हिंदुत्व का दर्शन / भीमराव आम्बेडकर
हिंदुत्व का दर्शन क्या है? यह एक ऐसा प्रश्न है, जो अपनी तार्किक विचार श्रृंखला में उत्पन्न होता है, परंतु उसकी तार्किक श्रृंखला के अलावा भी इसका इतना महत्व है कि इसे बिना विचार किए छोड़ा नहीं जा सकता। इसके बिना हिंदुत्व के उद्देश्यों और आदर्शों को कोई भी समझ नहीं सकता।
इस संबंध में यह बिल्कुल साफ है कि इस तरह का अध्ययन करने से पहले विषय की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करना और साथ ही उससे संबंधित शब्दावली को परिभाषित करना भी बहुत आवश्यक है।
आरंभ में ही सवाल पूछा जा सकता है कि इस प्रस्तावित शीर्षक का क्या अर्थ है? क्या 'हिंदू धर्म का दर्शन' और 'धर्म का दर्शन' शीर्षक एक समान है? मेरी इच्छा है कि इसके पक्ष और विपक्ष पर अपने विचार प्रस्तुत करूँ, लेकिन वास्तव में मैं ऐसा नहीं कर सकता। इस विषय पर मैंने बहुत-कुछ पढ़ा है, लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि मुझे 'धर्म के दर्शन' का स्पष्ट अर्थ अभी तक नहीं मिल पाया है। इसके पीछे शायद दो कारण हो सकते हैं। पहला है कि धर्म एक सीमा तक निश्चित है लेकिन दर्शनशास्त्र में किन-किन बातों का समावेश किया जाए, यह निश्चित नहीं (मुनरो के इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एजुकेशन में 'फिलासफी' शीर्षक के अंतर्गत लेख देखें)। दूसरे, दर्शन और धर्म परस्पर विरोधी न भी हों, उनमें प्रतिस्पर्धा तो अवश्य ही हैं, जैसा कि दार्शनिक और अध्यात्मवादी की कहानी से पता चलता है। उस कहानी के अनुसार, दोनों के बीच चल रहे वाद-विवाद के दौरान अध्यात्मवादी ने दार्शनिक पर यह दोषारोपण किया कि यह एक अंधे पुरुष की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जो वहाँ है ही नहीं। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप दार्शनिक ने अध्यात्मवादी पर आरोप लगाया कि वह 'एक ऐसे अंधे व्यक्ति की तरह है, जो अंधेरे कमरे में एक काली बिल्ली को खोज रहा है, जबकि बिल्ली का वहाँ कोई अस्तित्व है ही नहीं, और वह उसे पा लेने की घोषणा करता है।' शायद 'धर्म का दर्शन' शीर्षक ही गलत है, जिसके कारण उसकी सही व्याख्या करने में भ्रम पैदा होता है। प्रोफेसर प्रिंगले-पेटीसन (दि फिलासफी आफ रिलीजन आक्सफोर्ड, पृ. 1-2) ने धर्म के दर्शन का अर्थ समझाते हुए जो अपना बुद्धिमत्तापूर्ण मत व्यक्त किया है, वह मुझे उसके निश्चित विषय के बहुत करीब लगता है। प्रोफेसर प्रिंगले के अनुसार -
'सामान्यतः हम जिसे धर्म का दर्शन कहते हैं, उसके संदर्भ में कुछ शब्द उपयोगी हो सकते हैं। बहुत पहले दार्शनिक प्लेटो (अफलातून) ने दर्शनशास्त्र को किसी विषय पर विहंगम दृष्टि डालना कहा था। इसे हम दूसरे शब्दों में इस प्रकार भी कह सकते हैं कि दर्शन संसार के सभी प्रमुख रूपों के संदर्भ में समग्र और संपूर्ण विश्व का अंश मात्र होते हुए इन मुख्य लक्षणों को उनके परस्पर संबंधो के अर्थ में समझने का एक प्रयास है। केवल इसी तरह हम संसार की प्रक्रिया, आधार और इसके स्वरूप के बारे में अपने अंतिम निष्कर्षों तक पहुँचने तथा समझने की क्षमता प्राप्त कर सकते हैं और किन्हीं विशेष कारणों के महत्व का सही अंदाजा लगा सकते हैं। तदनुसार, किसी भी विशेष अनुभव को, धर्म के दर्शन को, कला के दर्शन और विधि के दर्शन को, व्यक्ति जिन मनुष्यों तथा संसार के मध्य निवास करता है, उसके प्रति अपने दृष्टिकोण, अनुभव के विश्लेषण तथा व्याख्या के अर्थ में ही लेना चाहिए, और जब कुछ घटनाएँ, जिन पर हम अपना ध्यान केंद्रित करते हैं, इतनी सार्वभौमिक और उल्लेखनीय होती हैं कि वे धर्म के इतिहास से मनुष्य के धार्मिक अनुभव के दर्शन से भी प्रकट हों, तब ऐसी सभी घटनाएँ हमारे दार्शनिक निष्कर्षों पर निर्णायक प्रभाव डाले बिना नहीं रह सकतीं। वस्तुतः अनेक लेखकों द्वारा इस विषय पर व्यक्त किए गए विचार मात्र सामान्य विचार हैं।
जिन तत्वों के साथ धर्म के दर्शन का संबंध है, उनकी संपूर्ति इस विषय के अत्यंत बोधगम्य अर्थ में धर्म के इतिहास से होती है। जैसा कि प्रसिद्ध विद्वान टीले ने कहा है, “सभ्य तथा असभ्य संसार के सभी मृत और सजीव धर्म अपने सभी अभिव्यक्त रूपों में ऐतिहासिक तथा मनोवैज्ञानिक तत्व हैं।” इस बात पर ध्यान देना होगा कि ये घटनाएँ धर्म के दर्शन का आधार तो बनती हैं, परंतु वे स्वयं दर्शन अथवा टीले के शब्दों में, 'धर्म का विज्ञान' नहीं बनती। टीले कहते हैं, "मैंने सभी विद्यमान धर्मों का बारीकी से वर्णन किया है। उन्होंने उनके सिद्धांतों, परंपराओं और दंतकथाओं के बारे में भी प्रकाश डाला है। जो तत्व संस्कारों की शिक्षा देते हैं, उनका और धर्मों के साथ जुड़े हुए लोगों के संगठनों का भी वर्णन किया है। टीले महोद्य ने इस क्षेत्र में बहुत कार्य किया है। उन्होंने विभिन्न धर्मों का उनकी उत्पत्ति से लेकर विकास तक और बाद में पतन तक का पता लगाया है। उन्होंने केवल उन्हीं बातों को संगृहीकत किया है, जिनके आधार पर धर्म का विज्ञान क्रियाशील रहता है। उनका कहना है कि ऐतिहासिक जानकारी चाहे कितनी भी पूर्ण हों, पर्याप्त नहीं हैं, क्योंकि इतिहास दर्शन नहीं है। धर्म का दर्शन निश्चित करने के लिए धर्म के विभिन्न रूपों में जो समान तत्व हैं, जिसकी जड़ें हम मानव-स्वभाव में देख सकते है, उसे जानना आवश्यक है। ऐसे तत्व का विकास उसके संपूर्ण रूपों में और उसके विकास के नीचे से ऊपर तक ही स्पष्ट अवस्थाओं द्वारा जाना जा सकता है। उसके साथ ही मानव-सभ्यता के मुख्य तत्वों से उनके जो गहरे संबंध हैं, उन्हें भी जाना जा सकता है।”
यदि इसे ही धर्म का दर्शन समझा जाए, तब जिसे तुलनात्मक धर्म कहा जाता है, उसके अध्ययन का ही एक अलग नाम है, जिसका एक और उद्देश्य यह है कि धर्म के विभिन्न रूपों में जो समान तत्व हैं, उसे जाना जाए। ऐसा मुझे लगता है। ऐसे अध्ययन का क्षेत्र और महत्व चाहे कुछ भी हो, किंतु 'धर्म का दर्शन' शीर्षक का प्रयोग प्रो. प्रिंगले पेटीसन ने जिस अर्थ में किया है, मैं उसके बिलकुल विपरीत अर्थ में कर रहा हूँ। मैं 'दर्शन' शब्द का उसके मूल अर्थ में ही प्रयोग कर रहा हूँ, जिसके दो अर्थ हैं। इसका अर्थ है उपदेश, जैसा कि लोग सुकरात और प्लेटो के दर्शन के बारे में कहते हैं। दूसरे अर्थ में, इसका तात्पर्य है कि किसी भी विषय तथा घटना पर निर्णय देते समय सूक्ष्म विवेक-बुद्धि का प्रयोग करना। इस आधार पर अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए मेरे धर्म का दर्शन, केवल वर्णनात्मक शास्त्र नहीं है। मैं उसे वर्णनात्मक और नियमबद्ध शास्त्र दोनों मानता हूँ। जहाँ तक उसका धर्म के उपदेश के साथ संबंध है, धर्म का दर्शन केवल वर्णनात्मक शास्त्र बनता है, परंतु जब उसका संबंध उन उपदेशों पर निर्णय लेने के लिए सूक्ष्म विवेक-बुद्धि का उपयोग करने से होता है, तब धर्म का दर्शन एक नियमबद्ध शास्त्र बनता है। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि हिंदू धर्म के दर्शन के अध्ययन से मेरा संबंध किन बातों से है। स्पष्टतः मैं हिंदू धर्म का विश्लेषण जीवन शैली के रूप में उसमें छिपे महत्व को निर्धारित करने के रूप में करूँगा।
यहाँ एक पहले तो स्पष्ट हो जाता है, लेकिन इसका एक पहले और है, जिसका स्पष्ट होना शेष है। इसका संबंध इसी के नजदीकी अंगों की जाँच करने से है, और जिन शब्दों का प्रयोग मैं करूँगा, वह उनकी परिभाषाओं से संबद्ध है।
मेरे विचार में धर्म के दर्शन के अध्ययन में तीन आयामों का होना आवश्यक है। मैं उन्हें आयाम कहता हूँ, क्योंकि वे उन अज्ञात अंशों के समान हैं, जिनका उत्पादन के अंगों में समावेश होता है। यदि हम धर्म के दर्शन के परीक्षण का कोई नतीजा निकालना चाहते हैं, तब हमें उन आयामों की जाँच करके उनकी व्याख्या निश्चित करनी होगी।
इन तीन आयामों में प्रथम है-धर्म। धर्म की परिभाषा से हम क्या समझते हैं, इसे निश्चित करना आवश्यक है, जिससे हम परस्पर-विरोधी तर्क-वितर्कों को टाल सकें, उनसे बच सकें। यह बात धर्म के संबंध में विशेष रूप से आवश्यक है, क्योंकि उसकी निश्चित व्याख्या के बारे में सहमति नहीं हैं। वैसे इस प्रश्न पर विस्तार से चर्चा करने की आवश्यकता भी नहीं। इसलिए इस शब्द का प्रयोग मैं जिस अर्थ में यहाँ कर रहा हूँ, उसे स्पष्ट करने से ही मेरा समाधान हो जाएगा।
धर्म शब्द का प्रयोग मैं ब्रह्मविज्ञान के रूप में करता हूँ। शायद व्याख्या की दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि ब्रह्मविज्ञान भी अलग-अलग तरह का है और मुझे वह सब स्पष्ट करना चाहिए। प्राचीनकाल से ही ऐतिहासिक दृष्टि से जिनकी चर्चा की जाती रही है, ऐसे ब्रह्मविज्ञान दो तरह के हैं - पौराणिक ब्रह्मविज्ञान और लौकिक ब्रह्मविज्ञान, लेकिन ग्रीक लोगों ने इन देवी-देवता और उनके कार्यकलाप की कहानियाँ, जिन्हें प्रचलित काल्पनिक साहित्य में दर्शाया गया है। दूसरे यानी लौकिक ब्रह्मविज्ञान में विभिन्न त्योहार तथा समारोह और उनसे संबंधित रीति-रिवाजों की जानकारी का समावेश होता है। मैं इन दोनों अर्थों के अनुरूप ब्रह्मविज्ञान शब्द का प्रयोग नहीं कर रहा हूँ। मेरे अनुसार ब्रह्मविज्ञान का अर्थ है, नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान (नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान के एक विशिष्ट अध्ययन विभाग के रूप में उत्पत्ति प्लेटो द्वारा हुई। देखें-'लाज') जो ईश्वर और ईश्वरीय उपदेशों का सिद्धांत हैं।
वह नैसर्गिक प्रक्रिया का ही एक अविभाजित अंग है। पारंपारिक और रूढ़ अर्थ में नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान तीन सिद्धांतों का प्रतिपादन करता है - (1) ईश्वर का अस्तित्व है और वह विश्व का निर्माता है; (2) प्राकृतिक रूप में होने वाली सभी घटनाओं पर ईश्वर का नियंत्रण है, और (3) ईश्वर अपने सार्वभौमिक-नैतिक नियमों द्वारा मानवजाति पर शासन करता है।
मैं इस बात से अवगत हूँ कि साक्षात्कारी दैवी सत्य का स्वेच्छा से प्रकटन नाम का ब्रह्मविज्ञान अलग है और इसे नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान से भिन्न किया जा सकता है, लेकिन यह भेद हमारे लिए महत्व नहीं रखता, क्योंकि जैसा बताया गया है (दि फेथ ऑफ एक मोरेलिस्ट, ए.ई. टाइलर, पृ. 19), साक्षात्कार की फलश्रुति बिना किसी परिवर्तन के नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान में होती है और मानवीय प्रयासों से जो ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसे केवल उसके साथ जोड़ा जाता है अथवा नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान में ऐसा परिवर्तन होता है कि उसका संपूर्ण सत्य स्वरूप जब उसके सही साक्षात्कार को ध्यान में रखते हुए देखा जाता है, तब वह अधिक स्पष्ट और अधिक समृद्ध बन जाता है, लेकिन ऐसा भी एक मत है कि मूल नैसर्गिक ब्रह्मविज्ञान और मूल साक्षात्कारी ब्रह्मविज्ञान, दोनों में परस्पर विसंगति है। यहाँ उसकी चर्चा टालना उचित होगा, क्योंकि ऐसी चर्चा संभव नहीं है।
ब्रह्मविज्ञान के तीन सिद्धांत हैं - (1) ईश्वर का अस्तित्व, (2) ईश्वर का विश्व पर दैवी शासन और (3) ईश्वर का मनुष्य जाति पर नैतिक शासन। इन सभी को ध्यान में रखते हुए मेरी मान्यता है कि धर्म का अर्थ दैवी शासन की आदर्श योजना का प्रतिपादन करना है, जिसका उद्देश्य एक ऐसी सामजिक व्यवस्था बनाना है, जिसमें मनुष्य नैतिक जीवन व्यतीत कर सके। धर्म से मैं यही भाव ग्रहण करता हूँ और इस परिचर्चा में मैं 'धर्म' शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग करूँगा।
दूसरा आयाम है, धर्म जिस आदर्श योजना का समर्थन करता है, उसे जानना। किसी भी समाज के धर्म में स्थापित, स्थायीऔर प्रभावशाली अंग क्या हैं, उन्हें निश्चित करना और उनके आवश्यक गुणों को अनावश्यक गुणों से अलग करना। यह कभी-कभी बहुत कठिन है। संभवतः इस कठिनाई का कारण उस कठिनाई में छिपा हुआ है, जिसके बारे में प्रो. राबर्टसन स्मिथ कहते हैं -
“धर्म की परंपरागत प्रथाओं में अनेक शताब्दियों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई है और उसका मनुष्य की वैचारिक प्रकृति तथा उसके बौद्धिक और नैतिक विकास की प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं पर प्रभाव पड़ा है। ऐसा प्रतीत होता है कि आदिमानव से लेकर आज तक सभ्यता की प्रत्येक अवस्था में मूर्ति-पूजा वंश परंपरा से उनके सभी मिश्रित संस्कारों और समारोहों के साथ चली आ रही है, लेकिन इस आधार पर ईश्वर के किसी भी रूप की कल्पना करना संभव नहीं मानव जाति के धार्मिक विचारों का इतिहास, जिसे धार्मिक संस्थाओं ने साकार किया है, पृथ्वी के भौगोलिक इतिहास के समान ही है, जिसमें नवीन और प्राचीन को साथ-साथ अथवा एक तह पर दूसरी तह के समान रखा गया है।”
भारत में ठीक ऐसा ही हुआ है। इस देश में धर्म का जो प्रचार-प्रसार हुआ है, इस संदर्भ में प्रो. मैक्समूलर ने कहा है -
“हमने धर्म को चरणबद्ध छोटे-छोटे बच्चों की सरल प्रार्थनाओं से लेकर बड़े-बड़े ऋषि-मुनियों की गहन तपस्या तक फलते-फूलते देखा है। वेदों की अधिकांश ऋचाओं में हमें धर्म की बाल्यावस्था का पता चलता है, तो ब्राह्मण ग्रंथों में उनके यज्ञादि, पारिवारिक तथा नैतिक आदर्शों में व्यस्त यौवन परिलक्षित होता है। उपनिषद में वैदिक धर्म का वृद्धत्व नजर आता है। भारतीय ज्ञान की ऐतिहासिक प्रगति में जब वे ब्राह्मण शास्त्रों की परिवक्वता तक पहुँचे, तभी पूर्णतः बाल सुलभ प्रार्थनाओं का त्याग करना आवश्यक था। भारतीय मेधा की ऐतिहासिक प्रगति के साथ-साथ यज्ञ के खोखलेपन और पुरातन देवताओं की सही पहचान हो गई। तब उनको उपनिषदों के अधिक परिपूर्ण देवताओं से बदलना भी आवश्यक था, परंतु ऐसा नहीं हो सका। भरत में प्रत्येक धार्मिक विचार, जिसे एक बार व्यक्त किया गया, उसे कायम रखा गया और एक पवित्र वसीयत मानकर सौंपा गया है और साथ ही भारतीय राष्ट्र की बाल्यावस्था, यौवन तथा वृद्धावस्था, इन तीनों अवस्थाओं के विचारों को प्रत्येक व्यक्ति की तीनों अवस्थाओं का स्थायीभाव बना दिया गया है। एक ही आचार-संहिता, वेद, जिसमें केवल न केवल धार्मिक विचारों के विभिन्न पहलुओं का समावेश है, बल्कि ऐसे सिद्धांत भी हैं, जिन्हें परस्पर विरोधी कहा जा सकता है।”
परंतु जो धर्म परिपूर्ण धर्म हैं, उनके संबंध में ऐसी कठिनाई अधिक परिलक्षित नहीं होती। परिपूर्ण धर्मों की मौलिक विशेषता यह है कि उनकी आदिकालीन धर्मों की तरह किसी अनजान ताकतों की गतिविधि के अंतर्गत वृद्धि नहीं होती, जो युगों-युगों से मौन रूप से कार्यरत है, यद्यपि उनकी मूल उत्पत्ति उन महान धर्म गुरुओं के उपदेशों से होती है, जो एक दैवी साक्षात्कार के रूप मे बोलते हैं। जाग्रत प्रयासों से उत्पन्न होने के कारण परिपूर्ण धर्म का दर्शन जानना और उसका वर्णन करना सरल है। हिंदू धर्म यहूदी, ईसाई तथा इस्लाम धर्मों के समान ही मुख्य रूप से एक परिपूर्ण धर्म है। उसके दैवी शासन को तलाश करने की आवश्यकता नहीं है। दैवी शासन की हिंदुत्व की योजना को एक लिखित संविधान में स्थापित किया गया है। यदि कोई भी उसे जानना चाहे तो वह उस पवित्र पुस्तक को देख सकता है, जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है। यह एक दैवी आचार-संहिता है, जिसमें हिंदुओं के धार्मिक, शास्त्रोक्त तथा सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने वाले नियमों का सूक्ष्म विवरण है, जिसे हिंदुओं की बाइबिल माना जाना चाहिए और जिसमें हिंदू धर्म के दर्शन का समावेश है।
धर्म के दर्शन का तीसरा आयाम है, एक ऐसी कसौटी (धर्म-दर्शन के कुछ विद्यार्थी प्रथम दो परिमाणों के अध्ययन को उसी प्रकार संबद्ध करते हैा, जिस प्रकार धर्म दर्शन के क्षेत्र में आवश्यक होता है। वे ऐसा महसूस करते प्रतीत नहीं होते कि तीसरा परिणाम धर्म दर्शन के अध्ययन का आवश्यक भाग हे। उदाहरणार्थ, हेस्टिंग्ज इनसाइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड एथिक्स, खंड 12, पृ. 393 पर एडम्स के 'अध्यात्मवाद' शीर्षक के अंतर्गत लेख को देखें। मैं इस विचार से सहमत नहीं हूँ। मतभेद इसलिए है, क्योंकि मैं धर्म-दर्शन को एक सामान्य अध्ययन तथा एक व्याख्यात्मक अध्ययन मानता हूँ। मैं नहीं समझता कि यहाँ सामान्य हिंदुत्व का दर्शन जैसी कोई वस्तु हो सकती है। मेरा विश्वास है कि प्रत्येक धर्म का अपना विशेष दर्शन होता है। मेरे लिए धर्म का कोई दर्शन नहीं है। यहाँ एक धर्म का एक दर्शन है।) निश्चित करना, जो धर्म का समर्थन प्राप्त दैवी शासन की योजना मूल्यांकन करने के लिए उपयुक्त हो। धर्म को उस जाँच की कसौटी पर खरा उतरना चाहिए। उसका मूल्यांकन किस कसौटी से होगा? इससे हम नियमों की परिभाषा निश्चित कर सकते हैं। इन तीनों आयामों में इस तीसरे आयाम की जाँच करना और उसे निश्चित करना बहुत ही कठिन है।
हालाँकि धर्म के दर्शन पर बहुत कुछ लिखा गया, लेकिन दुर्भाग्य से इस प्रश्न पर अधिक चिंतन नहीं किया गया और निश्चित रूप से इस समस्या के समाधान के लिए कोई उपाय नहीं ढूँढ़ा गया। इस प्रश्न के समाधान के लिए प्रत्येक व्यक्ति को अपना रास्ता स्वयं तलाश करने को कहा गया है।
जहाँ तक मेरा संबंध है, मेरे विचार से इस मत का अनुसरण करके आगे बढ़ना उचित होगा कि यदि किसी भी आंदोलन अथवा संस्था का दर्शन जानना है, तब उस संस्था और आंदोलन के अंतर्गत जो क्रांतियाँ आई हैं, उनका आवश्यक रूप से अध्ययन किया जाए। क्रांति दर्शन की जननी है, चाहे उसे दर्शन की जननी न भी माना जाए, फिर भी वह ऐसा दीप है, जो दर्शन को प्रकाशयुक्त बनाता है। धर्म भी इस नियम का अपवाद नहीं हो सकता। इसलिए मेरी दृष्टि से सबसे अच्छा तरीका यही है कि यदि हम किसी धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करना चाहते हैं और इसके लिए कोई कसौटी निश्चित करना चाहते हैं, तब उस धर्म में जो क्रांतियाँ आई हैं, उनका अध्ययन करें। यही एक तरीका है, जिसे मैं अपनाना चाहता हूँ।
इतिहास के विद्यार्थी एक धार्मिक क्रांति से परिचित हैं। यह क्रांति धर्म के कार्यक्षेत्र और उसके अधिकार की सीमा से संबंधित है। एक समय ऐसा भी था, जब धर्म ने मानवीय ज्ञान के संपूर्ण क्षेत्र को ढक लिया था और जो भी शिक्षा उसने प्रदान की, वह अमोघ मानी गई। इसमें खगोल शास्त्र का भी समावेश था, जिसने ब्रह्मांड में सिद्धांत की शिक्षा दी, जिसके अनुसार पृथ्वी विश्व के मध्य में स्थिर थी, जबकि सूर्य, चंद्रमा, ग्रह और अन्य सभी तारे आकाश में अपने निश्चित क्षेत्र में पृथ्वी की परिक्रमा करते थे। इसमें जीव शास्त्र और भूगर्भ शास्त्र का भी समावेश था। साथ ही इस मत का प्रतिपादन किया था कि पृथ्वी पर जो जीव सृष्टि है, वह एक ही साथ उत्पन्न हुई और उसकी रचना के समय से ही उसमें सभी प्राणिमात्र और स्वर्ग के देवताओं का समावेश है। उसने वैद्यक शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था, जिसमें यह शिक्षा दी गई कि रोग या बीमारी एक दैवी प्रकोप अथवा पाप के लिए दंड है अथवा वह शैतानों का कार्य है ओर उसे संतों द्वारा अपने पवित्र संस्कार से अथवा प्रार्थनाओं से अथवा धार्मिक यात्राओं से अथवा भूत-प्रेत हटाने से अथवा ऐसे उपायों से जो भूतों को त्रस्त करें, दूर किया जा सकता है। उसने शरीर शास्त्र तथा मानव शास्त्र को भी अपना कार्यक्षेत्र बना लिया था और उसके अंतर्गत यह सिखाया कि शरीर तथा आत्मा, दो अलग-अलग तत्व हैं।
धीरे-धीरे धर्म का यह विशाल साम्राज्य नष्ट हो गया। कोपरनिकस की क्रांति ने खगोल विद्या को धर्म के प्रभुत्व से मुक्त किया। डार्विन की क्रांति ने जीव शास्त्र तथा भूगर्भ शास्त्र को धर्म के जाल से बाहर निकाला। वैद्यक शास्त्र के क्षेत्र में ब्रह्मविज्ञान का अधिकार अभी पूर्ण रूप से नष्ट नहीं हुआ है। वैद्यकीय समस्याओं में उसका हस्तक्षेप आज भी जारी है। परिवार नियोजन, गर्भपात तथा जीव में शारीरिक दोष के कारण ही ऐसे लोगों का बंध्याकरण करना, आदि विषयों पर ईश्वरपरक मान्यताओं का प्रभाव आज भी है। मनोविज्ञान अब तक धर्म की जकड़ से स्वयं को पूर्ण रूप से मुक्त नहीं कर सका, परंतु फिर भी डार्विन के सिद्धांत ने ब्रह्मविज्ञान को इतनी गहरी चोट पहुँचाई और उसके अधिकार को यहाँ तक नष्ट किया कि उसके बाद ब्रह्मविज्ञान ने अपना खोया हुआ साम्राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए कभी भी गंभीर प्रयास नहीं किए।
इस तरह धर्म के साम्राज्य के विनाश को एक महान क्रांति माना जाना पूर्णतः स्वाभाविक है। विज्ञान ने पिछले चार सौ वर्षों में धर्म के साथ जो संघर्ष किया, उसी का यह परिणाम है। इसके लिए दोनों में अनेक गंभीर संघर्ष हुए, जिसके परिणामों से जो क्रांति हुई, उसकी ज्योति से प्रभावित होने से कोई भी नहीं बच सका।
इस बात में कोई संदेह नहीं कि यह धार्मिक क्रांति एक महान वरदान साबित हुई। उसने विचारों की आजादी को स्थापित किया। उसने समाज को इस योग्य बनाया कि वह अपना नियंत्रण स्वयं कर सके, अपना संसार बना सके, जो समाज कभी अंधविश्वासों से घिरा हुआ था, अपनी रहस्यात्मक सत्ता से बाहर निकलकर अपने लिए एक ऐसा स्थान बनाए, जहाँ स्वतंत्र विचारों का अपना महत्व हो। सभ्यता के निर्माण के लिए लौकिकता की इस प्रक्रिया का, जो संस्कृति से भिन्न है, केवल वैज्ञानिकों ने ही स्वागत नहीं किया, बल्कि सामान्य धार्मिक लोग भी यह सोचने लगे कि ब्रह्मविज्ञान के नाम पर जो कुछ भी सिखाया जाता रहा, उसमें बहुत-सी बातें अनावश्यक ही हैं।
परंतु धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए नियमों को निश्चित करने के उद्देश्य से हमें भिन्न प्रकार की एक दूसरी ही क्रांति को जानना होगा, जो धर्म में हुई है। यह क्रांति मनुष्य के साथ ईश्वर के समाज और अन्य मनुष्यों के संबंधों का स्वरूप तथा उसके मान्यता प्राप्त सिद्धांतों से संबंधित है। यह क्रांति कितनी महान थी, यह बात हम सभ्य और आदिम समाज को विभाजित करने वाले भेदों से देख सकते हैं। यह बात भी आश्चर्यजनक महसूस होती है कि आज तक इस धार्मिक क्रांति का सुनियोजित अध्ययन नहीं किया गया। यद्यपि यह क्रांति इतनी महान तथा विशाल थी कि इसने असभ्य समाज के धर्म के स्वरूप में आमूल परिवर्तन कर दिया, परंतु इस क्रांति के बारे में लोगों को बहुत कम ज्ञान है।
हम असभ्य समाज और सभ्य समाज की तुलना आरंभ करते हैं।
आदिम समाज के धर्म में दो बातें हमारा ध्यान आकर्षित करती हैं। पहली बात है, संस्कार और समारोहों का आयोजन, जादू-टोने की प्रथा और संबंध सूचक प्रतीकों अथवा चिह्नों की पूजा, ध्यान में रखने योग्य एक अन्य बात यह है कि संस्कार, समारोह, जादू-टोना, निर्जीव चिह्न वस्तु, इन सभी का कुछ प्रसंगों के साथ विशेष संबंध है। यह ऐसे प्रसंग हैं, जो मुख्य रूप से मानव जीवन की संकटकालीन स्थिति को दर्शाते हैं। जन्म, पहली संतान का जन्म, पुरुषत्व प्राप्ति, स्त्री का बालिग होना, विवाह, बीमारी, मृत्यु और युद्ध जैसी घटनाएँ, सामान्य रूप से ऐसे प्रसंग होते हैं, जिस समय संस्कार समारोह आयोजित किए जाते हैं, जादू-टोना किया जाता है और प्रतीकों की पूजा की जाती है।
धर्म की उत्पत्ति तथा उसके इतिहास का अध्ययन करने वाले विद्यार्थियों ने धर्म की उत्पत्ति का मूल हमेशा जादू-टोना, प्रतिबंध और प्रतीक तथा उससे संबंधित संस्कार और समारोह के संदर्भ में स्पष्ट करने के प्रयास किए हैं और उनका जिन प्रसंगों के साथ संबंध है, उसे महत्त्वपूर्ण नहीं माना। परिणामस्वरूप हमारे सामने कुछ ऐसे सिद्धांत प्रकट हुए, जो यह बताते हैं कि धर्म की उत्पत्ति जादू-टोना और प्रतीकों की पूजा से हुई है। इससे बड़ी दूसरी गलती कोई और हो नहीं सकती। यह सच है कि आदिमानवों का समाज जादू-टोना करता था, प्रतिबंधों पर विश्वास रखता था और प्रतीकों की पूजा करता था, परंतु यह मानना गलत है कि इससे धर्म बनता है अथवा यही धर्म की उत्पत्ति के मूल स्रोत हैं। ऐसा दृष्टिकोण अपनाना, एक प्रकार से, जो बात आकस्मिक है, उसको ही स्थायीतत्व मानने के बराबर है। आदिम समाज के धर्म की मुख्य बात है मानवीय अस्तित्व की मूल वास्तविकता, जैसे कि जीवन, मृत्यु, जन्म, विवाह आदि। जादू, टोना-टोटके ऐसी चीजें हैं, जो आकस्मिक हैं। जादू-टोना, प्रतिबंध, प्रतीक यह सब कुछ साध्य नहीं हैं, केवल साधन हैं। इनका उद्देश्य जीवन की रक्षा है। एक बात यह देखने में आई है कि असभ्य समाज में जादू-टोना, प्रतिबंध आदि का अंगीकार अपने स्वयं के लिए नहीं, बल्कि जीवन की रक्षा के लिए और बुरी बातों से खतरों के बचाव के लिए किया गया। इस प्रकार से हमें यह समझना होगा कि आदिम मानव का धर्म, जीवन उसकी सुरक्षा से संबंधित था और जीवन की इस प्रक्रिया से ही असभ्य समाज के धर्म की उत्पत्ति हुई है और इसमें ही उसका सार है। आदिम समाज को जीवन और प्रवास की इतनी अधिक चिंता थी कि उसी को ही उसने अपने धर्म का आधार बनाया। जीवन की प्रक्रियाएँ उनके धर्म की इतनी अधिक केंद्र बिंदु बन गई थीं कि उस पर जिन-जिन बातों का प्रभाव होता है, उन सभी को उन्होंने अपने धर्म का अंग बना दिया। आदिम समाज के धार्मिक समारोह केवल जन्म, पुरुषत्व, यौवन, विवाह, रोग, मृत्यु और युद्ध तक ही सीमित नहीं थे।
उनका संबंध भोजन या खाद्यान्न से भी था। पशुपालक पशुओं को पवित्र मानते थे। कृषक भूमि की बुआई और फसल की कटाई धार्मिक समारोहों के साथ करते थे। इसी प्रकार अकाल, महामारी तथा अन्य प्राकृतिक अनहोनी घटनाओं के समय भी धार्मिक समारोह किए जाते थे। अनाज काटना और अकाल जैसे प्रसंगों पर समारोह क्यों मनाए जाते हैं, आदिम समाज के लिए जादू-टोना, प्रतिबंध मानना, प्रतीकों की पूजा करना, यह सब कुछ इतना महत्त्वपूर्ण क्यों है? इसका एक ही उत्तर है कि इन सभी का जीवन की रक्षा पर प्रभाव होता है। इसलिए जीवन की प्रक्रिया और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य उद्देश्य बन जाता है। आदिम समाज के धर्म में जीवन और उसकी रक्षा, यही बात मुख्य केंद्र बिंदु है। जैसा प्रो. क्राउले ने बताया है, आदिम समाज के धर्म का प्रारंभ और अंत, जीवन और उसके संरक्षण से होता है।
जीवन और उसकी रक्षा में ही आदिम समाज के धर्म का समावेश है। आदिम समाज के धर्म की यह जैसी सच्चाई है, वह सभी धर्मों पर लागू होती है, चाहे उसका अस्तित्व कहीं भी हों। सभी धर्मों का सार सच्चाई में हैं, यह सच है कि वर्तमान समाज में आध्यात्मिक सुधारों के कारण हम लोग धर्म के इस सार तत्व को नजरअंदाज कर देते हैं, और कभी-कभी भूल भी जाते हैं तथापि जीवन और उसकी रक्षा ही धर्म का सार है, यह बात संदेह से बिल्कुल परे है। प्रो.क्राउले ने यह बात बहुत ही उत्तम ढंग से स्पष्ट की। वर्तमान समाज में मनुष्य के धार्मिक जीवन के बारे में वह कहते हैं कि किस प्रकार -
“मनुष्य का धर्म, उसके सामाजिक अथवा व्यावसायिक कार्य में, उसके वैज्ञानिक अथवा कलात्मक जीवन में बाधक नहीं होता। वास्तव में उसके धर्म की आवश्यकताएँ उस एक विशेष दिन पूरी की जाती हैं, जब वह सामान्य रूप से सभी भौतिक संबंधों से मुक्त होता है। वास्तव में उसका जीवन दो हिस्सों में बंटा हुआ है, परंतु उसका जो आधा हिस्सा धर्म के साथ जुड़ा है, वह प्राथमिक है। उसका 'सैबथ' का दिन (चर्च में विश्राम-दिवस) जीवन और मृत्यु जैसे गंभीर प्रयत्न पर विचार करने में बीतता है। साथ ही प्रार्थना करने की आदत, भोजन करते समय ईश्वर को धन्यवाद देना और मृत्यु, जीवन और विवाह आदि सर्वथा धर्मानुष्ठान की क्रियाएँ हैं, यह सब-कुछ अभिन्न रूप से उसके साथ जुड़ा हुआ है। संभवतः व्यवसाय अथवा विषयसुखों को अत्सर्गित किया जाना चाहिए, परंतु उसमें भी परिवर्तित धार्मिक भावना का आदेश होता है।”
वर्तमान समाज के मनुष्य की धार्मिक भावनाओं की आदिम समाज के उपरोक्त वर्धन के साथ तुलना की जाए, तब इस बात से कौन इंकार कर सकता है कि सैद्धांतिक और आचरण, दोनों दृष्टियों से धर्म का मौलिक स्वरूप एक ही है, चाहे कोई आदिम समाज के धर्म की बात करता है अथवा सभ्य समाज की। इसलिए यह बात स्पष्ट है कि आदिम समाज और सभ्य समाज, दोनों एक बात पर सहमत हैं। दोनों में धर्म के हित केंद्र बिंदु, यानी जीवन की वह प्रक्रिया, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति की रक्षा होती है और उसके वंश का संचालन होता है, एक ही बात है। इस बात में दोनों मे ही कोई वास्तविक अंतर नहीं है, परंतु अन्य दो महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर उनमें भेद हैं।
प्रथम, आदिम समाज के धर्म में ईश्वर की कल्पना का कोई भी अंश नहीं है। दूसरे, आदिम समाज के धर्म में नैतिकता और धर्म, इन दोनों में कुछ भी संबंध नहीं हैं। आदिम-समाज में ईश्वर के बिना धर्म है। आदिम समाज में नैतिकता है, परंतु वह धर्म से स्वतंत्र है।
धर्म में ईश्वर की कल्पना का उदय कब और कैसे हुआ, यह कहना संभव नहीं है। यह तो हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना का मूल समाज के महान व्यक्ति की पूजा में हो, जिससे मनुष्य की जीवित ईश्वर में श्रद्धा का, यानी किसी सर्वश्रेष्ठ को देखकर ईश्वर मानने के आस्तिकवाद का उदय हुआ होगा। यह हो सकता है कि ईश्वर की कल्पना, यह जीवन किसने बनाया है, जैसे दार्शनिक विचार के फलस्वरूप अस्तित्व में आई होगी, जिससे एक सृष्टि के निर्माणकर्ता के रूप में, उसे बिना देखे मानने से ईश्वरवाद का उदय हुआ होगा। चाहे कुछ भी हो, ईश्वर की कल्पना धर्म का एक अभिन्न भाग नहीं हैं। उसका संबंध धर्म के साथ कैसे जुड़ गया, यह बताना मुश्किल है। जहाँ तक धर्म और नैतिकता का संबंध है, यह बात निश्चित रूप से कही जा सकती है। यद्यपि धर्म और ईश्वर का सर्वथा अभिन्न संबंध नहीं हैं, परंतु धर्म और नैतिकता, दोनों का अभिन्न संबंध है। जीवन, मृत्यु, जन्म और विवाह, इन मानव-जीवन की मौलिक वास्तविकताओं से धर्म और नैतिकता दोनों का संबंध है। जीवन की उन मौलिक वास्तविकताओं तथा उनकी क्रियाओं-प्रक्रियाओं को उत्सर्गित करने के साथ-साथ उसने उनकी रक्षा के लिए समाज द्वारा बनाए गए नियमों को भी उत्सर्गित किया है। इस प्रश्न को इस दृष्टिकोण से देखने के बाद इस बात की व्याख्या आसान हो जाती है कि धर्म और नैतिकता का संबंध कैसे स्थापित हुआ। यह संबंध धर्म और ईश्वर के बीच स्थापित संबंध से भी अधिक स्वाभाविक और दृढ़ है, परंतु फिर भी धर्म और नैतिकता, इन दोनों का मिलन नियमित रूप से कब हुआ, यह बताना कठिन है।
चाहे कुछ भी हो, यह वस्तु स्थिति है कि सभ्य समाज का धर्म और आदिम समाज का धर्म दो महत्त्वपूर्ण कारणों से भिन्न-भिन्न हैं। सभ्य समाज में ईश्वर का धर्म की योजना में समावेश है। सभ्य समाज में नैतिकता को धर्म के कारण पवित्रता प्राप्त होती है।
मैं जिस धार्मिक क्रांति की बात कर रहा हूँ, उसकी यह प्रथम अवस्था है। धार्मिक क्रांति की प्रक्रिया धर्म के विकास में इन दो तत्वों के उभरने के साथ ही समाप्त हो गई, ऐसा मानना उचित नहीं हैं। यह दोनों विचारधाराएँ सभ्य समाज के धर्म का एक हिस्सा बन जाने के बाद और अधिक परिवर्तित हुईं, जिसके कारण उनके अर्थों में तथा उनके नैतिक महत्व में क्रांति हो गई।
धार्मिक क्रांति की दूसरी स्थिति बहुत मौलिम परिवर्तन हो गए। यह भेद इतना विशाल है कि उसके कारण सभ्य समाज, प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में विभाजित हो गया और जब हम सभ्य समाज के धर्म की बात करते हैं, तब प्राचीन समाज और आधुनिक समाज के धर्म की चर्चा करना आवश्यक बन जाता है।
प्राचीन समाज को आधुनिक समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति, सभ्य समाज को आदिम समाज से अलग करने वाली धार्मिक क्रांति से बहुत ही विशाल है। उसकी व्यापकता, ईश्वर, समाज और मनुष्य के बीच संबंधों के बारे में इसके द्वारा जो धारणाएँ बनीं, उनके भेदों से स्पष्ट होती हैं।
इस भेद का पहला मुद्दा समाज की रचना से संबंधित है।
प्रत्येक मनुष्य अपनी पसंद से नहीं बल्कि अपने जन्म तथा पालन-पोषण के कारण किसी समाज का, जिसे नैसर्गिक समाज कहा जाता है, सदस्य बनता है। वह किसी विशिष्ट परिवार से तथा किसी विशिष्ट राष्ट्र से संबंधित होता है। इस सदस्यता के कारण उस पर कुछ निश्चित सामाजिक उत्तरदायित्व तथा कर्तव्य भी लादे जाते हैं। उनकी पूर्ति करना उसके लिए अनिवार्य होता है और उनके उल्लंघन से उसे सामाजिक दृष्टि से अयोग्य मानकर दंड दिया जाता है, जबकि उसी के साथ उसे कुछ अधिकार तथा सुविधाएँ भी प्रदान की जाती हैं। इस संदर्भ में प्राचीन तथा आधुनिक, दोनों समाज समान हैं, परंतु जैसा कि प्रो.स्मिथ ने कहा है (दि रिलीजन आफ सैमाइट्स) -
“यहाँ एक महत्त्वपूर्ण भेद है कि संसार की आधुनिक व्याख्या के संदर्भ में प्राचीन संसार का आदिवासी समाज अथवा राष्ट्रीय समाज वस्तुतः एक नैसर्गिक समाज नहीं था, क्योंकि मनुष्यों के समान देवताओं की भूमिका और अस्तित्व था। जिस समुदाय में मनुष्य का जन्म होता था, वह केवल उसके सगे-संबंधियों तथा अन्य सहयोगी नागरिकों का समुदाय ही नहीं होता था, बल्कि उसे कुछ दिव्य विभूतियों, जैसे कि परिवार तथा राज्य के देवताओं को भी अंगीकार करना पड़ता था। प्राचीन मत के अनुसार यह सब कुछ किसी विशेष समुदाय का एक अभिन्न भाग होता था, जैसा कि कोई मानव सदस्य किसी सामाजिक समुदाय का एक भाग होता है। प्राचीन काल के देवताओं और उनके उपासकों का आपसी संबंध मानवी संबंधों की भाषा से व्यक्त किया जाता था, जिसका काव्यात्मक नहीं, बल्कि शाब्दिक अर्थ होता था। यदि किसी देवता को पिता और उसके उपासकों को उसकी संतान कहाजाए, तब उसका शब्दशः अर्थ यही होता था कि ये उपासक उसकी उत्पत्ति हैं और उस देवता तथा उसके उपासकों का एक नैसर्गिक परिवार बन जाता, जिसमें उसके एक-दूसरे के प्रति परस्पर पारिवारिक कर्तव्य हैं अथवा यदि किसी देवता को राजा के रूप में और उसके उपासकों को उसके सेवकों के रूप में संबोधित किया जाए, तब उसका अर्थ यही होता था कि शासन चलाने के सर्वोच्च अधिकार उस देवता के हाथों में ही है और उसके अनुसार शासन पद्धति में सभी महत्त्वपूर्ण मामलों पर उसकी राय जानने, उसके आदेश प्राप्त करने और इसके साथ ही उसके प्रति राजा के समान आदर-सम्मान व्यक्त करने का प्रबंध होता था।
“इस प्रकार से किसी भी मनुष्य का किन्हीं विशेष देवताओं के साथ जन्म से ही उसी प्रकार का संबंध होता था, जिस प्रकार का उसका अन्य सहयोगी मनुष्यों के साथ होता है और उसके इन देवताओं के साथ संबंधों के आधार पर उसका धर्म निश्चित होता था जो उसके आचरण का एक भाग है। यह आचरण उस सर्वसाधारण आचार-संहिता का एक भाग माना जाता था, जो उस समाज के सदस्य के रूप में उस पर लागू होती थी। धर्म का क्षेत्र और सामान्य जीवन, दोनों के साथ संबंध होता था, क्योंकि सामाजिक रचना केवल मनुष्य से ही नहीं, बल्कि मनुष्य और देवता दोनों से मिलकर की गई थी।”
“इस प्रकार से प्राचीन समाज में मनुष्य तथा उसके देवता, दोनों को मिलाकर समाज की सामाजिक, राजनीतिक तथा धार्मिक संरचना की जाती थी। धर्म की स्थापना देवता और उसके उपासकों की घनिष्ठता के आधार पर की जाती थी। आधुनिक समाज ने देवताओं को अपने सामाजिक संरचना से अलग कर दिया है। अब उसमें केवल मनुष्यों का समावेश है।
प्राचीन समाज और आधुनिक समाज में जो दूसरा भेद है, उसका संबंध समाज तथा देवता के बीच रिश्तों से है। प्राचीन संसार में विभिन्न जातियाँ -
“अनेक देवताओं के अस्तित्व में विश्वास रखती थीं, क्योंकि वे अपने स्वयं के तथा अपने शत्रुओं के देवताओं को भी स्वीकार किया करती थीं, परंतु जिनसे इन्हें किसी लाभ की अपेक्षा नहीं होती थी और जिन पर चढ़ाई गई भेंट तथा दान लाभदायक नहीं मानते थे, ऐसे अपरिचित देवताओं की वे पूजा नहीं करती थीं। प्रत्येक समुदाय का अपना एक देव अथवा शायद देव तथा देवियां हुआ करते थे और उनका देवताओं के साथ किसी प्रकार का कोई रिश्ता नहीं होता था।”
प्राचीन समाज का देवता एक निराला देवता था। उस देवता का केवल एक ही जाति के साथ संबंध होता था और उस पर उसी एक जाति का अधिकार होता था। यह बात निम्न प्रकार से स्पष्ट होती है :
“देवता अपने उपासकों के झगड़ों तथा युद्धों में भाग लेते थे। देवता के शत्रु और उसके उपासकों के शत्रु एक ही हुआ करते थे। इतना ही नहीं ओल्ड टेस्टामेंट में 'जहेवा के शत्रु' मौलिक रूप से वही हें, जो इजराइल के शत्रु थे। युद्ध में प्रत्येक देवता अपने लोगों के लिए लड़ता है और उसकी सहायता से ही सफलता मिलती है, ऐसा माना जाता है। चेमोश ने मोओब की और एशर ने असीरिया की सफलता का कारण बताया और कई बार इन दैवी प्रतिमाओं को अथवा चिह्नों को लड़ने वाले युद्ध में साथ ले जाते थे। जब आर्क को अजराइल के डेरे मे लाया गया, तब फिलीस्टाइन ने कहा, 'आर्क के रूप में देवता का हमारे डेरे में आगमन हुआ है और वह निश्चित ही अपनी सामर्थ्य से हमें सफलता हासिल करा देगा, क्योंकि जब डेविड ने उनका बालोपेराजिम में पराभव किया, तब लूट के माल में उन देवताओं की प्रतिमाएँ शामिल थीं, जो वे युद्ध-भूमि में अपने साथ ले गए थे। मेसीडोन के फिलिप राजा के साथ 'कार्थजिनियंस लोगों का जो समझौता हुआ था, उसमें उन लोगों ने इस तरह उल्लेख किया है - 'अभियान में भाग लेने वाले देवता' का निस्संदेह उन पवित्र शिविरों के वासियों से संबद्ध हैं, युद्ध भूमि में जिनका शिविर मुख्य सेनापति के शिविर के साथ लगाया जाता था और जिसके सामने विजय के बाद कैदियों की बलि दी गई थी। उसी प्रकार से किसी अगर कवि ने कहा था, 'युगूथ हमारे साथ मोराद के विरुद्ध आया।' इसका मतलब है कि युगूथ देवता की प्रतिमा युद्ध में साथ लाई गई थी।”
इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि देवता और समाज में दृढ़ सामंजस्य था।
“अतः देवता और उनके उपासकों के बीच सामंजस्य के इस तत्व के आधार पर बने राजनीतिक समाज के विशेष गुण-धर्म के क्षेत्र में परिलक्षित होते हैं। इसी प्रकार से, जब किसी समुदाय अथवा गाँव के देवता का उन लोगों की आराधना तथा सेवा पर निर्विवाद अधिकार होता है, जिनका वह देवता है, तब वह उनके शत्रुओं का शत्रु भी होता है और उन लोगों के लिए अनजान होता है, जिन्हें वे लोग नहीं जानते (दि रिलिजन आफ सैमाइट्स)।”
इस तरह देवता का एक समुदाय के साथ और समुदाय का अपने देवता के साथ संबंध स्थापित हो गया। देवता उस समुदाय का देवता और वह समुदाय उस देवता का मनोनीत समुदाय बन गया।
इस दृष्टिकोण के दो परिणाम हुए। प्राचीन समाज ने यह सिद्धांत कभी भी इस धारणा के रूप में स्वीकार नहीं किया कि देवता विश्वव्यापी है और वह सभी का देवता है। प्राचीन समाज में कभी भी यह धारणा नहीं बनी कि इस सबके अलावा समाज में मानवता नाम की कोई वस्तु है।
प्राचीन और आधुनिक समाज में जो तीसरा मतभेद है, उसका संबंध देवता के पितृत्व की संकल्पना के साथ है। प्राचीन समाज में देवता को लोगों का पिता माना जाता था, परंतु इस पितृत्व की संकल्पना का आधार शारीरिक माना गया था।
“मूर्ति-पूजक धर्मों में देवताओं के पितृत्व के रूप को माना जाता था। उदाहरण के लिए, ग्रीक लोगों की यह कल्पना कि जिस प्रकार से कुम्हार माटी से प्रतिमाएँ बनाता है, उसी प्रकार से देवताओं ने मनुष्यों को मिट्टी से आकार प्रदान किया है; यह एक प्रार से आधुनिक कल्पना है। पुरानी धारणा यह है कि मनुष्य दोनों की माता है और इस तरह मनुष्य वास्तव में देवताओं के वंश के अथवा उनके स्वजन बन जाते हैं। यही धारणा पुराने सेमाइट्स लोगों में बनी थी, ऐसा बाइबिल से स्पष्ट होता है। जैरेमिह लोग इन मूर्तियों का अपने पूर्वजों के रूप में वर्णन करते हैं जैसे, तुम मेरे पिता हो; और उस पत्थर को कहते हैं, तुम मुझे इस संसार में लाए। प्राचीन कविता नुम 21-29 में, मेआब लोगों को चेमोश देवता के पुत्र-पुत्री कहा गया है, और बहुत ही आधुनिक समय में मलाचि नाम के धर्मोपदेशक ने किसी मूर्तिपूजक स्त्री को 'विलक्षण देवता की पुत्री' कहा है। निस्संदेह यह सभी संबोधन उस भाषा का एक भाग है, जो इजरायल के पड़ोसी लोग अपने लिए प्रयोग करते थे। सीरिया और पेलेस्टिनियन देशों में प्रत्येक जाति अथवा अनेक छोटी जातियों का एक जमघट भी अपने-आपको स्वतंत्र जाति के रूप में मानता है और अपनी मूल उत्पत्ति का संबंध उस प्रथम पितामह (देवता) के साथ जोड़ता है। ग्रीक देश के लोगों की तरह उनके लिए भी यह पितामह अथवा वंश का उत्पत्तिदाता वंश का देवता ही होता है। बहुत से नवीनतम अन्वेषकों के अनुमान से ईसाई धर्म की पुस्तक के पहले खंड में प्रांतों की पुरानी वंशावली में अनेक देवताओं के नाम पाए जाते हैं। यह बात इस विचार के अनुरूप ही है। उदाहरण के तौर पर, एडोमाइट लोगों के उत्पत्तिदाता एडम की हिब्र लोगों ने जेकब के भाई ईशु के साथ पहचान बताई है, परंतु मूर्तिपूजकों के लिए वह देवता था। यह बात 'ओबेडेडम' लोगों से स्पष्ट होती है, जो 'एडम के उपासक' हैं। फोयनिशियन और बेबिलयन वंशों के वर्तमान वंशों की उत्पत्ति तब हुई, जब प्राचीन धर्म और प्रत्येक देवता को किसी जाति विशेष के साथ संबंधित होने की बात लोग भूल गए थे अथवा यह बात महत्त्वहीन बन गई थी, परंतु सर्वसाधारण रूप से यह धारणा आज भी प्रचलित है कि मनुष्य देवताओं की संतान है। फिलो बेबलिस वंश के लोगों के विश्व-निर्माण के फोयनिशियन सिद्धांत में यही धारणा कुछ अस्पष्ट रूप से व्यक्त की गई है। इसका कारण लेखक का संकोच था। इस सिद्धांत के अनुसार, देवता दैवी पुरुष होते हैं, जो अपनी जाति के लिए महान उद्धारक का कार्य करते हैं। उसी प्रकार से बेरोसस लोगों की चाल्डियन पौराणिक कथा में यह धारणा कि मनुष्य भी देवों के रक्त संबंध के ही होते हैं, बहुत ही अपरिपक्व रूप से व्यक्त की गई है। यह कथा बहुत प्राचीन समय की नहीं है। इसमें यह कहा गया है कि पशु-पक्षी तथा मनुष्य, सभी को उस मिट्टी से बनाया गया, जिसमें किसी सिर कटे देवता का रक्त मिलाया गया था (दि रिलिजन आफ सैमाइट्स)।”
मनुष्य तथा देवताओं के इस खून के रिश्ते की कल्पना का एक महत्त्वपूर्ण परिणाम हुआ। प्राचीन संसार के लिए देवता भी मानव ही था और इसलिए वह परिपूर्ण सद्गुण तथा उत्तमता के योग्य नहीं था। देवताओं का स्वभाव भी मनुष्यों से मिलता-जुलता था, इसलिए मनुष्यों में जो भावनाएँ, बीमारी तथा दुर्गुण पाए जाते हैं, वे उनमें भी होते थे। प्राचीन संसार के देवताओं की मनुष्यों के समान वासनाएँ तथा आवश्यकताएँ थीं और कई बार वे भी दुर्गुणों में व्यस्त हुआ करते थे, जिनसे अनेक लोग ग्रस्त थे। उपासकों को अपने देवताओं की इस बात के लिए प्रार्थना करनी पड़ती थी कि कहीं वे उन्हें लालच की ओर न ले जाएँ।
आधुनिक समाज में दैवी पितृत्व की कल्पना का प्राकृतिक आधार नैसर्गिक पितृत्व के पूर्ण रूप से संबंध विच्छेद हो गया। उसके स्थान पर यह कल्पना प्रचलित हो गई कि मनुष्य की देवता के रूप में निर्मिति होती है, वह वास्तव में देवता से उत्पन्न नहीं होता। देवता के पितृत्व की कल्पना में आए इस परिवर्तन को यदि नैतिक दृष्टि से देखा जाए, तो उसके कारण देवता के सृष्टि के संचालनकर्ता रूप में बहुत भारी परिवर्तन आया है। देवता को उसके प्राकृतिक रूप में परिपूर्ण उत्तमता और सद्गुणों के योग्य नहीं माना जाता था और जब देवता ही अपने सदाचार में परिपूर्ण नहीं था, तब उसके अनुसरण से यह सृष्टि भी सदाचार से परिपूर्ण हो, ऐसी अपेक्षा नहीं की जा सकती थी। देवता के मनुष्य के साथ शारीरिक संबंधों के विच्छिन होने के कारण अब यह कल्पना की ही जा सकती है कि देवता उत्तमता एवं सद्गुणों से परिपूर्ण हो।
मतभेद का चौथा मुद्दा, जब राष्ट्रीयता में परिवर्तन होता है, तब धर्म को जो भूमिका निभानी पड़ती है, उससे संबंधित है।
प्राचीन संसार में जब तक धर्म-परिवर्तन न किया जाए, राष्ट्रीयता में परिवर्तन नहीं हो सकता था। प्राचीन संसार में -
“किसी व्यक्ति के लिए अपनी राष्ट्रीयता में परिवर्तन किए बगैर धर्म-परिवर्तन करना असंभव था और संपूर्ण जाति के लिए धर्म परिवर्तन करना तब तक असंभव था, जब तक कि उन्हें किसी जाति में अथवा राष्ट्र में पूर्णरूप से समाहित न कर लिया जाए। राजनीतिक संबंधों की तरह धर्म भी पुत्र को अपने पिता से प्राप्त होता था, क्योंकि मनुष्य अपनी इच्छाओं से नए देवता का चयन नहीं कर सकता था। अपने रिश्ते-नातों का त्याग करके उसे दूसरे नागरिक जीवन तथा धार्मिक जीवन के समुदाय में जब तक स्वीकार न किया जाए, तब तक उसके लिए उसके पिता के देवता ही एकमात्र ऐसे देवता होते थे, जिनपर वह मैत्री निर्भर रह सकता था और जो उसकी पूजा को स्वीकार कर सकते थे।”
सामाजिक एकरूपता के लिए धर्म-परिवर्तन की कसौटी की तरह आवश्यक होती थी, यह बात ओल्ड टेस्टामेंट के 'नाओमी' और 'रूथ' के बीच संवाद से स्पष्ट होती है।
नाओमी रूथ से कहता है, 'तुम्हारी बहन उसके अपने लोगों में और अपने देवताओं में चली गई है।'
और रूथ उत्तर देता है, 'तुम्हारे लोग मेरे लोग होंगे और तुम्हारा ईश्वर मेरा ईश्वर होगा।'
यह बात सर्वथा स्पष्ट है कि प्राचीन संसार में राष्ट्रीयता में परिवर्तन के लिए संप्रदाय (पंथ) परिवर्तन अनिवार्य था। सामाजिक एकरूपता का मतलब धार्मिक एकरूपता था।
आधुनिक समाज में सामाजिक एकरूपता के लिए किसी एक धर्म का त्याग करना अथवा दूसरे धर्म को स्वीकार करना आवश्यक नहीं है। यह बात आधुनिक व्याख्या में, जिसे स्वाभावीकरण कहा जाता है, जिसमें एक राज्य का नागरिक अपनी नागरिकता का त्याग करता है और किसी नए राज्य का नागरिक बनता है। स्वाभावीकरण की इस प्रक्रिया में धर्म का कोई स्थान नहीं है। कोई भी व्यक्ति धार्मिक एकरूपता प्राप्त कर सकता है और इसी का दूसरा नाम स्वाभावीकरण है।
आधुनिक समाज की प्राचीन समाज से भिन्नता स्पष्ट करने के लिए केवल इतना कहना ही पर्याप्त नहीं है कि आधुनिक समाज केवल मनुष्यों का बना है। उसके साथ, यह बात भी माननी होगी कि आधुनिक समाज उन मनुष्यों का बना है, जो भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं।
मत-भिन्नता का पाँचवाँ मुद्दा धर्म के एक भाग के रूप में देवताओं के स्वरूप के ज्ञान से संबंधित है।
"प्राचीन दृष्टिकोण से देवता स्वयं क्या है, यह प्रश्न धार्मिक नहीं, किंतु काल्पनिक है। धर्म के लिए आवश्यक है कि देवता जिन नियमों का पालन करते हैं, उनके उपासकों को उनकी व्यावहारिक जानकारी हो और उसके तदनुसार आचरण करने की अपेक्षा करते हैं। इसे 2 किंग्स के पाठ 17, श्लोक 26 में धरती के 'आचार' अथवा प्रायः 'पारंपरिक नियम' (मिस्फात) कहा गया है। यह बात इजराइल के धर्म के लिए भी लागू है। जब धर्मोपदेशक अपनी सरकार के कानूनों तथा सिद्धांतों के ज्ञान की बात करते हैं और पूरे धर्म का सार स्पष्टाफ्ररते हैं, तब वह 'जहोवा का ज्ञान तथा भय' ही है अर्थात जहोवा ने क्या निर्देश दिए हैं, वे निर्देश और उनका आदरयुक्त पालन। धर्मोपदेशकों के ग्रंथों में सभी धार्मिक सिद्धांतों के प्रति अत्यधिक संदेह व्यक्त किया गया है, जो धर्मनिष्ठ व्यक्ति के लिए उचित है, क्योंकि कितनी भी चर्चा की जाए, वह मनुष्य को इस सरल निमय के आगे नहीं ले जा सकती है कि 'ईश्वर से डरे और उसकी आज्ञा को पालन करे।' यह उपदेश लेखक ने सोलोमन के मुख से दिया है और इसलिए वह, अन्यायपूर्ण पद्धति से नहीं, बल्कि धर्म के प्रति प्राचीन दृष्टिकोण का निश्चित ही प्रतिनिधित्व करती है, जिसका दुर्भाय से आधुनिक काल में महत्व धीरे-धीरे कम हो गया।”
मत-भिन्नता का छठा मुद्दा धर्म में आस्था का जो स्थान है, उससे संबंधित है। प्राचीन समाज में -
“यदि स्पष्ट कहा जाए, तो संस्कार तथा व्यावहारिक परंपराएँ, यही प्राचीन धर्म का कुल-मिलाकर सार था। प्राचीन काल में धर्म व्यावहारिक रूप से आस्था की पद्धति नहीं थी, इसे एक स्थिर पारंपारिक क्रिया की संस्था माना जाता था, जिसमें समाज का प्रत्येक सदस्य निर्भय सहमति व्यक्त करता था। मनुष्य-मनुष्य नहीं होगा यदि वह बिना किसी तर्क के कोई कार्य करने के लिए सम्मति दे; परंतु प्राचीन धर्म में पहले तर्कों की सिद्धांत रूप से रचना करके बाद में उस पर आचरण नहीं किया गया। इसके विपरीत, पहले आचरण किया गया और बादमें सिद्धांतों की रचना की गई। मनुष्यों ने सर्वासाधारण तत्वों को शब्दों में व्यक्त करने के पहले आचार-संहिता के नियम बनाए। राजनीतिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं और इसी प्रकार धार्मिक संस्थाएं धार्मिक सिद्धांतों से पुरानी हैं। इस तुलना पर चयन किसी ने अपनी मर्जी से नहीं किया है, क्योंकि प्राचीन समाज में वास्तव में धार्मिक तथा राजनीतिक संस्थाओं में परिपूर्ण समानता थी। प्रत्येक क्षेत्र में पूर्व तथा संस्कारों का भारी महत्व था, परंतु इस पूर्व परंपरा का पालन क्यों किया जाता है, इसका स्पष्टीकरण केवल उसकी प्रथम स्थापना की किंवदती बताकर दिया जाता था। कोई भी प्रथा, एक बार स्थापित हो जाए, उसे अधिकार-युक्त माना जाता था और उसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती थी। समाज के नियम पूर्व निर्णयों पर आधारित होते थे और समाज का अस्तित्व निरंतर बना रहा है और इस बात को न्यायसंगत ठहराने के लिए यही कारण पर्याप्त था कि एक प्रथा स्थापित हो जाने के बाद उसे जारी क्यों न रखा जाए।”
मत-भिन्नता का सातवां मुद्दा धर्म में व्यक्तिगत विश्वास से संबंधित है।
प्राचीन समाज में -
“मनुष्य जिस समाज में जन्म लेता है, उस समाज के संगठित सामाजिक जीवन का धर्म एक हिस्सा था और मनुष्य अपने जीवन में उसका अवचेतनावस्था में उसी प्रकार पालन करता रहता था, जिस प्रकार किसी समाज में रह रहा व्यक्ति उसकी व्यावहारिक प्रथाओं का पालन करता है। जिस प्रकार व्यक्ति राज्य की अनेक प्रथाओं को मानकर उनका अनुसरण करता है, उसी प्रकार देवताओं तथा उनकी उपासना को भी स्वीकार करता है और यदि उन्होंने उस पर कोई बहस की अथवा संदेह प्रकट किया तो वह भी इसी धारणा पर आधारित होता था कि पारंपरिक प्रथाएँ स्थिर हैं और उससे परे हटकर कोई भी बहस नहीं की जानी चाहिए और उन्हें किसी भी तर्क के आधार पर बदलने की स्वतंत्रता नहीं थीं। हमारे लिए आधुनिक धर्म सर्वप्रथम वैयक्तिक विश्वास तथा तर्कपूर्ण श्रद्धा की बात है, किंतु प्राचीन लोगों के लिए वह प्रत्येक नागरिक के सार्वजनिक जीवन का भाग था, जो किन्हीं निश्चित रूपों में बंधा था और जिसे समझने की उसे जरूरत नहीं थी और न ही उसे उसकी आलोचना अथवा उपेक्षा करने की स्वतंत्रता थी। धार्मिक अवज्ञा शासन के विरुद्ध अपराध माना जाता था। अगर पवित्र परंपराओं से खिलवाड़ किया जाए तो समाज का आधार ही टूट जाता है और ईश्वर की कृपा से भी वंचित होना पड़ता है, परंतु जब तक मनुष्य निर्देशित आज्ञाओं का पालन करता था, तब तक उसे सच्चे धार्मिक मनुष्य के रूप में मान्यता थी और उसे किसी से यह नहीं पूछना पड़ता था कि धर्म उसके अंतःकरण में कितना बस गया है अथवा उसके विवेक पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा है। राजनीतिक कर्तव्यों की तरह, जिसका वह एक अविभाजित भाग था, धर्म भी पूर्णतः बाह्य आचरण के कुछ निश्चित नियमों के पालन से ही ग्रहण किया जाता था।”
मतभेद का आठवां मुद्दा, देवता के समाज तथा मनुष्य के साथ संबंध और देवता के अधिकारों के संदर्भ में समाज के साथ संबंधों के बारे में है।
पहले हम देवता के समाज के साथ संबंधों में मत-भिन्नता को देखें। इस संबंध में हमारे लिए तीन बातों को ध्यान में रखना आवश्यक है।
प्राचीन विश्व की श्रद्धा ने -
“भगवान से प्राकृतिक सुखों से अधिक कुछ नहीं मांगा।... भगवान के सम्मुख जो उत्तम मनोकामनाएँ रखी जाती थीं, वह सुखी सांसारिक जीवन, विशेषकर भौतिक आवश्यकताएँ ही होती थीं।”
प्राचीन समाज जो चीजें माँगता था और विश्वास रखता था कि वे उसे अपने देवता से मिलेंगी, वे मुख्य रूप से निम्नलिखित होती थीं -
“भरपूर उपज, शत्रु के विरुद्ध सहायता और नैसर्गिक आपत्तियों में देववाणी द्वारा उपदेश अथवा किसी वक्ता द्वारा सलाह।”
प्राचीन संसार में -
“धर्म एक व्यक्ति का नहीं, बल्कि सारे समाज का विषय था। पूरे समाज को, न कि एक व्यक्ति को देवता की स्थिर और कभी असफल न होने वाली भूमिका में विश्वास था।”
अब हम देवता के साथ संबंधों के अंतर को देखें।
“प्रत्येक व्यक्ति के कल्याण की ओर विशेष रूप से ध्यान देना मूर्तिपूजा के देवताओं का कार्य नहीं था। यह सच है कि लोग अपनी निजी बातें देवता के सामने रखते और उससे प्रार्थना तथा इच्छा व्यक्त करके व्यक्तिगत आशीर्वाद माँगते थे, लेकिन ऐसा वे उसी प्रकार करते थे जैसे किसी राजा से कोई निजी उपहार की माँग करता है अथवा जैसे कोई पुत्र अपने पिता से कुछ उपहार माँगते हैं और यह उपेक्षा नहीं करता कि वह सब मिल जाएगा, जिसकी वह माँग कर रहे हैं। ऐसे प्रसंगों पर देवता यदि कुछ दे भी दे तो उसे एक निजी उपहार ही माना जाता था और देवता के समाज के प्रमुख के रूप में जो योग्य कर्तव्य थे, उसका यह भाग नहीं था।
मनुष्य के नागरिक जीवन पर देवताओं का नियंत्रण था। वे उसे सार्वजनिक लाभ, अनाज की वार्षिक उपज तथा भरपूर फसल, राष्ट्रीय शांति अथवा शत्रु पर विजय आदि लाभ पहुँचाते थे, परंतु वे प्रत्येक निजी आवश्यकता में सहायता करेंगे ही, यह आवश्यक नहीं था और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि देवता किसी भी व्यक्ति की उन कामों में मदद नहीं करते थे, जो समूचे समाज के हितों के विरुद्ध होते थे। इसलिए उन सभी संभावित आवश्यकताओं तथा इच्छाओं का, जिन्हें धर्म पूरा करेगा अथवा नहीं करेगा, एक अलग क्षेत्र बना हुआ था।”
अब देवता तथा समाज की मनुष्य के प्रति जो भावना है, उसके अंतर को देखते हैं।
प्राचीन संसार में समाज का व्यक्तिगत कल्याण से लगाव नहीं होता था। निस्संदेह देवता समाज से बंधा होता था, परंतु -
“देवता तथा उसके उपासकों में ऐसा कोई समझौता नहीं था कि समाज में प्रत्येक सदस्य की निजी चिंता को देवता अपनी चिंता मानें। विशेष रूप से फलदायी मौसम, पशुधन में वृद्धि तथा युद्ध में विजय, ऐसे सार्वजनिक लाभ, जो सारे समाज को प्रभावित करते हैं, इनकी देवताओं से अपेक्षा की जाती थी और जब तक समाज फल-फूल रहा है, तब तक किसी का व्यक्तिगत दुःख दिव्य देवता की किसी भी प्रकार अवमानना नहीं करता था।”
इसके विपरीत प्राचीन संसार किसी मनुष्य के दुःख को प्रमाण मानता था, “कि ऐसे व्यक्ति ने कुकर्म किया था और देवताओं की घृणा न्यायपूर्ण थी। ऐसे मनुष्य के लिए उन लोगों के बीच कोई स्थान नहीं होता था, जो किसी उत्सव को मनाने के लिए देवता के समक्ष खड़े हों।”
इस दृष्टिकोण के अनुसार ही कोढ़ से पीड़ित तथा शोकग्रस्त लोगों को धर्म के पालन से तथा सभी सामाजिक सुविधाओं से बाहर रखा जाता था और ऐसे व्यक्ति को उस देवस्थान पर नहीं लाया जाता था, जहाँ प्रसन्न तथा धनी लोगों की भीड़ समारोह मनाने के लिए एकत्र होती थी।
जहाँ तक व्यक्ति-व्यक्ति और व्यक्ति तथा समाज के बीच का विवाद है, देवता का उसके साथ कोई संबंध नहीं होता था। प्राचीन संसार में -
“मनुष्य के कार्यों में होने वाली भूलों को सुधारने में देवता निरंतर व्यस्त रहें, ऐसी उनसे अपेक्षा नहीं की जाती थी। सामान्य बातों में मनुष्यों का यह कर्तव्य था कि वे अपनी और सगे संबंधियों की सहायता करें, यद्यपि यह धारणा कि देवता हमेशा हमारे साथ है और आवश्यकता पड़ने पर उसे बुलाया जा सकता है, समाज को एक प्रकार की नैतिक शक्ति प्रदान करती थी और उससे हमेशा समाज में सदाचार तथा नैतिक व्यवस्था बनी रहती थी, किंतु सही अर्थ में देखा जाए तो इस नैतिक शक्ति का प्रभाव बहुत ही अनिश्चित हुआ करता था, क्योंकि प्रत्येक अनाचारी के लिए खुशफहमी की यह भावना बनी रहती थी कि उसका अपराध अनदेखा कर दिया जाएगा। प्राचीन संसार में मनुष्य की देवता से न्यायसंगत रहने की अपेक्षा नहीं थी। चाहे कोई नागरिक समस्या हो अथवा अनाचार की बात हो, प्राचीन लोगों की प्रवृत्ति समाज के बारे में ज्यादा सोचने की और व्यक्ति के बारे में कम सोचने की होती थी और कोई भी व्यक्ति उसे अन्यायपूर्ण नहीं मानता था, यद्यपि यह बात स्वयं उससे संबंधित होती थी। देवता पूरे राष्ट्र का अथवा पूरे कबीले का हुआ करता था और वह किसी व्यक्ति की चिंता समुदाय के एक सदस्य के रूप में ही करता था।”
'अपने निजी दुर्भाग्य के लिए' मनुष्य की प्रवृत्ति प्राचीन संसार में इसी प्रकार की थी। मनुष्य देवता के समक्ष प्रसन्न होने के लिए जाता था और -
"अपने देवताओं के सामने प्रसन्न होते समय अपने सगे-संबंधियों, पड़ोसियों के साथ उनके तथा देश के लिए प्रसन्न होता था। वह अपनी उपासना से देवता के साथ अपने बंधन का एक प्रतिज्ञा के रूप में नवीकरण करता था और साथ ही अपने पारिवारिक, सामाजिक तथा राष्ट्रीय उत्तरदायित्व के बंधनों का भी स्मरण कर उन्हें दृढ़ आधार प्रदान करता था।”
प्राचीन संसार में मनुष्य ने कभी भी अपने विधाता से उपासना करते समय यह नहीं कहा कि वह उसके प्रति न्यायसंगत व्यवहार करे।
धर्म मे यह दूसरी क्रांति ऐसी है।
इस प्रकार से दो धार्मिक क्रांतियाँ हुई हैं। एक बाहरी क्रांति थी, दूसरी आंतरिक क्रांति थी। बाह्य क्रांति का संबंध धर्म के अधिकार क्षेत्र से संबंधित था। आंतरिक क्रांति, धर्म में मानव समाज को नियंत्रित करने की दैवी योजना के रूप में जो परिवर्तन हुए, उससे संबंधित थी। बाह्य क्रांति को वास्तव में धार्मिक क्रांति नहीं माना जा सकता है। वह एक प्रकार से, जो क्षेत्र धर्म के अधीन नहीं थे, उनका अनधिकृत विस्तार था, उनके विरुद्ध विज्ञान का विद्रोह था। आंतरिक क्रांति को सही रूप में क्रांति माना जा सकता है और उसकी तुलना किसी भी अन्य राजनीतिक क्रांति के साथ की जा सकती है, जैसे फ्रांसीसी क्रांति अथवा रूसी क्रांति। उसमें संवैधानिक बदलाव का अंतर्भाव था। इस क्रांति से दैवी नियंत्रण की योजना में सुधार हुआ, बदलाव आया और उसकी संवैधानिक पुनर्रचना हुई।
इस अंदरूनी क्रांति ने प्राचीन समाज के दैवी प्रयास की योजना में कितने व्यापक बदलाव किए, यह बात सहजता से देखी जा सकती है। इस क्रांति से देवता समाज का सदस्य नहीं रहा, इस कारण वह समदर्शी बन गया। संसार के व्यावहारिक अर्थ में देवता मनुष्य का पिता नहीं रहा, वह विश्व का निर्माता बन गया। खून का यह रिश्ता टूटने से यह धारणा बनाना संभव हो गया कि देवता उत्तम है। इस क्रांति के कारण मनुष्य देवता का अंधभक्त नहीं रहा, जो उसकी आज्ञा का पालन करने के अलावा कुछ नहीं करता। इसके कारण मनुष्य एक ऐसा जिम्मेदार व्यक्ति बन गया, जिसे देवताओं की आज्ञाओं के प्रति अपनी विवेकपूर्ण श्रद्धा के औचित्य को सिद्ध करना पड़ता था। इस क्रांति के कारण, देवता समाज का संरक्षणकर्ता है, यह धारणा नहीं रही और सामाजिक हित संबंध ठोस रूप में दैवी-व्यवस्था का केंद्र नहीं रहे। इसके स्थान पर मनुष्य उसका केंद्र बिंदु बन गया।
एक दैवी प्रशासन के रूप में धर्म के प्रति स्थापित धारणाओं में जो क्रांति हुई, उसका इस प्रकार विश्लेषण करने का एकमात्र उद्देश्य यह है कि धर्म के दर्शन का मूल्यांकन करने के लिए कुछ नियम खोजे जा सके। कोई उतावले स्वभाव का पाठक यह पूछ सकता है कि वह नियम कहां है और वे क्या हैं? उपरोक्त चर्चा में शायद पाठक को इन नियमों का उनके नाम से उल्लेख नहीं मिला होगा, परंतु यह बात उसके ध्यान में आएगी कि संपूर्ण धार्मिक क्रांति, क्या सही है और क्या गलत है, इन मानदंडों को परखने के इर्द-गिर्द ही घूम रही थी। यदि वह इस बात को नहीं समझता, तो मुझे उस बात को सुस्पष्ट करने दिया जाए, जो इस सारी चर्चा में अस्पष्ट है। हमने अपनी चर्चा प्राचीन समाज तथा आधुनिक समाज में जो अंतर हैं, उससे आरंभ की थी और जैसा कि हमने देखा है, उन्होंने अपने धार्मिक आदर्श के रूप में दैवी शासन की जिस योजना को स्वीकार किया, उसमें भिन्नता है। क्रांति के एक सिरे पर वह आधुनिक समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य उसका समाज था। क्रांति के दूसरे सिरे पर वह आधुनिक समाज है, जिसके धार्मिक आदर्श का लक्ष्य एक व्यक्ति था। इन्हीं तथ्यों को यदि हम नियमों में ढाल दें, तो हम कह सकते हैं कि प्राचीन समाज के लिए सही अथवा गलत बात को परखने के लिए जैसे नियम अथवा कसौटी थी, वह थी 'उपयोगिता', जबकि आधुनिक समाज के लिए यह 'न्याय' है। इस प्रकार जिस समाज में केंद्रीय भावना समाज के व्यक्ति में बदल गई, वह एक प्रकार की नियमों की क्रांति थी।
मैंने जो नियम सूचित किए हैं, शायद कुछ लोग उसका विरोध करें। कदाचित, यह उनके लिए एक नया रास्ता होगा, परंतु मेरे मन में कोई संदेह नहीं है कि धर्म के दर्शन को परखने के लिए यही वास्तविक नियम हैं। पहली बात, यह नियम लोगों को, मनुष्य के आचरण में क्या सही और क्या गलत है, यह परखने योग्य बनाए, दूसरे यह नियम, नैतिक उत्तमता जिससे बनी है, उसकी वर्तमान धारणाओं के अनुरूप हो। इन दोनों दृष्टिकोण से वे नियम सही दिखाई देते हैं। क्या सही है और क्या गलत है, ये नियम हमें यह परखने की योग्यता देते हैं। जिस समाज ने उनको स्वीकार किया है, यह नियम उसके अनुरूप ही हैं, क्योंकि वहाँ लक्ष्य था। समाज और सामाजिक उपयुक्तता को ही नैतिक आचरण माना जाता था। न्याय, यह कसौटी आधुनिक समाज के अनुरूप है, जिसमें व्यक्ति को लक्ष्य माना गया है और उस व्यक्ति को न्याय मिले, इसे ही नैतिक उत्तमता माना गया है। यह विवाद का विषय हो सकता है कि इन दो प्रकार के नियमों में से कौन-सा नैतिक नियम दृष्टि से श्रेष्ठ है, परंतु मैं नहीं सोचता कि यह नियम नहीं हैं, इस बात पर कोई गंभीर विवाद हो सकता है। यह कहा जा सकता है कि यह नियम श्रेष्ठ नहीं है। इस पर मेरा उत्तर यह है कि धर्म के दर्शन को परखने के नियम दैवी होने के साथ-साथ प्राकृतिक भी होने चाहिए। कोई कुछ भी कहे, हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने के लिए मैं इन्हीं नियमों को स्वीकार करना चाहूँगा।
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यह एक बहुत ही लंबी घुमावदार प्रक्रिया है, परंतु मुख्य विषय की छानबीन करने से पूर्व यह एक आवश्यक प्राथमिकता थी, फिर भी, जब हम अन्वेषण की यह प्रक्रिया आरंभ करते हैं, तो हमारे सामने कुछ आरंभिक कठिनाई आती है। हिंदू ऐसी जाँच-पड़ताल का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। वे कहते हैं कि या तो धर्म उनके लिए महत्त्वपूर्ण नहीं हैं अथवा वे इस विचार की ओट ले लेते हैं, जिसे तुलनात्मक धर्म के अध्ययन से पुरस्कृत किया है कि सभी धर्म अच्छे हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं होना चाहिए कि ये दोनों ही मत गलत और निराधार हैं।
धर्म एक सामाजिक शक्ति है, इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती। हेबर्ड स्पेंसर ने धर्म की अत्यंत सार्थक व्याख्या की है, जिसके अनुसार, 'किसी जाल की बुनाई में यदि इतिहास को ताना माना जाए तो धर्म एक ऐसा बाना है, जो उसके प्रत्येक स्थान पर आड़े आता है।' यह एक सच्चाई है, जो प्रत्येक समाज से संबंधित हैं, परंतु भारतीय इतिहास के ताने को धर्म न केवल हर स्थान पर बाना बनकर आड़े आता है, बल्कि हिंदू मन के लिए वह ताना भी है और बाना भी। हिंदू जीवन में धर्म उसके प्रत्येक क्षण को नियमित करता है। वह उसे आदेश देता है कि अपने जीवनकाल में कैसा आचरण करे तथा उसकी मृत्यु के उपरांत उसके शरीर का क्या किया जाए। धर्म उसे यह बताता है कि स्त्री के साथ मिलने वाला सुख कब और कैसे प्राप्त करे। जब बच्चा पैदा हो जाए, कौन-कौन से धर्मानुष्ठान किए जाने हैं, उसका क्या नाम रखा जाए, उसके सिर के बाल कैसे काटे जाएँ, उसको पहला भोजन कैसे कराया जाए, वह कौन-सा व्यवसाय करे, किस स्त्री के साथ विवाह करे, यह बात उसे धर्म बताता है। वह किसके साथ भोजन करे, कौन-सा अन्न खाए, कौन-सी सब्जी विधिवत् है और कौन-सी निषिद्ध, उसकी दिनचर्या कैसी हो, कितनी बार वह भोजन करे और कितनी बार प्रार्थना करे, धर्म इन सबका नियमन करता है। हिंदू का ऐसा कोई कार्य नहीं, जिसका धर्म में अंतर्भाव न हो अथवा जिसके लिए धर्म का आदेश न हो। यह बहुत विचित्र प्रतीत होता है कि शिक्षित हिंदू इस बात को अधिक महत्व नहीं देते, मानो यह कोई उपेक्षा की बात हो।
इसके अलावा, धर्म एक सामाजिक शक्ति है। जैसा मैंने पहले स्पष्ट किया है, धर्म दैवी शासन की योजना का समर्थन करता है। यह योजना समाज के अनुसरण के लिए एक आदर्श बन जाती है। आदर्श अस्तित्वहीन हो सकता है, इस अर्थ में कि इसकी रचना अभी की जानी है। यद्यपि यह अस्तित्वहीन है, परंतु वास्तवकि है, क्योंकि जैसे प्रत्येक आदर्श में कोई कार्य प्रवण शक्ति निहित होती है, उसी प्रकार इस आदर्श में भी है। जो लोग धर्म के महत्व को नकारते हैं, वे लोग यह बात भूल जाते हैं। इतना ही नहीं, इस आदर्श के पीछे कितनी विराट शक्ति तथा मान्यता होती है, यह बात भी वे समझ नहीं सकते। शायद ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि हमें आदर्श और वास्तविक, दोनों में अंतर दिखाई देता है और ऐसा हमेशा ही होता है, चाहे हमारा आदर्श धार्मिक हो अथवा लौकिक, लेकिन दोनों आदर्शों की तुलनात्मक शक्ति नापने की एक कसौटी है। वह है, मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा को कुचलने की उनकी शक्ति।
आदर्श का संबंध कुछ ऐसी चीजों से होता है, जो दूरवर्ती होती हैं और मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा का संबंध उसके अति समीप के वर्तमान से होता है। अब जब हम दोनों आदर्शों को मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा पर छोड़ देते हैं, तो दोनों में ही स्पष्ट रूप से भिन्नता नजर आती है। धार्मिक आदर्शों की आवश्यकताओं के सामने मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा अपने आप झुक जाती है, चाहे दोनों आदर्श एक-दूसरे के विरोधी हों। दूसरी ओर, यदि दो आदर्शों में संघर्ष होता है, तब मनुष्य की स्वाभाविक अंतःप्रेरणा लौकिक आदर्श के सामने नहीं झुकती। इसका अर्थ है कि धार्मिक आदर्श का बिना किसी ऐच्छिक लाभ की आकांक्षा के मानवता पर अधिकार होता है। यही बात शुद्ध लौकिक आदर्श के बारे में नहीं कही जा सकती।उसका प्रभाव उसके भौतिक लाभ प्राप्त करा देने की शक्ति पर निर्भर होता है। मानव बुद्धि पर इन दोनों आदर्शों को जो प्रभाव और अधिकार है, उसमें कितना अंतर है, यह बात इससे स्पष्ट होती है। जब तक उनमें विश्वास है, धार्मिक आदर्श कभी भी अपने कार्य में असफल नहीं होता। धर्म की उपेक्षा करना सजीव संवेदनाओं की उपेक्षा करना है।
फिर, सभी धर्म सत्य तथा उत्तम हैं, ऐसा विचार करना निश्चित रूप से अनुकरण की दृष्टि से गलत है। हमें यह बात बहुत खेद के साथ कहनी पड़ती है कि यह विचार तुलनात्मक धर्म के अध्ययन से उत्पन्न होता है, परंतु तुलनात्मक धर्म ने मानवता की एक बहुत ही महान सेवा की है। सभी लौकिक धर्मों का यह कहना था कि वे ही केवल उत्तम धर्म हैं। उनका यह अधिकार तथा गर्व इस अध्ययन से भंग हो गया। यद्यपि यह सच है कि तुलनात्मक धर्म के अध्ययन ने केवल अवैचारिक और मठाधीशों के एकाधिकार के आधार सत्य धर्म तथा असत्य धर्म में जो अनियमित तथा संदिग्ध भेद बना हुआ था, उसे निरस्त कर दिया; और दूसरी ओर इसके कारण धर्म के संबंध में झूठी धारणाएँ भी बनीं। इसमें सबसे हानिकारक वह है, जिसका मैंने इसके पूर्व उल्लेख किया है। वह धारणा यह है कि सभी धर्म समान रूप से उत्तम हैं और उनमें कोई भेद करने की आवश्यकता नहीं। इससे बड़ी गलती कोई दूसरी नहीं हो सकती। धर्म एक व्यवस्था तथा शक्ति है और सामाजिक प्रभावों तथा संस्थाओं के समान वह भी अपने प्रभाव में आबद्ध समाज को लाभ अथवा हानि पहुँचाता है। जैसा कि प्रो. टीले (ट्री आफ लाइफ पृ. 5) ने स्पष्ट किया है, धर्म -
“मानव इतिहास का एक अत्यंत शक्तिशाली माध्यम है, जिसने राष्ट्रों का निर्माण तथा विध्वंस किया, साम्राज्यों को एक साथ जोड़ा तो दूसरी ओर विभाजित भी किया है; उसने सबसे नृशंस प्रथाओं तथा अन्यायी कृत्यों को मान्यता दी, सबसे पराक्रमी कार्य, आत्मत्याग और निष्ठा की भावना को प्रेरित किया है; धर्म के कारण एक ओर क्लेश विद्रोह तथा रक्तरंजित युद्ध हुआ, तो दूसरी ओर धर्म के कारण राष्ट्रों में स्वतंत्रता, सुख और शांति भी आई। वह एक स्थान पर जुल्मों का साथ देता है, तो दूसरे स्थान पर गुलामी की जंजीरें तोड़ देता है। कभी एक नई देदीप्यमान सभ्यता का निर्माण करता है, तो कभी-कभी विज्ञान, कला आदि के विकास का सबसे बड़ा शत्रु बनता है।”
धर्म की शक्ति के परिणामों में इतनी विलक्षण विसंगति के बावजूद वह जो रूप धारण करता है तथा जो आदर्श निश्चित करता है, उसे बिना किसी परीक्षण के उत्तम माना जा सकता है। यह इस पर निर्भर करता है कि किसी धर्म के दैवी शासन की योजना के रूप में कौन से सामाजिक आदर्श प्रदान किए हैं। यह एक ऐसा प्रश्न है, जिस पर तुलनात्मक धर्म के विज्ञान ने विचार नहीं किया। वस्तुतः यह एक ऐसा प्रश्न है, जो तुलनात्मक धर्म का जहाँ अंत होता है, वहीं से आरंभ होता है। यद्यपि धर्म अनेक हैं, परंतु वे सभी समान रूप से उत्तम हैं, ऐसा कहकर हिंदू लोग इस प्रश्न का उत्तर टाल रहे हैं, परंतु वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं हैं।
हिंदू समाज हिंदुत्व के दर्शन का परीक्षण करने की बात को कितना भी टालने का प्रयास करे, ऐसे परीक्षण से भाग नहीं सकता। उसे इसका सामना करना ही होगा।
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अब विषय पर आते हैं। हिंदू धर्म के दर्शन के परीक्षण के लिए मैं न्याय की कसौटी तथा उपयुक्तता की कसौटी, इन दोनों कसौटियों को लागू करना चाहूँगा।
प्रथम, न्याय की कसौटी को लागू करूँगा। ऐसा करने से पहले मैं न्याय के तत्व से मेरा क्या अर्थ है, यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा। इसकी व्याख्या प्रो.बर्गबान (ट्री मोरेलिटीज पेज) से अच्छी किसी ने नहीं की है। जैसा कि उन्होंने बताया है, न्याय का सिद्धांत एक सारभूत सिद्धांत है और उसमें लगभग उन सभी सिद्धांतों का समावेश है, जो नैतिक व्यवस्था का आधार बने हैं। न्याय ने सदा ही समानता तथा (कार्य के अनुरूप) 'क्षतिपूर्ति' के सिद्धांत को प्रतिपादित किया है। निष्पक्षता से समानता उभरी है। नियम और नियमन, न्यायपूर्एा और नीतिपरायण, ये मूल्य के रूप में समानता से जुड़े हुए हैं। यदि सभी मनुष्य सामन हैं, तब वे सभी एक समान तत्व के हैं और यह समान तत्व उन्हें समान मौलिक अधिकार तथा समान स्वतंत्रता के योग्य बनाता है।
संक्षेप में न्याय का दूसरा सरल नाम है स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व और हिंदू धर्म को परखने के लिए मैं न्याय का इसी अर्थ में एक कसौटी के रूप में प्रयोग करूँगा (न्याय की एक अन्य व्याख्या के लिए जे.एस. मिल की यूटिलिटेरियनिज्म का संदर्भ देखें।)।
इनमें से कौन से सिद्धांत को हिंदू धर्म मान्य करता है? हम एक-एक प्रश्न का विचार करें।
क्या हिंदू धर्म समानता को स्वीकार करता है?
इस प्रश्न से किसी के भी मन में तुरंत जाति-व्यवस्था का विचार आता है। जाति-व्यवस्था की एक विचित्र विशेषता यह है कि विभिन्न जातियाँ एक समान स्तर पर नहीं खड़ी हैं। यह वह व्यवस्था है, जिसमें विभिन्न जातियों का स्थान एक-दूसरे के ऊपर ऊर्ध्वाकार क्रम में निश्चित किया गया है। कदाचित मनु जाति के निर्माण के लिए जिम्मेदार न हों, परंतु मनु ने वर्ण की पवित्रता का उपदेश दिया है। जैसा कि मैंने इससे पूर्व स्पष्ट किया है, वर्ण-व्यवस्था जाति की जननी है और इस अर्थ में मनु जाति-व्यवस्था का जनक न भी हो, परंतु उसके पूर्वज होने का उस पर निश्चित ही आरोप लगाया जा सकता है। जाति-व्यवस्था के संबंध में मनु का दोष क्या है, इसके बारे में चाहे जो स्थिति हो, परंतु इस बारे में कोई प्रश्न ही नहीं उठता कि श्रेणीकरण और कोटि-निर्धारण का सिद्धांत प्रदान करने के लिए मनु ही जिम्मेदार है।
मनु की इस योजना में ब्राह्मण का स्थान प्रथम श्रेणी पर है। उसके नीचे है क्षत्रिय, क्षत्रिय के नीचे है वैश्य, वैश्य के नीचे है शूद्र और शूद्र के नीचे है अतिशूद्र। क्रमिक श्रेणी की यह व्यवस्था असमानता के सिद्धांत को लागू करने का एक दूसरा सीधा तरीका है, ताकि सही रूप में यह कहा जा सके कि हिंदू धर्म समानता के सिद्धांत को मान्यता नहीं देता। सामाजिक प्रतिष्ठा की यह असमानता राज दरबार के समारोह में चलने वाले दरबार के अधिकारियों की श्रेणी में दिखाई देने वाली असमानता के समान नहीं है। समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा हर समय, हर स्थान पर तथा सभी कार्यों में पालन की जाने वाली सामाजिक संबंधों की यह स्थायीव्यवस्था है, जिस पर सभी अमल करते हैं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी समय लग सकता है कि मनु ने कैसे जीवन की प्रत्येक अवस्था में असमानता के तत्व को लागू किया और उसे जीवन की एक सजीव शक्ति बनाया, परंतु फिर भी मैं गुलामी, विवाह तथा विधि के नियमों जैसे कुछ उदाहरण देकर यह बात स्पष्ट करना चाहूँगा।
मनु ने गुलामी को मान्यता प्रदान की है [मनु ने सात प्रकार के गुलाम बताए हैं (8.415) । नारद ने 15 प्रकार के गुलाम बताए हैं (5.25)]। परंतु उसने उसे शूद्र तक ही सीमित रखा। केवल शूद्रों को ही शेष तीन ऊँचे वर्णों का गुलाम बनाया जा सकता था, परंतु यह ऊँचे वर्ण शूद्रों के गुलाम नहीं हो सकते थे।
परंतु ऐसा प्रमाणित होता है किस व्यवहार में यह व्यवस्था मनु के नियम से भिन्न थी और केवल शूद्र ही गुलाम नहीं होते थे, किंतु अन्य तीन वर्णों के लोग भी गुलाम होते थे। यह स्थिति जब स्पष्ट हो गई, तब नारद नाम के मनु के उत्तराधिकारी ने एक नया नियम बनाया (याज्ञवल्क्य ने भी वैसे नियम बताए हैं (2.183) जो मनु के समान प्रमाणित हैं)। नारद का यह नया नियम निम्न प्रकार है -
5.39. जब कोई मनुष्य अपनी जाति विशेष के कर्तव्यों का उल्लंघन करता है, उसे छोड़कर चार वर्णों पर नीचे से ऊपर उल्टे क्रम में गुलामी लागू नहीं की जा सकती। इस संबंध में यह गुलामी किसी स्त्री की स्थिति के समान है।
गुलामी को मान्यता प्रदान करना बहुत बुरी बात थी, परंतु यदि गुलामी को अपना रास्ता स्वयं निर्धारित करने की आजादी दी जाए, तो उससे कम-से-कम एक लाभकारी प्रभाव होता है। कदाचित वह सभी को एक समान स्तर पर लाने की शक्ति बन जाति-व्यवस्था की नींव को नष्ट कर देती, क्योंकि शायद उसके अंतर्गत ब्राह्मण किसी अछूत का गुलाम और अछूत किसी ब्राह्मण का मालिक बन सकता था, परंतु जब यह स्पष्ट हो गया कि अनुबंधित गुलामी उसी जैसा सिद्धांत है, तब उसे ही विफल करने के प्रयास किए गए। इसलिए मनु और उसके उत्तराधिकारियों ने गुलामी को मान्यता प्रदान करते हुए इस बात का भी आदेश दिया कि उसे वर्ण-व्यवस्था के उलट क्रम से लागू नहीं किया जाए। इसका मतलब है, एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का गुलाम बन सकता है, परंतु वह किसी दूसरे वर्ण का? जैसे क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा अतिशूद्र का गुलाम नहीं हो सकता, परंतु दूसरी ओर एक ब्राह्मण इन चार वर्णों के किसी भी व्यक्ति को गुलाम बना सकता है, परंतु उस व्यक्ति को नहीं, जो ब्राह्मण है। एक वैश्य किसी वैश्य, शूद्र तथा अतिशूद्र को गुलाम बना सकता है, नीचे मनु के विभिन्न वर्णों के अंतर्जातीय विवाह के नियम दिए गए हैं। मनु कहता है -
3.12 द्विजों की पहली शादी के लिए उसकी जाति की स्त्री की ही संस्तुति की जाती है, परंतु ऐसे लोगों के लिए, जिन्हें किसी कारण से पुनर्विवाह करना हो, उनके वर्णों के सीधे नीचे वर्ण की स्त्रियों को वरीयता दी जाती है।
3.13 एक शूद्र स्त्री केवल शूद्र की पत्नी बन सकती है; शूद्रा तथा वैश्य स्त्री एक वैश्य की पत्नी बन सकती है; वे दोनों तथा क्षत्रिय स्त्री एक क्षत्रिय की पत्नी बन सकती हैं; वे तीनों तथा ब्राह्मणी, ब्राह्मण की पत्नियां बन सकती हैं।
` मनु अंतर्जातीय विवाह का विरोधी है। उसका कहना है कि प्रत्येक वर्ण अपने वर्ण में ही विवाह करे, परंतु उसकी निश्चित वर्ण के बाहर के विवाह को मान्यता थी, फिर यहाँ वह इस बात के लिए विशेष रूप से सचेत था कि अंतर्जातीय विवाह के उसके वर्णों की असमानता के सिद्धांत को हानि न पहुँच सके। गुलामी के समान वह अंतर्जातीय विवाह को अनुमति देता है, परंतु उलट क्रम से नहीं। एक ब्राह्मण जब अपने वर्ण के बाहर विवाह करना चाहे, तब उसके नीचे के किसी वर्ण के साथ विवाह कर सकता है। एक क्षत्रिय उसके नीचे के दो वर्णों, वैश्य और शूद्र स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, परंतु किसी ब्राह्मण स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता, जो उससे ऊँचा वर्ण है। एक वैश्य किसी शूद्र वर्ण की स्त्री के साथ विवाह कर सकता है, जो सीधे उससे नीचे है, परंतु वह ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ण की स्त्री के साथ विवाह नहीं कर सकता।
यह भेदभाव क्यों? इसका केवल एक ही उत्तर है कि मनु असमानता के नियम को बनाए रखने के लिए अत्यधिक उत्सुक था।
हम विधि के नियम को ही लें। विधि के नियम का सर्वसाधारण अर्थ यही समझा जाता है कि कानून के सामने सभी समान हैं। इस विषय पर मनु का क्या कहना है, यह बात जो कोई जानना चाहता हो, वह उसकी आचार-संहिता के निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत किया है।
गवाही देने के लिए-मनु के अनुसार उसे निम्न प्रकार से शपथ दी जाए -
8.87 - शुद्ध हृदय न्यायकर्ता शुद्ध तथा सत्य वक्ता द्विज को कई बार पुकारेगा कि वह किसी देवता की प्रतिमा या ब्राह्मण की प्रतीक प्रतिमा के समक्ष पूर्व या उत्तर की ओर मुख कर खड़े होके पूर्वाह्न में अपनी गवाही दे।
8.88 - न्यायाधीश ब्राह्मण से 'कहो' क्षत्रिय से 'सत्य कहो' वैश्य से 'गो बीज' और स्वर्ण की चोरी के पाप की 'झूठी गवाही' से तुलना करते हुए तथा शूद्र से उन सभी पापों, जो मनुष्य कर सकता है, के दोषों की झूठी गवाही से तुलना करते हुए गवाही देने को कहेगा।
8.113. न्यायाधीश पुरोहित को उसके सत्य वचन की, क्षत्रिय को उसके घोड़ा, हाथी अथवा शत्र की, वैश्य को उसकी गाय, अनाजै, आभूषणों की, शूद्र को उसके सिर पर हाथ रखकर, यदि वह झूठ बोला तो उसे सब पाप लगे, कहकर शपथ दे।
मनु झूठी गवाही देने वाले मामलों पर भी विचार करता है। उसके अनुसार झूठी गवाही देना अपराध है। वह कहता है -
8.122. न्याय की विफलता को रोकने के लिए तथा दुराचार को रोकने के लिए बुद्धिमान मनुष्यों ने झूठी गवाही देने वालों के लिए कुछ दंड बतलाए हैं, जिनकी आज्ञा ऋषि विधायकों ने दी हैं।
8.123. निम्न वर्णों को न्यायी राजा झूठी गवाही देने के लिए पहले जुर्माना लेकर उन्हें राज्य की सीमा त्याग देने को कहे, परंतु ब्राह्मण को केवल राज्य की सीमा त्यागने को कहे, किंतु मनु ने एक अपवाद स्थापित किया -
8.112. तथापि किसी स्त्री से प्रेम व्यक्त करते समय, विवाह के प्रस्ताव के समय, किसी गाय द्वारा घास अथवा फल खाते समय, यज्ञ के लिए लकड़ी ले जाते समय अथवा ब्राह्मण की रक्षा का वचन देते समय हल्की शपथ लेना घोर पाप है।
अपराधों के मसले चलाने के लिए-उनकी स्थिति मनु के अध्यादेशों को जानने से स्पष्ट होती है, जिनका संबंध कुछ महत्त्वपूर्ण अपराधों से है। मानहानि के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.267. यदि कोई क्षत्रिय किसी पुरोहित की मानहानि करता है तो उस पर सौ पण का जुर्माना किया जाएगा। यदि कोई वैश्य किसी पुरोहित की मानहानि करता है तो उस पर एक सौ पचास या दो सौ पण का जुर्माना किया जाएगा, लेकिन ऐसे किसी अपराध के लिए किसी शिल्पी या दास व्यक्ति को कोड़े लगाए जाएँगे।
8.268. यदि कोई पुरोहित किसी क्षत्रिय की मानहानि करे तो उस पर पचास पण का जुर्माना किया जाएगा, यदि वह किसी वैश्य की मानहानि करता है तो उस पर पच्चीस पण का जुर्माना किया जाएगा तथा दास वर्ग के किसी व्यक्ति की भर्त्सना करने पर बारह पण का जुर्माना किया जाएगा।
8.270. यदि कोई शूद्र व्यक्ति किसी द्विज की घोर भर्त्सना करता है तो उसकी जीभ को काट दिया जाए, क्योंकि उसने ब्रह्मा के निम्नतम भाग से जन्म लिया है।
8.271. यदि शूद्र उनके नामों तथा वर्णों का अपमानपूर्ण तरीके से उल्लेख करता है, मानो वह कहता है, अरे देवदत्त, तू ब्राह्मण नहीं है, तो दस अंगुल लंबी लोहे की गर्म सलाख उसके मुँह में डाली जाएगी।
8.272. यदि शूद्र घमंडपूर्वक पुरोहितों को उनके कर्तव्यों के लिए निर्देश देता है, तो राजा उसके मुँह तथा कान में गर्म तेल डालने का आदेश देगा।
गाली देने के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.276. यदि कोई पुरोहित तथा क्षत्रिय आपस में गाली-गलौज करते हैं, तो इस संबंध में जुर्माना विद्वान राजा द्वारा किया जाएगा और वह दंड या जुर्माना पुरोहित पर सबसे कम तथा क्षत्रिय पर उससे अधिक किया जाएगा।
8.277. उपरोक्त अपराध यदि कोई वैश्य-शूद्र करते हैं, तब उन्हें जबान काटने की सजा छोड़कर शेष सभी प्रकार का दंड उनकी जाति के अनुसार दिए जाए, दंड का यह निर्धारित नियम है।
प्रहार या मारपीट के अपराध के लिए मनु कहते हैं -
8.279. जिस अंग द्वारा नीच जाति व्यक्ति ऊँची जाति के व्यक्ति पर हमला करेगा या उसे चोट पहुँचाएगा, उसका वह अंग काट लिया जाएगा। यह मनु का अध्यादेश है।
8.280. जिसने दूसरे पर हाथ उठाया हो अथवा डंडा उठाया हो, तो उसका हाथ काट दिया जाए और जो क्रोध में आकर किसी के लात मारता है, उसका पैर काट दिया जाए।
अहंकार के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.281. नीच जाति का कोई व्यक्ति यदि उच्च जाति के व्यक्ति के साथ उसकी स्थान पर अभद्रता के साथ बैठेगा, तो उसके कूल्हे को दाग दिया जाएगा तथा देश-निकाला दे दिया जाएगा या राजा उसके नितंब पर गहरा घाव करवा देगा।
8.282. यदि वह घमंड के साथ उस पर थूकता है, तो राजा उसके दोनों होंठों को; यदि वह उस पर पेशाब करता है तो उसके लिंग को; यदि वह अपनी वायु छोड़े तो उसकी गुदा को कटवा देगा।
8.283. यदि वह ब्राह्मण को बालों से पकड़ता है या इसी तरह यदि वह उसका पैर या गला या अंडकोश पकड़कर खींचता है तो राजा बिना किसी हिचक या संकोच के उसके हाथों को कटवा दे।
व्यभिचार के अपराध के लिए मनु कहता है -
8.359. यदि कोई शूद्र किसी पुरोहित की पत्नी के साथ वास्तव में व्यभिचार करता है, तो उसे मृत्यु-दंड मिलना चाहिए; पत्नियों के मामले में सभी चारों वर्णों की स्त्रियों की विशेष रूप से रक्षा की जानी चाहिए।
8.366. यदि कोई शूद्र किसी उच्च जाति की युवति से प्यार करता है, तो उसे मृत्यु-दंड मिलना चाहिए; परंतु यदि वह कोई समान वर्ग की कन्या से प्यार करता है, तो उसे कन्या से शादी करनी होगी, बशर्ते उस कन्या का पिता इसके लिए इच्छुक हो।
8.374. यदि कोई शूद्र किसी द्विज स्त्री के साथ संभोग करता है, चाहे वह स्त्री घर पर रक्षित है अथवा अरक्षित, उसे उसी प्रकार दंड दिया जाएगा। यदि स्त्री अरक्षित है तो अपराधी के लिंग को कटवाकर तथा उसकी संपत्ति को जब्त कर दंडित किया जाए। यदि वह रक्षित है तो अपराधी की संपत्ति को जब्त कर उसे प्राणदंड दिया जाए।
8.375. रक्षित ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करने पर वैश्य एक वर्ष की सजा के बाद अपनी समस्त धन-संपत्ति खो देगा, क्षत्रिय पर एक हजार पण जुर्माना किया जाएगा और गधे के मूत्र से उसका मुंडन किया जाएगा।
8.376. लेकिन यदि कोई वैश्य या क्षत्रिय किसी अरक्षित ब्राह्मणी के साथ व्यभिचार करता है तो राजा वैश्य पर पाँच सौ पण तथा क्षत्रिय पर एक हजार पण का केवल जुर्माना करेगा।
8.377. लेकिन यदि ये दोनों किसी न केवल रक्षित पुरोहितानी वरन् किसी गुणवती के साथ व्यभिचार करते हैं, तो वे शूद्रों के समान दंडनीय हैं अथवा तृणाग्नि में जलाने के योग्य हैं।
8.382. यदि कोई वैश्य किसी रक्षित क्षत्रिय स्त्री के साथ या कोई क्षत्रिय किसी रक्षित वैश्य स्त्री के साथ व्यभिचार करता है तो उन दोनों को वही दंड दिया जाएगा जो अरक्षित पुरोहितानी के मामले में दिया जाता है।
8.383. लेकिन यदि कोई ब्राह्मण इन दोनों वर्णों की किसी रक्षित स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तो उस पर एक हजार पण का जुर्माना किया जाना चाहिए और रक्षित शूद्र स्त्री के साथ व्यभिचार करने पर क्षत्रिय या वैश्य पर भी एक हजार पण का जुर्माना किया जाना चाहिए।
8.384. यदि कोई वैश्य किसी रक्षित क्षत्रिय स्त्री के साथ व्यभिचार करता है तो जुर्माना पाँच सौ पण होगा, लेकिन यदि कोई क्षत्रिय किसी वैश्य स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तो उसका सिर मूत्र में मुंड़वा देना चाहिए या उल्लिखित जुर्माना लेना चाहिए।
8.385. यदि पुरोहित किसी क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र अरक्षित स्त्री के साथ व्यभिचार करता है, तो उसे पाँच सौ पण का दंड दिया जाना चाहिए और किसी नीच वर्ण संकर जाति की स्त्री के साथ संबंधों के लिए उसे एक हजार पण का दंड देना होगा।
अपराधों के लिए सजा देने की पद्धति पर विचार करने पर मनु की योजना इस विषय पर बहुत ही मनोरंजक प्रकाश डालती है। निम्नलिखित अध्यादेशों पर विचार करें -
8.379. पुरोहित वर्ग के व्यभिचारी को प्राण-दंड देने की बजाय उसका अपकीर्तिकर मुंडन करा देना चाहिए तथा इसी अपराध के लिए अन्य वर्गों को मृत्यु दंड तक दिया जाए।
8.380. राजा समस्त पाप करने वाले ब्राह्मण का भी वध कभी न करे, किंतु संपूर्ण धन के साथ अक्षत उसे राज्य से निर्वासित कर दे।
11.126. क्षत्रिय वर्ग के किसी सदाचारी मनुष्य की जानबूझ कर हत्या करने पर किसी ब्राह्मण की हत्या के लिए जो दंड दिया जाता है, उसका एक चौथाई दंड होगा। वैश्य की हत्या के लिए उसका आठवाँ भाग और शूद्र की हत्या के लिए, जो निरंतर अपने कर्तव्य का पालन करता है, उसका सोलहवाँ भाग।
11.127. बिना द्वेष-भाव के यदि ब्राह्मण किसी क्षत्रिय की हत्या कर देता है, तो उसे उसके धार्मिक संस्कारों को करने के बाद पुरोहित को एक बैल और एक हजार गाय देनी चाहिए।
11.128. अथवा संयमी तथा जटाधारी होकर ग्राम से अधिक दूर पेड़ के नीचे निवास करता हुआ तीन वर्ष तक ब्रह्म-हत्या के प्रायश्चित को करे।
11.129. सदाचारी वैश्य का बिना कारण वध करने वाला ब्राह्मण इसी प्रायश्चित को एक साल तक करे अथवा एक बैल के साथ सौ गायों को पुरोहित को दे।
11.130. बिना इरादे के शूद्र का वध करने वाला ब्राह्मण छह मास तक इसी व्रत को करे अथवा एक बैल और दस सफेद गाएँ पुरोहित को दे।
8.381. ब्राह्मण-वध के समान पृथ्वी पर दूसरा कोई बड़ा पाप नहीं है, अतएव राजा मन से भी कभी ब्राह्मण का वध करने का विचार न करे।
8.126. एक ही प्रकार के बार-बार होने वाले अपराधों पर विचार करते हुए और उसका स्थान तथा समय निश्चित करते हुए अपराधी को दंड देने की अथवा सजा भुगतने की पात्रता को देखते हुए राजा को केवल उन लोगों की ही सजा देनी चाहिए, जो उसके लिए पात्र हैं।
8.124. ब्रह्मा के पुत्र मनु ने तीन कनिष्ठ वर्गों के विषय में दंड के दस स्थानो को कहा है और ब्राह्मण को पीड़ारहित अर्थात बिना किसी प्रकार दंडित किए केवल राज्य से निकाल दिया जाता है।
8.125. जनेंद्रिय का एक भाग पेट, जबान, दो हाथ और पाँचवाँ दो पाँव, आँखें, नाक, दोनों कान, संपत्ति और मृत्यु-दंड के लिए संपूर्ण शरीर सजा के स्थान हैं।
हिंदू तथा गैर-हिंदू आपराधिक न्याय-शास्त्र में कितना विलक्षण अंतर है? अपराध के लिए दंड देते हुए हिंदू धर्म-शास्त्रों में कितनी विशाल असमानता लिखी गई है? न्यायदान की भावना-भरे कानून में हमें दो बाते मिलती हैं। एक भाग, जिसमें अपराध की व्याख्या तथा उसे भंग करने वाले को न्यायोचित दंड देने की व्यवस्था है और दूसरा, वह नियम कि एक ही प्रकार का अपराध करने वाले को एक समान दंड होगा, परंतु हम मनु में क्या देखते हैं? पहला, अविवेकी दंड देने की पद्धति। मनुष्य के शरीर के अवयवों जैसे पेट, जबान, नाक, आँखें, कान, जनेंद्रिय आदि को एक स्वतंत्र व्यक्तित्व मानकर तथा यह कहकर कि वे आज्ञा पालन नहीं करते, अपराध के लिए इन अवयवों को काटने की सजा दी जाती है, मानों वे अपराध में शामिल हों। मनु के अपराध कानून की दूसरी विशेषता है - सजा देने का अमानवीय स्वरूप, जिसका अपराध की गंभीरता से कोई संबंध नहीं है, परंतु इन सबसे अधिक मनु के कानून की विलक्षण विशेषता, जो पूर्ण रूप से नग्न होकर उभरती है, वह है एक अपराध के लिए सजा देने में असमानता। यह असमानता केवल अपराधी को सजा देने के लिए ही तैयार हीं की गई है, परंतु जो लोग न्याय प्राप्त करने के लिए न्याय-मंदिरों में जाते हैं, उनके अस्तित्व तथा प्रतिष्ठा की रक्षा करने के लिए भी उसका निर्माण किया गया है। दूसरे शब्दों में, सामाजिक असमानता, जिस पर इसकी संपूर्ण योजना स्थित है, उसे बनाए रखने के लिए कानूनों का निर्माण किया गया है।
अब तक मैंने केवल ऐसे उदाहरण ही लिए हें, जो यह दर्शाते हैं कि मनु ने किस प्रकार से सामाजिक असमानता बनाने और उसे जारी रखने की मदद की, परंतु अब मैं मनु द्वारा प्रयुक्त किए गए ऐसे मसले उठाना चाहूँगा, जो यह स्पष्ट करते हैं कि मनु ने धार्मिक असमानता का निर्माण भी किया। यह ऐसे मसले हैं, जिनका संबंध उन बातों से है, जिसे आश्रम तथा धर्म-विधि (संस्कार) कहा जाता है।
हिंदुओं का ईसाइयों की तरह धर्म-संस्कारों पर विश्वास है। उनमें केवल एक ही अंतर है कि हिंदुओं में इतने अधिक धर्म-संस्कार हैं कि उनकी संख्या देखकर रोमन कैथेलिक ईसाई भी आश्चर्यचकित हो जाएँगे। आरंभ में इन धार्मिक विधियों की संख्या केवल 40 थी और उनका मनुष्य के जीवन के महत्त्वपूर्ण प्रसंगों से लेकर, छोटी-छोटी बातों से संबंध था। पहले उनकी संख्या बीस तक कम की गई। बाद में घटाकर सोलह कर दी गई और उस संख्या पर हिंदुओं के धर्म-संस्कार स्थिर हो गए हैं।
इन धार्मिक संस्कारों के मूल में असमानता की भावना किसी हद तक अभिव्यक्त हुई है, इस बात को स्पष्ट करने से पूर्व पाठकों को इस बात का ज्ञान अवश्य होना चाहिए कि यह नियम क्या हैं। सभी नियमों का परीक्षण करना असंभव है, उनमें से कुछ नियमों को जानना ही पर्याप्त होगा। मैं केवल तीन प्रकार के नियमों का ही उल्लेख करूँगा, जिनका संबंध दीक्षा, गायत्री तथा दैनिक हवन से है।
पहले दीक्षा-संस्कार को देखते हैं। किसी व्यक्ति का पवित्र धागे से अभिषेक (जनेऊ पहनाना) कर दीक्षा-संस्कार संपन्न किया जाता है। इस अभिषेक-संस्कार के मनु के कुछ महत्त्वपूर्ण नियम हैं -
2.36. जन्म के बाद ब्राह्मण पिता को आठवें वर्ष में, क्षत्रिय पिता को ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य पिता को बारहवें वर्ष में अपने पुत्र को उसके वर्ग-प्रतीक का अभिषेक करना चाहिए।
2.37. ब्राह्मण अपने बालक के ज्ञानवर्धन के लिए पाँचवें वर्ष में, क्षत्रिय अपने बालक का पराक्रम बढ़ाने के लिए छठे वर्ष में और वैश्य अपने बालक के धन-धान्य की समृद्धि के लिए आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार कराए।
2.38. ब्राह्मण की सोलह वर्ष, क्षत्रिय की बाईस और वैश्य की चौबीस वर्ष की अवस्था होने से पहले गायत्री मंत्र द्वारा उपनयन कराना चाहिए।
2.39. इसके बाद, इन तीनों वर्णों के सभी युवक, जिनका उचित समय पर अभिषेक न हुआ हो, जाति से बहिष्कृत बन जाते हैं, उनका गायत्री से पतन होता है और गुणवान लोग उनकी निंदा करते हैं और वे ब्रात्य कहलाते हैं।
2.147. मनुष्य को विचार करना चाहिए कि उसके माता-पिता ने अपनी परस्पर संतुष्टि के लिए उसे जो जन्म दिया है और जो वह अपनी माँ के गर्भ से प्राप्त करता है, वह केवल मानव-जन्म है।
2.148. परंतु संपूर्ण वेदों का ज्ञानी आचार्य जिस बालक को विधि पूर्वक उसकी दैवी माता सावित्री से उत्पन्न करता है, वह बालक सत्य, अजर और अमर है।
2.169. पहला जन्म नैसर्गिक माता से, दूसरा जनम अपनी परिधि के बंधन से और तीसरा जन्म यज्ञ-संस्कारों के उचित पालन से होता है। वेदों के अनुसार, जिसे सामान्य रूप से द्विज कहा गया है, उनके ऐसे जन्म होते हैं।
2.170. इनमें से उसका दैवी जन्म वह है, जो परिधि के बंधन से तथा यज्ञ के धागे (जनेऊ) से होता है और इस जन्म से उसकी माता गायत्री होती है और पिता आचार्य होता है।
अब हम गायत्री को देखते हैं। वह एक मंत्र अथवा एक विशेष आध्यात्मिक शक्ति की प्रार्थना है। मनु ने इसका इस प्रकार स्पष्टीकरण किया है।
2.76. ब्रह्मा ने एक पटक आदि तीनों वेदों से, 'अ', 'उ' तथा 'म' यह तीन अक्षर पिरोकर निकाले, जिनके मिश्रण से तीन अर्थ एक ही पद्यांश के तीन गूढ़ शब्द भूः, भुवः, स्वः बन गए, जिनका अर्थ है, पृथ्वी, आकाश, स्वर्ग।
2.77. प्राणियों के स्वामी ने तीनों वेदों से, अचिंत्य रूप में, एक के बाद एक तीन अवर्णनीय शब्द उन्नत किए, जो तत् शब्द से शुरू होते थे और उन्हें सावित्री अथवा गायत्री शीर्षक दिया गया।
2.78. जो पुरोहित, वेद जानता है और उसका सुबह-शाम पठन करता है तथा उस पवित्र पाठ के पहले उन तीन शब्दों का उच्चारण करता है, उसे वेदों में निहित पुण्य प्राप्त होगा।
2.79. और एक द्विज व्यक्ति, जो इन तीनों (अथवा ओम, व्याहृति एवं गायत्री) का एक हजार बार उच्चारण करेगा, उसे एक माह के भीतर उसी प्रकार घोर अपराध से मुक्ति मिलेगी, जिस प्रकार सांप केंचुली से मुक्त होता है।
2.80. पुरोहित, क्षत्रिय तथा वैश्य, जो भी इन गूढ़ पाठों की उपेक्षा करेगा, और उचित समय पर अपनी विशेष धार्मिक विधि नहीं करेगा, उसे सदाचारी लोग निंदनीय मानेंगे।
2.81. महान अपरिवर्तनीय शब्दों के पहले उन तीन अर्थों अक्षरों को और उसे बाद गायत्री को, जिससे त्रिपदा बनती है, वेदों का मुख अथवा मुख्य भाग माना जाना चाहिए।
2.82. जो कोई भी प्रतिदिन, तीन वर्षों तक, बिना उपेक्षा किए उन पवित्र पाठों का पठन करेगा, उसे दैवी सार प्राप्त होगा और वह वायु की तरह मुक्त संचार कर सकेगा तथा उसे आकाश का रूप प्राप्त होगा।
2.83. तीन अक्षरों का वह पद उस सर्वश्रेष्ठ का प्रतीक है। श्वास रोककर ईश्वर पर मन केंद्रित करना, यह सर्वोच्च भक्ति है, परंतु गायत्री से बढ़कर श्रेष्ठ कुछ भी नहीं। सत्य को घोषित करना मौन को धारण करने से श्रेष्ठ है।
2.84. वेदों में निहित सभी संस्कार अग्नि की आहुति और पवित्र त्याग में समाप्त होते हैा, परंतु जो अमर्त्य है, वह अक्षर ओ3म है, क्योंकि वह ईश्वर का प्रतीक है और जो प्रजापति है।
2.85. उस पवित्र नाम का स्मरण करना या दोहराना किसी यज्ञ करने से दस गुना श्रेष्ठ है और जब यह नाम स्मरण कोई दूसरा व्यक्ति नहीं सुनता हो, तब यही कार्य सौ गुना श्रेष्ठ बन जाता है और जब इस नाम का मन-ही-मन में मानसिक रूप से स्मरण किया जाए, तब वह एक हजार गुना श्रेष्ठ होता है।
2.86. विधि यज्ञों के सहित भी जो चार पाक-यज्ञ हैं, वे भी जप-यज्ञ के सोलहवें भाग के बराबर नहीं हैं।
अब दैनिक यज्ञ-संस्कार देखें।
3.69. अनजाने में किए गए अपराधों का प्रायश्चित करने के लिए विद्वान ऋषियों ने प्रतिदिन घर में करने के लिए पाँच महायज्ञ बताए हैं।
3.70. धर्म-शास्त्रों का अध्ययन और अध्यापन वेदों के अनुसार यज्ञ है। अन्न और जल अर्पण करना पितृ यज्ञ है। अग्नि को आहुति देना देवों के लिए यज्ञ है। सजीव प्राणी मात्र को चावल अथवा अन्य भोजन देना भूत यज्ञ है और अतिथि का आदर-सत्कार करना यज्ञ है।
3.71. इन पंचमहायज्ञों को यथाशक्ति नहीं छोड़ने वाला बाबा ग्रहस्थाश्रम में रहता हुआ भी द्विज पँचसूना (पाँच पापों) के दोष से निष्कलंक रहता हैं।
अब हम आश्रम-प्रथा को देखें। आश्रम-सिद्धांत हिंदुत्व की एक खास विशेषता है। दूसरे किसी भी अन्य धर्म की शिक्षाओं में इस सिद्धांत ने कोई स्थान पाया हो, ऐसा प्रतीत नहीं होता। आश्रम-सिद्धांत के अनुसार, जीवन को चार अवस्थाओं में विभाजित किया गया है। ये चार अवस्थाएँ हैं - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। ब्रह्मचर्य अवस्था में मनुष्य अविवाहित होता है और अपना सब समय शिक्षा तथा अध्ययन में व्यतीत करता है। इस अवस्था के समाप्त होने के बाद वह गृहस्थ में प्रवेश करता है अर्थात वह विवाह करता है, परिवार का पालन-पोषण करता है और भौतिक सुखों की ओर ध्यान देता है। उसके बाद वह तीसरी अवस्था में प्रवेश करता है और वानप्रस्थ कहलाता है। वानप्रस्थी के रूप में वह जंगल में जाकर साधु के रूप में जीवन व्यतीत करता है, परंतु वह अपने परिवार से संबंध विच्छेद नहीं करता अथवा संपत्ति से अपना अधिकार भी नहीं त्यागता। उसके बाद चौथी और अंतिम अवस्था आती है। वह है संन्यास की अवस्था, जिसका मतलब है कि ईश्वर की खोज में संसार का संपूर्ण त्याग करना। ब्रह्मचारी और गृहस्थ अवस्थाएँ एक प्रकार से स्वाभाविक अवस्थाएँ हैं। अंतिम दो अवस्थाओं के बारे में केवल सिफारिश की जाती है। उसके बारे में कोई बंधन नहीं है। इस संबंध में मनु ने जो कुछ कहा है, वह निम्न प्रकार है -
6.1 द्विज व्यक्ति, जो नियमानुसार गृहस्थ का जीवन व्यतीत कर चुका है, दृढ़ संकल्प करते हुए तथा अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण करते हुए जंगल में जाकर (नीचे दिए गए नियमों का पालन करते हुए) रह सकता है।
6.2 जब एक गृहस्थी देखे कि उसकी त्वचा झुर्रियों से भरने लगी है। उसके बाल सफेद होने लग जाएँ और वह अपने पुत्रों के पुत्र देख ले, तब उसे जंगल में जाकर रहना चाहिए।
6.3 काश्तकारी से उत्पन्न अन्न का त्याग करते हुए, अपनी सभी वस्तुओं का त्याग करते हुए तथा अपनी पत्नी को पुत्रों के उत्तरदायित्व में सौंपकर अथवा उसे साथ लेकर वह जंगल में चला जाए।
6.33 परंतु इस प्रकार अपने नैसर्गिक जीवन का तीसरा भाग जंगल में गुजार कर अपने जीवन के चौथे हिस्से में सभी सांसारिक संबंधों का त्याग करते हुए वह साधु के रूप में जीवन व्यतीत करे।
इन नियमों में सम्मिलित असमानता यद्यपि पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं है, परंतु यह वास्तविक है। हम यह देख सकते हैं क यह सभी संस्कार और आश्रम-व्यवस्था केवल द्विज-जन्में लोगों तक ही सीमित है। शूद्रों को इनसे वंचित रखा गया है। यद्यपि मनु को उनके समारोह मनाने में कोई आपत्ति नहीं हैं, परंतु उसे अपने समारोह में उनके द्वारा पवित्र मंत्रों का प्रयोग करने पर आपत्ति है। इस विषय पर मनु ने कहा है -
10.127. वे शुद्र, जो अपने संपूर्ण कर्तव्य निभाने को उत्सुक हैं और जानते हैं कि उन्हें निभाना चाहिए, वे अपने पारिवारिक, धार्मिक संस्कारों में उत्तम लोगों का अनुसरण कर सकते हैं, परंतु पवित्र मंत्रों का पाठ किए बिना। केवल उन मंत्रों का उपयोग करें, जिसमें नमस्कार तथा स्तुति का समावेश है, जिसमें उन्हें केवल प्रशंसा मिल सके, परंतु उनके द्वारा कोई पाप न हो।
स्त्रियों के लिए निम्नलिखित मंत्र को देखें -
2.66 यज्ञोपवीत-संस्कार को छोड़कर स्त्रियों को बाकी समारोह-क्रियाएँ अपनी आयु तथा क्रम से वेद-पाठ किए बिना करनी चाहिए, जिससे उनका शरीर परिपूर्ण बन सके।
मनु ने शूद्रों को धार्मिक संस्कार-विधियों के लाभ से वंचित क्यों रखा? शूद्रों को संन्यासी बनने के लिए उसने जो निषेध किया है, यह बात भ्रमित करने वाली है। संन्यास का मतलब है कि आत्म-त्याग और सभी सांसरिक सुखों का परित्याग। कानून की भाषा में संन्यास का अर्थ एक प्रकार से नागरिक जीवन की मृत्यु के समान होता है। इस तरह जब मनुष्य संन्यासी बन जाता है, उसी क्षण से उसे मृत मानकर उसका वारिस तुरंत उसके स्थान पर विराजमान होता है। अगर कोई शूद्र संन्यासी बन जाए, तब उसके साथ भी यही स्थिति हो सकती है। ऐसी स्थिति से उस शूद्र को छोड़कर और किसी का कोई नुकसान नहीं हो सकता। फिर यह रोक क्यों? यह एक महत्त्वपूर्ण विषय है और धार्मिक-विधि तथा संन्यास का महत्व तथा अर्थ स्पष्ट करने के लिए मैं मनु को ही यहाँ उद्धृत करना चाहूँगा। मनु के निम्नलिखित श्लोकों पर हम विचार करें -
2.26. द्विज-जन्में मनुष्य को वेदों द्वारा निर्देशित गर्भ-धारण समारोह तथा धार्मिक संस्कार करने चाहिए, जिसके कारण उसका शरीर इस जन्म में तथा मृत्यु के बाद पवित्र बन जाता है और पाप से मुक्त हो जाता है।
2.28. वेदों के अध्ययन से, प्रतिज्ञाओं से आहुति चढ़ाकर पवित्र पाठों के उच्चारण से, तीनों वेदों के उपार्जन से, देव-ऋषि तथा पितरों को तर्पण देकर, पुत्रों को जन्म देकर, महान यज्ञ करके तथा धार्मिक संस्कारों द्वारा इस मानव शरीर को ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बनाया जाता है।
यह संस्कारों का ध्येय तथा उद्देश्य है। मनु ने संन्यास का भी ध्येय तथा उद्देश्य स्पष्ट किया है -
6.81. इस प्रकार से, धीरे-धीरे, जो सभी संबंधों का त्याग करता है तथा सभी द्वंद्वों से मुक्त होता है, वही केवल ब्रह्म में लीन होता है।
6.85. एक द्विज-जन्मा व्यक्ति, जो लगातार उपरोक्त कर्तव्यों का पालन करते हुए संन्यास लेता है, वह इस धरती पर सभी पापों से मुक्त हो जाता है और श्रेष्ठ ब्रह्म पद को प्राप्त होता है।
इन श्लोकों से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि स्वयं मनु के अनुसार धार्मिक संस्कारों का उद्देश्य शरीर को पवित्र बनाना तथा पाप से इस जीवन में तथा उसके बाद के जीवन में मुक्ति पाना और अपने आपको ईश्वर के साथ मिलन के योग्य बनाना है। मनु के अनुसार, संन्यास का उद्देश्य ईश्वर तक पहुँचना और उसमें विलीन हो जाना है और फिर भी मनु कहता है कि धार्मिक विधि का संन्यास केवल उच्च वर्गों का ही अधिकार है। वह शूद्रों के लिए उन्मुक्त नहीं। क्या? शूद्र के लिए अपना शरीर पवित्र बनाना तथा अपनी आत्मा को शुद्ध बनाना आवश्यक नहीं है? क्या शूद्र ईश्वर तक पहुँचने की अभिलाषा नहीं रख सकता? कदाचित मनु ने इसका उत्तर 'हां' में दिया होगा। तब उसने ऐसे नियम क्यों बनाए? इसका उत्तर यह है कि मनु सामाजिक असमानता में कट्टर विश्वास रखता था और वह धार्मिक समानता को स्वीकार करने के खतरे को जानता था। यदि मैं ईश्वर के सामने हूँ, तब इस धरती पर समान क्यों नहीं बन सकता? मनु-शायद इस प्रयत्न से भयभीत था। इसकी स्वीकृति देने और सामाजिक असमानता को समाप्त करने के लिए धार्मिक समानता की अनुमति देने की बजाय उसने धार्मिक समानता को नकारना ही अधिक पसंद किया।
इस तरह से आपको हिंदुत्व के दर्शन में सामाजिक तथा धाम्रिक असमानता दोनों का समावेश मिलेगा।
मनुष्य को अपने पापों से मुक्त होने के प्रयास को रोकना! मनुष्य को ईश्वर के समीप आने पर रोक! किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति को ऐसे नियम घृणित और विकृत मस्तिष्क की निशानी लगने चाहिए। हिंदू धर्म केवल समानता को ही नकारता है, ऐसा नहीं है, परंतु वह मानव व्यक्तित्व की पवित्रता को ही नकारता है। यह इसका एक चकित कर देने वाला उदाहरण है।
बात यहीं समाप्त नहीं होती, क्योंकि मनु केवल मानव-व्यक्तित्व को अमान्य करने पर ही नहीं रुका। उसने जानबूझ कर मानव-व्यक्तित्व का अधःपतन किया। हिंदुत्व के दर्शन के इस पहलू को स्पष्ट करने के लिए मैं केवल दो उदाहरण देता हूँ।
जो लोग जाति-व्यवस्था का अध्ययन करते हैं, वे उसकी जाति उत्पत्ति के बारे में पूछताछ करें, यह स्वाभाविक है। जाति-व्यवस्था का जनक होने के कारण विभिन्न जातियों की उत्पत्ति के लिए मनु को स्पष्टीकरण देना होगा। मनु ने उसकी उत्पत्ति क्या बताई है? उसका स्पष्टीकरण सरल है। वह कहता है कि मूल चार वर्गों को छोड़कर सभी शेष जातियाँ उनसे ही जन्मी हैं। वह कहता है कि ये जातियाँ, मूल चार वर्णों के स्त्री-पुरुषों के बीच होने वाले अविवाहित संबंधों तथा व्यभिचार की उपज हैं। इन चार वर्णों के स्त्री-पुरुषों में अनैतिकता तथा स्वेच्छागार इतना असीमित हो गया कि उसके कारण इन असंख्य आत्माओं से भी अनगिनत जातियों का उदय हुआ। मनु ने इन चार मूल वर्णों के स्त्री-पुरुषों के चरित्र पर बिना सोचे-विचारे वे असभ्य आरोप लगाए, क्योंकि अगर चांडाल-अछूतों का पुराना नाम-ब्राह्मण स्त्री और वैश्य पुरुष के व्यभिचार का परिणाम है, तो यह बात स्पष्ट है कि चांडालों की इतनी बड़ी संख्या देखकर यह माना जाएगा कि प्रत्येक ब्राह्मण स्त्री वेश्या तथा दुराचारिणी भी और प्रत्येक वैश्य पुरुष सब-कुछ छोड़कर व्यभिचारी जीवन व्यतीत करता था। ऐसा प्रतीत होता है कि विभिन्न जातियों को हीन बनाने की अपनी मूर्ख लालसा की पूर्ति के लिए इन जातियों को नीच उत्पति का कारण बताकर मनु जान-बूझकर ऐतिहासिक तथ्यों को विकृत बना रहा है। इस संबंध में मैं केवल दो उदाहरण देता हूँ। हम मनु की 'मगध' और 'वैदेहिक' जातियों की उत्पत्ति लेते हैं और महान व्याकरणाचार्य पाणिनी की उन्हीं जातियों को दी गई उत्पत्ति से उसकी तुलना करते हैं। मनु का कहना है कि 'मगध' जाति वैश्य पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से संभोग से उत्पन्न हुई। मनु कहता है कि 'वैदेहिक' जाति वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संभोग से उत्पन्न हुई। अब पाणिनी को देखें।
पाणिनि कहते हैं कि 'मगध' का अर्थ है, वह व्यक्ति, जो मगध नाम के देश का निवासी हो। 'वैदेहिक' के संबंध में पाणिनी कहते हैं - इसका मतलब है वह व्यक्ति जो 'विदेह' नाम के देश का निवासी हो। दोनों में कितना विरोधाभास है। पाणिनी ईसा से 300 वर्ष पहले हुआ। मनु ईसा के 200 वर्ष पश्चात् हुआ। तब लोगों पर पाणिनी के समय में कोई कलंक नहीं लगा था। वे लोग मनु के हाथों कलंकित हो गए। इसका उत्तर यही है कि मनु उन लोगों को अधःपतित करने पर तुला हुआ था। मनु लोगों को जान-बूझकर बदनाम करने पर क्यों तुला हुआ था? यह ऐसा कार्य है, जिसकी खोज-बीन {देखिए मेरा निबंध, 'मनु आन कास्ट-ए पजल'।(यह लेख प्राप्त हुए पत्रों में नहीं मिला है)} अभी की जानी है, परंतु इस बीच हमारे सामने एक ऐसा विलक्षण विरोधाभास आता है कि जब धर्म मनुष्य-मात्र को ऊँचा उठाने और उन्नत करने में लगा हुआ था, हिंदू धर्म उन्हें अधःपतित और अप्रतिष्ठित करने में व्यस्त था।
हिंदुत्व में हीनता की भावना किस प्रकार व्याप्त है, उसे एक अन्य उदाहरण देते हुए मैं हिंदू बालकों के नामकरण के नियमों के द्वारा स्पष्ट करूँगा।
हिंदुओं के नाम चार प्रकार के होते हैं, इसका संबंध यों तो -
(1) पारिवारिक देवता के साथ होता है,
(2) जिस माह में बच्चा जन्म लेता, उसके साथ
(3) जिन ग्रह-नक्षत्रों में बच्चा जन्म लेता है, उसके साथ अथवा,
(4) पूर्ण रूप से प्रासंगिक अर्थात व्यवसाय के साथ होता है।
मनु के अनुसार, हिंदू का प्रासंगिक नाम दो भागों का होना चाहिए और मनु यह भी निर्देश देता है कि पहला भाग तथा दूसरा भाग किन बातों को दर्शाए। ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग ऐसा शब्द हो, जो आनंद व्यक्त करे, क्षत्रिय का ऐसा हो, जो रक्षा व्यक्त करे, वैश्य के लिए ऐसा शब्द हो, जो संपन्नता व्यक्त करे और शूद्र के लिए ऐसा शब्द हो, जो सेवा व्यक्त करे। इसके अनुसार ब्राह्मणों के लिए शर्मा (प्रसन्नता) अथवा देव (ईश्वर), क्षत्रिय के लिए राजा (अधिकार) अथवा वर्मा (शस्त्र), वैश्यों के लिए गुप्ता (दान) अथवा दत्ता (दानकर्ता) और शूद्रों के लिए दास (सेवा)। ये शब्द नामों का दूसरा भाग बने हैं। नाम के पहले भाग के संबंध में मनु कहता है कि ब्राह्मण के लिए वह शुभ-सूचक हो और वैश्य के लिए संपत्ति का सूचक हो, परंतु शूद्र के लिए मनु कहता है कि उसके नाम का पहला भाग कोई ऐसा शब्द होना चाहिए, जो घृणा योग्य हो। जो लोग ऐसा दर्शन अविश्वसनीय मानते हैं, वे शायद इन बातों के वास्तविक संदर्भ जानने चाहेंगे। मैं मनुस्मृति से निम्नलिखित कुछ श्लोकों को उद्धृत करता हूँ।
नामकरण समारोह के लिए मनु कहता है -
2.30. पिता को बच्चे के जन्म के बाद दसवें अथवा बारहवें दिन, अथवा शुभ ग्रह के अवसर पर अथवा शुभ तिथि पर नामधेय (बच्चे का नामकरण संस्कार) करना चाहिए।
2.31. ब्राह्मण के नाम का पहला भाग शुभ-सूचक होना चाहिए, क्षत्रिय के नाम का शक्ति के साथ संबंध हो और वैश्य का संपत्ति के साथ, परंतु शूद्र के नाम का पहला भाग कोई ऐसा हो, जो घृणा व्यक्त करे।
2.32. ब्राह्मण के नाम का दूसरा भाग ऐसा शब्द हो, जो प्रसन्नता व्यक्त करे, क्षत्रिय का नाम रक्षा व्यक्त करे, वैश्य का समृद्धि और शूद्र का सेवा व्यक्त करे।
किसी शूद्र का नाम उच्च भावना का प्रतीक हो, यह बात मनु सहन नहीं कर सकता। शूद्र वास्तविक स्थिति में तथा नाम से भी घृणित होना चाहिए।
हिंदू धर्म किस प्रकार से सामाजिक तथा धार्मिक, दोनों ही समानताओं को नकारता है, और यह किस प्रकार से मानव-व्यक्तित्व के अधः पतन का प्रतीक है, इस बात को स्पष्ट करने के लिए हमने बहुत कुछ कहा है।
क्या हिंदू धर्म स्वतंत्रता को मान्यता देता है?
स्वतंत्रता को वास्तविक बनाने के लिए उसके साथ कुछ सामाजिक शर्तें भी जुड़ी होनी चाहिए।
प्रथम, सामाजिक समानता का होना आवश्यक है।
"विशेष अधिकार से सामाजिक कार्यों का संतुलन उन पर अधिकार रखने वालों के पक्ष में झुका जाता है। नागरिकों के सामाजिक अधिकारों में जितनी अधिक समानता होगी, अपनी स्वतंत्रता को अपना लक्ष्य प्राप्त करना है, तो यह आवश्यक है कि समानता हो।”
दूसरे, आर्थिक सुरक्षा होनी चाहिए।
"मनुष्य को अपनी रुचि के व्यवसाय का चयन करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए और यदि उसे रोजगार की सुरक्षा न हो तो वह मानसिक तथा शारीरिक गुलामी का शिकार बन जाता है, जो स्वतंत्रता की मूल भावना के ही प्रतिकूल है। भविष्य के प्रति निरंतर भय, होने वाली हानि की आशंका, सुख और सौंदर्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयास की विफलता, इस सबसे यह बात स्पष्ट होती है कि आर्थिक सुरक्षा के बिना स्वतंत्रता निरर्थक है। व्यक्ति स्वतंत्र होते हुए भी स्वतंत्रता के उद्देश्य को समझने में असमर्थ हो सकता है।”
तीसरे, ज्ञान का सब लोगों के लिए उपलब्ध होना आवश्यक है। इस जटिल संसार में मनुष्य हमेशा संकटों से घिरा रहता है और उसके लिए अपनी स्वतंत्रता खोए बगैर अपना रास्ता तय करना जरूरी है।
"जब तक मन को स्वतंत्रता का उपयोग करने की शिक्षा न दी जाए, तब तक स्वतंत्रता का कोई मूल्य ही नहीं रहता। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शिक्षा प्राप्त करने का मनुष्य का अधिकार उसकी स्वतंत्रता के लिए मूलभूत अधिकार बन जाता है। मनुष्य को ज्ञान से वंचित रखकर आप उसे अनिवार्य रूप से उन लोगों का गुलाम बना देंगे, जो उससे अधिक सौभाग्यशाली हैं। ज्ञान से वंचित रखने का मतलब है, उस शक्ति को नकारना, जिससे स्वतंत्रता का महान उद्देश्यों के लिए उपयोग किया जाता है। एक अज्ञानी मनुष्य स्वतंत्र हो सकता है, परंतु वह अपनी स्वतंत्रता का उपयोग नहीं कर सकता, जिससे कि वह अपनी प्रसन्नता के प्रति आश्वस्त हो सके।”
हिंदू धर्म इनमें से कौन-सी कसौटियों की पूर्ति करता है? हिंदू धर्म किस प्रकार से समानता को नकारता है, यह बात हमने पहले ही स्पष्ट की है। वह विशेष अधिकार और असमानता को स्वीकार करता है। इस प्रकार हिंदू धर्म में स्वतंत्रता की आवश्यक प्रथम कसौटी इसकी अनुपस्थिति प्रकट करना है।
आर्थिक सुरक्षा के संबंध में हिंदू धर्म में तीन बातें दिखाई देती हैं। प्रथम, हिंदू धर्म व्यवसाय की स्वतंत्रता को नकारता है। मनु की योजना में प्रत्येक मनुष्य के लिए उसके जन्म के पहले ही व्यवसाय निश्चित कर दिया गया है। हिंदू धर्म में इसके चयन का कोई अवसर नहीं है। जो व्यवसाय पूर्व निश्चित किए जाते हैा, उनका मनुष्य की योग्यता और पसंद के साथ कोई संबंध नहीं है।
दूसरे, हिंदू धर्म मनुष्य को दूसरों द्वारा चुने गए उद्देश्य की पूर्ति के लिए कार्य करने के लिए बाध्य करता है। मनु शूद्र से कहता है कि उसका जन्म ऊँचे वर्णों की सेवा करने के लिए हुआ है। मनु उनको उसी को अपना आदर्श बनाने के लिए बाध्य करता है। मनु द्वारा बनाए निम्नलिखित नियमो को हम देखें -
10.121. अगर कोई शूद्र ब्राह्मण की सेवा करते हुए अपना पालन-पोषण नहीं कर सकता, तब वह क्षत्रिय की सेवा कर सकता है अथवा किसी धनी वैश्य की भी सेवा करके अपना पालन-पोषण कर सकता है।
10.122. परंतु शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए।
मनु ने शूद्रों के लिए कोई आदर्श बनाने की बात को ही नहीं छोड़ दिया, वह एक कदम और आगे बढ़ता है और कहता है कि उसके लिए नियत किए गए कार्य से वह भाग नहीं सकता और न ही उसे टाल सकता है, क्योंकि मनु ने राजा के लिए जो कर्तव्य निश्चित किए हैं, उनमें से एक कार्य यह है कि राजा यह देखे कि शूद्रों सहित सभी जाति के लोग अपने निश्चित कर्तव्यों का पालन करें।
8.410. राजा प्रत्येक वैश्य को उसका व्यवसाय करने की अथवा पैसा उधार देने की अथवा खेती करने की अथवा पशुपालन की और शूद्र जाति के प्रत्येक मनुष्य को द्विज की सेवा करने की आज्ञा दे।
8.418. पूर्ण रूप से जाग्रत तथा सचेत होकर राजा आदेश दे कि वैश्य तथा शूद्र अपने-अपने कर्तव्यों का पालन करें, क्योंकि जब ये लोग अपने कर्तव्यों का पालन करना छोड़ देते हैं, तब सारा संसार भ्रम में पड़ जाता है।
कर्तव्य का पालन न करना अपराध माना गया था, जिसके लिए कानून के अनुसार राजा दंड देता था।
8.335. यदि पिता शिक्षक, मित्र, माता, पत्नी, पुत्र, घरेलू पुरोहित अपने-अपने कर्तव्य का दृढ़ता व सच्चाई के साथ निष्पादन नहीं करते हैं तो इनमें से किसी को भी राजा द्वारा बिना दंड के नहीं छोड़ा जाना चाहिए।
8.336. जिस अपराध में साधारण व्यक्ति एक पण से दंडनीय है, उसी अपराध के लिए राजा सहस्र पण से दंडनीय है, ऐसा शास्त्र का निर्णय है। उसे यह दंड-राशि पुरोहित को या नदी को भेंट करनी चाहिए।
इन नियमों की आध्यात्मिक तथा आर्थिक, दो प्रकार की विशेषताएँ हैं। आध्यात्मिक अर्थ से यह नियम गुलामी के दर्शन की रचना करते हैं। जिन लोगों को गुलामी के केवल बाह्य वैधानिक अर्थ की जानकारी है और इसके अंतनिर्हित अर्थ का ज्ञान नहीं है, उन्हें संभवतः यह चीज स्पष्ट न हो। इसके आंतरिक अर्थ के अनुसार, प्लेटो ने जैसा परिभाषित किया है, गुलाम ऐसा व्यक्ति है, जो दूसरों से उन उद्देश्यों को स्वीकार करता है, जो उसके आचरण को नियंत्रित करते हैं। इस अर्थ से एक गुलाम की अपनी कोई नियति नहीं है। वह केवल दूसरों की इच्छापूर्ति का एक साधन है। इस बात को समझने पर स्पष्ट हो जाता है कि शूद्र गुलाम है। नियमों के आर्थिक महत्व के संदर्भ में ये नियम शूद्रों की आर्थिक स्वतंत्रता पर बंधन डालते हैं। मनु कहता है कि शूद्र केवल सेवा करें। इस बात में शिकायत करने योग्य शायद ज्यादा कुछ न हो, परंतु गलती वहाँ है, जहाँ नियम दूसरों की सेवा करने को कहते हैं। वह अपनी सेवा नहीं कर सकता, जिसका मतलब है कि वह आर्थिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सकता, उसे हमेशा के लिए दूसरों पर आर्थिक दृष्टि से निर्भर रहना पड़ेगा। जैसा मनु ने कहा है -
1.91. ब्रह्मा ने शूद्र को एक सबसे प्रमुख कार्य सौंपा है, वह है बिना किसी उपेक्षा-भाव के उक्त तीनों वर्णों की सेवा करना।
तीसरे स्थान पर, शूद्रों के लिए हिंदू धर्म में संपति संचित करने के लिए कोई अवसर नहीं हैं। शूद्रों की उसी सेवा करने के लिए तीनों उच्च वर्णों द्वारा वेतन देने के संबंध में मनु के नियम बहुत ही आदर्शात्मक हैं। शूद्रों को वेतन देने के प्रयत्न पर मनु कहता है -
10.124. शूद्र की क्षमता, उसका कार्य तथा उसके परिवार में उस पर निर्भर लोगों की संख्या को ध्यान में रखते हुए वे लोग उसे अपनी पारिवारिक संपत्ति से उचित वेतन दें।
10.125. शूद्र को जूठा भोजन पुराने वस्त्र, अन्न का युआल तथा पुराने बर्तन आदि देने चाहिए।
यह मनु का वेतन संबंधी कानून है। यह न्यूनतम वेतन का कानून नहीं, यह अधिकतम वेतन का कानून है। यह एक ऐसा लौह-कानून भी था, जिसे इतने निम्न स्तर पर निश्चित किया गया था कि शूद्र के संपत्ति एकत्रित करने और आर्थिक सुरक्षा प्राप्त करने का कोई खतरा नहीं था, परंतु मनु किसी प्रकार की अनिश्चितता नहीं छोड़ना चाहता था और इसलिए उसने बहुत विस्तार में शूद्रों के संपत्ति एकत्रित करने पर प्रतिबंध लगाया। वह दृढ़ता के साथ कहता है -
10.129. शूद्र धन-संचय करने की स्थिति में हो, फिर भी ऐसा न करे, क्योंकि जो शूद्र धन-संचय करता है, वह ब्राह्मण को दुःख पहुँचाता है। इस प्रकार हिंदू धर्म में व्यवसाय-चयन के लिए अनुमति नहीं है। उसमें आर्थिक स्वतंत्रता नहीं है और कोई आर्थिक सुरक्षा भी नहीं है। आर्थिक दृष्टि से शूद्र की स्थिति बहुत ही कमजोर है।
ज्ञान के प्रसार के लिए दो कसौटियों का पूर्व नियोजित होना आवश्यक है। औपचारिक शिक्षा का होना आवश्यक है। साक्षरता का होना भी आवश्यक है। इन दोनों के बगैर शिक्षा का प्रसार नहीं हो सकता। औपचारिक शिक्षा के बगैर जटिल समाज के सभी साधनों और उपलब्धियों का आदान-प्रदान करना संभव नहीं। औपचारिक शिक्षा के बगैर किसी भी विषय से संबंधित संग्रहीत विचारों तथा अनुभवों का युवा-पीढ़ी तक पहुँचना संभव नहीं हैं और यह विचार तथा अनुभव उन्हें तब तक नहीं मिल सकते, जब तक हम उनको दूसरों के साथ अनौपचारिक संबंध बनाकर शिक्षा प्राप्त करने के लिए छोड़ नहीं देते। औपचारिक शिक्षा के बगैर यह नई दृष्टि प्राप्त नहीं कर सकता। उसका दृष्टिकोण व्यापक नहीं बन सकता और वह अपने दैनिक कार्यक्रमों का गुलाम बनकर अज्ञानी रह जाएगा, परंतु औपचारिक शिक्षा के लिए विशेष माध्यमों जैसे पाठशालाएँ, पुस्तकें, नियोजित साधन-सामग्री और अध्ययन आदि की आवश्यकता होती है। जब तक मनुष्य साक्षर न हो, वह पढ़ना-लिखना जैसे माण्यमों का लाभ कैसे ले सकता है? पढ़ने-लिखने की कला अर्थात साक्षरता का प्रसार और औपचारिक शिक्षा, यह दोनों बातें साथ-साथ चलने वाली हैं। इन दोनों के अस्तित्व के बगैर ज्ञान का प्रसार नहीं हो सकता है।
इस संदर्भ में हिंदू धर्म की क्या स्थिति है?
औपचारिक शिक्षा का सिद्धांत हिंदू धर्म में बहुत ही सीमित रूप में है। औपचारिक शिक्षा केवल वेदों के अध्ययन तक ही सीमित है। यह स्वाभाविक था क्योंकि हिंदुओं की यह धारणा थी कि वेदों के बाहर कोई ज्ञान नहीं है। ऐसी स्थिति होने के कारण औपचारिक शिक्षा वेदों के अध्ययन तक ही सीमित रही। इसका एक दूसरा परिणाम यह हुआ कि हिंदुओं ने यह माना है कि उनका यही कर्तव्य है; वेदों के अध्ययन के लिए स्थापित पाठशालाओं से केवल ब्राह्मणों को ही लाभ हुआ। शासन ने कला तथा विज्ञान के अध्ययन के लिए संस्थाओं की स्थापना करना अपनी जिम्मेदारी नहीं समझी, जिनका व्यापारी तथा मजदूर वर्ग के लिए उपभोग हो सकता था। शासन की इस उपेक्षा के कारण उन्हें दूसरा रास्ता अपनाना पड़ा।
प्रत्येक वर्ग ने, वे जो कार्य परंपरा से करते आ रहे थे, उसे करने का ज्ञान अपने सदस्यों को देने का प्रबंध किया। वैश्य जाति के लोगों का यह कर्तव्य था कि प्रत्येक युवा वैश्य व्यापारिक तंत्र, गणित, कोई भाषा तथा व्यापार की कुछ वास्तविक जानकारी जान सके। इन बातों की शिक्षा उसे उसके पिता के साथ व्यापार करते समय मिल जाती थी। कलाकारों अथवा दस्तकारी वर्ग, जो शूद्रों से उभरा, वह अपनी कला, दस्तकारी अपने बच्चों को इसी तरह देने लगा। शिक्षा पारिवारिक बन गई थी। शिक्षा व्यावहारिक थी। उसने केवल विशेष कार्य करने की कुशलता बढ़ाई। उसने नई धारणाएँ नहीं बनाई। उसने दृष्टि का विकास नहीं किया, जिसका नतीजा यह हुआ कि व्यावहारिक शिक्षा ने उसे केवल कार्य करने का एक अलग और समान तरीका सिखाया, जिससे उसकी कुशलता बदलते वातावरण में एक ठोस अयोग्यता बन गई। निरक्षरता हिंदू धर्म का एक कुटिल, परंतु संपूर्ण प्रक्रिया का स्वाभाविक अंग बन पाई। इस प्रक्रिया को समझने के लिए हमारे लिए मनु द्वारा वेदों के अध्ययन तथा शिक्षा से संबंधित जो नियम बनाए गए, उनकी ओर ध्यान देना आवश्यक है। उसमें निम्नलिखित नियमों पर विचार किया गया है :
1.88. वेदों के अध्ययन करने तथा वेदों की शिक्षा देने का कार्य सृष्टा ने ब्राह्मणों को सौंपा है।
1.89. क्षत्रियों को उसने (सृष्टा ने) आदेश दिया है कि वे वेदों का अध्ययन करें।
1.90. वैश्यों को उसने (सृष्टा से) आज्ञा दी कि वे वेदों का अध्ययन करें।
2.116. जो गुरु की आज्ञा के बगैर वेदों का ज्ञान प्राप्त करेगा, ऐसा माना जाएगा कि उसने धर्मशास्त्रों की चोरी करने का अपराध किया है और वह यातनाओं में डूब जाएगा।
4.99. द्विज, शूद्रों की उपस्थिति में वेदों का अध्ययन न करें।
9.18. स्त्रियों को वेदों के श्लोकों से कोई सरोकार नहीं हैं।
11.198. यदि किसी द्विज ने (अनुचित रूप से) वेदों का रहस्योद्घाटन किया है (अर्थात शूद्रों तथा स्त्रियों को) तो वह (पाप करता है), एक वर्ष जौ का आहार करके अपने पाप का प्रायश्चित करता है।
इन श्लोकों में तीन भिन्न-भिन्न प्रस्तावों का समावेश है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य वेदों को अध्ययन कर सकते हैं, परंतु इनमें से केवल अकेले ब्राह्मणों को ही वेदों की शिक्षा देने का अधिकार है, परंतु शूद्रों के संबंध में, उनको वेदों का अध्ययन ही नहीं करना चाहिए, बल्कि उसके पठन को भी नहीं सुनना चाहिए।
मनु के उत्तराधिकारियों ने शूद्रों की वेदों के अध्ययन से संबंधित इस अयोग्यता को एक अपराध बना दिया, जिसके लिए कड़ी सजा हो सकेगी।
उदाहरण के लिए गौतम ऋषि ने कहा है -
12.4. यदि शूद्र जान-बूझकर वेदों का पठन सुनता है, तब उसके कानों में पिघलता शीशा या लाख डाली जाए। यदि वह वेदों का उच्चारण करता है, तब उसकी जबान काट दी जाए, यदि वह वेदों पर अपना प्रभुत्व स्थापित करता है, तब उसके शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जाएँ।
कात्यान ऋषि ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं -
ऐसा कहा जा सकता है कि प्राचीन संसार ने सामान्य लोगों को शिक्षा देने की अपनी जिम्मेदारी निभाने में असफल होने का अपराध किया है, परंतु संसार में ऐसा कोई भी समाज नहीं है, जिसने अपनी सामान्य जनता को धर्म-ग्रंथों का अध्ययन करने की मनाही का अपराध किया हो। किसी भी समाज ने कभी भी अपनी सामान्य जनता पर शिक्षा प्राप्त करने पर प्रतिबंध लगाने का अपराध नहीं किया है। किसी भी समाज ने ऐसी चेष्टा नहीं कि सामान्य मनुष्यों द्वारा ज्ञान प्राप्त करने के प्रयासों का दंड देने योग्य अपराध घोषित किया जाए। केवल मनु की एक ऐसा दैवी कानून बनाने वाला व्यक्ति है, जिसने सामान्य जन के ज्ञान के अधिकार को नकारा।
परंतु, मैं इस पर अधिक चर्चा करने और प्रतीक्षा नहीं कर सकता। मैं बहुत शीघ्र यह बताने के लिए चिंतित हूँ कि सामान्य जनता पर वेदों के अध्ययन के विरुद्ध प्रतिबंध लगाने से किस प्रकार निरक्षरता तथा विधर्मी जीवन के अज्ञान का निर्माण हुआ। इसका उत्तर सरल है। यह बात समझना आवश्यक है कि पढ़ाई-लिखाई का वेदों का अध्ययन तथा शिक्षा से स्वाभाविक संबंध है। पढ़ाई-लिखाई उन लोगों के लिए आवश्यक चीज थी, जिन्हें वेदों के अध्ययन का विशेष अधिकार था और वे इस अध्ययन के लिए मुक्त थे। जिन्हें वेदों के पढ़ने का अधिकार नहीं था, उनके लिए पढ़ाई-लिखाई आवश्यक नहीं थी। इस प्रकार से शिक्षा वेदों के अध्ययन का एक निमित्त बन गई। नतीजा यह हुआ कि वेद के अध्ययन तथा शिक्षा से संबंधित सिद्धांत पढ़ाई-लिखाई की कला पर भी लागू हो हो गया। जिन लोगों को वेदों के अध्ययन का अधिकार था, उन लोगों को ही पढ़ने-लिखने का अधिकार प्राप्त हुआ। जिन लोगों को वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं था, उन लोगों को पढ़ने-लिखने के अधिकार से भी वंचित रखा गया। इस प्रकार यह कहना सर्वथा उपयुक्त है कि मनु के विधान के अनुसार पढ़ना-लिखना केवल कुछ मुट्ठी-भर ऊँचे वर्णों का अधिकार बन गया और निरक्षरता उन अनेक नीचे वर्णों का भाग्य बन गई।
इस विश्लेषण में थोड़ा आगे बढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाएगा कि शिक्षा का निषेध करने के कारण मनु ही उस अज्ञान के लिए जिम्मेदार है, जिसमें सर्वसाधारण जनता फंस गई।
इस प्रकार हिंदुत्व ज्ञान के प्रसार का एक माध्यम होने की बजाय, अंधकार का एक सिद्धांत है।
इन तथ्यों पर विचार करते हुए हम यह कह सकते हैं कि स्वतंत्रता की उन्नति के लिए जिन स्थितियों की आवश्यकता होती है, हिंदू धर्म उनके विरुद्ध है। इसलिए वह स्वतंत्रता को नकारता है।
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क्या हिंदू धर्म बंधुत्व को मान्यता प्रदान करता है?
समाज में दो शक्तियाँ कार्यरत होती हैं, व्यक्तिवाद और बंधुत्व। व्यक्तिवाद का सर्वत्र संचार है। प्रत्येक व्यक्ति निरंतर इस तरह के सवाल करता है कि वह तथा उसके पड़ोसी, क्या दोनों भाई-भाई हैं? क्या हम आपस में रिश्तेदार हैं? क्या मैं उनका पालक हूँ? तब मैं उनके साथ क्यों न्याय करूँ? और अपने स्वहितों की रक्षा के दबाव में आकर वह ऐसा कार्य करता है, जिसका लक्ष्य केवल उसका अपना अस्तित्व होता है। इसके कारण एक असामाजिक और कभी-कभी समाज-विरोधी व्यक्तित्व का निर्माण होता है। बंधुभाव, बिल्कुल इसके विपरीत एक शक्ति है। यह आपसी मित्रत्व-भावना का दूसरा नाम है। बंधुभाव का उस भावना में समावेश होता है, जो एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति की श्रेष्ठता के साथ अपनी पहचान बनाना सिखाती है, जिसके कारण दूसरों की उत्तमता उसके लिए एक स्वाभाविक तथा आवश्यक चीज बन जाती है; जिसके प्रति उसे उतना ही ध्यान देना चाहिए, जितना वह शारीरिक स्थिति के अस्तित्व के लिए अपने पर ध्यान देता है। बंधुत्व की इस भावना के कारण ही एक व्यक्ति अपने-आपको शेष सहयोगी प्राणियों के साथ सुख प्राप्ति के साधनों में स्वयं को प्रतिस्पर्धा नहीं मानता अन्यथा वह अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनकी असफलता की कामना करता है, ताकि वह स्वयं सफल हो सके। व्यक्तिवाद से अराजकता का निर्माण होता है। बंधुत्व ही ऐसी भावना है, जो उसे नियंत्रित कर सकती है और मनुष्य मात्र में नैतिक व्यवस्था बनाए रखने में सहायक बन सकती है।
बंधुभाव की आपसी मैत्री की यह भावना कैसे उन्नत हो सकती है? जे.एस. मिल कहते हैं कि यह भावना एक नैसर्गिक भावना है।
"मनुष्य के लिए सामाजिक अवस्था एक प्रकार से इतनी अधिक स्वाभाविक, अत्यावश्यक तथा व्यावहारिक है कि कुछ असाधारण परिस्थितियों अथवा किन्हीं ऐच्छिक अचेतन प्रयासों के अपवाद को छोड़कर, वह समाज का एक सदस्य है, इस भावना के विपरीत कोई दूसरी बात व्यक्ति सोच भी नहीं सकता है और उसका समाज के साथ का यह संबंध, जैसे-जैसे मनुष्य असभ्य अवस्था से मुक्त हो रहा है, वैसे-वैसे अत्यधिक-सुदृढ़ हो रहा है। इसलिए सामाजिक परिवेश की कोई भी स्थिति, जिसमें वह जन्म लेता है, और जो मनुष्य-मात्र की नियति है, यह भावना प्रत्येक व्यक्ति के सोच-विचार का अभिन्न अंग बन जाती है। तब आज मालिक तथा गुलाम के संबंधों का अपवाद छोड़कर मानव प्राणियों के समाज के उस स्वरूप की कल्पना ही नहीं की जा सकती, जिसमें सभी के हिजों की समझ का आधार एक न हो। समान स्तर के लोगों का समाज केवल इसी धारणा के अनुसार अस्तित्व में रह सकता है कि सभी को समान माना जाए और क्योंकि सभ्यता की सभी अवस्थाओं में निरंकुश सम्राट को छोड़कर प्रत्येक व्यक्ति बराबर है, प्रत्येक व्यक्ति को दूसरों के साथ उन समान शर्तों के आधार पर जीवन व्यतीत करना ही पड़ता है; और प्रत्येक युग में ऐसी अवस्था विकसित होती रही है, जिसमें व्यक्ति के लिए दूसरों की शर्तों के अनुसार हमेशा जीवन व्यतीत करना संभव नहीं होता। इस प्रकार लोग एक ऐसी अवस्था में जीवन व्यतीत करने के आदी हो जाते हैं, जिसमें इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि दूसरे लोगों के हितों की अवमानना की जा सकती है।”
दूसरों के प्रति मित्रत्व की इस भावना का क्या हिंदुओं में कोई स्थान है? इस प्रयत्न पर निम्नलिखित तथ्य पर्याप्त प्रकाश डालते हैं।
इस संबंध में किसी का भी ध्यान आकर्षित करने वाली पहली यथार्थता है जातियों की संख्या। किसी ने भी आज तक उनकी वास्तविक संख्या की गिनती नहीं की हैं, परंतु यह अनुमान किया जा सकता है कि उनकी कुल-मिलाकर संख्या दो हजार से कम नहीं होगी, कदाचित वह तीन हजार हो। इस वास्तविकता का केवल यही एक निराशाजनक पहलू नहीं है। कुछ अन्य पहलू भी हैं। जातियों को उपजातियों में विभाजित किया गया है। उनकी संख्या अगणित है। ब्राह्मण जाति की कुल जनसंख्या लगभग डेढ़ करोड़ के बराबर है, परंतु ब्राह्मण जाति में उपजातियों की संख्या 1886 के बराबर है। केवल अकेले पंजाब में ही पंजाब राज्य के सारस्वत ब्राह्मण 469 उपजातियों में और कायस्थ लोग 590 उपजातियों में विभाजित हें। इस प्रकार हम इन संख्याओं के आधार पर सामाजिक जीवन को छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करने वाली इस अंतहीन प्रक्रिया को स्पष्ट कर सकते हैं।
इस विभाजन की प्रक्रिया का तीसरा पहलू है, वे छोटे-छोटे खंड, जिनमें जातियाँ विभाजित हो गईं। बनियों की कुछ उपजातियों की संख्या 100 से अधिक नहीं हो सकती। वह आपस में इतने नजदीकी रिश्तेदार बन गए हैं कि सगोत्रता के नियमों का उल्लंघन किए बिना अपनी जाति में विवाह करना उनके लिए बहुत ही कठिन बन गया है।
यहाँ एक बात ध्यान में रखनी होगी कि कौन-से छोटे-छोटे मामले इस विभाजन के कारण बने।
जाति-व्यवस्था का आधिश्रेणित चरित्र भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। जातियाँ एक ऐसी क्रमिक व्यवस्था है, जहाँ एक जाति सबसे ऊपर है और सर्वोच्च है, तो दूसरी जाति सबसे नीचे है और इन लोगों के बीच अनेक जातियाँ हैं, जो किसी के ऊपर है और किसी के नीचे है। जाति-व्यवस्था श्रेणियों की एक व्यवस्था है, जिनमें सबसे श्रेष्ठ और सबसे नीच जाति को छोड़कर प्रत्येक जाति की दूसरी कुछ जातियों पर प्रधानता बनी हुई है।
इस प्रधानता अथवा श्रेष्ठता को कैसे निर्धारित किया जाता है? यह श्रेष्ठता और हीनता अथवा कनिष्ठता की व्यवस्था उन नियमों के आधार पर निर्धारित की जाती है, जिसका (1) धार्मिक संस्कारों के साथ, और (2) अनुरूपता के साथ संबंध है।
धर्म, प्रधानता के नियमों के आधार पर स्वयं को तीन प्रकार से प्रकट करता है। प्रथम, धार्मिक समारोह द्वारा। दूसरा, धार्मिक संस्कार में पढ़े जाने वाले मंत्रों द्वारा। तीसरा पुरोहित के द्वारा।
हम समारोह को प्रधानता के नियमों का स्रोत मानकर आरंभ करते हैं। यहाँ हमारे लिए यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि हिंदू धर्म-शास्त्रों में सोलह धार्मिक संस्कारों को निर्देशित किया गया है। यद्यपि, यह सब हिंदू धार्मिक संस्कार हैं, फिर भी प्रत्येक हिंदू जाति इन सभी सोलह संस्कारों पर अपना अधिकार नहीं जता सकती। कुछ को कुछ विशेष संस्कार करने की अनुमति है, तो कुछ जातियों को इन संस्कारों को करने की अनुमति नहीं है। उदाहरण के लिए हम पवित्र जनेऊ पहनने के उपनयन संस्कार को ही लेत हैं। कुछ जातियाँ जनेऊ नहीं पहन सकतीं। इस संस्कार को कराने के अधिकार के लिए भेदभाव होता है। जिन जातियों को सभी संस्कारों को करने का अधिकार है, उन जातियों का स्थान समाज में उन लोगों से निश्चित ही श्रेष्ठ होता है, जिन्हें केवल कुछ ही संस्कार का अधिकार है।
अब हम मंत्रों को देखें। श्रेष्ठता के नियमों का यह दूसरा स्रोत है। हिंदू धर्म के अनुसार, एक ही संस्कार को दो प्रकार से मनाया जा सकता है - (1) वदोक्त, और (2) पुराणोक्त। वेदोक्त पद्धति में संस्कार, वेदों के मंत्रों के उच्चारण के साथ किए जाते हैं। पुराणोक्त पद्धति में इन संस्कारों को पुराणों के मंत्रों से किया जाता है, हिंदू धर्म-शास्त्र की दो भिन्न-भिन्न श्रेणियाँ (1) वेद, जो चार है, और (2) पुराण, जो अठारह हैं। यद्यपि उनका धर्म-शास्त्रों के रूप में आदर किया जाता है, फिर भी उन सबको समान मान्यता प्राप्त नहीं है। वेदों की सर्वश्रेष्ठ मान्यता है, तो पुराणों की सबसे निम्न स्तर की मान्यता है। इन मंत्रों के कारण सामाजिक प्रधानता किस प्रकार से निर्मित होती है, यह इस बात को ध्यान में रखने पर स्पष्ट हो उठती है कि प्रत्येक जाति को वेदोक्त पद्धति से समारोह करने का अधिकार नहीं है। केवल तीन ही जातियाँ इन सोलह संस्कारों में से एक पर अपना अधिकार जता सकती हैं, परंतु उनमें भी एक जाति को उसे वेदोक्त पद्धति से करने का अधिकार है, तो अन्य को पुराणोक्त पद्धति से। एक धार्मिक क्रिया को संपन्न करने के लिए जिस प्रकार के मंत्र-पाठ की अनुमति होती है, जाति की श्रेष्ठता का निर्धारण भी उसी तरह किया जाता है। जिस जाति को वेदोक्त मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार है, निश्चय ही वह जाति उस जाति से श्रेष्ठ मानी जाती है, जिसे पुराणोक्त मंत्रों का प्रयोग करने का अधिकार है।
धर्म से संबंधित प्राथमिकता का दूसरा स्रोत है पुरोहित। हिंदू धर्म में धार्मिक समारोह से पूर्ण लाभ प्राप्त करने के लिए पुरोहित की आवश्यकता होती है। धर्म-शास्त्रों द्वारा नियुक्त पुरोहित ब्राह्मण है। इसलिए ब्राह्मण का परित्याग नहीं किया जा सकता, परंतु धर्म शास्त्र यह बात नहीं बताते कि ब्राह्मण द्वारा किसी भी और प्रत्येक हिंदू के बिना उसकी जाति पूछे धार्मिक संस्कार करने के किस निमंत्रण को स्वीकार किया जाए और किसे नहीं। यह बात ब्राह्मण की इच्छा पर छोड़ दी गई है। दीर्घकालीन तथा सुस्थापित प्रथाओं द्वारा अब यह बात निश्चित हो गई कि किन जातियों के समारोह वह मनाएगा और किनके नहीं। यह वस्तुस्थिति दो जातियों के बीच में श्रेष्ठता का आधार बन गई है। जिस जाति के संस्कार में ब्राह्मण उपस्थित रहता है, वह जाति उस जाति से श्रेष्ठ मानी जाती है, जिनके धार्मिक संस्कार में ब्राह्मण उपस्थित नहीं रहता।
श्रेष्ठता के नियमों का दूसरा स्रोत सहभोज है। यहाँ इस बात को ध्यान में रखना जरूरी है कि जिस तरह से सहभोज के नियमों ने प्रधानता के नियमों का निर्माण किया, वैसा विवाह के बारे में नहीं हुआ। इसका कारण अंतर्जातीय विवाह तथा अंतर्जातीय भोज के प्रतिबंध के नियमों में निहित है। अंतर्जातीय विवाह पर लगे प्रतिबंध को तो एक बार किसी सीमा तक स्वीकार किया जा सकता है, लेकिन अंतर्जातीय भोज पर लगा प्रतिबंध व्यावहारिक नहीं। उसका पालन नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि मनुष्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता है। यह जरूरी नहीं कि उसे हर बार नई जगह पर उसकी अपनी जाति के लोग ही मिलें। तब ऐसी स्थिति में वह अपरिचित लोगों के साथ होता है। विवाह के लिए तो वह अपनी जाति में लौटने तक का इंतजार कर सकता है, लेकिन भोजन तो उसे प्रतिदिन चाहिए। उसके लिए तो किसी-न-किसी से उसे भोजन लेना ही पड़ेगा। नियम यह है कि वह अपने से ऊँची जाति से ही अन्न या भोजन ले सकता है, निम्न जाति से नहीं। यह बात विशेष रूप से ब्राह्मणों द्वारा अनुपालित नियमों के द्वारा निश्चित की जाती है। इसी संदर्भ में भोजन और पानी के लिए व्यापक निर्धारित नियम हैं। (1) वह कुछ लोगों से केवल पानी ले सकता है और दूसरों से नहीं। (2) ब्राह्मण किसी अन्य जाति के पानी में पकाए खाने को स्वीकार नहीं करेगा, और (3) वह कुछ जाति के लोगों से तेल में पका हुआ खाना स्वीकार कर सकता है। जिस बर्तन में अन्न तथा पानी लिया जाए, उसके लिए भी अलग नियम हैं। कुछ जाति के लोगों से वह मिट्टी के बर्तन में भोजन अथवा पानी ले सकता है। इसी तरह से कुछ जातियों से केवल धातु के बर्तन में और कुछ से केवल कांच के बर्तन में। इस आधार पर जाति स्तर निश्चित होता है। यदि वह तेल में पका भोजन किसी जाति से लेता है, तब उस जाति का स्तर, तिस जिस जाति से वह खाना स्वीकार नहीं करता, ऊँचा हुआ। यही बात पानी के बारे में भी है, यदि वह धातु के बर्तन में पानी लेता है, तब उसका स्थान उससे ऊँचा है, जिसका पानी वह मिट्टी के बर्तन में लेता है और यह दोनों जातियाँ उस जाति से ऊँची हैं, जिससे वह कांच के बर्तन में पानी लेता है। कांच एक ऐसा पदार्थ है, जिस पर कोई दाग नहीं लगता, इसलिए ब्राह्मण उसमें सबसे निम्न जाति के व्यक्ति से भी पानी ले सकता है, लेकिन दूसरे धातु के बर्तन में दाग लग सकता है, अतः अन्य धातु के बर्तन में पानी ले या न ले, यह ब्राह्मण पर निर्भर करता है।
यही कुछ मुद्दे हैं, जो हिंदुओं की जाति-श्रेष्ठता की व्यवस्था में किसी जाति का स्थान और स्तर निश्चित करते हैं।
जाति-व्यवस्था की यह क्रमिक बनावट एक विशेष तरह की सामाजिक मानसिकता बनने और बनाने के लिए जिम्मेदार है, जिस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। प्रथम, इसके कारण विभिन्न जातियों में प्रतिष्ठा के लिए प्रतिस्पर्धी की भावना निर्मित होती है। दूसरा, विभिन्न जातियों के बीच एक-दूसरे के लिए द्वेष और घृणा की भावना पनपती है।
इस द्वेष तथा घृणा की भावना ने केवल कहावतों में ही स्थान प्राप्त नहीं किया, बल्कि उसे हिंदू साहित्य में भी स्थान मिला है, मैं यहाँ सह्याद्रि खंड नाम के धर्मशास्त्र का संदर्भ दे रहा हूँ जो अनेक पुराणों में से एक है। यह पुराण भी हिंदुओं के पवित्र धर्म-ग्रंथों का ही एक भाग है, लेकिन इसका विषय अन्य पुराणों से बिल्कुल अलग है। इसमें विभिन्न जातियों की मूल उत्पत्ति के बारे में बतलाया गया है, जबकि ब्राह्मण को सबसे घृणित उत्पत्ति का बताया गया है। यह सब मनु से प्रतिशोध की प्रतिक्रियास्वरूप किया गया। एक प्रकार से यह ब्राह्मण जाति पर लगाया गया बहुत ही बुरा लांछन है। स्वाभाविक था कि पेशवाओं ने उसे नष्ट करने की आज्ञा दी थी, परंतु इस पुराण की कुछ प्रतियाँ नष्ट होने से बच गईं।
लेकिन कुछ प्रश्न करने से पहले मैं यहाँ एक बात का और उल्लेख करता हूँ।
संभवतः वर्तमान हिंदू मार्क्सवाद के घोर विरोधी हैं। इसके पीछे कारण यह है कि मार्क्स के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत से वे बहुत ही भयभीत हो जाते हैं, लेकिन वही लोग यह भूल जाते हैं कि भारत न केवल वर्ग-संघर्ष, बल्कि वर्ग-युद्ध की भूमि बन चुका है।
सबसे दुखदायी वर्ग-युद्ध ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच हुआ था। हिंदुओं का श्रेष्ठ साहित्य इन दो वर्णों के बीच हुए संघर्षों से भरा है।
पहला ज्ञात संघर्ष ब्राह्मण और राजा वेण के बीच हुआ था। वेण राजा अंग का पुत्र था, जो अत्रि वंश का था। उसकी माँ सुनीता, मृत्यु की बेटी थी। काल (मृत्यु) की पुत्री के इस पुत्र पर अपने मृतक दादा-नाना के कलंक के कारण वह अपने राजा के कर्त्तव्यों का त्याग करके विषय-वासना में जीवन व्यतीत कर रहा था। इस राजा ने वेदों की आज्ञाओं का उल्लंघन करते हुए अपनी गैर-धार्मिक व्यवस्था की स्थापना की थी। उसके राज्य में लोग धर्मशास्त्रों का अध्ययन नहीं करते थे और देवों को यज्ञ के समय सोमरस की आहुति नहीं दी जाती थी। उसने स्पष्ट घोषित किया था -
'मैं ही यज्ञ का उद्देश्य हूँ, यज्ञकर्ता भी और स्वयं यज्ञ हूँ। मेरे लिए ही यज्ञ किया जाए और आहुती दी जाए।'
बाद में मारिची ऋषि के नेतृत्व में ऋषियों ने उसे निम्न प्रकार से संबोधित किया -
'हम एक ऐसा समारोह मनाने जा रहे हैा, जो अनेक वर्षों तक चलेगा। हे वेण, अनचार का पालन न करो। यह तुम्हारा शाश्वत् कर्तव्य नहीं है। तुम प्रत्येक लक्षण से अत्रि के वंश के प्रजापति हो और तुम्हें अपनी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।'
उस मूर्ख वेण ने, जो सदाचार नहीं जानता था, इन महान ऋषियों की हँसी उड़ाते हुए उन्हें उत्तर दिया, 'मेरे अलावा कर्तव्य की आज्ञा देने वाला और कौन हो सकता है? मुझे किसकी आज्ञा का पालन करना है? इस पृथ्वी पर पवित्र ज्ञान, सामर्थ्य, तपस्या और सत्य में मेरे बराबर कौन हो सकता है? जो लोग झूठे तथा मूर्ख हैं, वे नहीं जानते कि मैं ही सभी मनुष्यों का स्रोत हूँ। इस कथन का विश्वास करने में कोई झिझक नहीं। यदि मैं चाहूँ तो सारी पृथ्वी जलाकर राख कर सकता हूँ। उस पर मूसलाधार वर्षा ला सकता हूँ अथवा स्वर्ग और पृथ्वी को बंदी बना सकता हूँ।'
अंत में उसकी अज्ञानता और मूर्खता के कारण जब वेण पर उसका कोई अधिकार नहीं चल सका, तब वे शक्तिशाली ऋषि क्रोधित हो गए और उन्होंने इस बलवान तथा झगड़ालू राजा को पकड़ लिया और उसकी बाई जांघ घिसने के बाद एक काला मनुष्य पैदा हुआ, जो कद का छोटा था और भयभीत होने के कारण हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। उसे उत्तेजित देखकर अत्रि ने कहा, 'बैठ जाओ निषाद।' वह बाद में निषाद वंश का संस्थापक बना। वह धीवर (मछेरे) लोगों का भी जन्मदाता है, जो वेण के भ्रष्ट आचरण से उत्पन्न हुए। इसी प्रकार विन्धयाचल निवासी तुरवार तथा तुम्बुरा, दोनों इसके इसी प्रकार के आचरण से उत्पन्न हुए, जो अत्यंत उच्छृंखल थे। बाद में उन्हीं शक्तिशाली ऋषियों ने क्रोधित और उत्तेजित होकर पुनः वेण के दाएं हाथ को घिसा, जैसे लोग अरनी की लकड़ी घिसते हैं और उससे अग्नि के समान तेजस्वी शरीर वाला प्रिथ उत्पन्न हुआ।
इस वेण के पुत्र (प्रिथ) ने बाद में हाथ जोड़कर उन महान ऋषियों को संबोधित किया, 'प्रकृति ने मुझे समझने की बहुत कमजोर शक्ति दी है। मुझे बताओ, मैं अपने कर्तव्यों को कैसे समझूँ? मुझे सही तरह से बताएँ कि मैं उनका उपयोग कैसे करूँ? मेरे ऊपर संदेह न करो। मेरे कर्तव्यों और उद्देश्यों के बारे में आप जो-कुछ भी कहेंगे, मैं पालन करूँगा।'
तब उन देवताओं तथा महान ऋषियों ने उनसे कहा -
'कोई भी कर्तव्य तुम्हें बताया जाए, उसका यह ध्यान किए बिना कि वह तुम्हें पसंद है अथवा नहीं, सभी प्राणिमात्र को समान दृष्टि से देखते हुए, क्रोध, लालसा तथा अहंकार, इन तीनों लालसाओं से दूर रहकर बिना झिझक पालन करो। अपनी सामर्थ्य से उन लोगों के शास्त्रों पर रोक लगाओ, जो सदाचार से हट जाते हैं। अपने कर्तव्य के प्रति निरंतर श्रद्धा रखो और मन, वचन, कर्म से तुम पृथ्वी पर वेद या ब्राह्मणों की रक्षा करोगे, और वचन दो कि तुम ब्राह्मणों को दंड नहीं दोगे, तब वेण के पुत्र ने उनकी बात मन से स्वीकार की। परिणामस्वरूप सभी ऋषि उससे प्रसन्न हुए। ज्ञानी मुनि शुक्र उसके पुरोहित बने। बालखिल्प और सारस्वत उसके मंत्री और गर्ग ऋषि उसकी ज्योतिषी बने।
दूसरा संघर्ष ब्राह्मण और क्षत्रिय राजा पुरुरवा के बीच हुआ। उसका संक्षिप्त संदर्भ महाभारत के आदि पर्व से प्राप्त हुआ है।
पुरुरवा का जन्म इला से हुआ था। उसका समुद्र के तेरह द्वीपों पर साम्राज्य था और ऐसे व्यक्ति उसके साथी थे, जो सभी श्रेष्ठ मानव थे। वह स्वयं भी एक महान और कीर्तिमान पुरुष था। अपनी सामर्थ्य के नशे में चूर होकर पुरुरवा ने ब्राह्मणों के साथ युद्ध करके उनके सभी अधिकार छीन लिए थे। यहाँ तक कि ब्रह्मा के स्वर्ग से प्रकट हुए सनत कुमार की चेतावनी को भी उसने नहीं माना। इस पर क्रोधित होकर ऋषियों ने उसे श्राप दे दिया। इस तरह से वह लोभी सम्राट अपनी शक्ति के अहंकार के कारण नष्ट हो गया।
तीसरे टकराव की घटना ब्राह्मणों और राजा नहुष के बीच में घटी। यह कहानी महाभारत के उद्योग पर्व में विस्तार से दी गई है। यह इस प्रकार से है -
राक्षस वृत्र की हत्या करने के बाद इंद्र एक ब्राह्मण की हत्या से घबरा गया (क्योंकि वृत्त को ब्राह्मण माना जाता था), और उसने अपने आपको छुपा लिया, तब देवताओं के इस राजा के अदृश्य हो जाने के कारण स्वर्ग तथा पृथ्वी का संपूर्ण व्यवहार भ्रम में पड़ गया, तब ऋषि और देवताओं ने नहुष से राजा बनने की प्रार्थना की। बहुत कहने के बाद उसने राजा बनना स्वीकार किया। इस पद पहुँचने से पहले तक उसने सदाचार का जीवन व्यतीत किया था, लेकिन भोग-विलास और ऐश्वर्य की सभी वस्तुओं के बीच वह अपने संयम को नियंत्रण में रख सका। इस तरह व रासलीला में खो गया, यहाँ तक कि इंद्र की पत्नी इंद्राणी को भी भोगने की उसकी इच्छा हुई। रानी ने देवताओं के गुरु अंगिरस बृहस्पति की शरण ली, जिसने उसे रक्षा का वचन दिया। इस पर राजा नहुष बहुत क्रोधित हुआ। देवताओं ने उसे बहुत समझाया, लेकिन नहुष बोला कि 'व्यभिचारी इच्छाओं में वह स्वयं इंद्र से अधिक बुरा नहीं है। प्रख्यात ऋषि की पत्नी अहिल्या के साथ इंद्र ने उसके पति के जीते जी ही संभोग किया था। तब आप सभी ने उसे क्यों नहीं रोका?'
नहुष के ऐसा कहने पर देवता इंद्राणी को लाने के लिए चले गए, लेकिन बृहस्पति उसे देने के लिए तैयार नहीं था, तथापि उसके कहने पर इंद्राणी ने नहुष से कुछ देर के लिए समय की याचना करते हुए कहा कि पहले वह जानना चाहती है कि उसके पति का क्या हुआ?
उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली गई। बाद में इंद्र की ओर से देवता विष्णु के पास गए और विष्णु ने वचन दिया कि यदि इंद्र उसके लिए बलि दे, तब वह दोषमुक्त हो जाएगा तथा अपना प्रभुत्व प्राप्त करेगा। इस तरह नहुष का नाश हो जाएगा। इस आधार पर इंद्र ने बलि दी, जिसका परिणाम इस प्रकार बताया गया है' ब्राह्मण हत्या का पाप, वृक्ष, नदियाँ, पर्वत, पृथ्वी, स्त्रियाँ तथा अन्य तत्वों में विभाजित होने के कारण देवों के राजा वसव (इंद्र) की दोषों तथा पाप से मुक्ति हो गई और वह आत्मानुशासित बन गया।' इसके कारण नहुष के श्रेष्ठत्व को धक्का पहुँचा। बताया जाता है कि उसने अपना प्रभुत्व पुनः प्राप्त कर लिया होगा, क्योंकि जैसा हमें बताया गया है, इंद्र फिर नष्ट हो गया था तथा अदृश्य हो गया था। जब इंद्र अदृश्य हो गया, तब इंद्राणी अपने पति की खोज में निकली। बहुत कोशिशों के बाद उपश्रिता (रात्रि तथा निशाचरों की देवी) की सहायता से उसने एक बहुत छोटे रूप में, हिमालय के उत्तर में समुद्र में कमल के डंठल पर से उसे जीवित खोज निकाला। उसने उसे नहुष के दुष्ट इरादों के बारे में बताया और कहा कि वह अपनी शक्ति के बल पर उसे मुक्त कराए और अपना प्रभुत्व पुनः स्थापित करे। चूँकि नहुष के पास इंद्र से अधिक शक्ति थी, अतः उसने कोई कदम उठाने से पहले उसे एक उपाय बताया, जिसमें अपहरण करने वाले को उसके स्थान से हटाया जा सकता है। उसने अपनी पत्नी से कहा कि वह नहुष से कहे, 'यदि वह ऐसी दिव्य पालकी पर सवार हो उसके पास आएगा, जिसे ऋषि कंधा दिए हों, तो वह स्वयं को उसे समर्पित कर देगी' इस प्रकार देवताओं की यह बात नहुष के पास पहुँची, जिसने इंद्राणी का स्वागत किया। उसने अपना प्रस्ताव रखा। उसने कहा, 'हे देवताओं के राजा, मेरी कामना है कि आप ऐसे वाहन पर सवार होकर आएँ जैसा विष्णु, रुद्र और राक्षसों के पास भी न हो और प्रख्यात ऋषि उसके सारथी हों।'
नहुष ने इस प्रार्थना का अनुमोदन किया और स्वयं अपने मुँह से अपनी प्रशंसा करते हुए कहा, जो मुनियों को अपना सारथी बनाए, वह किसी अल्प शक्ति का पुरुष नहीं हो सकता, मैं शक्ति का कठोर उपासक हूँ। मैं भूतकाल, वर्तमान तथा भविष्य का स्वामी हूँ और प्रत्येक बात मुझ पर ही निर्भर होती है। इसलिए हे देवी, तुम्हारे प्रस्ताव का मैं बिना संकोच पालन करूँगा। सात ऋषि तथा सभी ब्राह्मण मुनि मेरे रथ के सारथी होंगे। हे सुंदर देवी, अब तू मेरी शक्ति और चमत्कार देख।' इसी प्रकार यह कहानी आगे बढ़ती है। इसी के अनुसार, उस अहंकारी, क्रूर, धर्मद्रोही, दुष्ट तथा दुराचारी पुरुष ने सभी ऋषियों को अपने रथ खींचने के लिए बाध्य किया। इंद्राणी फिर बृहस्पति के पास गई, जिसने उसे आश्वासन दिया कि वह स्वयं उत्पीड़तकर्ता के विनाश के लिए यज्ञ करेगा और इंद्र का अदृश्य स्थान खोज निकालेगा। फिर अग्नि को इंद्र की खोज करने और बृहस्पति के पास लाने के लिए भेजा गया। इंद्र के आगमन पर बृहस्पति ने उसकी अनुपस्थिति में जो कुछ भी वहाँ हुआ, वे सारी बातें कह डालीं। जब इंद्र, कुबेर, यम, सोम तथा वरुण के साथ-साथ नहुष का विनाश करने की योजना बना रहे थे, तब अगस्त्य मुनि वहाँ आए और उन्होंने इंद्र को उसके प्रतिस्पर्धी की हार पर बधाई दी। घटना कैसे घटी, उसकी कहानी इस तरह से बताई है, उस पापी नहुष का रथ खींचते-खींचते ब्राह्मण ऋषियों ने महापुरुष नहुष से एक समस्या का समाधान करने को कहा और पूछा, 'हे महापराक्रमी कीर्तिवान राजा, जिन ब्राह्मण मंत्रों का पाठ राजा को बलि देते समय किया जाता है, उन्हें आप अधिकृत मानते हैं या नहीं?'
नहुष ने, जिसकी बुद्धि अंधकार से घिरी हुई थी, उत्तर दिया, 'नहीं' ऋषियों ने एक साथ मिलकर कहा, 'तुम अनाचार में वयस्त हमें सदाचार नहीं करने दे रहे हों। यह मंत्र, जिसका इसके पूर्व महान ऋषियों ने पठन किया है, हम इसे पवित्र मानते हैं।' इस तरह मुनियों से वाद-विवाद करते हुए, अनाचार से प्रभावित होकर राजा ने मेरे (मुनि अगस्त) मस्तक पर अपना पैर रख दिया, जिसके कारण राजा की कीर्ति समाप्त हुई और साथ ही शक्ति भी नष्ट हो गई। जब एकाएक वह उत्तेजित हो गया और भय से घबराया, तब मैंने कहा, 'हे मूर्ख, ब्रह्मा-समान स्तर वाले ऋषियों को अपना रथ खींचने के लिए बाध्य करते हो। अतएव तुम अपनी कीर्ति तथा योग्यता खोकर स्वर्ग से उतरकर धरती पर निवास करो। तब आगे चलकर तुम एक हजार वर्षों तक धरती पर साँप की तरह घिसटते रहोगे और समय पूरा होने पर स्वर्ग में जाओगे।'
इस तरह उस दुष्ट मनुष्य का पतन हो गया।
इसके पश्चात राजा निमी और ब्राह्मण के संघर्ष का संदर्भ है। विष्णु पुराण में यह कथा निम्न प्रकार से है -
राजा निमी ने ब्राह्मण ऋषि वशिष्ठ से एक ऐसे यज्ञ का अधिष्ठाता बनने की प्रार्थना की, जो एक हजार वर्षों तक चले। उत्तर में वशिष्ठ ने कहा कि वे पाँच सौ वर्षों के लिए इंद्र के साथ यज्ञ करने में पहले से ही व्यस्त हैं और उन्होंने अपनी असमर्थता व्यक्त की, लेकिन कहा कि इस अवधि के बीत जाने के बाद वे उसके पास लौट आएँगे। राजा ने कुछ नहीं कहा और वशिष्ठ वहाँ से चले गए, लेकिन वापस लौटने पर ऋषि ने देखा कि राजा ने गौतम ऋषि (जो कि ब्राह्मण ऋषि वशिष्ठ के बराबर तेजस्वी थे) और अन्य ऋषियों को उस यज्ञ के लिए नियुक्त किया। उपेक्षा से भरे व्यवहार से क्षुब्ध होकर उन्होंने राजा को, जो उस समय नींद में था, श्राप दिया कि उसका शरीर नष्ट हो जाएगा। इसकी प्रतिक्रिया में राजा ने भी वशिष्ठ को श्राप दिया। राजा के श्राप ने भी अपना प्रभाव दिखलाया। उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई। बाद में वशिष्ठ ने दूसरा शारीरिक रूप धारण किया। इस श्राप के परिणामस्वरूप वशिष्ठ का भी तब पुनर्जन्म हुआ, जब उर्वशी को देखकर ऋषियों के वीर्य की बूंदें गिरीं। निमी के शव का संलेपन किया गया। जिस यज्ञ को वशिष्ठ ने आरंभ किया था, उसके समापन पर देवगण ऋषि-मुनियों से विचार-विमर्श के बाद उसे पुनर्जीवित करना चाहते थे, लेकिन वशिष्ठ ने इंकार कर दिया, तब देवताओं ने उसकी इच्छा के अनुसार उसका अस्तित्व सभी जीवित प्राणियों की आँखों के अंदर सुरक्षित कर रख दिया। इसी तथ्य के परिणामस्वरूप वे (ऋषि-मुनि) आँखों को मूँदते-खोलते रहते हैं (निमिष का अर्थ है, पलक झपकाना) मनु ने ब्राह्मणों और राजा सुमुख के बीच एक अन्य संघर्ष की चर्चा की है, लेकिन इस संघर्ष के विस्तृत विवरण नहीं मिलते।
ब्राह्मण और क्षत्रिय राजाओं के बीच जो संघर्ष हुए, उनके यह कुछ-एक उदाहरण हैं। इन उदाहरणों से हमें ऐसा नहीं समझना चाहिए कि ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच दो वर्गों के रूप में संघर्ष नहीं हुए। इन दो वर्गों के बीच भी संघर्ष हुए, जो कि राजाओं के साथ हुए संघर्षों से निराले हैं। यह बात ऐतिहासिक मान्यता प्राप्त सामग्री से स्पष्ट होती है। इस संदर्भ में तीन घटनाओं का उल्लेख किया जा सकता है।
पहला संदर्भ दो व्यक्तियों-विश्वामित्र और वशिष्ठ के बीच है, जो क्रमशः क्षत्रिय और ब्राह्मण थे। उन दोनों के बीच वाद-विवाद का विषय था कि क्या कोई क्षत्रिय ब्राह्मणत्व का दावा कर सकता है?
रामायण में इस कथा का उल्लेख है और निम्न प्रकार से हैं -
उसी कहानी के आधार पर हमें पता चलता है कि पहले कुश नाम का एक राजा था, जिसके पिता का नाम प्रजापति था। कुश राजा का भी एक पुत्र था जिसका नाम कुशनाम था। कुशनाम गाधि का पिता था। गाधि विश्वामित्र का पिता था। इसी विश्वामित्र ने पृथ्वी पर हजारों वर्ष राज्य किया। एक बार जब वह पृथ्वी की परिक्रमा कर रहा था, वशिष्ठ के आश्रम जा पहुँचा। वरिष्ठ का यह आश्रम अनेक ऋषि-मुनियों तथा भक्तों का निवास था। काफी अनुनय-विनय के बाद विश्वमित्र ने वशिष्ठ के अनुयायियों द्वारा किए गए आदर-सत्कार को स्वीकार कर लिया। बाद में वहाँ अद्भुत गाय देखकर विश्वमित्र आश्चर्य में पड़ गया और अचानक उसके मन में गाय लेने का लालच आ गया। वह गाय कोई साधारण गाय नहीं थी, बल्कि आश्रमवासियों को दूध के साथ सभी तरह का खाना देती थी। पहले तो वशिष्ठ ने कहा कि इस गाय के बदले में हजारों साधारण गायें दे सकते हैं। साथ ही उन्होंने अधिकारपूर्ण स्वर में यह भी कहा कि यह गाय तो एक अनमोल रत्न है और रत्न राजा की संपत्ति होते हैं। इसलिए उस पर राजा का ही अधिकार है।
राजा विश्वामित्र द्वारा गायों की संख्या में वृद्धि करने पर भी वशिष्ठ ने अस्वीकार कर दिया। तब उसी गाय के बदले राजा ने और कीमत बढ़ाई, लेकिन वशिष्ठ का यह भी स्वीकार न था। उसने स्पष्ट इंकार करते हुए कह दिया कि किसी भी कीमत पर वे उस गाय को नहीं देंगे। राजा को यह सब सुनकर क्रोध आना ही था। अतः राजा ने कृतघ्न और निर्दयी बनते हुए आगे बढ़कर गाय जबरन छीनी, लेकिन वह अद्भुत गाय राजा के सेवकों के हाथों से निकलर अपने मालिक के पास भागकर आ गई और उससे शिकायत की कि वह उसे छोड़ना चाहता है। इस पर वशिष्ठ ने उत्तर दिया कि वह उसे छोड़ना नहीं चाहता, लेकिन विवश है कि क्योंकि राजा उससे कहीं अधिक शक्तिशाली है। तब गाय ने उत्तर दिया, 'मनुष्य क्षत्रिय को शक्तिशाली नहीं मानते। ब्राह्मण उनसे अधिक शक्तिशाली होते हैं, ब्राह्मणों के पास दैवी शक्ति होती है, जो क्षत्रियों की शक्ति से श्रेष्ठ है। उनकी शक्ति नापी नहीं की जा सकती। विश्वामित्र यद्यपि अत्यंत प्रतापी हैं, लेकिन आपसे अधिक शक्तिशाली नहीं हैं। आपकी शक्ति अजेय है। मुझे इजाजत दो, क्योंकि मेरे अंदर ब्राह्मण से पूर्ण बल है। मैं इस दुष्ट राजा का अहंकार तथा शक्ति को नष्ट कर दूंगी।'
तब इस गाय ने अपनी गर्जनी से सैंकड़ों पहलवानों को पैदा किया, जो राजा विश्वमित्र की सारी सेना को नष्ट कर देते हैं, लेकिन बाद में विश्वामित्र ने उन सबको मार गिराया। इस स्थिति से निपटने के लिए उस गाय ने हथियारबंद शक और यवनों का निर्माण किया, जो राजा की सेना को लील गए, परंतु अंत में उनका भी राजा ने नाश कर दिया। इसके बाद उस गाय ने अपने शरीर के अंगों से बहुत से योद्धाओं को उत्पन्न किया, जिन्होंने विश्वामित्र के पैदल सैनिकों, हाथी, घोड़े, रथ आदि को ध्वस्त कर दिया। क्रोध में आकर राजा विश्वामित्र के सैकड़ों पुत्रों ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों सहित वशिष्ठ पर हमला कर दिया, परंतु एक पल में ही वशिष्ठ ने उन्हें अपने मुँह की ज्वाला से जलाकर राख कर दिया। इस तरह से पूर्ण रूप से पराजित हो जाने पर विश्वामित्र अपने एक पुत्र को साम्राज्य सौंप कर हिमालय की यात्रा पर चला गया, जहाँ उसने गहन तपस्या की और महादेव से दिव्य ज्ञान प्राप्त किया। महादेव ने उसकी तपस्या से प्रभावित होकर शस्त्रास्त्र विद्या का ज्ञान दिया। इससे विश्वमित्र घमंड से भर उठा और उसने वशिष्ठ के आश्रम को ध्वस्त कर दिया और आश्रमवासियों को वहाँ से भाग जाने को विवश कर दिया। तब विश्वामित्र को धमकी देते हुए वशिष्ठ ने अपनी ब्राह्मण-शक्ति से युक्त गदा उठाई। विश्वामित्र ने भी अपने शस्त्र उठाते हुए विरोधी को सामने आने के लिए कहा। वशिष्ठ ने उसे अपनी शक्ति दिखाने को ललकारा और कहा कि वह अभी उसके घमंड को चूर-चूर कर देगा। उसने कहा, 'क्षत्रिय की सामर्थ्य और किसी महान ब्राह्मण की सामर्थ्य में कैसी तुलना हो सकती है? अरे देखो, नीच क्षत्रिय, मेरी दिव्य ब्राह्मण शक्ति।'
जैसे पानी से लिपटकर अग्नि बुझ जाती है, उसी प्रकार उस गाधि के पुत्र विश्वामित्र का वह भयानक शस्त्र ब्राह्मण वशिष्ठ की गदा से नष्ट हो गया। इस प्रकार बाद में एक-एक कर विश्वामित्र ने अनेक तरह से अग्नि बाण, विष्णु का चक्र और शिव का त्रिशूल आदि वशिष्ठ की तरफ फेंके, पर वह सभी को अपनी गदा से नष्ट कर देता था। अंत में देवताओं को भी भयभीत करने वाला ब्रह्मास्त्र विश्वामित्र ने छोड़ा, लेकिन वह भी उस ब्राह्मण ऋषि के सामने निष्फल हो गया। वशिष्ठ ने अत्यंत ही भयानक रूप धारण कर लिया। उसके शरीर के छिद्रों से धुएँ के साथ अग्नि निकली। उसके हाथ में वह गदा धरती पर प्रचंड अग्नि के रूप में भड़की। उस समय वह यम का ही दूसरा रूप बन गया था। बाद में अनेक मुनियों के कहने पर वशिष्ठ में मन में आई बदले की भावना का परित्याग कर दिया। तब विश्वामित्र ने कराहते हुए कहा, 'क्षत्रिय की शक्ति को धिक्कार है, ब्राह्मण का बल ही वास्तविक शक्ति है; एक अकेले ब्राह्मण की गदा ने उसके सारे शस्त्र नष्ट कर दिए।' अब कोई विकल्प नहीं बचा। या तो वह इस असहाय स्थिति से संतुष्ट रहे या फिर ब्राह्मण के उस शक्तिशाली पद पर पहुँचने के लिए प्रयास करे, लेकिन उसने दूसरे रास्ते को ही स्वीकार किया। अपनी इंद्रियों तथा मन पर नियंत्रण रखते हुए ब्राह्मण पद तक पहुँचने के उद्देश्य से घोर तपस्या करने के लिए वह अपने शत्रु से तिरस्कृत और दुखी होकर अपनी रानी के साथ दक्षिण की यात्रा पर चला गया। वहाँ जाकर उसने अपना संकल्प पूरा किया और उसके बाद हमें बताया गया कि उसके हवीशयनंद, मधुसियानंद और द्रिधनेत्र नाम के तीन पुत्र जन्मे। एक हजार साल के अंत में ब्रह्मा प्रकट हुआ और घोषणा की कि उसने स्वर्ग जीत लिया है और उसकी घोर तपस्या के फलस्वरूप राजर्षि का प्रद प्राप्त कर लिया है। अत्यंत दुःखी और लज्जित होकर विश्वामित्र कहते हैं, 'यद्यपि मैंने घोर तपस्या की फिर भी देवता और ऋषि मुझे केवल राजर्षि ही मानते हैं, ब्राह्मण नहीं।' इन्हीं व्यक्तियों अथवा इस नाम के विभिन्न व्यक्तियों का जो विवरण प्राप्त है, उस पर विवाद है, लेकिन उसका विषय भिन्न है।
इक्ष्वाकु के वंशजों में से एक राजा त्रिशंकु ने एक ऐसे यज्ञ-समारोह करने की योजना बनाई थी, जिसके द्वारा वह अपने शरीर के साथ सीधे स्वर्ग में जा सकता था। इस कार्य हेतु वशिष्ठ को आमंत्रित किया गया, परंतु उसने इस कार्य को असंभव बतलाया। इस पर त्रिशंकु ने दक्षिण की यात्रा की, जहाँ वशिष्ठ के सौ पुत्र तपस्या कर रहे थे। उसने उनसे भी वही कार्य करने की प्रार्थना की, जिसे उनके पिता ने करने से इंकार कर दिया था। यद्यपि उसने उनको बहुत ही आदर तथा नम्रता के साथ संबोधित किया और यह भी कहा कि इक्ष्वाकु उन्हें अपना पारिवारिक पुरोहित तथा कठिन समय में सबसे बड़ा सहारा मानता था। वह स्वयं भी उन्हें अपना संरक्षक कुल देवता मानता है।
इसके बावजूद इन पुरोहितों से उसे ऐसी फटकार मिली, 'अक्षम्य, मूर्ख, तुम्हें सत्य बोलने वाले हमारे गुरु ने इंकार किया है। तब उसके इंकार को न मानते हुए तुम दूसरी शाखा के पास कैसे जा सकते हो? कुल पुरोहित सभी इक्ष्वाकु लोगों के लिए एक श्रेष्ठ दैवी उपदेशक है और उस सत्यवादी व्यक्तित्व की आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। उस दिव्य ऋषि ने घोषित किया कि यह संभव नहीं है। फिर हम ऐसा यज्ञ कैसे कर सकते हैं। तुम मूर्ख राजा हो। अच्छा यही है कि तुम वापस अपनी राजधानी लौट जाओ। तीनों संसार के पुरोहित वशिष्ठ का हम अनादर कैसे कर सकते हैं? तब त्रिशंकु ने उन्हें समझाया कि अगर उसके गुरु तथा गुरु के पुत्रों ने उसकी यह प्रार्थना मानने से इंकार कर दिया, तब वह दूसरा रास्ता अपनाने के बारे में विचार कर सकता है। अपने इसी विचार को व्यक्त करने का परिणाम राजा त्रिशंकु को भुगतना पड़ा। उसे चांडाल बनने का श्राप दे दिया गया। जैसे ही उस पर श्राप का प्रभाव होने लगा, राजा का रूप एक पतित अछूत में बदलने लगा। तब वह विश्वामित्र के पास (जो उस समय दक्षिण में रहता था) अपने गुणों व ईश्वरीय भक्ति का वर्णन और अपनी दुर्दशा पर विलाप करते हुए सहायता के लिए दौड़ा। विश्वामित्र को उसकी यह अवस्था देखकर वास्तव में ही दया आई और चांडाल के ही रूप में उसे सीधे स्वर्ग भेजने का वचन दिया। उसने कहा, 'स्वर्ग अब तुम्हारे ही अधिकार में है, क्योंकि तुम कुशिक के पुत्र की शरण में आए हों' बाद में उसने यज्ञ की तैयारी करने तथा समारोह में वशिष्ठ के परिवार सहित सभी ऋषियों को आमंत्रित करने का आदेश दिए। विश्वामित्र के शिष्यों ने, जिन्होंने वशिष्ठ के लोगों तक उसका यह संदेश पहुँचाया, वापस लौटकर बताया, 'आपका संदेश सुनने के बाद सभी देशों के ब्राह्मण यहाँ एकत्रित हो गए हैं, परंतु वशिष्ठ नहीं आए।' वशिष्ठ के सौ पुत्रों ने क्रोध में काँपते हुए कहा था, 'देवता और ऋषि, चांडाल के यज्ञ को कैसे संपन्न कर सकते हैं? वह भी तब, जब उस यज्ञ का पुरोहित कोई क्षत्रिय हो।
किसी चांडाल का अन्न खाकर तथा विश्वामित्र को यह सब जानकर बहुत क्रोध आया। उसने वशिष्ठ और उसके पुत्रों को जलकर राख होने और फिर सौ जन्मों के लिए पतित-नीच और वशिष्ठ को निषाद के रूप में पुनर्जन्म लेने का श्राप दिया। यह जानने पर कि श्राप ने अपना प्रभाव दिखाना शुरू कर दिया, विश्वामित्र ने त्रिशंकु की प्रशंसा करते हुए वहाँ एकत्रित ऋषियों को यज्ञ करने को कहा। विश्वामित्र के उस भयानक क्रोध के कारण दूसरे ऋषियों ने उसकी बात मान ली। विश्वामित्र ने यज्ञ में स्वयं यज्ञक का कार्य किया और दूसरे ऋषियों को पुरोहित (ऋत्विज्ञ) बनाकर शेष सभी समारोह किए। बाद में विश्वामित्र ने देवताओं को समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया और देवता जब नहीं आए तो क्रोधित होकर विश्वामित्र ने यज्ञ का करछुल उठाकर त्रिशंकु को इस तरह संबोधित किया, हे सम्राट, यह शक्ति मैंने अपने प्रयास द्वारा घोर तपस्या करके प्राप्त की है। मैं अपनी शक्ति के बल पर तुम्हें स्वर्ग पहुँचाऊँगा। उस स्वर्गीय क्षेत्र में ऊपर जाओ, जो किसी भी मृतलोक के मनुष्य के लिए अति कठिन है। मैंने निश्चित ही अपनी तपस्या से कुछ उपहार प्राप्त किए हैं।'
त्रिशंकु तत्काल सीधे स्वर्ग पहुँच गया और सभी मुनि देखते रह गए, लेकिन इंद्र ने उसे वापस लौट जाने का आदेश दिया, क्योंकि त्रिशंकु ऐसा मनुष्य था, जो अपने धार्मिक गुरु के श्राप से श्रापित था और इसीलिए स्वर्ग में रहने के योग्य नहीं था। तब इंद्र ने उसे सीधा पृथ्वी पर सिर के बल गिर जाने के लिए कहा। इस तरह से वह नीचे गिरने लगा। ऐसी स्थिति में उसने चिल्लाकर अपने धार्मिक संरक्षक से सहायता माँगी। विश्वामित्र ने गुस्से में उसे रुकने के लिए कहा। तब विश्वामित्र ने आकाश के दक्षिण भाग में अपने दिव्य ज्ञान की शक्ति तथा घोर तपस्या द्वारा एक दूसरे प्रजापति के समान सात ऋषियों की रचना की, यानी सात नक्षत्रों का नक्षत्र-मंडल बनाया। इस तरह से स्वर्ग के एक हिस्से में आगे बढ़ते हुए उस ऋषि ने अन्य नक्षत्रों के बीच तारों की एक माला की रचना की। उसने क्रोध से उत्तेजित होकर घोषणा की, 'मैं एक अन्य इंद्र का निर्माण करूँगा या फिर संसार में कोई इंद्र ही नहीं होगा।'
क्रोध में उसने देवताओं को भी पुकारना शुरू किया। अब ऋषि, देवता और असुर, सभी ने सचेत होकर विश्वामित्र से समझौते के स्वर में कहा कि त्रिशंकु को क्योंकि उसके गुरु ने श्राप दिया है, इसलिए जब तक कि वह शुद्ध न हो जाए, उसे शारीरिक रूप में प्रवेश न दिया जाए। ऋषि ने उत्तर दिया कि उसने त्रिशंकु को वचन दिया है और उसने देवताओं से प्रार्थना की कि उसे उसके शरीर के साथ स्वर्ग में रहने की अनुमति दी जाए और नव-निर्मित तारों को भी आकाश में निरंतर अपने स्थान पर रहने की अनुमति दी जाए। देवताओं ने इस बात पर सहमति दी और कहा कि यह तारे अपने ही स्थान पर, लेकिन सूर्य के मार्ग के बाहर होंगे। त्रिशंकु उनके बीच अपना सिर झुकाते हुए प्रकाशित होता रहेगा और अन्य तारे उसका अनुसरण करेंगे। इस तरह उसका लक्ष्य पूरा हो जाएगा, उसकी कीर्ति भी सुरक्षित रहेगी और वह अन्य लोगों के समान स्वर्ग का निवासी बन जाएगा।' इस प्रकार इस विवाद पर समझौता किया गया, जिसे विश्वामित्र ने स्वीकार किया। (यह त्रिशंकु की कहानी है। यह भी देखा गया है कि यह हरिवंश पुराण में वर्णित कथा से भिन्न है, लेकिन कथा में वशिष्ठ और विश्वामित्र के बीच विवाद को स्पष्ट रूप से चित्रित किया गया है।) यज्ञ के समाप्त होने पर जब सभी देवता और ऋषि चले गए, तब विश्वामित्र ने अपने भक्तों से कहा, 'दक्षिण की यह घटना हमारी तपस्या में बाधा बन गई है। हमें किसी अन्य दिशा में जाकर तपस्या करनी चाहिए।' इस तरह वह पश्चिम में किसी जंगल में चला गया और वहाँ उसने अपनी तपस्या फिर से आरंभ की। यहाँ पर फिर से एक अन्य घटना से अवरोध उत्पन्न होता है। यह कहानी राजा अंबरीष की है, जो रामायण के अनुसार अयोध्या का राजा था। वह इक्ष्वाकु का 28वां और त्रिशंकु का 22वां वारिस था। विश्वामित्र को इन दोनों राजाओं का समकालीन माना गया है। इस कथा के आधार पर अंबरीष एक यज्ञ-समारोह में व्यस्त था। तब इंद्र उसकी बलि उठाकर ले गया। पुरोहितों ने कहा कि यह अशुभ घटना राजा के भ्रष्ट शासन के कारण हुई। इसके लिए कोई मानव-बलि देकर बड़ा प्रायश्चित कर लेना चाहिए।
एक लंबी खोज के बाद वह राजर्षि (अंबरीष) एक ब्राह्मण ऋषि ऋचिका के पास पहुँचा, जो भृगु का वंशज था। उसने पुत्रों में से एक पुत्र की बलि देने के लिए (एक सौ हजार गायों की कीमत के बदले में बेचने के लिए) कहा। ऋचिका ने उत्तर दिया - वह अपना ज्येष्ठ पुत्र नहीं बेच सकता; और उसकी पत्नी ने कहा-वह अपना कनिष्ठ पुत्र नहीं बेचेगी। उसने कहा कि ज्येष्ठ पुत्र पिता और कनिष्ठ पुत्र माँ को प्रिय होता है। ऋचिका के दूसरे पुत्र सुनस्सेप ने कहा कि तब मैं अपने-आपको बेचने के योग्य मानता हूँ और उसने राजा से कहा कि वह उसे ले जाए। उसके बदले में एक सौ हजार गाय तथा एक सौ लाख स्वर्ण मुद्राएँ और रत्नों के अनेक भंडार के रूप में उसकी कीमत चुकाकर राजा सुनस्सेप को अपने साथ ले गया। जब वे पुस्कर वन से गुजर रहे थे, सुनस्सेप की अपने मामा विश्वामित्र से भेंट हो गई, जो वहाँ अन्य ऋषियों के साथ तपस्या कर रहा था। सुनस्सेप उसकी गोद में जा गिरा और उसने अपने-आपको अनाथ बताकर सहायता माँगी और कहा कि वह उसका आश्रय चाहता है। विश्वामित्र ने उसे शांत किया और उसके स्थान पर अपने पुत्रों को बलि बनने के लिए कहा।
इस प्रस्ताव को मधुशानंद तथा उसके अन्य पुत्रों ने नहीं माना। उन्होंने उपहास के स्वर में कहा, 'वह अपने ही पुत्रों की बलि देकर दूसरों को कैसे बचाना चाहता है? वे इसे गलत मानते हैं।' अपनी आज्ञा का अनादर होने के कारण ऋषि बहुत ही क्रोधित हो गए और उन्होंने वशिष्ठ के पुत्रों के समान अपने पुत्रों को भी सबसे पतित वर्णों में जन्म लेने और एक हजार वर्षों तक कुत्ते का माँस खाने का श्राप दिया। तत्पश्चात् उसने सुनस्सेप से कहा, 'जब तुझे पवित्र धागे से लाल माला पहनाकर तथा तेलों का अभिलेप करके विष्णु के बलिदान के खंबे से बाँध दिया जाए, तब अग्नि की प्रार्थना करो और अंबरीष के यज्ञ में इन दो दैवी गाथाओं की स्तुति करो! तुम्हारी कामना की पूर्ति हो जाएगी।' उन गाथाओं को प्राप्त करने के बाद सुनस्सेप ने राजा अंबरीष को तत्काल अपने इष्ट प्रदेश पहुँचने का सुझाव दिया। बाद में लाल वस्त्र पहने हुए जब उसे बलि स्थान पर बाँध दिया गया, तब उसने इंद्र और उसके छोटे भाई (विष्णु) की उन सर्वोत्तम गाथाओं द्वारा अराधना की। हजार नेत्र वाला इंद्र उसकी पवित्र गाथा सुनकर प्रसन्न हो गया और उसने सुनस्सेप को दीर्घायु कर दिया। राजा अंबरीष ने भी इस यज्ञ द्वारा बड़े लाभ प्राप्त किए। इस बीच विश्वामित्र ने अपनी तपस्या जारी रखी, जो एक हजार वर्ष तक चलती रही। तपस्या की समाप्ति पर देवता उसे वरदान देने के लिए आए, और ब्राह्मण ने उद्घोषणा की कि उसने ऋषि क पद प्राप्त किया है। इस प्रकार वह एक कदम और आगे हो गया, लकिन इससे असंतुष्ट होकर मुनि ने अपनी तपस्या फिर से आरंभ की। कुछ समय बाद उसने मेनका को देखा, जो पुष्कर सरोवर में स्नान करने के लिए आई थी। मेनका अपूर्व सौंदर्य की जीती-जागती मूर्ति थी। उसने अपने आकर्षक रूप की चकाचौंध से विश्वामित्र को विमोहित कर दिया। उसके आकर्षण की ज्वाला में दग्ध मुनि ने अपनी सहचरी बनने के लिए उसे कुटिया में बुलाया।
इस तरह से दस वर्षों तक वह मेनका के मायाजाल में फंसा रहा, जो उसकी तपस्या के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ। इन दस वर्षों में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसे इस बात का भी पता चल गया कि यह सब षड्यंत्र उसकी तपस्या भंग करने के लिए था। अतः मेनका (अप्सरा) को विदा कर वह स्वयं भी उत्तर में पहाड़ों पर चला गया, जहाँ उसने एक हजार वर्षों तक कोसिकी नदी के किनारे घोर तपस्या की। उसकी तपस्या को देखकर देवता चिंतित हुए और उन्होंने निर्णय लिया कि उसे महान ऋषि (महर्षि) की उपाधि देकर सम्मानित किया जाए, और ब्रह्मा ने सभी देवताओं के परामर्श को स्वीकार करते हुए बतलाया कि विश्वामित्र को महर्षि की पदवी प्रदान की गई है। विश्वामित्र ने हाथ जोड़ नतमस्तक होकर कहा कि 'यदि उसे ब्रह्म ऋषि की अपूर्व उपाधि प्रदान की जाए, तभी वह मानेगा कि उसने अपनी इंद्रियों पर संपूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लिया है। इस पर ब्रह्मा ने उत्तर दिया कि अभी उसने अपनी इंद्रियों पर पूरी तरह से नियंत्रण की शक्ति प्राप्त नहीं है। इसके लिए उसे और अधिक प्रयास करने चाहिए। अपने लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए मुनि ने अपने-आपको कठिन तपस्या में समर्पित कर दिया। तपस्या के दौरान उसने बहुत कष्ट सहे। उदाहरण के लिए अपने हाथों से बिना कोई सहारा लिए खड़ा रहने लगा तथा केवल हवा के सहारे ही जीवित रहने लगा। गर्मी, सर्दी और वर्षा की ऋतुओं तक ऐसा ही चता रहा। अंत में इंद्र तथा अन्य देवता उसकी तपस्या के बढ़ते प्रभाव को देखकर व्याकुल हुए। उन सभी ने रूपसी रंभा को मुनि की तपस्या भंग करने के लिए कहा, लेकिन रंभा ने उस उग्र मुनि के भयंकर कोप का सामना करने में अपनी असमर्थता जताई, लेकिन इंद्र के बार-बार कहने पर उसके आदेश का पालन करने के लिए वह तैयार हो गई। इंद्र तथा कंदर्प (प्रेम के देवता) ने उसे वचन दिया कि वे उसकी रक्षा करेंगे। इस पर रंभा ने मुनि की तपस्या भंग करने के लिए अत्यंत आकर्षक रूप धारण किया, लेकिन मुनि को रंभा की नीयत पर संदेह हो गया और क्रोधित होकर शाप दिया। शाप ने अपना प्रभाव दिखलाया। इंद्र और कंदर्प निराश हो गए। यद्यपि विश्वामित्र ने अपनी वासना पर नियंत्रण रखा, लेकिन क्रोध पर नियंत्रण न रख पाने के कारण उसकी तपस्या नष्ट हो गई। उसे वही तपस्या फिर से आरंभ करनी पड़ी। अब वह बिल्कुल शांत रहने लगा अर्थात वर्षों तक उसने श्वास तक लेना बंद कर दिया; तब उसने हिमालय को छोड़कर पूर्व की यात्रा की, जहाँ उसने एक भयानक प्रयोग किया और मौन धारण कर उसने एक हजार वर्षों तक तपस्या की। तपस्या के इतिहास में इस तरह का कोई दूसरा ऐसा उदाहरण नहीं मिलता। हालाँकि इस दौरान बहुत-सी कठिनाइयाँ उसके रास्ते में आईं, पर वह क्रोध से जरा भी विचलित नहीं हुआ और अंत में अपने उद्देश्य को प्राप्त करने में सफल हुआ। तपस्या की अवधि की समाप्ति पर उसने खाने के लिए कुछ अन्न तैयार किया।
इंद्र ने भिखारी के रूप में आकर भीख माँगी। विश्वामित्र को अपना भोजन देना पड़ा और उसे भूखे ही रहना पड़ा, क्योंकि उसने शांत रहने की प्रतिज्ञा की थी। 'चूँकि उसने श्वास न लेने की प्रक्रिया जारी रखी, उसके सिर से धुआँ निकलने लगा, जिसके कारण तीनों संसार त्रस्त और भयभीत हो गए।' तब देवताओं और ऋषियों ने कहा, 'इस महान मुनि विश्वामित्र को अनेक प्रकार से प्रलोभित तथा उत्तेजित करने के प्रयास किए गए, लेकिन इन सभी बाधाओं को पार करते हुए वह अपनी सिद्धि की ओर बढ़ता जा रहा है।'
इस बारे में यह भी कहना जरूरी है कि यदि उसकी इच्छा न मानी गई तो वह अपनी तपस्या के प्रभाव से तीनों लोक नष्ट कर सकता है। संपूर्ण सृष्टि त्रस्त है। कहीं पर भी कोई उजाले की किरण दिखाई नहीं दे रही। समुद्र डांवाडोल हो रहे हैं, पहाड़ चूर-चूर हो रहे हैं। धरती कांप रही है और हवा भ्रमित होकर बह रही है। हे ब्रह्मा! हमें वचन दो कि मानव सृष्टि नास्तिक नहीं बनेगी, इससे पूर्व कि उग्र स्वभाव का वह महान और कीर्तिमान ऋषि सब कुछ नष्ट कर दे, हमें उसे प्रसन्न करना चाहिए। तब देवताओं ने ब्रह्मा के नेतृत्व में विश्वामित्र से प्रार्थना की, 'हे ब्राह्मण ऋषि, हम तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हैं। हे कुशिक, तुमने अपने धैर्य से ब्राह्मणत्व प्राप्त कर लिया है। हे ब्राह्मण, अपने मारुतों के साथ हम तुम्हें दीर्घायु प्रदान करते हैं। प्रत्येक आशीर्वाद तुम्हें प्राप्त हो, तुम जहाँ चाहे, जा सकते हो।' इससे प्रसन्न होकर विश्वामित्र ने देवताओं को प्रणाम किया और कहा, 'यदि मैंने ब्रह्मत्व प्राप्त कर लिया है, तब ओइम् और यज्ञ सूत्र तथा वेद मुझे इस योग्यता में मान्यता प्रदान करें और ब्राह्मण का पुत्र वशिष्ठ, जो कि छात्र विद्या तथा ब्रह्मण विद्या आदि सभी क्षेत्रों में पूर्ण रूप से निपुण माना जाता है, वह भी मुझे इस प्रकार संबोधित करे। तदनुसार देवताओं ने वशिष्ठ से प्रार्थना की और उसने विश्वामित्र के साथ समझौता कर लिया। साथ ही ब्राह्मण ऋषि के पद पर उसका अधिकार स्वीकृत कर लिया।... विश्वामित्र ने भी ब्राह्मण की श्रेणी प्राप्त करने क लिए वशिष्ठ का पूर्ण सम्मान किया।
ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच वर्ण-संघर्ष की दूसरी घटना क्षत्रियों द्वारा ब्राह्मणों की हत्या से संबंधित है। यह कहानी महाभारत के आदिपर्व में वर्णित है, जो इस तरह से है।
कृतवीर्य नाम का एक राजा था, जिसकी दानशीलता के कारण वेदों के ज्ञाता राजा के पुरोहित भी थे और उसी कारण वे अपनी जीविका उपार्जन करते थे। उन्होंने इस बीच काफी अन्न और धन भी कमाया। जब राजा की मृत्यु हुई, तब उसके वंशजों को धन की कमी हो गई और तब इसकी याचना के लिए वे भृगुओं के पास आए, क्योंकि वे उनकी संपत्ति के बारे में जानते थे। कुछ भृगु लोगों ने अपना धन जमीन के नीचे छिपाकर रखा था, तो कुछ ने इसे ब्राह्मणों को दान कर दिया, क्योंकि वे क्षत्रियों से डरते थे, जबकि कुछ लोगों ने उन्हें बिना कुछ दिए लौटा दिया। एक बार ऐसा भी हुआ कि एक क्षत्रिय को किसी भृगु के मकान की जमीन खोदते समय उसमें गड़ा धन मिल गया। तब सभी क्षत्रिय इकट्ठे हो गए और उन्होंने इस खजाने को देखा। इससे उन्हें गुस्सा आ गया। परिणामस्वरूप उन्होंने सभी भृगुओं की उनकी गर्भवती स्त्रियों सहित हत्या कर दी। बाद में उनकी विधवाएँ हिमालय पर्वत की ओर पलायन कर गई। उनमें से एक विधवा ने अपने अजन्में बच्चे को अपनी जांघ में छिपा लिया। क्षत्रियों को जब किसी ब्राह्मणी से उसके जीवित रहने की खबर मिली, तब उन्होंने उसकी हत्या करनी चाही, लेकिन वह बच्चा अपनी माँ की जांघ से बाहर निकला और उसने अपने हत्यारों को अंधा बना दिया। कुछ दिनों तक इसी प्रकार पहाड़ों में भटकते रहने के बाद उन्होंने उसी बच्चे की माँ से उन्हें दृष्टि प्रदान करने की प्रार्थना की, परंतु उसने उन लोगों को उस चमत्कारिक बालक उर्व के पास भेजा, जिसमें संपूर्ण वेदों ने अपने छह उपांगों के साथ प्रवेश किया था। उसी बालक ने अपने रिश्तेदारों की हत्या के बदले में उनकी दृष्टि छीन ली थी; और वे जब उसकी शरण में गए तो उनकी दृष्टि वापस मिल गई तथापि उर्व ने भृगु लोगों की हत्या के बदले में सभी प्राणियों को नष्ट करने की साधना की और तपस्या करते-करते ऐसी स्थिति में पहुँच गया कि उसके कारण देवता-असुर, दोनों और मनुष्य भी घबरा गए, लेकिन उसके पूर्वज (पितृ) स्वयं प्रकट हुए और उसे इस कार्य से विमुख करने के उद्देश्य से कहा कि वे क्षत्रियों से उनकी हत्या का बदला नहीं लेना चाहते हैं। श्रद्धावान भृगु असुरक्षित होने के कारण हिंसक वृत्ति के क्षत्रियों की हत्याओं को क्षमा नहीं करना चाहते। जब हम वृद्धावस्था से दुखी हो जाएँगे, तब हम स्वयं ही उनके द्वारा अपनी हत्या की कामना करेंगे। जिसने भृगु के घर जमीन में धन दबा दिया था, स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखने वाले हम लोगों को धन से क्या लेना-देना?'
उन्होंने यह उपाय इसलिए किया कि वे दोषी नहीं बनना चाहते थे। उन्होंने उर्व से कहा कि वह अपने क्रोध पर नियंत्रण रखे और जो पापपूर्ण कार्य वह कर रहा है, उससे दूर रहे। 'हे पुत्र! तुम क्षत्रियों और इन सातों लोकों का नाश मत करो। अपने क्रोध को नियंत्रित करो, क्योंकि वह तपस्या की साधना को नष्ट कर देता है।' लेकिन उर्व ने उत्तर दिया कि वह अपने निश्चय पर अमल किए बिना नहीं रुक सकता। उसने कहा कि उसके क्रोध का अगर किसी दूसरी वस्तु पर आघात नहीं होगा तो वह स्वयं उसी को नष्ट कर देगा। उसने तर्क देते हुए कहा कि उसके पूर्वजों ने क्षत्रियों के साथ जिस नम्रता का व्यवहार करने का परामर्श दिया है, वह न्याय, और औचित्य तथा कर्तव्य के आधार पर भी गलत है; तथापि पितरों ने उसे अपने क्रोध की अग्नि समुद्र में फेंक देने के लिए मना किया, जहाँ उन्होंने कहा वह जल-तत्वों पर प्रहार करेगी और इस प्रकार उसकी धमकी पूरी हो जाएगी।
तीसरी घटना ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों के नर-संहार से संबंधित है। महाभारत में अनेक स्थानों पर इस कथा को दोहराया गया है।
सहस्त्रबाहु महाप्रतापी एवं शक्तिमान कार्त्तवीर्य यानी अर्जुन इस संपूर्ण संसार का सम्राट था। वह महिषमति का निवासी था। अपार शक्ति का यह हैहय राजा महासागरों तथा महाद्वीपों सहित संपूर्ण विश्व पर राज्य करता था। युद्ध-भूमि पर लड़ने और संपूर्ण पृथ्वी पर विजय प्राप्त करने के लिए उसने हजार हाथों से लड़ने का वरदान दत्तात्रेय मुनि से प्राप्त किया था तथा पथभ्रष्ट होने की संभावना में सदाचारी लोगों के उपदेश और वचनों का आशीर्वाद उसे प्राप्त था। तत्पश्चात अपने सूर्य जैसे तेजस्वी रथ पर सवारी करते हुए अपने गर्व के नशे में चूर होकर उसने कहा, "धैर्य, साहस, कीर्ति, पराक्रम, गुण और शक्ति में मेरे समान कौन है? उसकी चुनौती के उत्तर में आकाश से एक निराकार आवाज गूंज उठी, जिसने उससे कहा, 'हे मूर्ख! तुम नहीं जानते कि ब्राह्मण क्षत्रिय से उत्तम होता है और ब्राह्मण की सहायता से ही क्षत्रिय अपनी प्रजा पर शासन करता है।'
तब अर्जुन ने उत्तर दिया, 'यदि मैं चाहूँ तो प्राणी मात्र का निर्माण कर सकता हूँ अथवा न चाहूँ तो समस्त प्राणियों को मिटा सकता हूँ। कोई भी ब्राह्मण किसी कार्य या विर अथवा धारणा में मुझसे श्रेष्ठ नहीं हो सकता। तुम्हारा कहना है कि ब्राह्मण श्रेष्ठ है और मेरा दूसरा प्रस्ताव है कि क्षत्रिय श्रेष्ठ है; दोनों का आधार यहाँ स्पष्ट हुआ है, परंतु भेद की बात यह भी है कि ब्राह्मण क्षत्रिय पर निर्भर होते हैं, न कि क्षत्रिय ब्राह्मण पर। ब्राह्मण के लिए वेद मात्र एक मूल बहाना है। न्याय, रक्षा के लिए वे क्षत्रिय के अधीन हैं। ब्राह्मण अपनी जीविका उनसे ही प्राप्त करते है, तब ब्राह्मण उनसे श्रेष्ठ कैसे हो सकते हैं? मैं स्वयं उन सर्व प्रमुख ब्राह्मणों को अपने अधीन रखता हूँ, जो दक्षिणा पर जीवित रहते हैं और अपने-आपको बहुत श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि स्वर्ग में निवास करने वाली गायत्री देवी ने सत्य का ही उद्घाटन किया है, इसलिए मैं उन सभी अनाधीन रहने वाले ब्राह्मणों को अपने अधीन करके रहूँगा। इन तीनों लोकों में कोई भी मनुष्य अथवा देवता मुझे राजा के पद से हटा नहीं सकता। इसलिए मैं हर ब्राह्मण से श्रेष्ठ हूँ। तो अब क्या मैं इस संसार को, जहाँ ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ऐसे विश्व में बदल दूँ, जहाँ क्षत्रिय श्रेष्ठ हो सके, क्योंकि युद्ध में मेरा मुकाबला करने का किसी को साहस नहीं है।' अर्जुन का यह कथन सुनकर रात्रि के समय भ्रमण करने वाली यह देवी भयभीत हो गई। तब हवा में विचरण करने वाले वायु देवता ने अर्जुन से कहा, 'इस पापयुक्त विचार का त्याग करो और ब्राह्मणों का अभिवादन करो। यदि तुमने उनके साथ कोई दुर्व्यवहार किया तो तुम्हारा साम्राज्य अस्थिर हो उठेगा। तब तुम देश से बाहर कर दिए जाओगे।' राजा ने पूछा, 'तुम कौन हो', 'मैं देवताओं का दूत वायु हूँ और तुम्हें तुम्हारे हित की बातें बताने आया हूँ।' अर्जुन ने प्रत्युत्तर में कहा, 'हे देवता! तुम आज ब्राह्मणों के प्रति बहुत अधिक भक्ति-भाव दिखा रहे हो, लेकिन यह क्यों नहीं कहते कि ब्राह्मण भी पृथ्वी पर जन्मे किसी अन्य प्राणी के समान ही हैं।'
आगे चलकर राजा, जमदग्नि ऋषि के पुत्र परशुराम के साथ एक विवाद में पड़ गया, जो इस तरह है -
कान्यकुब्ज का एक राजा था, जिसे गाधि नाम से जाना जाता था। उसकी सत्यवती नाम की एक पुत्री थी। इस राजकुमारी का ऋचीक ऋषि के साथ विवाह और जमदग्नि के जन्म की कहानी ऊपर वर्णित कहानी के समान ही है। जमदग्नि और रेणुका के पाँच पुत्र थे, जिनमें सबसे छोटा दुर्जेय परशुराम था। उसने एक बार अपने पिता के आदेश पर अपनी माँ की हत्या कर दी (जिसने अनैतिक इच्छा के मोह से अपनी पूर्व पवित्रता खो दी थी) क्योंकि जमदग्नि के चार बड़े पुत्रों ने मातृहत्या करने से मना कर दिया था और पिता के श्राप से उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी, लेकिन परशुराम की इच्छा से उसके पिता ने उसकी माँ को पुनः जीवनदान दिया और उसके भाइयों को भी सद्धबुद्धि प्रदान की तथा स्वयं उसे हत्या के अपराध से मुक्त कर दिया जाता है। परशुराम अपने पिता से अजयेता तथा दीर्घायु का वर भी प्राप्त करता है। राजा अर्जुन (कार्त्तवीर्य) के साथ उसके संबंध का वर्णन है। एक बार राजा अर्जुन जमदग्नि के आश्रम में आया और उसका जमदग्नि की पत्नी ने आदर के साथ स्वागत किया, लेकिन राजा ने ऋषि के यज्ञ की गाय का बछड़ा जबरन छीनकर और यज्ञ समारोह के वृक्ष तोड़कर आदर-सत्कार को भंग कर दिया। इस विनाश का समाचार सुनकर परशुराम बहुत ही क्रोधित हो गया। उसने अर्जुन पर आक्रमण करके उसकी हजार भुजाएँ काटीं। फिर उसकी हत्या कर डाली। इसके बदले में अर्जुन के पुत्रों ने शांत स्वभाव वाले ऋषि जमदग्नि की परशुराम की अनुपस्थिति में हत्या कर दी।
वापस लौटने पर अपने पिता का अंतिम संस्कार करने के लिए परशुराम ने संपूर्ण क्षत्रिय वंश को नष्ट करने की प्रतिज्ञा की और सबसे पहले अर्जुन के पुत्र और उनकी साथियों की हत्या करके उस प्रतिज्ञा का पालन किया। उसने इक्कीस बार समस्त क्षत्रियों को पृथ्वी से समूल नष्ट किया और उनके खून से सामंतपंचक में पाँच सरोवर बनावए, जिसमें उसने भृगुओं के पितरों की आत्माओं को संतुष्ट किया और अपने नाना ऋचिका के समक्ष जाकर खड़ा हो गया। तब ऋचिका ने उसे उपदेश दिया। परशुराम ने एक विशाल यज्ञ करके इंद्र को प्रसन्न किया और यज्ञ करने वाले पुरोहितों को पृथ्वी दान दी। उसने महाबली कश्यप ऋषि को साठ फुट लंबा और चौवन फुट ऊँचा सोने का सिंहासन दान में दिया। इस सिंहासन को ब्राह्मणी ने आपस में बाँट लिया, जिससे उसका खांडववन नाम पड़ गया। इस प्रकार कश्यप को पृथ्वी दान करने पर, परशुराम स्वयं महेंद्र पर्वत पर रहने के लिए चला गया। इस तरह उसमें और क्षत्रियों के बीच में शत्रुता उत्पन्न हुई और परशुराम ने अपनी असीमित शक्ति से पृथ्वी जीत ली।'
जिन क्षत्रियों की परशुराम द्वारा हत्या कर दी गई, उनका वर्णन महाभारत के द्रोण पर्व में है। वे कश्मीर, दार्द कुंती, शुद्रक, मालव, अंग, वंग, कलिंग, विदेह, ताम्रलिप्तक मार्त्तिकावत, सीवी आदि राजन्य थे।
क्षत्रिय वंश का पुनर्निर्माण किस प्रकार किया गया, यह बात भी ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों के नरसंहार की इस कहानी में बताई है। कहा जाता है -
पृथ्वी पर रहने वाले सभी क्षत्रियों को इक्कीस बार नष्ट करने के बाद, जमदग्नि का यह पुत्र (परशुराम) सभी पर्वतों में सर्वोत्तम महेंद्र पर्वत पर तपस्या करने में व्यस्त हो गया। क्षत्रियों की विधवाएँ संतति की इच्छा से ब्राह्मणों के पास आईं। तब ब्राह्मणों ने काम-वासना की किसी भी लालसा से मुक्त होकर उचित ऋतु में इन स्त्रियों के साथ संभोग किया। बाद में वे गर्भवती हो गईं। उनसे वंश को चलाने के लिए शूरवान क्षत्रिय लड़के-लड़कियाँ उत्पन्न हुए। इस प्रकार ब्राह्मणों ने अपने सदाचार से क्षत्रिय स्त्रियों से क्षत्रिय वंश का सिलसिला आगे बढ़ाया, जिनकी बाद में संख्या बढ़ी और वे अनेक वर्षों तक जीवित रहे। इसके बाद ही ब्राह्मणों से कम श्रेष्ठता वाले चार वर्ण उत्पन्न हुए।
भारत के अलावा किसी भी अन्य देश में वर्ग-संघर्ष का ऐसा दुखांत इतिहास नहीं मिलता। यह ब्राह्मण परशुराम का झूठा दंभ ही है कि उसने क्षत्रियों का इक्कीस बार संहार किया और ब्राह्मणों ने उनकी विधवाओं के साथ संभोग करके क्षत्रियों की पुनर्सृष्टि की।
हमें ऐसा नहीं मानना चाहिए कि भारत के वर्ग-संघर्ष का यह इतिहास प्राचीन है, बल्कि यह वर्ग-संघर्ष निरंतर जारी है। इस वर्ग संघर्ष को हम महाराष्ट्र में मराठा शासन के समय में भी देख सकते हैं, जिसके कारण मराठा साम्राज्य नष्ट हो गया। हमें यह भी नहीं मानना चाहिए कि यह वर्ग-युद्ध भी अन्य सामान्य युद्धों के समान ही होते थे। भारत में वर्ग-संघर्ष का एक स्थायीस्वभाव रहा है, जो चुपचाप, किंतु निश्चित रूप से अपना कार्य करता था। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि यह वास्तविक घटनाएँ इस अर्थ में सांकेतिक हैं कि वे उनकी प्रकृति तथा चरित्र की ओर इंगित करती हैं। क्या इसी बात से यह कहा जा सकता है कि हिंदुओं में बंधुभाव है? इन घटनाओं को देखते हुए इस प्रश्न का सकारात्मक उत्तर संभव नहीं।
हिंदू समाज में बंधुभाव के अभाव का क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? हिंदू धर्म और उसका दर्शन ही इस बात के लिए जिम्मेदार है। जैसा कि मिल ने कहा है, बंधुभाव की भावना स्वाभाविक होती है, लेकिन यह एक ऐसा पौधा है, जो अनुकूल जमीन पर ही तथा जहाँ उसके विकास के लिए उचित परिस्थितियाँ मौजूद होती हैं, बढ़ सकता है। बंधुभाव की भावना को बढ़ाने के लिए केवल यह उपदेश करने की आवश्यकता नहीं कि हम सभी ईश्वर की संतान हैं अथवा हम सब एक-दूसरे पर निर्भर हैं। यह मौलिक आवश्यकता नहीं है। किसी भावना के विकास के लिए यह एक बहुत ही बौद्धिक तर्क हो सकता है। बंधुभाव की इस भावना को बढ़ावा देने के लिए जीवन की सभी सजीव प्रक्रियाओं में सहभागी बनना आवश्यक है। जन्म, मृत्यु, विवाह तथा भोजन आदि के सुख-दुःख में हिस्सेदार बनने से बंधुत्व की भावना बढ़ती है। अतः जो इन प्रक्रियाओं में भाग लेते हैं, वे एक-दूसरे को भाई के समान मानते हैं।
प्रो.स्मिथ ने सहभोज के महत्व पर उचित जोर देते हुए समाज में बंधुत्व के निर्माण में इसे एक अत्यंत आवश्यक तत्व माना है। वे कहते हैं -
यज्ञ-समारोह में आयोजित सहभोज प्राचीन धार्मिक जीवन के आदर्श को व्यक्त करने का एक उचित माध्यम है। ऐसा केवल इसलिए नहीं है कि वह एक सामाजिक कर्म है और उसमें देवता तथा उनके उपासक, दोनों न केवल एक साथ भाग लेते हैं, बल्कि जैसा पहले बताया गया है, किसी मनुष्य के साथ मिल-बैठ कर खानपान करना, इसके साथ भाईचारा व्यक्त करने तथा परस्पर सामाजिक उत्तरदायित्व निभाने का भी प्रतीक है। यज्ञ-समारोह में आयोजित सहभोज में एक बात सीधी व्यक्त होती है कि देवता तथा उसके उपासक, दोनों एक ही पंक्ति में साथ-साथ भोजन करते हैं, लेकिन इसके अलावा उनमें उन सभी बातों का समावेश होता है, जो उनके परस्पर संबंधों को व्यक्त करती हैं। तो लोग भोजन के लिए एक सा,.थ बैठते हैं, वे लोग सभी सामाजिक कार्यों के लिए एकजुट होते हैं। जो लोग सहभोज नहीं कर सकते, वे एक-दूसरे के लिए पराये होते हैं। न उनमें धार्मिक एकता होती है और न परस्पर सामाजिक कर्तव्य।1
जीवन के महत्त्वपूर्ण अवसरों पर भी हिंदुओं में सुख-दुःख को बाँटने की भावना नहीं है, हर चीज अलग-अलग और विशिष्ट है। हिंदू अलग है और जीवन-पर्यंत विशिष्ट बना रहता है। भारत में आने वाले विदेशी को 'हिंदू पानी', 'मुसलान पानी', की ही पुकार नहीं सुनाई देती। जो ब्राह्मण काफी हाउस, ब्राह्मण भोजनालय, जहाँ अब्राह्मण हिंदू नहीं जा सकते, ब्राह्मण प्रसूति गृह, मराठा प्रसूति गृह और भाटिया प्रसूति गृह आदि मिलते हैं, हालाँकि ब्राह्मण, मराठा और भाटिया सभी हिंदू हैं। यदि किसी ब्राह्मण के घर में बच्चे का जन्म होता है तब अब्राह्मण को नहीं बुलाया जाता और न ही उसे वहाँ जाने की इच्छा होगीं। यदि ब्राह्मण परिवार में विवाह हो, तब भी गैर-ब्राह्मण को निमंत्रण-पत्र नहीं भेजा जाता। और तो और, ब्राह्मण की मृत्यु हो जाने पर उसकी शव-यात्रा में कोई भी अब्राह्मण सम्मिलित होने का अधिकार नहीं है। इस तरह से एक जाति के सुख-दुःख दूसरी जाति के सुख-दुःख नहीं होते। एक जाति को दूसरी जाति के प्रति लगाव नहीं होता। इतना ही नहीं, दान-धर्म भी जाति तक ही सीमित होता है। हिंदुओं में ऐसी कोई सार्वजनिक दान-धर्म की प्रथा नहीं है, जो सबके लिए मुक्त हो, आप ब्राह्मणों के लिए ब्राह्मण धर्मदान संस्था पाएँगे और इसमें भी चित्तपावन ब्राह्मणों के लिए चित्तपावन ब्राह्मण धर्मदान संस्था, देशस्थ ब्राह्मणों के लिए देशस्थ ब्राह्मण धर्मदान संस्था। करहाड़े ब्राह्मणों के लिए करहाड़ ब्राह्मण संस्था, तो सारस्वत ब्राह्मणों में भी कुंडलेश्वर ब्राह्मण धर्मदान संस्था, आदि। इस प्रकार एक हिंदू दूसरे हिंदू के साथ जीवित रहते हुए भी कोई वस्तु आपस में नहीं बाँटता।
बात यहीं तक नहीं, वे मर जाते हैं, तब भी वे अलग और पृथक ही रहते है। कुछ हिंदू अपने मृतकों को दफनाते हैं, तो कुछ हिंदू उन्हें जलाते हैं, लेकिन जो लोग दफनाते हैं, उनकी श्मशान-भूमि एक नहीं होती। प्रत्येक का श्मशान भूमि में अपने मृतकों को दफनाने का अलग-अलग क्षेत्र होता है। जो लोग जलाते हैं, वे एक ही स्थान पर अपने मृतकों को नहीं जलाते। यदि वे ऐसा करते हैं तो भी चबूतरा अलग बनाया जाता है।
तब इस बात में क्या कोई आश्चर्य है कि हिंदुओं के लिए बंधुत्व की भावना क्यों पराई है? जीवन के सुख-दुःख को आपस में बाँटने पर जहाँ पूर्ण मनाही हो, वहाँ बंधुभाव की भावना कैसे पनप सकती है?
लेकिन इन सभी सवालों में सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि हिंदू लोग जीवन के सुख-दुःख आपस में बाँटने से क्यों इंकार करते हैं? यहाँ यह बताना आवश्यक नहीं हैं कि वे इन्हें बाँटने से इसलिए इंकार करते हैं, क्योंकि उनका धर्म उन्हें ऐसा ही करने के लिए कहता है। हिंदू धर्म शिक्षा देता है सहभोज न करने की, अंतर्जातीय विवाह न करने की और परस्पर संबंध न रखने की। यह नहीं करना, वह नहीं करना, यही हिंदू धर्म के उपदेश का सार हैं। सभी लज्जित करने वाली बातें, जो मैंने यहाँ बताई हैं, हिंदू समाज की अलग और पृथक प्रवृत्ति को स्पष्ट करती हैं, जो हिंदू धर्म के दर्शन की देन हैं। यही दर्शन बंधुभाव को पूरी तरह नकारता है।
न्याय की दृष्टि से हिंदुत्व के दर्शन का किया गया यह संक्षिप्त विश्लेषण सिद्ध करता है कि हिंदू धर्म समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का विरोधी है।
बंधुत्व और स्वतंत्रता, यह दोनों तत्व सही मायने में धारणाएँ हैं। मौलिक तथा बुनियादी तत्व हैं समानता और मानव व्यक्तित्व के पति आदर। बंधुभाव तथा स्वतंत्रता, यह दोनों धारणाएँ इन मूल तत्वों से ही आगे बढ़ती हैं। इस बात को हम ऐसे भी कह सकते हैं कि समानता मूल धारणा और मानव व्यक्तित्व के प्रति आदर है। तब जहाँ समानता को नकारा गया है, तब यह मानना चाहिए कि अन्य सभी बातों को नकारा गया है। दूसरे शब्दों में, यह बात दर्शाना मेरे लिए पर्याप्त है कि हिंदुत्व में समानता नहीं थीं, लेकिन जिस प्रकार से मैंने हिंदुत्व का परीक्षण किया, वैसा पहले नहीं किया गया था और तब मैंने सोचा कि हिंदुत्व और स्वतंत्रता, दोनों से वंचित रखने वाला है, यह कहना ही पर्याप्त नहीं है।
लार्ड एक्टन की महत्त्वपूर्ण धारणा के परीक्षण के साथ मैं अपनी चर्चा समाप्त करना चाहूँगा। महान लार्ड महोदय कहते हैं कि असमानता की बढ़ोतरी ऐतिहासिक परिस्थिति के कारण होती है। धर्म के स्वीकृत मत के रूप में इस पर कभी पालन नहीं किया गया । यह स्पष्ट है कि अपना यह मत बनाते समय लार्ड एक्टन ने हिंदू धर्म की ओर ध्यान नहीं दिया, क्योंकि हिंदू धर्म में असमानता एक स्वीकृत धार्मिक सिद्धांत है ओर उसे जान-बूझकर एक पवित्र धर्म मत के रूप में प्रचारित किया जाता हैं। वह एक अधिकृत धार्मिक तत्व है और कोई भी सरेआम उसका पालन करने में लज्जा अनुभव नहीं करता। हिंदू समाज की दृष्टि से असमानता धार्मिक सिद्धांत के रूप में जीवन का एक धर्म-सम्मत विधान है और एक निश्चित मत के रूप में निरंतर इसकी शिक्षा दी गई है। यह एक अधिकृत मत है। वस्तुतः असमानता हिंदू धर्म की आत्मा है।
अब मैं उपयोगिता के दृष्टिकोण से हिंदू धर्म के दर्शन का परीक्षण करना चाहूँगा। हिंदू धर्म का इस पहलू से परीक्षण बहुत दीर्घ तथा विस्तार से करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जैसा प्रो.मिल ने निर्देशित किया है, न्याय तथा उपयोगिता में आपसी शत्रुता आवश्यक नहीं है। दूसरे शब्दों में जो बात एक व्यक्ति के लिए अन्याय है, वह समाज के लिए उपयोगी नहीं हो सकती। इसके अलावा हमारे सामने जातिप्रथा के परिणाम भी हैं, जिनसे हम अपरिचित नहीं हैं।
जाति का सिद्धांत केवल एक सिद्धांत नहीं हैं। इस सिद्धांत को व्यवहार में ढाला गया, इसलिए वह एक वास्तविकता है। इसके कारण हिंदू समाज ने चातुर्वर्ण्य के संबंध में जर्मन दार्शनिक नीत्शे का सही अनुसरण किया है, जिसने कहा है कि 'आदर्श को अनुभव करो और वास्तविकता को आदर्श में ढाल दो।'
किसी भी सिद्धांत का मूल्य उसके नतीजों से परखना चाहिए। इसलिए, यदि अनुभव को एक कसौटी मानना है, तब चातुर्वर्ण्य का तिरस्कार जरूरी है। एक शुद्ध सामाजिक संगठन रूप में भी यह तिरस्कार है, उत्पादकों के संगठन के रूप में उसका तिरस्कार किया जाना चाहिए। बँटवारे की एक आदर्श योजना के रूप में भी वह बुरी तरह से असफल हो गया है। यदि संगठन का यह एक आदर्श रूप है, तब हिंदू धर्म एक समान मंच क्यों नहीं बना सका? यदि उसे उत्पादन का एक आदर्श नमूना माना जाए, तब यह कैसे है कि उत्पादन की उसकी तकनीक आदि मानव की तकनीक से अधिक विकसित नहीं हो सकी और यदि इसे बँटवारे की एक आदर्श योजना माना जाए, तब इसके कारण धन की इतनी अधिक समानता कैसे उत्पन्न हो गई, जहाँ एक ओर असीमित संपत्ति है, तो दूसरी ओर असीमित गरीबी।
परंतु मैं इस विषय को इतने संक्षेप रूप से कहकर छोड़ना नहीं चाहता, क्योंकि मैं जानता हूँ कि ऐसे अनेक हिंदू जन है, जो जाति-व्यवस्था की महान सामाजिक उपयोगिता का दावा करते हैं और ऐसी व्यवस्था के न केवल निर्माण, बल्कि उसे दैवी मान्यता प्रदान करने के लिए मनु की बुद्धिमानी तथा विवेक की प्रशंसा करते हैं। जाति-व्यवस्था के प्रति ऐसा दृष्टिकोण इसलिए बना, क्योंकि जाति के अलग-अलग पहलुओं पर अलग-अलग विचार किया गया।
जाति की उपयोगिता अथवा अनुपयोगिता के परिणाम को तभी निश्चित किया जा सकता है, जब जाति के विभिन्न पक्षों को संयुक्त कर उन पर विचार किया जाए। समस्या का इस दृष्टिकोण से विचार करने पर निम्न निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
(1) जाति से श्रमिकों का विभाजन होता है, (2) जाति के कारण मनुष्य की उसके कार्य के प्रति रुचि नहीं रहती, (3) जाति के कारण बुद्धि का शारीरिक श्रम से संबंध नहीं रहता, (4) जाति मनुष्य की प्रमुख रुचि को विकसित करने के उसके अधिकार को नकारती है, जिसके कारण वह निर्जीव बनता है, और (5) जाति-स्थान-परिवर्तन पर प्रतिबंध लगाती है।
जाति-व्यवस्था केवल श्रम का विभाजन करती है। निस्संदेह सभ्य समाज में श्रम का विभाजन आवश्यक होता है, लेकिन किसी भी सभ्य समाज में श्रम-विभाजन के साथ श्रमिकों का अपरिवर्तनीय अप्राकृतिक विभाजन नहीं किया जाता। जाति-व्यवस्था केवल श्रमिकों का विभाजन करने वाली व्यवस्था नहीं हैं, जो कि श्रम के विभाजन से सर्वथा भिन्न है, बल्कि वह एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें श्रमिकों में विभाजन की श्रेणी एक-दूसरे के ऊपर निर्धारित की गई है। किसी भी देश में श्रम के विभाजन के साथ-साथ श्रमिकों का इस प्रकार अलग-अलग श्रेणियों में विभाजन नहीं किया गया है।
जाति-व्यवस्था के इस पहलू के संबंध में आलोचना करने का एक तीसरा दृष्टिकोण भी है। श्रम का यह विभाजन अपने आप नहीं हो गया और न ही यह किसी स्वाभाविक योग्यता पर आधारित है। सामाजिक तथा निजी कार्यक्षमता के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि हम किसी भी व्यक्ति की योग्यता को निपुण बनाएँ, जिससे वह अपने जीवन व्यवसाय का चयन कर सके और उसे सुदृढ़ बना सके। जाति-व्यवस्था में इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है, क्योंकि इसमें किसी भी व्यक्ति का कार्य उसके जन्म से पहले ही तय हो जाता है, उसका चुनाव उसकी मौलिक योग्यता के आधार पर नहीं, किंतु उसके माता-पिता के सामाजिक स्तर पर आधारित होता है। एक अन्य दृष्टिकोण से देखें तो व्यवसायों के क्रमिक वर्गीकरण की व्यवस्था, जो कि जाति-व्यवस्था का सीधा परिणाम है, निश्चय ही हानिकारक है।
उद्योग कभी भी स्थिर नहीं रहते। उनमें तीव्र तथा आकस्मिक परिवर्तन होते रहते हैं। इन परिवर्तनों के साथ-साथ व्यक्ति को भी अपने व्यवसायों में परिवर्तन की अनुमति होनी चाहिए। बदलाव की स्थिति में अगर उसे अपने आपको बदलने की अनुमति नहीं दी जाएगी तो उसके लिए अपनी आजीविका प्राप्त करना असंभव हो जाएगा, परंतु जाति व्यवस्था हिंदू जनों को ऐसे व्यवसाय करने की अनुमति नहीं देती, जो वंश-परंपरा के अनुसार उनके अपने व्यवसाय न हों। यदि किसी हिंदू को हम कोई ऐसा नया व्यवसाय, जो उसकी जाति के लिए निधा्ररित नहीं है, अपनाने के बजाय भूखा मरते हुए देखते हैं, तो उसका कारण जाति व्यवस्था में ही मिलता है। व्यवसायों में परिवर्तन करने की अनुमति न देने से जाति व्यवस्था देश की वर्तमान बेरोजगारी के लिए सीधी जिम्मेदार बन गई। श्रम विभाजन को लेकर जाति व्यवस्था में और भी एक गंभीर दोष हैं।
जाति-व्यवस्था ने श्रम का जो विभाजन किया है, वह चयन के अधिकार पर आधारित नहीं है। उसमें किसी प्रकार की व्यक्तिगत भावना तथा पसंद-नापंसद का कोई स्थान नहीं है। वह पूर्ण रूप से भाग्य के सिद्धांत पर आधारित है। सामाजिक दक्षता पर विचार करने पर हम इस बात को स्वीकार करने के लिए बाध्य होंगे कि किसी भी औद्योगिक व्यवस्था में गरीबी और दुःख इतनी बड़ी बुराई नहीं है, जितनी कि यह वास्तविकता कि बहुत से लोगों को ऐसे व्यवसाय करने के लिए मजबूर किया जाता है, जिनमें उनकी कोई रुचि नहीं होती। ऐसे व्यवसाय उनमें निरंतर घृणा, हीनभावना तथा कार्य के दूर भागने की प्रवृत्ति उत्पन्न करते हैं। भारत में ऐसे अनेक व्यवसाय है, जिन्हें हिंदू लोग हीन स्तर के व्यवसाय मानते हैं और जिसके कारण ऐसा व्यवसाय करने वालों के प्रति घृणा के लिए उकसाते हैं। ऐसे व्यवसायों को टालने की और उनसे बचने की निरंतर इच्छा उत्पन्न होती रहती है। उसका मुख्य कारण यह है कि जो लोग इन व्यवसायों का अनुसरण करते हैं, उनकी हिंदू धर्म के द्वारा जो उपेक्षा होती है और उन पर ऐसे कार्यों को जिस प्रकार थोपा जाता है, उससे उनके मन में विफलता की भावना उत्पन्न होती है।
जाति-व्यवस्था ने जो दूसरी हानि की है, वह यह है कि उसने बुद्धि का कार्य से संबंध तोड़ दिया है और श्रम के प्रति घृणा की भावना उत्पन्न की है। जाति का सिद्धांत यह है कि ब्राह्मण, जिसे बुद्धि का विकास करने की अनुमति है, उसे श्रम करने की अनुमति नहीं है, वस्तुतः उसे श्रम को हीन मानने की शिक्षा दी जाती है, जबकि शूद्र को श्रम करने की अनुमति है, परंतु अपनी बुद्धि का विकास करने की अनुमति नहीं है। इसके जो भयंकर परिणाम हुए, उनका उत्तम चित्र आर. सी. दत्ता ने अंकित किया है।
जाति, मनुष्य को निर्जीव बनाती है। वह मनुष्य को निष्फल बनाने की प्रक्रिया है। शिक्षा, संपत्ति तथा परिश्रम सभी के लिए आवश्यक है यदि व्यक्ति एक स्वतंत्र तथा परिपूर्ण मनुष्य बनना चाहता है। संपत्ति एवं परिश्रम के बिना शिक्षा का होना व्यर्थ है। उसी प्रकार शिक्षा तथा परिश्रम के बिना संपत्ति का होना व्यर्थ है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए इनमें से हर चीज आवश्यक है। यह सभी बातें मनुष्य मात्र के विकास के लिए आवश्यक हैं।
ब्राह्मण को ज्ञान प्राप्त करना चाहिए, क्षत्रिय को शस्त्र चलाने की शिक्षा लेनी चाहिए, वैश्य को व्यापार करना चाहिए और शूद्र को सेवा करनी चाहिए। यह सब, परिवार में परस्पर निर्भरता का जो सिद्धांत निहित है, उस रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह पूछा जाता है कि एक शूद्र को धन प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है, जब अन्य तीनों वर्ग उसकी सहायता करने के लिए मौजूद हैं? शूद्र को शिक्षा प्राप्त करने की क्या आवश्यकता है, जब जरूरत होने पर पढ़ने-लिखने के लिए वह ब्राह्मण के पास जा सकता है? जब क्षत्रिय उसकी रक्षा करने के लिए तैयार है, तब उसे शस्त्र धारण करने की क्या आवश्यकता है? चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत को इस अर्थ से समझते हुए कहा जा सकता है कि समाज में शूद्र को एक रक्षित व्यक्ति के रूप में और अन्य तीनों वर्गों को उसके रक्षक
के रूप में देखा जाता है। इस प्रकार का अर्थ लगाने से यह एक सरल तथा प्रलोभित करने वाला सिद्धांत बन जाता है। चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत के पीछे यही सही दृष्टिकोण है, ऐसा जानते हुए भी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि यह व्यवस्था न तो अपने आप में एक परिपूर्ण व्यवस्था है और न ही छलपूर्ण उद्देश्य से मुक्त है। यदि ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करने में, क्षत्रिय सैनिक बनने में और वैश्य व्यवसाय करने में असफल हो जाए, तब कैसी स्थिति उत्पन्न होगी? इसके अलावा यदि वे अपना कार्य करते भी हैं, परंतु शूद्र के प्रति अथवा एक-दूसरे के प्रति कर्तव्यों का पालन नहीं करते, तब भी कैसी स्थिति उत्पन्न होगी?
यदि वह तीनों वर्ण शूद्र को किसी न्यायोचित आधार पर सहायता करने से इंकार करते हैं अथ्वा उसका दमन करने के लिए एकत्रित हो जाते हैं, तब उसकी अवस्था कैसी हो जाती है? तब शूद्रों के हितों की रक्षा कौन करेगा? अथवा इसी संदर्भ में वैश्य अथवा क्षत्रिय के हितों की रक्षा कौन करेगा, जब उनके सीधेपन का कोई ब्राह्मण लाभ उठाने का प्रयास करता है? शूद्र की अथवा इस संबंध में ब्राह्मण अथवा वैश्य की स्वतंत्रता की रक्षा कौन करेगा, यदि क्षत्रिय ही उनके इस अधिकार को छीनने का प्रयास करता है। एक वर्ग की दूसरे वर्ग पर परस्पर निर्भरता को टाला नहीं जा सकता है। एक वर्ग का दूसरे वर्ग पर निर्भर रहने के लिए कभी-कभी अनुमति प्रदान करना आवश्यक हो जाता है, परंतु एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति पर उसकी सभी अत्यावश्यक जरूरतों के लिए निर्भर क्यों रखा जाता है?
शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को मिलनी चाहिए। अपनी रक्षा के साधन प्रत्येक के पास होने चाहिए। अपने स्व-संरक्षण के लिए प्रत्येक मनुष्य की यह अत्यंत महत्त्वपूर्ण जरूरतें हैं। उसका पड़ोसी शिक्षित तथा शस्त्रधारी है, यह बात उस व्यक्ति के लिए, जो स्वयं अशिक्षित तथा निःशस्त्र है, किसी प्रकार उपयोगी हो सकती है? यह संपूर्ण सिद्धांत ही निरर्थक है। ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनकी चातुर्वर्ण्य का समर्थन करने वालों को कोई चिंता नहीं है, परंतु यह बहुत ही उचित प्रश्न है। चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत के पीछे भिन्न-भिन्न वर्गों में रक्षित तथा रक्षक का संबंध होने की भावना निहित है, इस बात को जानते हुए भी हमें यह स्वीकार करना होगा कि यदि रक्षक के बुरे कार्य से रक्षा का कोई प्रबंध नहीं है तो इसमें रक्षित व्यक्ति के हितों की हानि ही होगी। चातुर्वर्ण्य की वास्तविक मूल भावना में रक्षित तथा रक्षक का संबंध चाहे निहित हो ही, परंतु इस बात में कोई संदेह नहीं है कि व्यवहार में यह एक मालिक तथा नौकर का ही संबंध रहा है। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य, यह तीनों वर्ण यद्यपि अपने परस्पर संबंधों से संतुष्ट न भी हों, परंतु उन्होंने आपस में समझौता कर लिया है।
ब्राह्मणों ने क्षत्रिय की स्तुति की और दोनों ने वैश्य को भी संतोष से जीने दिया, ताकि वे उस पर निर्भर होकर अपना जीवन व्यतीत कर सकें, लेकिन तीनों शूद्र का दमन करने की बात पर सहमत थे। उसे संपत्ति प्राप्त करने की अनुमति नहीं दी गई, ताकि वह इन तीनों वर्णों से मुक्त न हो सके। उसे ज्ञान अर्जित करने से मना किया गया, ताकि वह अपने हितों की रक्षा करने हेतु निरंतर सतर्क न रह सके। उसे शस्त्र धारण करने की मनाही की गई, ताकि वह इन तीनों वर्णों के प्रभुत्व के विरुद्ध विद्रोह न कर सके। शूद्रों के साथ इन तीनों वर्णों ने कैसा व्यवहार किया, यह बात हमें मनु के इस विधान से स्पष्ट हो जाती है।
सामाजिक अधिकारों से संबंधित मनु के विधि नियमों से अधिक कुख्यात अन्य दूसरी विधि नियमावली नहीं है। किसी स्थान का कोई भी सामाजिक अन्याय का उदाहरण उसके सामने फीका पड़ जाएगा। जिन सामाजिक बुराइयों के तहत उन पर अत्याचार किए गए, उन्हें अनगिनत लोगों ने क्यों सहन किया? दुनिया के दूसरे देशों में सामाजिक क्रांतियाँ हो गईं, भारत में सामाजिक क्रांति क्यों नहीं हो सकी, इस प्रश्न से मैं निरंतर चिंतित रहता हूँ। इस प्रश्न का मैं केवल एक ही उत्तर दे सकता हूँ, वह यह कि चातुर्वर्ण्य की इस व्यवस्था ने हिंदू समाज के निचले स्तर के लोगों को किसी भी प्रकार की प्रत्यक्ष वृत्ति के लिए पूर्णरूप से अयोग्य बना दिया है। वे शस्त्र धारण नहीं कर सकते और बगैर शस्त्र के विद्रोह नहीं कर सकते। वे सभी हल चलाने वाले लोग थे अथवा हम ऐसा कह सकते हैं कि उन्हें हल चलाने को मजबूर किया गया और उन्हें अपने हल को तलवार में बदलने की अनुमति नहीं थी। उनके पास संगीनें नहीं थीं और इसलिए उनमें से प्रत्येक व्यक्ति अपने हल पर बैठे रहने के अलावा कुछ कर नहीं सकता था। चातुर्वर्ण्य के कारण उन्हें शिक्षा प्राप्त नहीं हो सकी। अपनी मुक्ति के बारे में न तो वे कुछ सोच सकते थे और न ही उन्हें कोई जानकारी थी। उन्हें निम्न बनकर रहने के लिए मजबूर किया गया और उससे मुक्ति का मार्ग ज्ञात न होने के कारण तथा मुक्ति का कोई साधन न होने के कारण वे अपनी स्थायीगुलामी से संतुष्ट हो गए और इसे उन्होंने अपनी नियति मान लिया, जिससे वे अलग नहीं हो सकते। यह सच है कि बलवानों ने यूरोप में भी स्वयं को शोषण करने से नहीं रोका, उन्होंने कमजोर लोगों का शोषण किया, परंतु यूरोप में बलवान लोगों ने दुर्बल लोगों को इतने निर्लज्ज रूप से अपने शोषण के विरुद्ध असहाय नहीं बनाया, जितना कि भारत के हिंदुओं के मामले में देखने को मिलता है।
बलवान और दुर्बल लोगों में सामाजिक संघर्ष यूरोप में भारत की तुलना में अधिक तीव्रता से चले हैं और वहाँ दुर्बल लोगों को सैनिक व्यवसाय में शस्त्र धारण करने की अनुमति है, उन्हें वोट देने का राजनीतिक अधिकार है तथा शिक्षा के कारण नैतिक अधिकार भी है। यूरोप में बलवानों ने दुर्बल वर्गों से उनकी मुक्ति के यह तीन अधिकार कभी नहीं छीने तथापि चातुर्वर्ण्य के कारण भारत में जनता से यह तीनों अधिकार भी छीन लिए गए हैं। तब चातुर्वर्ण्य से और अधिक घटिया सामाजिक संगठन की व्यवस्था कौन सी है, जो लोगों को किसी भी कल्याणकारी कार्य करने के लिए निर्जीव तथा विकलांग बना देती है। इस बात में कोई अतिश्योक्ति नहीं है। इतिहास में इस संबंध में भरपूर प्रमाण उपलब्ध हें। भारतीय इतिहास में एकमात्र ऐसा समय, जो कि स्वतंत्रता व महानता तथा वैभव का प्रतीक कहा जाता था, वह मौर्य साम्राज्य काल था। अन्य सभी अवधियों में देश को पराभव तथा अंधकार से गुजरना पड़ा, परंतु मौर्य कालखंड एक ऐसा कालखंड था, जिसमे चातुर्वर्ण्य पूर्ण रूप से निर्मल हो गया था, जब शूद्र जन, जो कि प्रजा का एक मुख्य भाग थे, आत्मनिर्भर हो गए थे और देश के शासक बन गए थे। वह काल जब चातुर्वर्ण्य के फलने-फूलने पर देश के लोगों के एक बड़े समूह का लाचार जीवन व्यतीत करना पड़ा, पराभर तथा अंधकार का समय है।
जाति के कारण परिवर्तनशीलता रुक जाती है। कभी-कभी ऐसा समय भी आता है, जब समाज को किसी संकटकालीन स्थिति से अपने-आपको बचाने के लिए अपने सभी साधन एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान पर ले जाना अनिवार्य हो जाता है। उदाहरण के लिए, जब युद्ध के समान संकट आते हैं, तब समाज के लिए अपने सभी साधन सैनिक कार्रवाई के लिए स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है। प्रत्येक का युद्ध में लड़ना आवश्यक होता है। प्रत्येक व्यक्ति सैनिक होना चाहिए, लेकिन क्या जाति के सिद्धांत के अंतर्गत यह संभव हो सकता है? स्पष्ट है कि ऐसा नहीं है। भारतीय इतिहास में पराभव की जो एक परंपरा बनी हुई है, उसके लिए जाति व्यवस्था ही जिम्मेदार है। जाति व्यवस्था सर्वसाधारण की गतिशीलता रोक देती है अथवा केवल क्षत्रिय ही युद्ध में लड़ें, ऐसी अपेक्षा की जाती थी। शेष, ब्राह्मण तथा वैश्य लोगों ने शस्त्र धारण नहीं किए थे और शूद्र, जो कि देश का एक बहुत ही बड़ा हिस्सा था, वे शस्त्र धारण कर ही नहीं सकते थे। इसका नतीजा यही होना था कि जब क्षत्रियों का एक छोटा सा वर्ग किसी विदेशी शत्रु द्वारा पराजित हो जाए, तब संपूर्ण देश उस शत्रु के चरणों में चला जाए। यहाँ तक कि वह किसी भी प्रकार के प्रतिकार के योग्य भी नहीं रहता। भारतीय युद्ध अधिकतर केवल अकेले युद्ध अथवा संघर्ष होते थे। ऐसा इसलिए होता था, क्योंकि जब एक बार क्षत्रिय हार खा जाते, सभी कुछ समाप्त हो जाता। आखिर ऐसा क्यों? इस बात का सीधा उत्तर यही है कि समाज में सर्वसाधारण की गतिशीलता को मान्यता नहीं दी गई थी और जाति का यह सिद्धांत लोगों की मानसिकता में बहुत गहरा धंसा हुआ था।
यदि उपरोक्त निष्कर्ष सही हे, तब ऐसे दर्शन या तत्वज्ञान को, जो समाज को अलग-अलग टुकड़ों में बाँटता हो, जो कार्य को रुचि से अलग करता हो, जो मनुष्य के वास्तविक हितों के अधिकार को नष्ट करता हो और जो संकट के समय समाज को सुरक्षित करने के लिए अपने साधनों को गतिशील बनाने के मार्ग में रुकावटें पैदा करता हो, ऐसा दर्शन सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर सफल है, ऐसा कैसे कहा जा सकता है? इसलिए हिंदू धर्म का दर्शन न तो सामाजिक उपयोगिता की कसौटी पर और न ही व्यक्तिगत न्याय की कसौटी पर खरा उतरता है।
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मेरे विश्लेषण का निष्कर्ष इतना विचित्र है कि उससे अनेक लोगों को आश्चर्य हो सकता है। इससे आश्चर्यचकित कुछ लोग तो ऐसा भी कह सकते हैं कि यदि मेरे निष्कर्ष इतने विचित्र हैं, तब हिंदू धर्म के दर्शन के मेरे इस विश्लेषण में कुछ न कुछ गलती अवश्य होगी। मुझे उनकी इस आपत्ति का उत्तर देना ही होगा। जो लोग मेरे इस विश्लेषण को स्वीकार करने से इंकार करते हैं, उनके लिए मैं यही कहना चाहूँगा कि उन लोगों को मेरा विश्लेषण इसलिए विचित्र लगता है, क्योंकि उन लोगों की हिंदू धर्म के दर्शन के संबंध में धारणाएँ सही नहीं हैं। यदि वे सही धारणाएँ रखते हैं, तब मेरे निष्कर्षों पर उन्हें आश्चर्य नहीं होगा।
यह बात इतनी महत्त्वपूर्ण है कि उसे स्पष्ट करने के लिए मुझे यही पर रुक जाना चाहिए। इस बात को ध्यान रखना होगा कि इसके पूर्व मैंने धार्मिक क्रांति का जो विश्लेषण किया है, उससे यह स्पष्ट होता है कि मानवीय समाज के दैवी प्रशासन के रूप में धार्मिक आदर्शों के दो प्रकार होते हैं। एक वह जिसमें समाज उसका केंद्र बिंदु है और दूसरा वह, जिसमें व्यक्ति केंद्र बिंदु है। इसी विश्लेषण से यह भी स्पष्ट होता है कि पहले प्रकार के आदर्शों में क्या अच्छा है तथा क्या सही है। उदाहरणार्थ नैतिक व्यवस्था की कसौटी उपयोगिता है, जबकि दूसरे प्रकार के आदर्श में कसौटी न्याय है। अब हिंदू धर्म का दर्शन न तो उपयोगिता की कसौटी का और न न्याय की कसौटी का उत्तर दे सकता है। इसका कारण यह है कि हिंदू धर्म में मानव समाज के दैवी प्रशासन का धार्मिक आदर्श एक ऐसा आदर्श है, जो स्वयं एक अलग वर्ग के अंतर्गत आता है। यह ऐसा आदर्श है, जिसमें व्यक्ति केंद्र की परिधि में नहीं है। आदर्श का केंद्र बिंदु न तो एक व्यक्ति है और न ही समाज। उसका केंद्रबिंदु एक विशिष्ट वर्ग महामानवों का वर्ग है, जिन्हें ब्राह्मण कहा जाता है। जो लोग इस महत्त्वपूर्ण, परंतु विध्वंसक सच्चाई को ध्यान में रखेंगे, वे इस बात को समझ सकते हैं कि हिंदू धर्म के दर्शन की प्रतिस्थापना व्यक्तिगत न्याय अथवा सामाजिक उपयोगिता पर क्यों नहीं है? हिंदू धर्म के दर्शन की स्थापना संपूर्ण रूप से एक अलग तत्व के आधार पर की गई है। क्या योग्य है अथवा क्या उत्तम है, इस प्रश्न का हिंदू धर्म में एक विचित्र उत्तर मिलता है। इसके अनुसार योग्य अथवा उत्तम कार्य वही है, जो इन महामानवों के वर्ग यानी ब्राह्मणों के हितों की रक्षा करता है। ऑस्कर वाइल्ड ने कहा है कि सुबोध होने का मतलब है, पहचाना जाना। मनु को कोई समझे, इस बात का उसे न भय है, न शर्मिंदगी। मनु इस बात का अवसर ही नहीं देता कि उसे कोई खोजे। वह अपने विचार मुखर एवं भव्य मंत्रों में व्यक्त करता है कि कौन महामानव है और कोई भी बात, जो इन महामानवों के हितों की रक्षा करती हो, उसे ही योग्य तथा उत्तम कहा जाए। मैं मनु के कुछ वक्तव्यों का उल्लेख करना चाहूँगा -
10.3 जाति की विशिष्टता से, उत्पत्ति स्थान के अध्ययन, अध्यापन एवं व्याख्यान आदि द्वारा नियम के धारण करने से और यज्ञोपवीत संस्कार आदि की श्रेष्ठता से ब्राह्मण ही सब वर्णों का स्वामी है।
मनु ने इस वक्तव्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए आगे कहता है -
1.93 ब्रह्मा के मुख से उत्पन्न होने के कारण ज्येष्ठ होने से और वेद के धारण करने के धर्मानुसार ब्राह्मण ही सृष्टि का स्वामी होता है।
1.94 स्वयंभू इस ब्रह्मा ने हव्य तथा कव्य को पहुँचाने के लिए और संपूर्ण सृष्टि की रक्षा के लिए तपस्या का सर्वप्रथम ब्राह्मण को ही अपने मुख से उत्पन्न किया।
1.95 ब्राह्मण के मुख से देवता लोग हव्य को तथा पितर लोग कव्य को खाते हैं, अतः ब्राह्मण से अधिक श्रेष्ठ प्राणी कौन होगा?
1.96 भूतों में प्राणधारी जीव श्रेष्ठ है, प्राणियों में बुद्धिजीवी श्रेष्ठ है, बुद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ है और मनुष्यों में ब्राह्मण श्रेष्ठ है।
ब्राह्मण प्रथम श्रेणी का मनुष्य है, क्योंकि ईश्वर ने उसे देवताओं का तथा पितरों की आत्माओं को आहुति देने के लिए अपने मुख से निर्मित किया, इसके अलावा ब्राह्मण की श्रेष्ठता के मनु ने कुछ और कारण बताए हैं, वह कहता है -
1.98 केवल ब्राह्मण की उत्पत्ति ही धर्म की नित्य देह है, क्योंकि धर्म के लिए उत्पन्न ब्राह्मण मोक्षलाभ के योग्य है।
1.99 उत्पन्न होते ही ब्राह्मण पृथ्वी पर श्रेष्ठ माना जाता है, क्योंकि वह धर्म की रक्षा के लिए समर्थ होता है। मनु यह कहते हुए उपसंहार करता है -
1.101 ब्राह्मण अपना ही खाता है, अपना ही पहनता है, अपना ही दान करता है तथा दूसरे व्यक्ति ब्राह्मण की दया से सबका भोग करते हैं। मनु का कहना है -
1.100 विश्वभर में जो कुछ भी है, वह सब कुछ ब्राह्मण की संपत्ति है। अपने सर्वश्रेष्ठ जन्म के कारण ही ब्राह्मण इन सभी के लिए पात्र है। मनु ने निर्देश दिया है -
7.37 राजा प्रातःकाल उठकर ऋग्यजुसाम के ज्ञाता और विद्वान ब्राह्मणों की सेवा करे और उनके कहने के अनुसार कार्य करे।
7.38 वह वृद्ध, वेद ज्ञाता और शुद्ध हृदय वाले ब्राह्मण की नित्य सेवा करे।
9.313 यद्यपि कितनी भी भारी पैसे की तंगी हो, राजा को ब्राह्मण की संपत्ति छीनकर उसे क्रोधित नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह अगर क्रोधित हो जाए तो तुरंत ही तपस्या से और श्राप देकर राजा को उसकी सेना, हाथी, घोड़े और रथ आदि सभी के साथ नष्ट कर सकता है।
अंत में मनु कहता है -
11.35 शास्त्रोक्त कर्मों का करने वाला, पुत्र-शिष्यादि को शासन करने वाला, प्रायश्चित विधि आदि का कहने वाला ब्राह्मण सबका मित्र रूप है, अतएव उससे अशुभ वचन तथा रूखी बात नहीं करनी चाहिए।
10.122 परंतु स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा से अथवा इस जन्म में अगले जन्म के उद्देश्य से शूद्र को ब्राह्मण की सेवा करनी चाहिए, क्योंकि जिसे ब्राह्मण का सेवक माना जाता है, उसे सभी सुख-शांति प्राप्त होती है।
10.123 शूद्र के लिए, ब्राह्मण की सेवा करना, केवल यही सर्वोत्तम व्यवसाय है, क्योंकि इसके अलावा वह जो कुछ भी करता है, उससे कोई फल की प्राप्ति नहीं हो सकती।
मनु और आगे कहता है -
10.129 शूद्र संचय करने की स्थिति मे हो, फिर भी ऐसा न करें, क्योंकि जो शूद्र धन संचय करता है, वह ब्राह्मण को दुःख पहुँचाता है।
मनु के उपरोक्त विधानों से हिंदू धर्म के दर्शन का सही रूप स्पष्ट होता है। हिंदू धर्म महामानव (ब्राह्मण) का धर्म है और वह यह उपदेश देता है कि जो बात महामानव के लिए उचित है, वही नैतिक दृष्टि से सही और उचित है।
क्या इसके समानांतर कोई और भी दर्शन है? उसे बताते हुए भी मुझे घृणा आती है, परंतु बात बिल्कुल स्पष्ट है। हिंदू धर्म के दर्शन का समानांतर केवल नीत्शे में ही मिलता है। इस सुझाव पर हिंदू क्रोधित हो सकते हैं। वह सर्वथा स्वाभाविक है, क्योंकि नीत्शे के दर्शन की भारी उपेक्षा की जाती है। वह कभी पनपा नहीं। उसे अपने ही शब्दों में उसे कभी बड़े-बड़े अमीरों, सामंतों का दार्शनिक कहा गया, तो कभी उसे दुत्कार दिया गया। कभी-कभी उस पर दया की गई और कभी-कभी अमानवीय मानकर उसकी उपेक्षा की गई। नीत्शे के दर्शन की पहचान सत्ता की लालसा, हिंसाचार, नैतिक मूल्यों का नकार, महामानव और उसके लिए त्याग, गुलामी और सामान्य मनुष्य की अधोगति, इन बातों के साथ ही की जाने लगी। उसके दर्शन ने इन कुछ मुख्य बातों के कारण उसकी अपनी पीढ़ी के लोगों के मन में ही घिनौनेपन की भावना तथा आतंक का निर्माण किया। उसकी भारी उपेक्षा की गई, यद्यपि उसे बहिष्कृत न भी किया गया हो और स्वयं नीत्शे ने अपने आपको मरणोपरांत सम्मानित व्यक्तियों की सूची में समावेश करके राहत महसूस की। उसने अपने स्वयं के लिए अपने समय से आगे अनेक सदियों बाद एक ऐसे समाज की कल्पना की, जो शायद उसकी प्रशंसा करे, लेकिन इस बात में भी उसे निराशा सहनी पड़ी। उसके दर्शन की प्रशंसा होने के बजाय समय बीतने के साथ-साथ नीत्शे की पीढ़ी के लोगों के मन में जो उपेक्षा तथा डर की भावना थी, वह और भी बढ़ने लगी। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि नीत्शे के दर्शन में नाजीवाद निर्माण की क्षमता है। यह बात लोगों को स्पष्ट हो गई थी। उसके मित्रों ने ही इस धारणा का तीव्र विरोध किया, परंतु यह जानना कठिन नहीं है कि उसका दर्शन किसी महामानव के निर्माण के बजाय एक महाराज्य निर्माण करने के लिए आसानी से लागू किया जा सकता है और नाजी लोगों ने वैसा ही किया। चाहे कुछ भी हो, नाजी लोग नीत्शे को अपना पूर्वज कहते हैं और उसे अपना आध्यात्मिक गुरु मानते हैं।
हिटलर ने स्वयं नीत्शे की आवक्ष मूर्ति के साथ अपना-चित्र खिंचवाया था। उसने नीत्शे के सभी मूल लेख अपनी विशेष निगरानी में रखे। उसके लेखों से कुछ उदाहरण निकाले और उसे नाजीवादी के समारोहों में नए जर्मन धर्म के रूप में घोषित किया। नीत्शे नाजीवादी लोगों का आध्यात्मिक पूर्वज है, इस बात से नीत्शे के नजदीकी संबंधियों ने भी इंकार नहीं किया। नीत्शे के चचेरे भाई रिचार्ड औलचर ने यह बा कबूल की है कि हिटलर की सक्रियता नीत्शे के विचारों की परिणति है और नाजी लोगों के सत्ता में आने के पीछे नीत्शे की ही मूल प्रेरणा थी। स्वयं नीत्शे की बहन ने मृत्यु से कुछ दिन पूर्व हिटलर को उसके भाई को सम्मानित करने के लिए धन्यवाद दिया और कहा कि जरथुस्त्र में जिस महामानव का वर्णन किया गया है, उसका अवतार वह हिटलर में देखती है।
नीत्शे, जिसके दर्शन से इतनी तीव्र अपेक्षा तथा डर पैदा होता है, उसकी बराबरी मनु के साथ करने से निश्चित ही हिंदुओं को अचंभा हो सकता है और उनके मन में क्रोध भी पैदा हो सकता है, परंतु इस सच्चाई के बारे में कोई संदेह नहीं किया जा सकता है। नीत्शे ने स्वयं यह बात कही है कि उसके दर्शन में उसने केवल मनु की योजना का अनुसरण ही किया है। अपनी एंटी क्राइस्ट पुस्तक में नीत्शे ने कहा है -
अंततः प्रश्न यह है कि झूठ किस सीमा तक बोला जाए? इस सत्य को कि ईसाई धर्म में पवित्र उद्देश्यों का अभाव है, जिसके कारण वे जिन साधनों का उपयोग करते हैं, उन पर मेरी आपत्ति है, उनके उद्देश्य केवल बुरे उद्देश्य हैं। पाप की संकल्पना के कारण मनुष्य सुख से वंचित रहता है। अपने शरीर से तिरस्कृत रहता हे, अपना जीवन जहरीला और कलंकित बनाता है तथा अपने-आपको गिरा हुआ और कलुषित मानता है। परिणामस्वरूप उसके साधन भी बुरे हैं। मेरी भावनाएँ इसके बिलकुल विपरीत हैं। जब मैं मनु का विधान पढ़ता हूँ, जो निश्चित ही एक अतुलनीय, अपूर्व बौद्धिक तथा श्रेष्ठ कलाकृति है। उसका बाइबिल के साथ उल्लेख करना भी एक भारी पाप होगा। आप तुरंत जान सकते हैं, ऐसा क्यों? क्योंकि उसमें, उसकी पृष्ठभूमि में एक सच्चा दर्शन है। उसमें केवल ज्यू लोगों के रब्बिनवाद की गंध वाले सार और वहम नहीं हैं, उसमें बड़े-बड़े तुनकमिजाज मनोवैज्ञानिकों की बुद्धि के लिए भी भरपूर सामग्री है और अत्यधिक महत्त्वपूर्ण तथा न भूलने वाली बात यह है कि मनु का विधान मौलिक रूप से बाइबिल से सभी प्रकार से भिन्न है, उसके कारण समाज के प्रतिष्ठित वर्ग, दार्शनिक और योद्धा जनता की रक्षा करते हैं और उनका मार्गदर्शन करते हैं। वह महान आदर्शों से ओत-प्रोत है। वह परिपूर्णता की भावना से भरा हुआ है। उसमें जीवन का सार है और अपने स्वयं के प्रति तथा जीवन के प्रति कल्याण की विजयी भावना है। उस संपूर्ण ग्रंथ पर सूर्य की जगमगाहट है। वह प्रजोत्पादन, स्त्री, विवाह आदि सभी बातों को, जिन्हें ईसाई धर्म अपनी गहरी अश्लीलता से दबा होता है, यहाँ ईमानदारी, आदर, प्रेम तथा विश्वास के साथ प्रस्तुत किया गया है।
व्यभिचार को टालने के लिए, प्रत्येक पुरुष की अपनी पत्नी होनी चाहिए, और प्रत्येक स्त्री का अपना पति होना चाहिए। ... जलने के बजाय विवाह करना उत्तम है। ऐसी पुस्तक, जिसमें ऐसे शब्दों का समावेश है। बच्चों तथा स्त्रियों के हाथों में कैसे दे सकते हैं। और जब मनुष्य की उत्पत्ति को ही ईसाई बना दिया है, अर्थात निष्कलंक धर्म-धारण की भावना से कलुषित किया है, तब क्या ईसाई बनना उचित होगा?
जिस प्रकार मनु के विधान की पुस्तक में स्त्रियों के प्रति जितनी सुंदर तथा उत्तम बातें कही गई हैं, ऐसी बातें कहने वाली कोई दूसरी पुस्तक मैं नहीं जानता। इन वृद्ध सफेद दाढ़ी वालों और संतों ने स्त्रियों का वर्णन करने में जिस दुस्साहस का परिचय दिया है, उसकी बराबरी कहीं भी नहीं। एक स्थान पर मनु कहता है - स्त्री का मुख, कुमारी का वक्ष, बच्चे की प्रार्थना और यज्ञ का धुआँ हमेशा शुद्ध होते हैं। एक और स्थान पर वह कहता है - सूर्य का प्रकाश, गाय की छाया, हवा जल अग्नि तथा कुमारी का श्वास, इनसे शुद्ध कोई दूसरी वस्तु नहीं हैं और अंत में शायद यह बताना भी एक पवित्र झूठ है कि स्त्री के शरीर के नाभि के ऊपर खुला हिस्सा शुद्ध है और नाभि के नीचे का हिस्सा अशुद्ध है। केवल कुमारी का ही संपूर्ण शरीर शुद्ध होता है।
इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता है कि जरथुस्त्र मनु का ही एक नया नाम है और दस स्पेक जरथुस्त्र मनुस्मृति की ही एक नई आवृति है।
अगर मनु और नीत्शे में कोई अंतर है, तो वह इस बात में है कि नीत्शे यथार्थतः एक नई मानवजाति की रचना करना चाहता था, जो कि वर्तमान मानव जाति की तुलना में महामानवों की जाति हो। इसके विपरीत मनु एक ऐसी जाति के विशेषाधिकारों की रक्षा में दिलचस्पी रखता था, जो अनाधिकार रूप से महामानव बनने की चेष्टा करते थे। नीत्शे के महामानव उनके गुणों से महामानव थे, मनु के महामानव केवल उनके जन्म के कारण महामानव बनते थे। नीत्शे एक सच्चा निःस्वार्थ दार्शनिक था। इसके विपरीत मनु एक ऐसा भाड़े का दलाल था, जो एक विशेष समुदाय में जन्मे लोगों के स्वार्थ की रक्षा करने के लिए रखा गया था, जो अपने गुणों को खो भी दें तो भी उनका महामानव का स्तर नहीं खोया जा सकेगा। वह ऐसे दर्शन का प्रणेता था। हम मनु के निम्नलिखित उदाहरणों की तुलना करते हैं।
10.81. ब्राह्मण यदि अपने कर्म से जीवन का निर्वाह कर सके, तो क्षत्रिय का कर्म करता हुआ जीवन का निर्वाह करे, क्योंकि क्षत्रिय वर्ग उसका समीपवर्ती है।
10.82. यदि वह दोनों (ब्राह्मण कर्म तथा क्षत्रिय कर्म) से जीवन निर्वाह नहीं कर सकता तो किस प्रकार रहे? यदि ऐसा संदेह हो जाए, तो वह वैश्य के कर्म, खेती, गौ-पालन और व्यापार से जीविका करे।
मनु आगे कहता है -
9.317. ब्राह्मण चाहे मूर्ख हो या बुद्धिमान, वह महान-पूज्य व्यक्ति होता है, ठीक उसी प्रकार जैसे अग्नि, चाहे शास्त्र विधि से स्थापित है अथवा सामान्य, अग्नि है।
9.319. इस प्रकार ब्राह्मण यदि कोई नीच व्यवसाय भी करे, उनका प्रत्येक प्रकार से सम्मान होना चाहिए, क्योंकि वह उत्तम देवता है।
इस प्रकार नीत्शे की तुलना में मनु के महामानव का दर्शन अधिक नीच तथा भ्रष्ट है, नीत्शे के दर्शन से अधिक घृणित एवं निंदनीय हैं।
इससे पता चलता है कि हिंदुत्व का दर्शन न्याय और उपयोगिता की कसौटी पर किस प्रकार से खरा नहीं उतरता। हिंदू धर्म की रुचि सर्वसाधारण लोगों में नहीं है। हिंदू धर्म की रुचि पूरे समाज में नहीं हैं। उसकी रुचि एक वर्ग के हित में केंद्रित है और उसके दर्शन का संबंध भी केवल उस वर्ग के अधिकारों की रक्षा और समर्थन करने से है। इसलिए हिंदू धर्म के दर्शन में सामान्य मनुष्य तथा उसके साथ संपूर्ण समाज के हितों को महामानवों (ब्राह्मणों) के वर्ग के हितों के लिए नकारा गया है, दबाया गया है और उनकी बलि चढ़ाई गई है।
ऐसे धर्म का मनुष्य के लिए क्या महत्व है?
धर्म के प्रत्यक्षवाद के गुणों के विषय में बाल्फोर महोदय ने प्रत्यक्षवादियों से कुछ प्रयत्न पूछे थे, जिनका उल्लेख आवश्यक है। उन्होंने स्पष्टत पूछा -
समाज के अनगिनत महत्त्वहीन लोग, जो अपनी दैनिक जरूरतों तथा छोटी-छोटी चिंताओं के साथ निरंतर संघर्ष करने में इतने अधिक उलझे हुए हैं और बहुत ही व्यस्त हैं, जिनके पास सुख-चैन के लिए कोई समय नहीं अथवा जिन लोगों को मानवता के नाम के नाटक में उनकी निश्चित भूमिका के विचार की आवश्यकता नहीं है और वैसे ही जो लोग इसके महत्व तथा हित समझने में भ्रमित हो जाएँगे, ऐसे लोगों के संबंध में प्रत्यक्षवाद के क्या विचार हैं? क्या वे उन्हें ऐसा आश्वासन दे सकते हैं कि उस ईश्वर की नजर में, जिसने स्वर्ग का निर्माण किया है, कोई भी व्यक्ति ऐसा महत्त्वहीन नहीं है कि उनके कार्य की ईश्वर की नजर में कोई कद्र नहीं होगी या वह इतना कमजोर है कि उसके कार्य का परिणाम संसार का विनाश होगा। क्या यह उन दीन-दुःखी लोगों को सांत्वना दे सकता है? क्या दुर्बलों को शक्ति दे सकता है? क्या पापी लोगों को क्षमा कर सकता है? और जो लोग थके हैं तथा किसी बोझ के नीचे दबे हैं, उन्हें आराम दे सकता है?”
यही प्रश्न मनु से पूछे जा सकते हैं और इनमें से प्रत्येक प्रश्न का उत्तर सकारात्मक होना चाहिए।
संक्षेप में, हिंदू धर्म का दर्शन ऐसा है कि उसे मानवता का धर्म नहीं कहा जा सकता। इसीलिए ही बाल्फोर की भाषा का उपयोग करते हुए हम कह सकते हैं कि यदि हिंदू धर्म सर्वसाधारण लोगों के जीवन में गहरे प्रवेश करता है, लेकिन उन्हें सुरक्षा का कवच नहीं प्रदान करता, वस्तुतः उन लोगों को विकलांग बनाता हैं तो हिंदू धर्म में सामान्य मानवीय आत्माओं के लिए कोई पोषक तत्व नहीं हैं। साधारण मानवीय दुख का कोई समाधान नहीं है। साधारण मानवीय कमजोरी के लिए कोई सहायता नहीं है। कुल मिलाकर हिंदू धर्म लोगों को अंधकार में छोड़ देता है। इनमें क्रूर अधर्म से अधिक क्रूर कार्य और क्या हो सकता है? वह मनुष्य का ईश्वर के साथ जो संबंध हैं, उसे ही भंग कर देता है।
हिंदू धर्म का दर्शन ऐसा है। वह महामानव (ब्राह्मण) के लिए स्वर्ग है, तो साधारण मनुष्य के लिए नर्क है।
मैं जानता हूँ कि हिंदू धर्म के दर्शन के संबंध में मेरे विचारों पर चारों ओर से आक्रमण हो सकता है। इसके संबंध में जो वर्तमान धारणाएँ हैं, उनसे यह स्थिति इतनी विपरीत है कि उस पर आक्रमण होना अनिवार्य है। यह आक्रमण भिन्न दिशाओं से हो सकता है।
ऐसा कहा जाएगा कि मनुस्मृति, हिंदू धर्म का धर्मग्रंथ है। मेरा ऐसा मानना ही गलत है और हिंदुत्व का शिक्षा सार वेद तथा भगवद्गीता में सम्मिलित है।
परंतु यह मेरा निश्चित विश्वास है कि कोई भी रूढ़िवादी हिंदू ऐसा कहने का साहस नहीं कर सकता है कि मनुस्मृति, हिंदू धर्म का धर्मग्रंथ नहीं हैं। ऐसा आरोप केवल कुछ सुधारवादी हिंदू पंथ के लोग, जैसे कि आर्यसमाज के लोग ही लगा सकते हैं, परंतु इस आरोप के उत्तर के लिए शायद यह उचित होगा कि विभिन्न स्मृतियों ने हिंदुओं में कैसे अधिकार का स्थान प्राप्त किया (देखिए, प्रो.अल्तेकर द्वारा लिखित 'दि पोजीशन आफ स्मृतिज् एज ए सोर्स आफ धर्म (काने मैमोरियल वोल्यूम) पृ. 18-25)। इस बात को स्पष्ट किया जाए।
मूल रूप से स्मृति उन नियमों का संग्रह है, जिनका संबंध सामाजिक परंपरा, रूढ़ियों तथा मान्यताओं से है और जिन्हें उन लोगों द्वारा मान्यता मिली हुई है, उन्होंने उसे पुरस्कृत किया है, जिन्हें वेदों का ज्ञान है। दीर्घ समय तक ये नियम, इन वेदों के ज्ञान-प्राप्त लोगों की स्मृति में ही बसे हुए थे, इसलिए उन्हें स्मृति कहा जाने लगा अर्थात कुछ ऐसी बातें, जो वेदों या श्रुति से अलग याद रखी जाती हैं, जिसका अर्थ है, ऐसी बातें जिन्हें सुना गया है। यहाँ यह भी देना आवश्यक है कि शुरू में जब स्मृति की नियमावली बनाई जा रही थी, तब भी उसके नियमों को वेदों में सम्मिलित नियमों की तुलना में निम्न स्तर ही माना जाता था।
उनके अधिकार तथा बंधनों में अंतर है, वह उस स्वाभाविक अंतर का नतीजा है, जो किसी बात को सुनने की तुलना में किसी बात को याद रखने पर विश्वास करने की योग्यता में होता है। इन दो प्रकार के धर्मशास्त्रों में यह जो अंतर है, उसका और भी एक कारण है। यह अंतर इनके लेखकों के स्तर पर आधारित है। वेदों के लेखक ऋषि थे। स्मृति के लेखक केवल विद्वान व्यक्ति थे, और ऋषियों का स्तर तथा मान्यता उन लोगों से निश्चित श्रेष्ठ थी, जो केवल विद्वान थे। परिणामस्वरूप, वेदो को स्मृति की तुलना में अधिक अधिकारयुक्त माना गया।
इसके कारण जो परिस्थिति निर्मित होती है, उसे हिंदू ब्रह्मविज्ञान में उत्तम प्रकार से स्पष्ट किया गया। इसके अनुसार, यदि किसी समान विषय पर दो वेदों के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए, तब किसी भी एक नियम का पालन करने की अनुमति दी जाती है, परंतु दोनों ही नियम कार्यरत रहते हैं। इसके विपरीत, जब श्रुति तथा स्मृति के नियमों में विरोध उत्पन्न हो जाए, जब श्रुति का नियम ही माना जाए, क्योंकि ऊपर बताया गया है, स्मृति का स्तर श्रुति के अधिकार की तुलना में हीन है, लेकिन जैसा कि प्रो.अल्तेकर ने स्पष्ट किया है। कुछ समय बीतने के बाद स्मृति को भी वही अधिकार प्राप्त हो जाए, जो वेदों को मिले थे और उस उद्देश्य की पूर्ति के लिए विभिन्न उपाय अपनाए गए। प्रथम स्थान पर स्मृति के लेखक का स्थान ऋषियों के स्तर तक ऊँचा उठाया गया, जो आरंभिक धर्मशास्त्रों के लेखक थे, जैसे कि गौतम और बौद्धायन। उन्हें कभी भी ऋषियों का समान स्तर नहीं दिया गया, परंतु मनु और याज्ञवल्क्य को ऋषि की मान्यता दे दी गई और इस माध्यम से स्मृति का स्तर श्रुति के समान स्तर पर लगाया गया। स्मृति को श्रुति की यादगार का एक ऐसा लिखित प्रमाण मानना, जो नष्ट हो गया है, यह दूसरा उपाय अपनाया गया। इस प्रकार स्मृति, एक ऐसी वस्तु, जो श्रुति से सर्वथा भिन्न है, ऐसी मानी जाने के बजाय श्रुति से बिल्कुल मिलती-जुलती और अभेद्य मानी जाने लगी। इन उपायों का नतीजा दोनों के अधिकारों से संबंधित नियमों में संपूर्ण परिवर्तन में हुआ। प्रारंभ में यदि स्मृति और श्रुति में विरोध हो जाए, तब श्रुति का अधिकार ही चलता था। नया नियम यह हो गया कि विरोध की ऐसी स्थिति में किसी भी नियम को मानने की अनुमति थी, जिसका अर्थ यह था कि स्मृति का नियम भी उतना ही कार्यरत था, जितना कि श्रुति का। इस नए नियम को कुमारिल ने अपने पूर्व मीमांसा के भाष्य के स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है, जिसके द्वारा स्मृति को भी उतना ही अधिकारयुक्त बनाया गया, जितना कि श्रुतियाँ थीं।
जबकि मौलिक रूप से हिंदू समाज वेदों के साथ बंधा हुआ था और वह उन नियमों का पालन नहीं कर सकता था, जो वेदों के विरोधी थे, इस नए नियम ने स्थिति को बदल दिया और समाज को श्रुति अथवा स्मृति का अनुसरण करने की छूट दी, परंतु बाद में इस छूट को भी वापस ले लिया गया। स्मृति का अध्ययन भी श्रुति के समान ही अनिवार्य बना दिया गया।
यह परिवर्तन धीरे-धीरे किया गया। प्रथम स्थान पर ऐसा सूचित किया गया कि श्रुति तथा स्मृति ब्रह्मा की दो आँखें हैं और यदि उसकी एक आँख न हो, तब वह एक आँख वाला व्यक्ति बन जाता है। उसके बाद ऐसा सिद्धांत आया कि ब्राह्मणत्व, वेद तथा स्मृति दोनों के संयुक्त अध्ययन के परिणाम से ही संभव हो सकता है। अंत में ऐसा नियम आया, जिसके अनुसार केवल स्मृति को मान्यता दी गई और जिसकी निंदा करना पाप माना गया जो व्यक्ति इसका दोषी होगा, वह इक्कीस पीढ़ियों तक राक्षस-योनि में जन्म लेगा, ऐसा घोषित किया गया।
इस प्रकार स्मृति को हिंदू धर्म के स्रोत के रूप में मान्यता प्रदान की गई और इस बात में कोई संदेह नहीं है। प्रो.अल्तेकर के अनुसार -
'स्मृतियों ने आधुनिक हिंदू धर्म की रचना में अनेक सामाजिक तथा धार्मिक संस्थाओं तथा प्रथाओं के पहलू निश्चित करने के कार्य में बहुत ही महान भूमिका निभाई।'
इसलिए ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि मैंने मनुस्मृति को हिंदू धर्म का दर्शन मान कर गलती की।
स्मृति को वेदों के स्तर तक ऊँचा उठाने का यह कार्य ब्राह्मणों द्वारा एक अत्यंत स्वार्थ के कारण किया गया था। स्मृतियों में, उसके सभी जंगती तथा विलासितापूर्ण विकास में जाति के सिद्धांत ब्राह्मणों की श्रेष्ठता, उनके अधिकार तथा विशेषाधिकारों के सिद्धांत तथा क्षत्रिय और वैश्यों की मातहती के सिद्धांत का तथा शूद्रों के निम्नीकरण के सिद्धांत का समावेश है। स्मृति का दर्शन इस प्रकार का होने के कारण उसे भी वही अधिकार प्रदान करने में ब्राह्मणों का प्रत्यक्ष हित था, जो वेदों को दिए गए थे और जिस कार्य में अंत में उन्हें अपने हित के पक्ष में सफलता भी मिल गई, लेकिन इसके कारण संपूर्ण देश का सर्वनाश हो गया, परंतु फिर भी, जैसा कि समानता तथा धर्माचारी हिंदू कहते हैं, यह मानते हुए भी कि स्मृतियों में हिंदू धर्म के दर्शन का समावेश नहीं है, किंतु उसे वेद तथा भगवद्गीता से प्राप्त किया जा सकता है, यह प्रश्न रह ही जाता है कि इससे अंतिम परिणामों में क्या फर्क पड़ता है।
मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि चाहे हम स्मृति, वेद अथवा भगवद्गीता को लें, उससे इस स्थिति में कोई ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।
क्या वेदों की शिक्षा, स्मृति की शिक्षा से मौलिक रूप से भिन्न है? क्या भगवद्गीता स्मृति के बंधनों के विपरीत है? कुछ उदाहरण इस स्थिति को स्पष्ट कर सकते हैं।
यह निर्विवाद है कि वेदों ने चातुर्वर्ण्य के सिद्धांत की रचना की है, जिसे पुरुषसूक्त नाम से जाना जाता है। यह दो मूलभूत तत्वों को मान्यता देता है। उसने समाज के चार भागों में विभाजन को एक आदर्श योजना के रूप में मान्यता दी है। उसने इस बात को भी मान्यता प्रदान की है कि इन चारों भागों में संबंध असमानता के आधार पर होने चाहिए। भगवद्गीता ने जो विद्या दी है, वह भी विवाद से परे है। जो शिक्षा कृष्ण ने भगवद्गीता में दी है, उसे निम्नलिखित अधिघोषणा द्वारा संक्षेप में बताया जा सकता है -
4.13. मैंने स्वयं उस व्यवस्था की रचना की है, जिसे चातुर्वर्ण्य कहा जाता है (यानी समाज का चार जातियों, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र, में चौगुना विभाजन) और उसके साथ ही उनकी मौलिक कार्य क्षमता के अनुसार उनके व्यवसायों का निश्चयीकरण। चातुर्वर्ण्य का रचयिता जो है, वह मैं ही हूँ।
3.35. यद्यपि दूसरे वर्ण का व्यवसाय (कर्म) के साथ जुड़े हुए हें। वे स्वयं अपने व्यवसाय का पालन करें और तदनुसार दूसरों को भी अपने वर्णों के व्यवसाय का पालन करने के लिए बाध्य करें। शायद, शिक्षित मनुष्य अपने व्यवसाय के साथ जुड़े हैं, शिक्षित मनुष्य को उन्हें उनका व्यवसाय लांघकर रास्ते पर चलने के लिए भ्रष्ट नहीं करना चाहिए।
4.7.8. 'हे अर्जुन जब-जब कर्तव्य तथा व्यवसाय के इस धर्म का यानी (चातुर्वर्ण्य के धर्म का) पतन होगा, तब-तब मैं स्वयं जन्म धारण करूँगा और उन लोगों को, जो इस पल के लिए जिम्मेदार हैं, दंडित करूँगा और इस धम्र की पूर्ण स्थापना करूँगा।'
भगवद्गीता की स्थिति इस प्रकार है। तब गीता और मनुस्मृति में क्या अंतर है? संक्षेप में गीता ही मनुस्मृति है। जो मनुस्मृति से दूर भागकर गीता में शरण लेना चाहते हैं या तो वे गीता जानते ही नहीं अथवा गीता की उस आत्मा को ही, जो उसे मनुस्मृति के बहुत नजदीक लाती है, अपने विचार से हटा देना चाहते हैं।
वेद और भगवद्गीता, दोनों की शिक्षा की हम मनुस्मृति की उस शिक्षा के साथ तुलना करते हैं, जो मैंने हिंदू धर्म का दर्शन स्पष्ट करने के लिए उदाहरण के रूप में की है। इन दोनों में भी क्या अंतर है? इन दोनों में केवल एक ही अंतर है, वेद तथा भगवद्गीता में एक सर्वसाधारण सिद्धांत का विचार है, जबकि मनुस्मृति में उस सिद्धांत की विशेषताएँ तथा अन्य विस्तारित बातों को स्पष्ट करने पर ध्यान दिया गया है, लेकिन जहाँ तक मनुस्मृति, वेद तथा भगवद्गीता के सार के संबंध हैं, ये सभी एक ही नमूने पर बुने गए हैं। इन सभी के भीतर एक ही प्रकार का धागा चलता है और वास्तव में यह सभी एक ही वस्त्र के हिस्से हैं।
इसका कारण भी स्पष्ट है। ब्राह्मण, जो कि उपनिषद के अलावा लगभग संपूर्ण हिंदू धर्म साहित्य के लेखक थे, उन्होंने उनके द्वारा रचित सिद्धांतों को स्मृति, वेद तथा भगवद्गीता, इन सभी में अंतर्भूत करने की उत्तम सावधानी बरती। इसलिए हिंदू धर्म का दर्शन एक जैसा ही होगा,चाहे हम मनुस्मृति अथवा वेद अथवा भगवद्गीता को हिंदू धर्म के उपदेश के रूप में लेते हैं।
दूसरा, ऐसा कहा जा सकता है कि मनुस्मृति कानून की एक पुस्तक है और वह नैतिक आचार-संहिता नहीं है तथा हिंदू धर्म के दर्शन के रूप में, मैंने यहाँ जो कुछ भी प्रस्तुत किया है, वह केवल कानून का दर्शन है और वह हिंदू धर्म का नैतिक दर्शन नहीं है।
ऐसा मानने वाले के लिए मेरा उत्तर बहुत सरल है। मेरी धारणा है कि हिंदू धर्म में उसका काननून दर्शन तथा उसका नैतिक दर्शन, इन दोनों में कोई भेद नहीं है। ऐसा इसलिए है, क्योंकि हिंदू धर्म में वैधानिक तथा नैतिक दोनों में भी कोई अंतर नहीं हैं तथा जो बात वैधानिक है, वही बात नैतिक भी हे।
मेरी इस धारणा के समर्थन के लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। हम ऋग्वेद के धर्म शब्द का अर्थ (यह पैरा श्री यशवंत रामकृष्ण डाटे के इस विषय पर लेख से लिया है, जो मराठी पत्रिका 'स्वाध्याय नं. 7.8, प्रथम वर्ष के पृ. 18-21 पर प्रकाशित है।) लेते हैं। 'धर्म' शब्द ऋग्वेद में 58 बार मिलता है। उसका प्रयोग छह भिन्न-भिन्न अर्थों से किया गया है। इसका प्रयोग (1) प्राचीन प्रथा, (2) कानून, (3) कोई भी ऐसी व्यवस्था, जो समाज में कानून तथा व्यवस्था बनाए रखती है, (4) निसर्ग का मार्ग, (5) किसी पदार्थ की उत्तमता और (6) उत्तम तथा बुरे लोगों के कर्तव्य, इन बातों को स्पष्ट करने के लिए हुआ है। इस प्रकार हम यह देख सकते हैं कि धर्म शब्द को हिंदू 'धर्म' में दो प्रकार के अर्थ से प्रारंभ से ही प्रयोग किया जा रहा है। यह एक कारण है कि हिंदू धर्म के दर्शन वैधानिक दर्शन और नैतिक दर्शन में किसी प्रकार का भेद क्यों नहीं है।
इससे हम ऐसा नहीं कह सकते हैं कि हिंदुओं में कोई नैतिक आचार-संहिता नहीं है। निश्चित रूप से उनमें ऐसी आचार-संहिता है, परंतु यह बहुत ही उचित होगा कि हम उन आचरण के नियमों की प्रकृति तथा स्वरूप जान लें, जिन्हें हिंदू नीतिशास्त्र नैतिक कहते हैं।
हिंदू जिसे नैतिक मानते हैं, उस आचार-संहिता का स्वरूप जानने के लिए यह उचित होगा कि हम अपना कार्य यह मानकर आरंभ करें कि समाज में आचरण (इसमें मैंने पूर्णतः 'क्राउले एवं तुफ्तृस' की व्याख्या का अनुगमन किया है, जो उन्होंने अपनी नीति विषयक पुस्तक में दी है।) के तीन स्तर होते हैं, जिनमें फर्क करना आवश्यक है। (1) मूलभूत आवश्यकताओं तथा स्वभाव से निर्मित होने वाला आचरण, (2) समाज के नियमों से नियंत्रित आचरण, और (3) व्यक्तिगत विवेक बुद्धि से नियंत्रित आचरण। पहले स्तर के आचरण को हम नैतिक आचरण नहीं कहते हैं। वह अनैतिक भी नहीं है। यह आचरण उन शक्तियों द्वारा नियंत्रित होता है, जो अपने उद्देश्य में नैतिक नहीं होती, परंतु परिणामों के लिए मूल्यवान होती हैं। यह शक्तियां शारीरिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक होती हैं। इनका एक निश्चित उद्देश्य होता है, जैसे कि भूख मिटाना अथवा शत्रु के विरोध में शस्त्र उठाना, परंतु लक्ष्य वह होता है, जो हमारे शारीरिक अथवा स्वाभाविक रूप से निर्धारित किया जाता है और जब तक इसको केवल एक न टालने की बात मानकर चलते हैं और उसकी तुलना अन्य कीमती तथा स्वीकृत बातों से नहीं करते, तब तक वह उचित रूप से नैतिक नहीं मानी जा सकती है।
दूसरे स्तर का आचरण निःसंदेह सामाजिक है। जहाँ-जहाँ मनुष्य गुट बनाकर रहते हैं, वहाँ-वहाँ उनके कार्य करने के कुछ निश्चित मार्ग होते हैं, जो उस गुट के लिए समान-रूप से लागू होते हैं ओर वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलते हैं। इन स्वीकृत तौर-तरीकों को उस गुट की लोक-नीति या नैतिकता कहा जाता है। उन नियमों का पालन करना, यही उस गुट का निर्णय है, ऐसा माना जाता है। उस गुट का कल्याण उनके साथ संबद्ध है, ऐसा माना जाता है। प्रत्येक व्यक्ति का यह कर्तव्य होता है कि वह उनका पालन करे और यदि व्यक्ति उनके विपरीत आचरण करता है, तब उसे यह महसूस कराया जाता है कि गुट को यह बात मंजूर नहीं है। इस आचरण को हम सही अर्थ में नैतिक आचरण नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इसमें अंतिम उद्देश्य को समाज द्वारा निर्धारित श्रेष्ठ मानक माना गया है। यदि उसे नैतिक कहा गया है तो इसलिए, क्योंकि वह समाज की नैतिकता और लोक-नीति के अनुरूप है। इसे पारंपारिक रूप से तो नैतिक कहा जा सकता है। तीसरे स्तर का जो आचरण है, उसे ही केवल सही अर्थ तथा संपूर्ण रूप से नैतिक कहा जा सकता है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि इस प्रकार से एक व्यक्ति उचित बात को मानता है अथवा उत्तम बात को स्वीकार करता है और उसकी पूर्ति के लिए मुक्त रूप से पूरी लगन से कार्य करता है, वह व्यक्ति किसी बात को केवल इसलिए नहीं मानता है, क्योंकि वह अटल है अथवा उसका पालन इसलिए नहीं करता, क्योंकि उसे समाज की मान्यता है, पर व्यक्ति अपने ध्येय का स्वयं चयन करता है और उसे महत्त्वपूर्एा मानकर उसके लिए स्वयं को जिम्मेदार ठहराता है। उसकी नैतिकता विचारों से संबंधित होती है।
इन तीन स्तरों में से किस स्तर पर हिंदुओं की नैतिकता अधिष्ठित है। यह बिल्कुल स्पष्ट है कि उनकी नैतिकता तीसरे स्तर पर स्थित नहीं। इसका अर्थ यह है कि हिंदू सामाजिक है, किंतु सही अर्थों में नैतिक नहीं है। जिन उद्देश्यों को वह प्राप्त करता है, उनकी वही जिम्मेदारी नहीं लेता। वह स्वेच्छा से समाज का एक साधन बन जाता है और अनुसरण करने में ही संतोष पाता है। वे अपने समाज से बिना किसी भय के अपना अलग मत व्यक्त करने के लिए मुक्त नहीं हैं। पाप से संबंधित उसकी जो धारणाएँ हैं, वे उसके अनैतिक चरित्र का एक निश्चित प्रमाण हैं। विष्णुपुराण में पापकर्मों की एक सूची आती है, जो नौ वर्गों में विभाजित है।
(1) अतिपातक (घोर पाप) : निकट संबंधियों के साथ व्यभिचार, जिसके लिए आत्मदहन जैसी प्रायश्चित व्यवस्था का विधान है।
(2) महापातक (बड़ा पाप) : ब्राह्मण की हत्या, पूजा विधि जल को पीना, ब्राह्मण के 'सवर्ण अलंकारों की चोरी, गुरु पत्नी के साथ यौन संबंध और इसके साथ ही ऐसे पाप करने वालों के साथ सामाजिक संबंध रखना।
(3) अनुपातक (छोटे इसी प्रकार के पाप) : इनमें कुछ अन्य वर्गों के लोगों की हत्या, झूठे साक्ष्य देना और मित्र की हत्या और ब्राह्मण की जमीन अथवा संपत्ति की चोरी करना तथा कुछ विशेष प्रकार यौन संबंध और व्यभिचार आदि का समावेश होता है।
(4) उपपातक (छोटे पाप) : झूठा बयान देना, कुछ विशेष धार्मिक कर्तव्यों की उपेक्षा करना, व्यभिचार, गैर कानूनी कब्जा, बड़े भाई से पहले विवाह करने का अपराध, देवता तथा पितृरात्मा के प्रति उत्तरदायित्व न निभाना तथा नास्तिक होना आदि।
(5) जाति ब्रह्मसंकर (जात खोने का पाप) : ब्राह्मण को शारीरिक वेदना पहुँचाना, ऐसी वस्तुओं को सूँघना, जिन्हें नहीं सूँघना चाहिए, कुटिल व्यवहार करना तथा कुछ अस्वाभाविक अपराध करना।
(6) सामकरीकरण (वर्ण संकर जाति में पतन होने वाले पाप) : जंगली अथवा पालतू जानवरों की हत्या।
(7) आपत्रिकरण (ऐसे पाप, जो किसी को भिक्षा ग्रहण करने योग्य नहीं मानते) : नीच व्यक्ति से भिक्षा ग्रहध करना और भेंट वस्तु स्वीकार करना। शूद्र की सेवा करना, उसके साथ रहना, उसे पैसा उधार देना और उसके साथ व्यापार करना।
(8) मलवाह (ऐसे पाप, जो अपवित्र बनाते हैं) : पक्षी, जलचर प्राणी, कीटाणु तथा कीड़ों की हत्या करना, ऐसे फल अथवा वनस्पति खाना, जिससे मद्यपान के समान नशा हो जाता है।
(9) प्रकीर्ण (मिले-जुले) : ऐसे सभी पाप कर्म, जिनका ऊपर के प्रकारों में समावेश नहीं है।
पापों की यह पूरी सूची नहीं है, परंतु निश्चित ही वह एक लंबी तथा विस्तृत सूची है, जो हिंदू के पाप की धारणाओं के बारे में हमें पर्याप्त जानकारी देती है। प्रथम स्थान पर वह मनुष्य का उसकी सुनिर्धारित आचार-संहिता के पतित होने का अर्थ व्यक्त करती है। दूसरे स्थान पर उसका अर्थ है, मनुष्य का अस्वच्छ होकर अपवित्र बन जाना। पातक शब्द का मूल अर्थ भी यही है। इसका मतलब है, पतन होना और अस्वच्छ होना। दोनों ही मामलों में हिंदू धारणा के अनुसार पाप आत्मा का रोग है। पहले अर्थ में वह केवल बाहरी आचरण के नियम का उल्लंघन है। दूसरे अर्थ में शरीर का अपवित्र होना, जिसे धार्मिक यात्रा अथवा यज्ञदान, दोनों के द्वारा भी स्वच्छ तथा पवित्र बनाया जा सकता है, परंतु आत्मा का अपवित्र होना, जो बुरे विचार तथा उद्देश्यों के कारण होता है, इस अर्थ से यह धारणा कभी भी नहीं रही।
इस बात से स्पष्ट है कि हिंदुओं की नैतिकता केवल सामाजिक है। इसका अर्थ यह है कि उनकी नैतिकता का स्तर पूर्ण रूप से पारंपरिक तथा औपचारिक है। इस नैतिकता के दो हानिकारक पहलू हैं। प्रथम स्थान पर यह बात निश्चित नहीं है कि इसे हमेशा ईमानदारी और पवित्रता की प्रेरणा से आवेशित किया जाएगा, क्योंकि यह बात तभी हो सकती है जब नैतिकता किसी व्यक्ति की भावना तथा उद्देश्य में बहुत गहरा प्रवेश करती है और जिसके कारण मानवीय आचरण में किसी प्रकार का बहाना करने के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता है। दूसरे स्थान पर व्यावहारिक नैतिकता मनुष्य के लिए एक प्रकार से रुकावट तथा अपने बहाव में खींचने की शक्ति दोनों ही है। वह आम आदमी को रोकने का काम करती है और जो लोग आगे बढ़ना चाहते हैं, उन्हें भी किसी पानी के जहाज के समान लंगर के पीछे जकड़ कर रखने का कार्य करती है। औपचारिक नैतिकता केवल नैतिक स्थिरता का ही दूसरा नाम है। जहाँ-जहाँ औपचारिक नैतिकता ही एकमात्र नैतिकता है, उन सभी मामलों में यही बात लागू होती है, परंतु हिंदुओं की औपचारिक नैतिकता गुणसंपन्न आचरण का एक और भी दुष्ट पहलू है, जो उसकी विशेषता है। व्यावहारिक नैतिकता गुण आचरण की बात है। सामान्यतः गुणसंपन्न आचरण ऐसा होना चाहिए, जो सर्वसाधारण अथवा सार्वजनिक दृष्टि से उत्तम हो, परंतु हिंदू धर्म में गुण संपन्न आचरण का ईश्वर की पूजा अथवा समाज का सर्वसाधारण हित, इनके साथ कोई संबंध नहीं है। हिंदू धर्म में गुणसंपन्न आचरण का संबंध ब्राह्मण के प्रति आदर-सम्मान व्यक्त करने तथा उसे दक्षिणा देने से है। महामानव (ब्राह्मण) की पूजा करना, सही हिंदू नीति शास्त्र है।
ऐसी स्थिति में, यदि मैं हिंदू नीति शास्त्र को भी हिंदू धर्म के दर्शन का अनुमान करने के लिए आधार बनाता हूँ, तब भी क्या फर्क पड़ता है? हिंदू धर्म के अधिकांश छात्र यह बात भूल जाते हैं कि जिस प्रकार हिंदू धर्म में कानून और धर्म में कोई अंतर नहीं है, उसी तरह कानून और नीति-शास्त्र, दोनों में कोई अंतर नहीं है। दोनों का संबंध एक ही बात से है। वह बात यह है कि निम्न स्तर के हिंदुओं के आचरण को नियंत्रित करना, ताकि वे श्रेष्ठ हिंदुओं के उद्देश्यों की पूर्ति कर सकें।
तीसरे, यह आपत्ति उठाई जा सकती है कि मैंने उपनिषद, जो कि हिंदू दर्शन का सही स्रोत है, उस पर विचार न करके, हिंदू धर्म के दर्शन का बिल्कुल ही झूठा चित्र प्रस्तुत किया है।
मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मैंने उपनिषदों पर विचार नहीं किया है, लेकिन इसके लिए मेरे पास कुछ कारण हैं और मेरा यह विश्वास है कि ऐसा न करने के वह बहुत ठोस कारण हैं। हिंदू धर्म के दर्शन से मेरा संबंध धर्म के दर्शन के एक भाग के रूप में है। मेरा संबंध हिंदू दर्शन से नहीं है। यदि मेरा संबंध हिंदू दर्शन से होता, तब मेरे लिए आवश्यक हो जाता है कि मैं उपनिषद की छानबीन करूँ, परंतु फिर भी उपनिषद की छानबीन करने के लिए मैं तैयार हूँ, क्योंकि मैं यह संदेह नहीं रखना चाहता हूँ कि जिसको मैंने हिंदू धर्म का दर्शन बताया है, वही वास्तव में उपनिषद का दर्शन भी है।
उपनिषद का दर्शन बहुत ही कम शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है। हक्सले द्वारा इसे बहुत ही संक्षेप में उत्तम ढंग से व्यक्त किया गया है। (इवोल्यूशन एंड ऐथिक्स, पृ. 63) वह कहता है कि उपनिषद दर्शन इस बात से सहमत है कि -
"मन के अथवा किसी वस्तु के हृदय स्वरूप में होने वाले क्रमिक बदलाव के सूत्र के अंतर्गत छुपी हुई स्थायीवास्तविकता अथवा पदार्थ के अस्तित्व को समझने में ही उपनिषद दर्शन का सार है। विश्व का सारभूत पदार्थ है ब्रह्मा और व्यक्ति की 'आत्मा' और ब्रह्म तथा आत्मा दोनों भी एक-दूसरे के केवल उनकी अभिव्यक्ति, भावना, विचार, इच्छाएँ, सुख तथा दुःख के कारण अलग हैं, जिसके कारण जीवन का भ्रामक मायाजाल खड़ा होता है। जो लोग अज्ञानी होते हैं, वे उसे ही सच्चाई मानते हैं। इसलिए उनकी आत्मा नित्य भ्रांतियों से घिरी रहती है, जो अपनी इच्छाओं के बंधनों में जकड़ कर दुःख-यातनाओं की सजा सहन करते हैं।
उपनिषद के ऐसे दर्शन का भला क्या उपयोग है? उपनिषद के दर्शन का मतलब है स्वचेतना के विनाश द्वारा अपनी इच्छाएँ नष्ट करके तथा संन्यास लेकर जीवन के अस्तित्व के संघर्ष से पीछे हटना। जीवन पद्धति के रूप में हक्सले (इवोल्यूशन एंड ऐथिक्स, पृ.64) ने उसकी बहुत ही कठोर शब्दों में आलोचना की है।
"भारतीय संन्यासियों-तपस्वियों ने तपश्चर्या द्वारा शारीरिक रूप से जितना कष्ट सहा, उसका अन्यत्र उदाहरण कठिन है। आधुनिक युग की किसी भी संन्यासी मठवादी प्रथा ने मानवीय मन को निर्विकार निद्रित अवस्था की उस हद तक नहीं गिराया, जो उसकी सर्वमान्य पवित्रता को पागलपन की भावना से भर जाने का खतरा उत्पन्न करती हो।”
परंतु उपनिषद के दर्शन की यह आलोचना लाला हरदयाल (माडर्न रिव्यू) ने उसकी जो सार्वजनिक भर्त्सना की है, उसकी तुलना में कुछ भी नहीं है, वे कहते हैं -
"उपनिषद यह दावा करता है कि उसके ज्ञान से प्रत्येक वस्तु का ज्ञान प्राप्त होता है। परिपूर्णता की यह लालसा ही भारत के कृत्रिम अध्यात्मवाद का आधार बन गई है। उपनिषद के ये लेख मूर्ख विचार, असंगत कल्पनाएँ तथा भ्रमित करने वाले अनुमानों से भरे हैं और हमने यह बात नहीं समझी कि यह सभी निरर्थक है। हम पुराने ही रास्तों पर चल रहे हैं। हम अत्युत्तम यूरोपियन सामाजिक विचारों का अनुवाद करने के स्थान पर, इन्हीं पुरानी किताबों का संपादन करते रहते हैं। यदि फ्रेडरिक हेरीमन, ब्रयूक्स, बेबेल एनातोले फ्रांस, हार्वे, हाईकाल, जीडिग्स और मार्शल अपना समय डुंस, स्कोटस और थामस एक्वीनस आदि के निबंधों की पुनर्रचना और पेंटाटियूय का कानून तथा बिओवुल्फ की कविता की गुण संपन्नता की चर्चा करने में बिताते, तब यूरोप की स्थिति कैसी रहती? भारतीय विद्वानों तथा बुद्धिजीवियों की जो बातें निरर्थक तथा पुरानी हैं, उनके प्रति एक प्रकार का पागल मोह है। इस प्रकार विकासशील मनुष्यों द्वारा स्थापित संस्थाएं अपने युवकों को वेदों के माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने का उद्देश्य रखती हैं। बुद्धिमानी प्राप्त करने की लालसा में यह कितना गलत कदम है। यह ऐसा प्रयास है, जैसे कोई कारवां किसी रेगिस्तान से ताजे पानी की खोज में भरे हुए समुद्र के किनारे की ओर चले जा रहा है। भारत के नवयुवकों, अपने दुर्गंधयुक्त आध्यात्मिक ग्रंथों में बुद्धिमत्ता देखने का प्रयास न करो। इनमें शब्दों की अंतहीन कसरत के अलावा कुछ भी नहीं है। राझायू और वोल्टेयर, प्लेटो और एरीस्टोटल, हाइकल और स्पैंसर, मार्क्स और टालस्टाय, रस्किन और कौमटे उसकी समस्याओं को समझना चाहते हैं।”
परंतु, आलोचना को दूर रखें, तब क्या हिंदू धर्म पर सामाजिक तथा राजनीतिक व्यवस्था के रूप में उपनिषद के दर्शन का कोई प्रभाव है? इस बात में कोई संदेह नहीं है कि उपनिषद दर्शन का हिंदुओं की सामाजिक तथा नैतिक व्यवस्था पर कोई भी प्रभाव न होने की दृष्टि से यह बहुत ही प्रभावहीन तथा परिणामशून्य ही रहा है।
इस दुर्भाग्यपूर्ण नतीजे के कारणों को जानना इस स्थान पर अनुचित नहीं होगा। एक कारण बिल्कुल स्पष्ट है। उपनिषद का दर्शन अपूर्ण ही रहा और इसके कारण उससे कोई परिणाम प्राप्त नहीं हो सका, जो होना चाहिए था। यह बात तब पूर्णरूप से स्पष्ट हो जाती है यदि हम यह पूछें कि उपनिषद की क्या प्रमुखता है। प्रो.मैक्समूलर (हिब्बर्ट लेक्चर, 1878, पृ. 317) के शब्दों में उपनिषद का मूल स्वर है 'स्वयं को पहचानो' उपनिषद का 'स्वयं को पहचानों' का मतलब है, 'सत्य क्या है, उसे जान लो, जो तुम्हारे अहंकार के नीचे दबा हुआ है और उसे प्राप्त करो तथा उसे उसके श्रेष्ठतम तथा नित्य रूप में जानो। वह ऐसा एक है, जिसके समान कोई दूसरा नहीं है और यही संपूर्ण विश्व की अंतर्मन भावना है।'
आत्मा और ब्रह्म एक है, यह एक सच्चाई है, एक महान सत्य है, जो उपनिषदों ने कहा कि उन्होंने खोज निकाला और इसलिए उन्होंने मनुष्य से कहा कि वे उसे जानें। अब उपनिषद का दर्शन परिणाम शून्य क्यों रहा, इसके अनेक कारण हैं। उसकी चर्चा किसी अन्य स्थान पर करना चाहूँगा, परंतु इस स्थान पर मैं केवल एक ही कारण का उल्लेख करता हूँ। उपनिषद के तत्ववेत्ता यह बात नहीं समझ सके कि केवल सत्य को जानना ही पर्याप्त नहीं है। प्रत्येक मनुष्य को सत्य से प्रेम करना भी सीखना चाहिए। दर्शन और धर्म में जो भेद है, वह दो प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है। दर्शन का संबंध सत्य को जानने के साथ होता है। धर्म का संबंध सत्य पर आस्था करने के साथ होता है। दर्शन अपरिवर्तनीय होता है, परंतु धर्म परिवर्तनशील होता है। यह भिन्नताएँ एक ही वस्तु के केवल दो पहलू हैं। दर्शन अपरिवर्तनीय होता है, क्योंकि वह केवल सत्य जानने से ही संबंधित है।धर्म परिवर्तनीय है, क्योंकि वह सत्य पर आस्था करने से संबंधित है, जैसा कि मैक्सप्लोमन (दि नेमिसिस आफ इन्डफैक्चुअल रिलीजन, अडेल्फी, जनवरी, 1941) ने उत्तम प्रकार से स्पष्ट किया है -
"... जब तक कि धर्म परिवर्तनशील नहीं रहता और किसी वस्तु के लिए हममें प्रेम भावना उत्पन्न नहीं करता है, हमें उस वस्तु के बिना रहना ही उत्तम होगा, जिसे हम धर्म कहते हैं, क्योंकि धर्म सत्य की दृष्टि है और यदि हमारी सत्य की दृष्टि के साथ उसके प्रति प्रेम की भावना नहीं रहती हैं, तब हमारे लिए यही उत्तम होगा कि हम उस दृष्टि को ही न प्राप्त करें। बुरा मनुष्य वही होता है, जिसने सत्य को केवल उसका तिरस्कार करने के लिए देखा है। टेनीसेन ने कहा है, 'जब हम किसी को देखते हैं, तब उस पर अत्यधिक प्रेम करना चाहिए।' परंतु ऐसा नहीं होता है। इस बात को उसकी वस्तुपरकता से देखते हुए जो श्रेष्ठ होता है, वह उसकी भिन्नता तथा अंतर के कारण चमकता है, जिससे हम भयभीत हो जाते हैं, और जिसे हम डरते हैं, उससे घृणा करने लगते हैं।”
सभी लोकोत्तर दर्शनों की यही नियति है। उनका जीवन के मार्ग पर कोई प्रभाव नहीं रहता। जैसा ब्लेक ने कहा है, 'धर्म राजनीति है, राजनीति बंधुत्व है' दर्शन को धर्म बनाना आवश्यक है। इसका मतलब है कि उसे कार्यरत नीति शास्त्र बनना चाहिए। वह केवल अध्यात्मवाद नहीं रहना चाहिए। जैसा प्लामन ने कहा है -
"यदि धर्म एक अध्यात्मवाद बनकर रह जाए, उसके अलावा कुछ भी नहीं, तब एक बात निश्चित है कि उसका सीधे तथा सामान्य मनुष्यों के साथ कोई संबंध नहीं होगा।
"धर्म को पूर्ण रूप से अध्यात्मवाद की पक़़ड में रखने का मतलब है, उसे मूर्खता का विषय बनाना, क्योंकि जिस प्रकार हम किसी ऐसी बात में जो प्रत्यक्ष तथा सजीव रूप से राजनीति में परिणामकारक नहीं है, विश्वास करते हैं, उसी प्रकार अंततः धर्म में विश्वास करना भी कठोर शब्दों में एक मूर्खता ही है, क्योंकि किसी परिणामकारक अर्थ से ऐसा विश्वास किसी प्रकार का फर्क नहीं करता और समय तथा आकांक्षा की इस दुनिया में जो बात कोई फर्क नहीं कर सकती, वह अस्तित्वहीन ही होती है।”
इन्हीं कुछ कारणों से उपनिषद का दर्शन परिणामशून्य साबित हुआ।
इसलिए यह बात निर्विवाद है कि हिंदू नीति-शास्त्र और उपनिषदों के दर्शन के बावजूद, मनु द्वारा उद्घोषित हिंदू धर्म के दर्शन से एक बिंदी अथवा बहुत ही मामूली सी बात भी नहीं मिटाई जा सकी। मनु ने धर्म के नाम पर जो कलंकित शिक्षा दी, उसे नष्ट करने के लिए वे बहुत ही परिणामशून्य तथा शक्तिहीन थे और उनके अस्तित्व के होते हुए भी हम यह कह सकते हैं कि -
हिंदू धर्म तेरा नाम असमानता है।
6
असमानता, हिंदू धर्म की आत्मा है। हिंदू धर्म की नैतिकता केवल सामाजिक है। कम-से-कम यह बात निश्चित है कि यह नैतिकता तथा मानवता से असंबद्ध होती है और जो बात नैतिकता तथा मानवता से असंबद्ध होती है, वह बात आसानी से अनैतिक, अमानवीय तथा कुख्यात बन जाती है। आज हिंदू धर्म ऐसा ही कुछ बन गया है। जो लोग इस बात पर संदेह करते हैं अथवा इस धारणा को नकारते हैं, उन लोगों को हिंदू समाज की सामाजिक रचना की समीक्षा करनी चाहिए और उसके साथ ही उस रचना के कुछ तत्वों का वर्तमान स्थिति पर चिंतन करना चाहिए। हम कुछ निम्नलिखित उदाहरण लेते हैं।
पहले हम आदिवासी कबीले समाज की ओर देखें। सभ्यता की किस अवस्था में वे जीवन व्यतीत कर रहे हैं?
मानवीय सभ्यता के इतिहास में मानव विकास के जंगलीपन से लेकर बर्बरता तक और बर्बरता से लेकर सभ्यता तक, सभी अवस्थाओं का समावेश है। उसकी एक अवस्था में जो परिवर्तन हुआ है, वह परिवर्तन सदा ही ज्ञान की अथवा कला की किसी-न-किसी शाखा में कोई खोज अथवा आविष्कार के साथ हुआ है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य उन्नति की ओर बढ़ा।
किसी स्पष्ट भाषा का विकास होना पहली चीज थी, जो मानव विकास की दृष्टि से पहली महत्त्वपूर्ण बात थी, जिसने मनुष्य को असभ्य मनुष्य से अलग किया। यह असभ्यता पहली अवस्था को प्रकट करती है। असभ्यता की मध्यावस्था उत्पादन के ज्ञान से तथा अग्नि के उपयोग से आरंभ हुई। इस अद्भुत खोज के कारण मनुष्य अपने निवास स्थान को अनिश्चित सीमाओं तक बढ़ाने योग्य बन गया। वह अपना जंगल का घर छोड़कर विभिन्न स्थानों पर तथा सर्द वातावरण में जाने लगा और उसने अपनी भोजन सामग्री में माँस-मछली का समावेश करके बढ़ोतरी की। उसकी अगली खोज थी, तीर और कमान की। आदिमानव की यह सबसे बड़ी उपलब्धि थी और जंगली मनुष्य के विकास की यह चरम अवस्था है। वास्तव में वह एक अद्भुत औजार था। इस हथियार को धारण करने वाला, सबसे गतिमान पशु की हत्या भी कर सकता था तथा किसी भी हिंसक पशु से अपनी रक्षा भी कर सकता था।
जंगलीपन से बर्बरता की अवस्था मिट्टी के बर्तनों की खोज से आरंभ हुई। तब तक मनुष्य के पास ऐसे बर्तन नहीं थे, जो आग से नष्ट नहीं हो सकते थे। बर्तनों के बिना मनुष्य न तो खाना पका सकता था, और न किसी वस्तु का संग्रह कर सकता था। निस्संदेह मिट्टी के बर्तनों का संस्कृति के निर्माण पर बड़ा ही प्रभाव रहा।
बर्बरता की मध्य अवस्था तब आरंभ हुई, जब मनुष्य ने हिंसक पशुओं को पालतू बनाना सीखा। मनुष्य ने यह बात जान ली कि पालतू जानवर उसके लिए उपयोगी हो सकते हैं। अब मनुष्य चरवाहा बन गया और फिर वह भोजन के लिए हिसंक पशुओं का खतरनाक स्थिति में पीछा करने पर निर्भर नहीं रहने लगा। सभी ऋतुओं में दूध की उपलब्धि ने उसकी खाने-पीने की वस्तुओं में बहुत ही महत्त्वपूर्ण बढ़ोतरी की। घोड़े तथा ऊंटों की सहायता से वह दूर-दूर तक सफर करने लगा था, जो अब तक उसके लिए असंभव था।
पालतू जानवर उसके लिए व्यापार में सहायक बन गए? जिसके कारण वह अपनी वस्तुओं का तथा अपने विचारों का भी आदान-प्रदान करने लगा।
उसके बाद की खोज थी, लोहे को गलाकर वस्तुएँ बनाने की कला। जंगलों में रहने वाले मनुष्यों की उन्नति में यह एक बहुत ही उच्चतम अवस्था है। इस खोज के साथ मनुष्य एक प्रकार से 'औजार बनाने वाला प्राणी' बन गया, जो अपने औजारों से लकड़ी तथा पत्थर को विभिन्न आकार देने लगा और मकान तथा पुल बनाने लगा।
और इसके साथ ही जंगल में रहने वाले मनुष्य ने जो उन्नति की, उसकी अंतिम अवस्था का अंत होता हैं।
'सभ्यता', इस शब्द के परिपूर्ण अर्थ से एक सभ्य मनुष्य को जंगली मनुष्य से अलग करने वाली रेखा वहाँ से उभरती है, जहाँ कल्पनाओं का चित्रांकित चिह्नों के माध्यम से एक-दूसरे को समझाने की कला का उदय हुआ, जिसे लिखने की कला कहा जाता है। इस कला के साथ मनुष्य ने समय पर वियज प्राप्त कर ली, जैसे कि पहले की खोजों से उसने अंतराल पर विजय प्राप्त की थी। अब वह अपनी कृतियाँ तथा विचारों को लिखने लगा। इसके बाद, उसका ज्ञान, उसके सुहाने सपने, उसकी नैतिक आकाक्षाएँ ऐसे आकार में लिखना संभव हो गया, जो न केवल उसके समकालीन, बल्कि उसके बाद आने वाली पीढ़ियाँ पढ़ सकें। मनुष्य के लिए उसका इतिहास एक सुरक्षित और संरक्षित बन गया। यह चरम पराकाष्ठा सभ्यता के आरंभ का प्रतीक है।
अब हम यहाँ रुककर यह बात पूछना चाहेंगे कि हमारे आदिवासी जन सभ्यता की किस अवस्था में जी रहे हैं।
आदिवासी नाम ही उनकी वर्तमान अवस्था को स्पष्ट करता है, जिन लोगों को उस नाम से पुकारा जाता है, वे जंगलों में छोटी-छोटी बिखरी झोपड़ियों में रहते हैं। वे जंगली वनस्पति तथा फूल-पत्तियाँ खाकर जीते हैं। भोजन प्राप्त करने के उद्देश्य से वे मछली पकड़ते अथवा शिकार करते हैं। उनकी सामाजिक अर्थव्यवस्था में खेती को बहुत ही गौण स्थान प्राप्त है। अन्न प्राप्त करना, यह एक बहुत ही संकट की बात होने के कारण वे लगभग भुखमरी का जीवन व्यतीत करते हैं, जिससे कोई मुक्ति नहीं है। जहाँ तक कपड़ों का संबंध है, वे उसका इतना कम उपयोग करते हैं कि कपड़े उनके शरीर पर लगभग नहीं के बराबर ही होते हैं। वे लगभग नग्न अवस्था में ही रहते हैं। एक आदिवासी जाति का नाम 'बोंडा पोराज' है। इसका अर्थ है 'नग्न पोरजस'। ऐसा कहा जाता है कि इन लोगों में औरतें बहुत ही संकीर्ण वस्त्र का एक टुकड़ा पहनती हैं, जो ढंकने के लिए लहंगे का कार्य करता है। उनका यह वस्त्र असम के मामजाक नागा आदिवासी लोगों के वस्त्र के समान है, जिसके दोनों सिरे ऊपर कमर के साथ बहुत ही कठिनाई से मिलते हैं। यह लहंगे जैसा वस्त्र जंगली पेड़ों के धागे से घर पर ही औरतें बना लेती हैं। लड़कियाँ गुटकों की मालाएँ पहनती हैं, जो कि लगभग मौमजाक आदिवासी स्त्रियों से मिलती-जुलती हैं अन्यथा औरतें कुछ भी नहीं पहनतीं। औरतें अपने सारे सिर के बालों का मुंडन करती हैं।
इन आदिवासियों में निजाम के राज्य में फराहाबाद के पास रहने वाली एक चैन्चू नाम की आदिवासी जाति है। ऐसा कहा जाता है कि उनके मकान शुकु के आकार के बाँस से बने होते हैं, जिसमें एक मध्यबिंदु से धलान होती है, जो घास की बहुत ही बारीक तह से ढकी होती है। उनके पास वस्तुओं के नाम पर कुछ भी नहीं अथवा बहुत ही कम चीजें होती हैं। वे बहुत ही कम वस्त्र पहनते हैं। पुरुष लंगोट बांधते हैं और औरतें छोटा-सा लहंगा और ब्लाउज पहनती है। खाना पकाने के बहुत ही कम बर्तन होते हैं, एक अथवा दो टोकरियाँ होती हैं, जिनमें कभी-कभी खाने के कुछ दाने रखे होते हैं। वे गाय-बकरियां पालते हैं और इस विशेष गाँव में कुछ खेती भी करते हैं। अन्य स्थानों पर वे जंगली वस्तुएँ तथा मधु बेचकर ही अपना पेट पालते हैं। एक अन्य आदिवासी जाति मोरिया के बारे में कहा जाता है कि उनके पुरुष कमर में एक वस्त्र बाँधते हैं, जिसका एक सिरा सामने लटका होता है। उनके बदन पर गुटकों की मालाएँ भी होती हैं तथा जब वे नृत्य करते हैं, तब अपनी पगड़ी में मुर्गे अथवा मोर के पँख लगाते हैं। अनेक लड़कियाँ भारी मात्रा में विशेष रूप से चेहरे पर गोदना (शरीर पर गुदवाना) कराती हैं। उनमें से कुछ लड़कियाँ पैरों पर गोदन करती हैं। गोदन के प्रकार प्रत्येक लड़की की रुचि के अनुसार होते हैं और उसे काँटे तथा सुई से किया जाता है। अपने सिर के बालों में अनेक लड़कियाँ जंगली मुर्गे के पँख लगाती हैं और उसके साथ ही जूड़ों में लकड़ी, टीन अथवा पीतल की कँघी बाँधती हैं।
इन आदिवासी कबीलों को कुछ भी खाने में, यहाँ तक कि कीडे-मकौड़े खाने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं होती है और वास्तव में कोई भी ऐसा माँस नहीं है, जो ये लोग न खाते हों, चाहे वह जानवर नैसर्गिक कारण से मरा हो अथवा चाह-छह दिन अथवा उसे भी पहले किसी शेर द्वारा मारा गया हो। इन लोगों का एक वर्ग अपराधी जातियाँ हैं।
जिस तरह आदिवासी जातियाँ जंगलों में रहती हैं, इसके विपरीत ये अपराधी जातियाँ सुगम प्रदेशों में बहुत ही नजदीक तथा प्रायः सभ्य समाज-जीवन के बीच में रहती हैं। होलियस ने अपनी किताब 'संयुक्त प्रांत की अपराधी जातियाँ' में इन लोगों की गतिविधियों की जानकारी दी है। वे संपूर्ण रूप से अपनी आजीविका अपराधों से ही पूरी करते हैं।
उनमें से कुछ लोग प्रकट रूप से खेती करते हैं, परंतु यह केवल उनका सही व्यवसाय छुपाने के लिए ही है। हम उनकी बहुत-सी दुष्ट प्रथाएँ, उनके द्वारा किए जाने वाली हिंसात्मक चोरी अथवा डकैती में देख सकते हैं, परंतु अपराध करने के लिए ही संगठित होने वाली जाति होने के कारण, उन्हें इन बातों में कुछ भी अनुचित नहीं लगता, किसी भी विशेष बस्ती में जब कोई डकैती डालना निश्चित हो जाता है, तब उचित शिकार का पता करने के लिए जासूस भेजे जाते हैं, ग्रामवासियों की आदतों का अध्ययन किया जाता है और साथ ही किसी अन्य गाँव से कारगर सहायता प्राप्त करने की सँभावना के लिए उस गाँव की दूरी और वहाँ के लोगों की तथा हथियारों की संख्या आदि सभी बातों की जानकारी प्राप्त की जाती है। डकैती प्रायः मध्य रात्रि में होती है। जासूसों द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर गाँव के विभिन्न स्थानों पर लोग नियुक्त किए जाते हैं और ये लोग अपने हथियार चलाकर उनकी मुख्य टोली से लोगों का ध्यान दूसरी तरफ आकर्षित करते हैं। तब यह मुख्य टोली उस विशेष पूर्व निर्धारित मकान अथवा मकानों पर हमला करती है। यह टोली बहुधा तीस अथवा चालीस आदमियों की होती है।
इन लोगों के सामान्य जन-जीवन में अपराध, जो महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है, उस पर बल देना आवश्यक है। एक बच्चा जब चलने-फिरने तथा बोलचाल के योग्य हो जाता है, तो उसे अपराधी जीवन की दीक्षा दी जाती है। निस्संदेह इसके पीछे काफी हद तक एक वास्तविक उद्देश्य होता है कि बच्चे के लिए छोटी-छोटी चोरियाँ करने कफ्रे लिए जोखिम उठाना अच्छा होता है, क्योंकि यदि वह बच्चा पकड़ा जाता है, तब शायद उसे चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है। इस कार्य में औरतें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं, जो यद्यपि वास्तविक रूप से डकैती में भाग नहीं लेती, परंतु अनेक भारी जिम्मेदारियों निभाती हैं। चोरी का माल बेचने में बहुत चतुर होने के साथ-साथ अपराधी जातियों की यह औरतें दुकानों में रखी हुई वस्तुएँ चुराने के कार्य में अति कुशल मानी जाती हैं।
किसी समय पिंडारी तथा ठग जैसे अनेक व्यावसायिक सुसंगठित संगठनों का इन अपराधी जातियों में समावेश होता था।
पिंडारी शस्त्रधारी लुटेरों का एक हिंसक संगठन था। उनका संगठन लुटेरों का एक मुक्त सैनिक शस्त्रधारी संगठन था, जो बीस हजार और उससे भी अधिक अच्छे घोड़े एक समय पर रखते थे। वे एक डाकू मुखिया की आज्ञा में रहते थे। उनमें से बहुत शक्तिशाली लुटेरे चित्त नाम के एक मुखिया के पास दस हजार घोड़े थे, जिनमें पाँच हजार उत्तम घुड़सवार और उसके साथ ही पैदल सेना तथा बंदूकें होती थीं। पिंडारी लोगों के पास ऐसी कोई सैनिक योजना नहीं थी, जिसके तहत वे अपने अनियंत्रित सैनिकों के मुक्त गुटों को भर्ती कर सकें ताकि वे लोग व्यावसायिक लुटेरों के संगठन बन जाएँ। पिंडारी की महत्त्वाकांक्षा प्रदेश जीतने की नहीं होती थी। उनका लक्ष्य केवल अपने लिए लूटी संपत्ति तथा धन जमा करना ही होता था। साधारण लूट तथा डाका ही उनका व्यवसाय था। वे कोई नियम नहीं मानते थे। वे किसी के भी अधीन नहीं थे। उनकी किसी के प्रति कोई राजभक्ति नहीं थी। वे किसी का आदर नहीं करते थे और ऊँच-नीच, गरीब सभी लोगों को बिना किसी डर अथवा भेद के लूटते थे।
ठग लोग व्यावसायिक हत्यारों का एक सुसंगठित संगठन था, जिसमें 10 से 100 तक लोगों की टोलियाँ होती थीं, जो विभिन्न भेष में सारे भारत में भ्रमण करती थीं। ये लोग धनवान वर्ग के यात्रियों का विश्वास प्राप्त करते थे और उसके बाद उचित अवसर देखकर उनके गले में रूमाल अथवा फंदा डालकर उनकी गला घोंटकर हत्या करते थे और फिर बाद में उनको लूटकर दफना देते थे। यह सब-कुछ किसी विशेष प्राचीन तथा निश्चित संस्कारों के अनुसार और विशेष धार्मिक विधि की पूर्ति के बाद किया जाता था, जिसमें लूट के माल का पवित्रीकरण संस्कार तथा मीठी वस्तु की आहुति दी जाती थी। वे लोग संहार की हिंदुओं की 'काली' देवी के कर्मठ उपासक थे। लाभ के लिए हत्या करना उनके लिए एक धार्मिक कर्तव्य था और उसे पवित्र तथा सम्माननीय व्यवसाय माना जाता था।
वास्तव में इन लोगों को इस बात की समझ भी नहीं थी कि वे कुछ गलत कार्य कर रहे हैं और उनकी नैतिक भावनाएँ उनके इस कार्य में कोई भी बाधा नहीं बनती थीं। काली देवी की इच्छा, जिसके अधिकार के तहत तथा जिसके सम्मान के लिए वे अपने व्यवसाय का पालन करते थे, शुभ-शुभ लक्षणों से उसकी सहमति की बहुत ही जटिल पद्धति के माध्यम से प्रकट की जाती थी। इस आशा के पालन के लिए वे लोग कभी-कभी तो अपने इच्छित शिकार के साथ मीलों तक और कभी-कभी उससे अधिक दूरी तक भी सफर करते थे कि जब तक उन्हें अपनी इच्छापूर्ति के लिए सुरक्षित अवसर न मिल जाता और जब उनका कार्य पूरा हो जाता था, तब वे अपने आदि देवता के सम्मान में संस्कार-पूर्ति करते थे तथा अपनी लूट का बड़ा हिस्सा उसके लिए अलग निकाल कर रखते थे। इन ठग लोगों की अपनी बेमतलब के शब्दों की भाषा थी तथा उसके साथ ही कुछ ऐसे चिह्न थे, जिनके द्वारा वे भारत के दूर-दराज के क्षेत्रों में भी अपने सदस्यों को पहचानते थे। इनमें से जो लोग वृद्धावस्था अथवा विकलांग अवस्था के कारण इन कार्यों में क्रियाशील होकर भाग नहीं ले सकते थे, वे चोकीदार, जासूस तथा भोजन पकाने वालों के रूप में उनकी सहायता करते थे। उनके संपूर्ण संगठन के कारण ही वे लोग गुप्त तथा सुरक्षित रूप से अपने कार्य पर जा सकते थे, परंतु मुख्य रूप से वह धार्मिक परिवेश था, जिसके अंतर्गत वे लोग अपने द्वारा की गई हत्या छुपा सकते थे और इसके कारण ही सदियों तक वे अपनी कला का प्रदर्शन करते रहे। इस संबंध में यह एक बहुत ही विशेष बात है कि भारत के उस समय के हिंदू एवं मुसलमान शासकों ने ठगी को एक नियमित व्यवसाय के रूप में मान्यता दी थी। ठग लोग राज्य को कर देते थे और उन्हें राज्य बिना दंड के छोड़ देता था।
अंग्रेजों ने इस देश का शासक बनने के बाद ही ठगों के दमन का प्रयास किया। सन् 1835 तक 382 ठगों को फाँसी दी गई और 989 लोगों को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भगाया गया अथवा आजीवन कैद की सजा दी गई, यहाँ तक कि काफी अंतराल के बाद भी सन् 1879 में पंजीकृत ठगों की संख्या 344 थी और भारत सरकार का ठगी एवं डकैती विभाग सन् 1904 तक अस्तित्व में था। इसके बाद उसका स्थान केंद्रीय अपराध अन्वेषण-विभाग ने ले लिया। आज जबकि इन अपराधी जातियों के लिए अपराधियों के संगठित संगठन के माध्यम से जीवन व्यतीत करना संभव नहीं है, फिर भी अपराध करना उनका मुख्य व्यवसाय बना हुआ है।
इन दो वर्णों के अलावा एक तीसरा वर्ण भी है, जो ऐसे लोगों का बना हुआ है, जिन्हें अस्पृश्य नाम से जाना जाता है।
इन अस्पृश्यों के नीचे कुछ अन्य लोग भी हैं, जिन्हें अप्रवेश्य माना जाता है। अस्पृश्य वे लोग होते हैं, जिनके स्पर्श करने पर मनुष्य अपवित्र बन जाता है। अप्रवेश्य या पहुँच के बाहर के लोग होते हैं, जिनके कुछ अंतर के नजदीक आने पर मनुष्य अपवित्र हो जाता है। नायडी लोगों के बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे लोग हैं, जो न पहुँचने योग्य की श्रेणी में आते हैं और हिंदूजनों में वे सबसे नीची जाति के हैं, जो कुत्ते का माँस खाते हैं। ये वे लोग हैं, जो भीख माँगने के कार्य में भारी आग्रह करते हैं और कोई भी पैदल चलने वाले, वाहन चलाने वाले अथवा नाव चलाने वाले व्यक्ति का एक आदरयुक्त अंतर रखते हुए वे मीलों तक उसका पीछा करते हैं। यदि उन्हें कुछ दिया जाए, तब उसे नीचे जमीन पर रखना चाहिए और भीख देने वाले व्यक्ति से एक पर्याप्त दूरी तक चलने जाने के बाद से भिखारी लोग बहुत ही घबराते हुए आगे आते हैं और उसे उठाते हैं। इन्हीं लोगों के बारे में श्री थर्स्टन कहते हैं, 'इन आश्रित (नायडी) लोगों की, जिनकी मैंने परीक्षा की और शोरानूस में उनकी गिनती की, यद्यपि वे केवल तीन मील की दूरी पर रहते थे, अपनी परंपरागत अपवित्रता के कारण नदी पर बनाए गए लंबे पुल पर चल नहीं सकते थे और इसे लिए उन्हें घूमकर अनेक मीलों का रास्ता तय करके आना पड़ता था।'
इनमें न पहुँचने योग्य लोगों के नीचे न देखने के योग्य लोग हैं।
मद्रास राज्य के तिन्नेवेल्ली जिले में न देखने योग्य लोगों का एक ऐसा वर्ग हैं, जिन्हें पूरड वंन्न कहा जाता है। उनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि उन्हें दिन में विचरण करने की इजाजत नहीं होती, क्योंकि उनका दर्शन भी अपवित्र माना जाता है। इन दुर्भाग्यशाली लोगों को रात्रि के समय कार्य करने के लिए मजबूर किया जाता है। वे अंधेरा होने पर अपने घर से निकलते हैं और तब वापस लौटते हैं, जब बिज्जू रीछ के समान किसी भी प्राणी की झूठी आवाज सुनते हैं।
इन सभी वर्गों की कुल जनसंख्या पर हम विचार करें। आदिवासी लोगों की कुल मिलाकर 250 लाख आबादी है। अपराधी जातियाँ 45 लाख हैं और अस्पृश्यों की संख्या 500 लाख है इन सबको मिलाकर कुल संख्या 795 लाख बनती है। अब हम यह पूछ सकते हैं कि ये लोग हिंदू धर्म में रहते हुए भी नैतिक, भौतिक, सामाजिक तथा धार्मिक अधःपतन की अवस्था में कैसे रह रहे हैं। हिंदू जन कहते हैं कि उनकी संस्कृति अन्य किसी भी संस्कृति से पुरानी है। यदि ऐसा है, तब हिंदू धर्म इन लोगों को उन्नत करने में, उन्हें ज्ञान देने में तथा उनमें आशा जगाने में असफल क्यों रहा? यह कैसे हो सकता है कि हिंदू धर्म उन्हें सुधारने में भी असफल हो गया? यह कैसे हो सकता है कि जब लाखों लोग शर्मनाक तथा अपराधी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हो रहे थे, तब हिंदू धर्म हाथ बांधकर खड़ा रहा? इन सब प्रश्नों का क्या उत्तर है? इन सबका केवल एक ही उत्तर है कि हिंदू अपवित्रता के भय से व्याकुल है। उसमें शुद्धता लाने की शक्ति नहीं है। उसमें सेवाभाव की चेतना ही नहीं है और ऐसा इसलिए है, क्योंकि मूल प्रकृति अमानवीय तथा अनैतिक है। उसे धर्म कहना ही गलत बात है। इसका दर्शन, जिसके लिए धर्म का अस्तित्व है, उसका ही विरोधी है।