हिंदुस्तानी सिनेमा के वर्तमान स्तंभ / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :22 सितम्बर 2015
अजमेर साहित्य सम्मेलन में इरशाद कामिल से फिर मुलाकात हुई। हम दोनों मुंबई में एक किलोमीटर के फासले पर रहते हैं परंतु कभी मिल नहीं पाते, क्योंकि महानगर का जीवन रिश्तों को संवारने की मोहलत नहीं देता। इस बार मैंने उनसे पूछा कि इम्तियाज अली फिल्म श्रेणियों के एक सिरे पर हैं और दूसरे सिरे पर सूरज बड़जात्या हैं, अत: दोनों के लिए गाने लिखने का अनुभव कैसा रहा? इरशाद कामिल और इम्तियाज अली के मिजाज एक से है परंतु सूरज का सिनेमाई स्कूल बेहद सादगी का स्कूल है। एक पेशेवर गीतकार होने के नाते इरशाद ने दोनों के साथ न्याय किया है। यही हिंदुस्तानी सिनेमा के गीतकारों की परम्परा रही है। शकील बदायुनी 'मुगल-ए-आजम' के गीत लिखते हैं जैसे, 'बेकस पर करम कीजिए सरकार-ए-मदीना' और यही शकील बैजू बावरा के लिए लिखते हैं, 'मन तड़पत हरि दर्शन को आज' और 'गंगा-जमुना' के लिए अवधी रंग में 'नैन लड़ जाइयो तो मनवा मा कसक होई बे करी' भी लिखते हैं। शैलेंद्र राज कपूर के लिए सरल और गहरे अर्थ लिखते हैं तो 'अनारकली' तथा 'यहूदी' के लिए 'ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का कसूर' और वैष्णव फिल्मकार बिमल राय के लिए लिखते हैं 'अब के बरस भेज भइया को बाबुल सावन में लीजो बुलाए' भी लिखते हैं। फिल्मी गीतकार फिल्मकार के मिजाज और कथा के तेवर को समझकर अपना 'अंदाज-ए-बयां' बदलता है।
बहरहाल, इम्तियाज अली का सिनेमा घुमक्कड़ दरवेश का सिनेमा है, जो सराय (शहर) दर सराय सुकून और प्रेम की तलाश में मुसलसल यात्रा पर रहने वाला यायावर सिनेमा है। वह दर्शक की समझदारी को चुनौती देता है। उसके दर्शक के बीच का अदृश्य अनुबंध ही उसके सिनेमा की आत्मा और जबान है। हम श्रेणीकरण व प्रभाव के मोह में मोटेतौर पर इम्तियाज अली के सिनेमा को गुरु दत्त की धारा का वर्तमान स्वरूप मान सकते हैं। सूरज बड़जात्या का सिनेमा उनके दादा ताराचंद बड़जात्या का पारम्परिक व पारिवारिक सिनेमा है। उनकी 'हम आपके हैं कौैन' जो उनके पिता के द्वारा बनाई 'नदिया के पार' का नया संस्करण था, को देखने आए दर्शकों के हुजूम को बाद में मैंने कभी सिनेमाघर में नहीं देखा। सूरज का सिनेमा 'वहां पहुंचता है, जहां न पहुंचे रवि और कवि,' उनका सिनेमा अपने घरों में सुरक्षित व दुबके हुए लोगों को सिनेमाघर आने पर मजबूर करता है। यह कमोबेश वैसा ही है जैसे एक सदी पहले महात्मा गांधी के निडर होने के भाषण के बाद भारतीय सिनेमा को जो दर्शक मिले, उनके वंशज ही सूरज के प्रशंसक हैं। सूरज महानगरों, मध्यम शहरों और आधुनिकता की दौड़ में शामिल इलाकों में, जो भारतीय गांव वाला दुबका बैठा है, वह सूरज के सिनेमा के लिए घर से बाहर आता है और ऐसे ही आता है जैसे तीज-त्योहार पर आयोजित मेले में जाता है। सूरज एलवी प्रसाद स्कूल के से लगते हैं। मोटेतौर पर श्रेणीकरण के मोह में कहें तो सूरज का सिनेमा 'गांव' है और इम्तियाज अली का सिनेमा 'शहर' तथा 'हाइवे' है।
वर्तमान में सफलतम फिल्मकार राजकुमार हीरानी हैं, जो लगातार सुपरहिट फिल्में दे चुके हैं और उनकी फिल्मों को आम जनता के साथ ही समालोचकों ने खूब सराहा है। दरअसल, हीरानी एकमात्र फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्में सर्वकालिक और वैश्विक हैं। उनकी फिल्मों को 'चांदनी चौक से चीन' तक में सराहा गया है। वे लगातार अपने विषयों को मांजते रहे हैं और उन्होंने कभी तथाकथित बुद्धिजीवी सिनेमा नहीं बनाया है। वह सरल ढंग से अत्यंत गहरी बातें कहता है। उसका सिनेमा, मिहिर पंड्या के मुहावरे में 'चार्ली चैपलिन वाया ऋषिकेश मुखर्जी एवं राज कपूर' सिनेमा है। संजय लीला भंसाली का सिनेमा हमें उन शांताराम की याद दिलाता है, जिनमें रंगों व ध्वनि की 'अॉरजी' है मानो कोई जन्मों का भूखा खाने पर टूट पड़ा हो। दरअसल, शांताराम फिल्मों में अस्सी वर्ष सक्रिय रहे। उन्होंने 'दुनिया न माने,' 'आदमी,' 'पड़ोसी,' 'दो आंखें बारह हाथ' जैसी क्लासिक फिल्में बनाई हैं तो अपनी लंबी यात्रा के एक हिस्से में फूहड़ फिल्में भी बनाई है जैसे स्वस्थ आदमी को ही डका भी तो आती है।
हिंदुस्तानी सिनेमा विविध और विराट है, अत: उपरोक्त चार फिल्मकारों में नहीं समेटा जा सकता है। 'फंस गए रे ओबामा' श्रीलाल शुक्ल के 'राग दरबारी' की तरह है और 'भेजा फ्राय' तथा 'विकी डोनर' हरिशंकर परसाई और शरद जोशी की रचनाओं की तरह है। खुशी और गर्व की बात है कि हमारा अखबार परसाई और जोशी को किस्तों में पुन: प्रकाशित कर रहा है। आनंद राय भी प्रबल संभावना हैं और 'रंग दे बसंती' तथा 'भाग मिल्खा भाग' के मेहरा कभी भी आश्चर्यचकित कर सकते हैं। तिगमांशु धूलिया की 'पान सिंह तोमर' महान फिल्म है। केतन मेहता भी 'मांझी' द्वारा लौट आए हैं। कबीर खान लगातार राजनीतिक फिल्में बना रहे हैं और भारत में ऑलीवर स्टोन की तरह बन सकते हैं?
देश की सांस्कृतिक विविधता में एकता को खंडित करने का प्रयास करने वाले, भले ही सिनेमाई गंगोत्री के पुणे संस्थान को ध्वस्त कर रहे हों परंतु हिंदुस्तानी सिनेमा को निशाना बनाना संभव नहीं है।