हिंदी साहित्य पर टिप्पणी / रामचन्द्र शुक्ल

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महोदय,

इस महीने की 10 तारीख को आपके समाचार-पत्र में प्रकाशित 'हिन्दी साहित्य' नामक पत्र सचमुच अप्रत्याशित था। इस पर विश्वास नहीं होता कि श्री बी. डी. मलावी या उस्ताद (?) जैसे सुस्त व्यक्ति 'विद्वानों' (जैसा कि वे उन्हें कहना पसन्द करते हैं) के बिना किसी तर्क और समझदारी से निर्देशित आचरण को जायज ठहराने के किसी स्वत:र्स्फूहत प्रयास की उनकी जरूरत पूरी कर देंगे।

विद्वान लेखक आरम्भ में अपना विश्वास व्यक्त करते हैं कि अपनी तमाम कमियों के उपरान्त भी हिन्दी सफलता के पथ पर अग्रसर है और बाबू हरिश्चन्द्र के जमाने से ही उन्नति करती आ रही है। क्या मेरे मित्र उनके काल के बाद प्रकाशित ऐसी आधी दर्जन पुस्तकों का भी नाम गिनाएँगे जिन्हें गम्भीर और मौलिक चिन्तन का परिणाम कहा जा सके? यदि वे यह मानते हैं कि किसी एक देश के संस्कार, रीति-रिवाज और प्रवृत्तियाँ हर जगह लागू नहीं होतीं और एक विशेष सामाजिक चरित्रकी प्रत्येक विशेषता दूसरे समाज की तस्वीर में यथातथ्यता के साथ प्रदर्शित नहीं होती हैं तो वे यह भी मानने को तैयार होंगे कि अनुवाद हमारी प्रत्येक आवश्यकता कीर् पूत्ति नहीं करते हैं।

दूसरे अनुच्छेद में उन्होंने जिन दलीलों के लिए मुझे उत्तरदायी ठहराया है, उनका मैं खंडन करता हूँ। वे पूर्णत: बेतुके हैं और मेरे द्वारा प्रयुक्त नहीं किए गए हैं। ऐसा कहा जा सकता है कि काबिल उस्ताद ने उन तथ्यों की अनदेखी कर दी है जिन्होंाने मेरे दावे का आधार तैयार किया है। उन्होंने आरम्भिक टिप्पणियों को मेरे मुख्य तर्क के रूप में प्रस्तुत कर दिया है।

मेरे मित्र सम्पादकों का बचाव करने की चेष्टा करते हैं और उनमें महान योग्यता की खोज का स्वांग रचते हैं। सम्बन्धित अनुच्छेद को असावधानीपूर्वक पढ़ने के कारण ही वे यह अनुमान लगाते हैं कि सम्पादकों द्वारा श्री दत्ता के इतिहास के अनुवाद की उपेक्षा के चलते मैंने उन लोगों के प्रति नकारात्मक विचार बना लिए। मैंने तो अपने पत्र में केवल इसके अनुवादित होने के प्रति उनकी अनिच्छा की निन्दा की थी, न कि उस दृष्टिकोण की जिसके आधार पर वे उसमें मौजूद विचारों का मूल्यांकन करते। अब पुस्तक उनके सामने है और वे इसके प्रति अपनी पूर्वधारणाओं को और भी दृढ़ करने के लिए तथा इसके अवगुणों को उजागर करने के लिए पूर्णत: स्वतन्त्र हैं। मुझे इस सूचना के लिए कृतज्ञ होना ही पड़ेगा कि हिन्दी साप्ताहिक मात्र रूढ़िवादी समुदाय के प्रतिनिधि हैं और जनता के प्रति स्वतन्त्र रूप से उनका कोई कर्तव्य् नहीं है।

यहाँ अन्तर्निहित आशय यह है कि उनकी आवाज केवल रूढ़िवादियों की प्रतिध्वेनि के रूप में समझी जानी चाहिए। इस पर कोई चाहे तो कान दे या न दे। यदि इसे सच मान भी लिया जाए जो उन्हें इस धारणा के कारणों का पता लगाने का एक अवसर प्रदान कर रहे हैं कि पुस्तक निश्चित रूप से भ्रमित करने वाली है, उनकी राह में रोड़े अटकाना भी क्या उनके कर्तव्यग का अंग है? दूसरे शब्दों में, क्या यह बहाना भी उन्हें तर्क या सोच-विचार की परिधि से बाहर कर देगा?

काश, यह बचकानी भ्रान्त दलील किसी पाठशाला की कक्षा तक सीमित रही होती!

उनके सम्पादकों की योग्यता के विषय में मैं इससे अधिक कुछ और नहीं कर सकता कि उनके समक्ष 'बंगबासी'एक प्रमुख हिन्दी साप्ताहिक, जो छोटी कक्षा के बच्चों के लिए हँसी-मजाक के विषय प्रस्तुत करता है में प्रकाशित अपने पत्र का अनुवाद रख दूँ (या देखें 'मोहिनी', जिसमें अनुवाद की कमियों को इंगित किया गया है)। यह 'भारतमित्र' की इन निराधार गर्वोक्तियों के जवाब के रूप में भी काम करेगा कि हिन्दी सम्पादक ऐसी किसी चीज में कभी हाथ नहीं लगाते, जिसमें वे पूर्णत: कुशल न हों और यह कि इन 'पत्रों के संचालन में कम-से-कम आधो दर्जन स्नातकों का हाथ है।'

चौथे अनुच्छेद में मेरे विद्वान मित्र रचनाकार का आभार व्यक्त किए बिना और लेखकों की अनुमति प्राप्त किए बिना ही पुस्तकों का अनुवाद कर देने के आचरण को प्रोत्साहित करते जान पड़ते हैं। आशा है कि विद्वान मित्र मुझे यह कहते हुए इन अनुवादों के महत्तव को कम करके ऑंकने की अनुमति देंगे कि शिक्षितों की दृष्टि में इस तरह का व्यवसाय हिन्दी लेखकों को किसी न किसी रूप में निकृष्ट बना देगा और इस क्षेत्र में नए लेखकों को आकर्षित नहीं कर पाएगा। विचित्र बात यह है कि दो महीने तक मेरे पत्रों का अध्य यन करने के बाद भी मेरे आलोचक मेरे मन्तव्य को समझ न सके। मेरे पत्र में कोई ऐसा कथन नहीं है जो 'अध्य यनशील और विद्वान' अन्तरस्नातकों को पुरावशेषों, भाषाशास्त्र आदि के अध्यनयन में जुटने से रोकता है। यह मेरी समझ से बाहर है कि व्याख्या की किस पद्धाति द्वारा मेरे मित्र ने मेरे मन्तव्यों को विवादित बना दिया है। एक ऐसे अनुच्छेद का अनुवाद करना, जिसमें यह सामान्य-सा तथ्य हो कि एक कमरा 15 फुट लम्बा और 10 फुट चौड़ा है, मेरे मित्र की राय में विद्वता की निशानी है। यदि यह ठीक है तो हर स्कूली छात्रा विद्वान है जिसको शिक्षक द्वारा सम्मान दिया जाना चाहिए। मेरे मित्र को यह जान लेना चाहिए कि मौलिक लेखकों को मिलने वाले श्रेय में तथ्यों के अनुवादकों का जरा भी हिस्सा नहीं होता। मात्र दार्शनिक और मीमांसात्मक लेखन के अनुवादक ही, अपनी मानसिक शक्ति के प्रयोग के उचित प्रतिदानस्वरूप, मौलिक चिन्तकों की-सी श्रेष्ठता के थोड़े-बहुत हकदार हो सकते हैं।

अब मैं उनके अन्तिम अनुच्छेद पर आता हूँ। इसमें पहली बार मैं ऐसा दावा पाता हूँ कि हिन्दी की शैली की समस्या अभी तक बनी हुई है। इसका यह अर्थ हुआ कि जिस शैली में समाचार-पत्र, पत्रिकाएँ और अधिकांश पुस्तकें लिखी गई हैं वह किसी भी दूसरी शैली से बदली जा सकती है। इसमें एक तरह से यह भी अप्रत्यक्षत: निहित है कि या तो भारतेन्दु जैसा कोई व्यक्ति कभी हुआ ही नहीं या हिन्दी उस महान व्यक्ति की किसी भी प्रकार से ऋणी नहीं है। हिन्दी गद्य शैली के जन्मदाता के प्रति विद्रोह का मुझे कोई आधार नहीं दिखता। दूसरी जिस बात ने मेरे विद्वान मित्र को अत्यधिक उत्ते जित कर दिया वह है शैलियों की विविधता से सम्बन्धित मेरे कथन के उदाहरण के रूप में मेरे द्वारा 'अधाखिला फूल' की चर्चा। वे मुझे यह प्रदर्शित करके सिद्ध करने की चुनौती देते हैं कि उस पुस्तक की भाषा में कोई जटिल विचार अभिव्यक्त नहीं हो सकते। इसके जवाब में, मैं भी उन्हें इसी तरह की शैली में उनके अपने पत्र का अनुवाद प्रस्तुत करने और मुझे मेरी भूल स्वीकार करा देने की चुनौती देता हूँ।

समर्पण की शैली के विषय में मेरा यह कहना है कि इस तरह की शैली को असभ्य न कहना नितान्त असभ्यता है। मेरे मित्र को यह ज्ञात हो कि संस्कृत भाषियों की स्मृतियों को पलटने के मेरे पास उनसे कहीं अधिक कारण हैं, पर मैं इस मान्यता को स्वीकार नहीं करूँगा कि लगभग पूरा वाक्य संस्कृत में कह लेने के बाद वे अन्त में तमिल या तेलुगू क्रिया का प्रयोग करें। किसी लैटिन वाक्य में अंग्रेजी या फ्रेंच का विधोय घुसेड़ना कितना हास्यास्पद होगा।

(दि इंडियन पीपुल, 28 सितम्बर, 1905)

अनुवादक: अलोक कुमार सिंह