हिंदी साहित्य में राष्ट्रीय स्वर / प्रताप सहगल
राष्ट्रीयता या राष्ट्र-प्रेम एक ऐसा गुण है, जो हर युग के साहित्य में किसी न किसी रूप में विद्यमान रहता है, लेकिन उसके कारक और उसकी अभिव्यक्ति के तरीकों में कुछ न कुछ तब्दीली आती रहती है। आधुनिक काल यानी सन् 1850 के बाद गद्य के प्रादुर्भाव से पूर्व हिन्दी साहित्य का इतिहास कविता का ही इतिहास है। इस पर नज़र डालें तो सन् 1000 के आसपास कविता में राष्ट्रीयता जिस रूप में थी, वह अंग्रेज़ों के राज्कयाल में बिल्कुल बदल गई। सन् 1000 से सन् 1350 का समय सामंतों का समय था। वे अपने-अपने राज्य-विस्तार और वर्चस्व के लिए लड़ते रहते थे और जो भी कवि अपने आश्रयदाता कि प्रशंसा करता, उसकी वीरता के गुणगान करता, उसके चरित्र को बखानता तथा उसे ही दुनिया का सर्वश्रेष्ठ नायक मानता, उस कवि की कविताओं पर राष्ट्रीयता कि मोहर लगा दी जाती थी। वस्तुतः ऐसे ही कवि कालांतर में चारण कवि या भाट कवि बने। लेकिन चंदबरदाई या नरपति नाल्ह जैसे कवि जिनकी दृष्टि थोड़ी उदार थी, इसलिए उनमें प्रशस्ति-गान के साथ-साथ राष्ट्रीयता का गहरा बोध भी था। सन् 1350 एवं 1700 के बीच भक्ति-आंदोलन का उदय हुआ। उस कविता में राष्ट्रीय-भावना कि अभिव्यंजना मिलती है। थोड़ा और आगे बढ़ें तो भूषण की कविता क्योंकि मुग़ल-सल्तनत के खिलाफ़ लड़ रहे शिवाजी और दूसरे योद्धाओं के शौर्य की कविता थी जो उसमें राष्ट्रीयता देखना ज़्यादा आसन हो गया।
राष्ट्रीयता केवल शौर्य का गुणगान ही तो नहीं, देश की नदियों, पहाड़ों, वनस्पतियों और रीति-रिवाजों से प्रेम करना, उनके बारे में भिन्न दृष्टिकोणों से लिखना भी तो राष्ट्रीयता है। इस दृष्टि से देखें तो अपने शृंगारिक रुझान के बावजूद बिहारी, बोधा, ठाकुर आदि कवियों के अनेक दोहे ऐसे मिलेंगे जिनमें राष्ट्रीयता-बोध का अलग स्तर दृष्टिगोचर होता है।
वस्तुतः राष्ट्रीयता का उदय राष्ट्र की परिकल्पना के साथ ही होता है। मौर्य-साम्राज्य से लेकर गुप्त-साम्राज्य तक राष्ट्र की और राज्य की परिकल्पना रही है। हालाँकि तब भी छोटे-छोटे जनपद अपनी भूमिका का निर्वाह अलग तरह से करते थे, लेकिन कुल मिलाकर वे एक राष्ट्र को ही समर्पित होते थे। इस तरह की अभिव्यक्ति जयशंकर प्रसाद ने अपने नाटकों में की है। पर तब देशी और विदेशी का द्वंद्व कवि के सामने नहीं था।
सन् 1857 के बाद भारत में अंग्रेज़ों ने जिस तरह से अपना राज्य स्थापित किया, उसके बाद राष्ट्रीयता का भाव ज़्यादा बढ़ा। यह सच है कि भारत कभी भी एक-सूत्र में इतना बड़ा देश नहीं रहा, जितना बड़ा अंग्रेज़ी राज्य के दौर में हुआ, लेकिन यह भी सत्य है कि भारत की भू-संपदा, रीति-रिवाजों और संस्कृति का इतना क्षय भी पहले कभी नहीं हुआ। इस काल में एक तरफ़ भारत की द्रविड़ संस्कृति थी तो दूसरी ओर आर्य-संस्कृति का वर्चस्व बढ़ा। मुगलों की अपनी सामाजिक परपंराएँ स्थापित हो चुकी थीं तो शक-हूण आदि जातियों के वंशज भी भारत की उत्तर-पूर्वी सीमा पर अपने पाँव जमा चुके थे।
अंग्रेज़ों ने न केवल भारत की संपदा का क्षय किया, बल्कि जातीय एवं धार्मिक सौहार्द के संतुलन को भी गड़बड़ा दिया। ऐसे में कवियों, लेखकों एवं विचारकों के मन में क्षोभ पैदा होना स्वाभाविक था और वह हुआ भी। दक्षिण में जहाँ सुब्रह्मण्यम भारती की कविताओं ने एक राष्ट्रीयता का बिगुल अपनी कविताओं में बजाया तो उत्तर में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसकी शुरुआत यह कहकर की-
अंग्रेज़ राज सुख साज, सबै विधि भारी
पै धन विदेश चलि जात, यहै है ख्वारी॥
भारतेंदु से लेकर दिनकर तक सभी कवियों ने अपनी कविताओं में राष्ट्रीयता-बोध को जगा दिया। 1925 में जब मैथिलीशरण गुप्ता कि 'भारत-भारती' छप कर आई तो कहा जाता है कि उसमें राष्ट्रीयता के भाव की अभिव्यंजना के कारण अंग्रेज़ी सरकार ने उसे ज़ब्त कर लिया, फिर भी यह संदेश तो जन-जन तक पहुँच ही गया-
हम कौन थे, क्या हो गए और होंगे क्या अभी? ...
आओ सब मिलकर विचारें, यह समस्याएँ सभी॥
यानी अपनी अस्मिता कि पहचान, अपनी सभ्यता और संस्कृति की पहचान, अपनी परंपरा और अपने उदात्त मूल्यों की पहचान करना कविता का लक्ष्य बन गया। इस उत्कट अभिलाषा का परिणाम यह हुआ कि हिन्दी में एक अलग काव्यधारा ने ही जन्म ले लिया, जिसे हम राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना काव्य-धारा के नाम से जानते हैं। इस धारा को प्रतिष्ठित करने और एक गरिमा देने का श्रेय आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी को जाता है। यही वह काव्य-धारा है, जिसने हिन्दी साहित्य को बालकृष्ण शर्मा नवीन, नरेंद्र शर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, मैथिलीशरण गुप्त, सियाराम शरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर, श्रीधर पाठक, आयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध, सोहनलाल द्विवेदी और सुभद्राकुमारी चौहान जैसे कवियों को जन्म दिया। 'खूब लड़ी मर्दानी यह तो झांसी वाली रानी थी' बच्चे-बच्चे की ज़बान पर आ गई और माखनलाल चतुर्वेदी की कविता-एक फूल की चाह-
' मुझे तोड़ लेना बनमाली
उस पथ पर तुम देना फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने
जिस पथ जाएँ वीर अनेक'
जैसी काव्य-पंक्तियों ने हर भारतवासी में राष्ट्रीयता को गहरा दिया या फिर दिनकर की यह पंक्तियाँ-
डरपोक हुकूमत जु़ल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं तब जीभ तराशी जाती है।
इन कवियों ने केवल उद्बोधन ही नहीं दिया, बल्कि धर्म और जाति के नाम पर होने वाले अन्याय के खिलाफ़ भी जम कर लिखा है। दिनकर की 'रश्मिरथी' का कर्ण जाति-वाद के नाम पर होने वाले अन्याय के खिलाफ़ लड़ने की ही एक मिसाल है। निराला कि राष्ट्रीयता पूँजीवादी-व्यवस्था में पिस रहे सर्वहारा वर्ग के पक्ष में बोलती है, उनकी कविता 'अबे गुलाब' , 'तोड़ती पत्थर' , 'कुकुरमुत्ता' , इसके उदाहरण हैं। मैथिलीशरण गुप्त का राष्ट्र-प्रेम तो इतना प्रबल है कि वे बार-बार देवताओं का आह्वान करते हुए उन्हें चुनौती देते हैं कि हमारा देश तुम्हारे स्वर्ग से ज़्यादा सुंदर है और सचमुच देवता ऐसी धरती से ईर्ष्या करने लगते हैं।
सन् 1920 के आसपास कविता में महीन-बुनावट आने लगी जिसे हम छायावाद के नाम से जानते हैं, लेकिन इसमें भी राष्ट्रीयता का बोध अपनी सांस्कृतिक विरासत के साथ प्रकट हुआ। इस काल में कवियों ने मिथकों एवं परंपराओं को पुनर्व्याख्यायित किया है।
जयशंकर प्रसाद के तमाम नाटक-चाहे वह चंद्रगुप्त हो या स्कंदगुप्त, अजातशत्रु हो या जनमेजय का नागयज्ञ-सभी का मूल स्वर राष्ट्रीयता ही है। उन्हीं के शब्दों में-
अरुण यह मधुमय देश हमारा
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को
मिलता एक सहारा।
यही तो है हमारी परंपरा, आतिथ्य। पूरी आस्था के साथ। राष्ट्रीयता का यह बोध भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र और हरिकृष्ण प्रेमी के नाटकों में भी मौजूद है। कविता और नाटक में तो राष्ट्रीय-भावना का अंकन हुआ ही है, साहित्य की दूसरी विधाओं में भी लेखकों ने अपने-अपने तरीक़े से इसे अभिव्यक्त किया है। प्रेमचंद की रंगभूमि का सूरदास गाँधीवाद से ही प्रभावित है तो प्रसाद की कहानी पुरस्कार मात्र प्रेमकथा न होकर राष्ट्रीयता-बोध को भी जगाती है। उनकी आकाशदीप भी इसी तरह की एक कहानी है।
बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उदित रचनाकारों के सामने स्वतंत्रता का एक लक्ष्य था और इस भाव को उद्बुद्ध करने वाली रचनाओं को ही राष्ट्रीयता के लिए रेखांकित किया गया, लेकिन बाद की रचनाओं में इसका स्वरूप बदला है।
बाद के कवि-लेखकों के सामने प्रश्न आज़ादी का नहीं, बल्कि उसके उपयोग का था। प्रश्न यह था कि क्या आज़ादी का लाभ जन-जन तक पहुँच रहा है या नहीं! देश का विकास किस गति से हो रहा है और उस विकास के लाभ सब तक पहुँच रहे हैं या नहीं? अब प्रश्न बदल गए थे। मानव-मूल्य के बाद मानवाधिकार बड़ा प्रश्न बन गया। धार्मिक कट्टरतावाद, जातिवाद तथा आर्थिक वैषम्य के कारण पैदा हुए सामाजिक एवं राष्ट्रीय असंतुलन लेखकों के लिए चिंता का विषय बने और यह असंतुलन तथा इससे पैदा क्षोभ एवं आक्रोश भी साहित्य का विषय बन गया। सन् 50 से 60 के बाद के हिन्दी साहित्य में अभिव्यक्त राष्ट्रीयता का स्वरूप वह नहीं है, जो द्विवेदीकाल में था। तब दुश्मन की पहचान थी और राष्ट्रीयता के कुछ तय घटक हमारे सामने थे, लेकिन अब दुश्मन की पहचान करना मुश्किल हो गया और राष्ट्रीयता के घटक भी बदले।
आज के हिन्दी साहित्य में राष्ट्रीयता-बोध राष्ट्र के प्रति चिंता है। जो असंतुलन है, उनसे कैसे निपटा जाए, यह आज की राष्ट्रीयता है। इसी तरह का बोध हमें मुक्तिबोध या रघुवीर सहाय की कविताओं में मिलता है। ऐसा ही बोध हमें अमरकांत या ज्ञानरंजन में मिलता है। ठीक ऐसा ही बोध हमें नरेंद्र मोहन के नाटकों में मिलता है। शंकर शेष का 'कोमल गांधार हो या विनय का' एक प्रश्न मृत्यु' वे ऐसी ही राष्ट्रीयता कि ओर संकेत करते हैं।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अभिव्यक्ति राष्ट्रीयता कि अंतर्धारा एक हाते हुए भी उसकी अभिव्यक्ति के तरीक़े और प्रतीक बदलते रहे हैं।