दक्षिणपंथी विचारों, संस्थाओं में व्याप्त बौद्धिक जड़ता को अपने लेखन का निशाना बनाए। और यदि उसका विश्वास वामपंथ में है तो उसका कर्तव्य है कि वह वामपंथ के विचलन पर अपनी वक्रोक्ति का प्रहार करे। यदि ऐसा नहीं है तो यह माना जाएगा कि वह अपने लेखनकर्म के प्रति ईमानदार नहीं है। तब वह और कुछ हो सकता है, व्यंग्यकार कदापि नहीं हो सकता। व्यंग्य को ऐसे ही निष्ठावान रचनाधर्मियों की आवश्यकता है जिनकी दृष्टि खुद से जग तक जाती हो। जो पैनी दृष्टि से अपने आसपास व्याप्त विसंगतियों को रचना के जरिये उभार सकें। ऐसे ही व्यंग्यकार इस अवसान बेला में नवोन्मेष की दस्तक दे सकते हैं।