हिंदुस्तान की दशा – 3 / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी
संपादक : आपका आखिरी सवाल बडा़ गंभीर मालूम होता है। लेकिन सोचने पर वह सहल मालूम होगा। यह सवाल उठा है, उसका कारण भी रेल, वकील और डॉंक्टर हैं। वकीलों और डॉंक्टरों का विचार तो अभी करना बाकी है। रेलों का विचार हम कर चुके। इतना मैं जोड़ता हूँ कि मनुष्य इस तरह पैदा किया गया है कि अपने हाथ-पैर से बने उतनी ही आने-जाने वगैरा की हलचल उसे करनी चाहिए। अगर हम रेल वगैरा साधनों से दौड़धूप करें ही नहीं, तो बहुत पेचीदे सवाल हमारे सामने आएँगे ही नहीं। हम खुद दुख को न्योतते हैं। भगवान ने मनुष्य की हद उसके शरीर की बनावट से ही बाँध दी, लेकिन मनुष्य ने उस बनावट की हद को लाँघने के उपाय ढूँढ़ निकाले। मनुष्य को अकल इसलिए दी गई है कि उसकी मदद से वह भगवान को पहचाने। पर मनुष्य ने अकल का उपयोग भगवान को भूलने में किया। मैं अपनी कुदरती हद के मुताबिक अपने आसपास रहने वालों की ही सेवा कर सकता हूँ; पर मैंने तुरंत अपनी मगरूरी में ढूँढ़ निकाला कि मुझे तो सारी दुनिया की सेवा अपने तन से करनी चाहिए। ऐसा करनें मे अनेक धर्मों के और कई तरह के लोगों का साथ होगा। यह बोझ मनुष्य उठा ही नहीं सकता और इसलिए अकुलाता है। इस विचार से आप समझ लेंगे कि रेलगाड़ी सचमुच एक तूफानी साधन है। मनुष्य रेलगाड़ी का उपयोग करके भगवान को भूल गया है।
पाठक : पर मैं तो, अब जो सवाल मैंने उठाया है उसका जवाब सुनने को अधीर हो रहा हूँ। मुसलमानों के आने से हमारा एक-राष्ट्र रहा या मिटा?
संपादक : हिंदुस्तान में चाहे जिस धर्म के आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक-राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नए लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजा को तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजा में घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जाएगा। ऐसे मुल्क में दूसरे लोगों का समावेश करने का गुण होना चाहिए। हिंदुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी उतने धर्म ऐसा मान सकते हैं। एक-राष्ट्र होकर रहनेवाले लोग एक-दूसरे के धर्म में दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिए कि वे एक-राष्ट्र होने लायक नहीं हैं। अगर हिंदू माने कि सारा हिंदुस्तान सिर्फ हिंदुओं से भरा होना चाहिए, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिए। फिर भी हिंदू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देश को अपना वतन मानकर बस चुके हैं एक-देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं, और उन्हें एक-दूसरे के स्वार्थ के लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।
दुनिया के किसी भी हिस्से में एक-राष्ट्र का अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है; हिंदुस्तान में तो ऐसा था ही नहीं।
पाठक : लेकिन दोनों कौमों के कट्टर बैर का क्या?
संपादक : 'कट्टर बैर' शब्द दोनों के दुश्मन ने खोज निकाला है। जब हिंदू-मुसलमान झगड़ते थे तब वे ऐसी बातें भी करते थे। झगड़ा तो हमारा सबका बंद हो गया है। फिर कट्टर बैर काहे का? और इतना याद रखिए कि अंग्रेजों के आने के बाद ही हमारा झगड़ा बंद हुआ ऐसा नहीं हैं। हिंदू लोग मुसलमान बादशाहों के मातहत और मुसलमान हिंदू राजाओं के मातहत रहते आए हैं। दोनों को बाद में समझ में आ गया कि झगड़ने से कोई फायदा नहीं; लड़ाई से कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए दोनों ने मिलकर रहने का फौसला किया। झगड़ें तो फिर से अंग्रेजों ने शुरू करवाए।
'मियाँ और महादेव की नहीं बनती' इस कहावत को भी ऐसा ही समझिए। कुछ कहावतें हमेशा के लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावत की धुन में इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिंदुओं और मुसलमानों के बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपस में दुश्मन बन गए? धर्म तो एक ही जगह पहुँचने के अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया? उसमें लड़ाई काहे की?
और ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवों में भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक-राष्ट्र नहीं हैं। वेदधर्मियों और जैनों के बीच बहुत फर्क माना जाता है, फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गए हैं, इसीलिए अपने झगड़े हम तीसरे के पास ले जाते हैं।
जैसे मुसलमान मूर्ति का खंडन करनेवाले हैं, वैसे हिंदुओं में भी मूर्ति का खंडन करनेवाला एक वर्ग देखने में आता है। ज्यों-ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा त्यों-त्यों हम समझते जाएँगे कि हमें पसंद न आनेवाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे बैरभाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं; हम उस पर जबरदस्ती न करें।
पाठक : अब गोरक्षा के बारे में अपने विचार बताइए।
संपादक : मैं खुद गाय को पूजता हूँ यानी मान देता हूँ। गाय हिंदुस्तान की रक्षा करनेवाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिंदुस्तान का, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरह से उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है, यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे।
लेकिन जैसे मैं गाय को पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्य को भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी - फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिंदू - उपयोगी है। तब क्या गाय को बचाने के लिए मैं मुसलमान से लड़ूँगा? क्या उसे मैं मारूँगा? ऐसा करने से मैं मुसलमान का और गाय का भी दुश्मन बनूँगा। इसलिए मैं कहूँगा की गाय की रक्षा करने का एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाई के सामने हाथ जोड़ने चाहिए और उसे देश के खातिर गाय को बचाने के लिए समझाना चाहिए। अगर वह न समझे तो मुझे गाय को मरने देना चाहिए, क्योंकि वह मेरे बस की बात नहीं। अगर मुझे गाय पर अत्यंत दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिए, लेकिन मुसलमान की जान नहीं लेनी चाहिए। वही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।
'हाँ' और 'नहीं' के बीच हमेशा बेर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद करूँगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूँगा, तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बलिश्त भर नमूँगा, तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह नहीं भी नमे तो मेरा नमना गलत नहीं कहलाएगा। जब हमने जिद की तब गोकुशी बढी़। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिए। ऐसी सभा का होना हमारे लिए बदनामी की बात है। जब गाय की रक्षा करना हम भूल गए तब ऐसी सभा की जरूरत पड़ी होगी।
मेरा भाई गाय को मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बरताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरों में पड़ूँगा? अगर आप कहे कि मुझे उसके पाँव पड़ना चाहिए, तो मुझे मुसलमान भाई के भी पाँव पड़ना चाहिए।
गाय को दुख देकर हिंदू गाय का वध करता है; इससे गाय को कौन छुड़ाता है? जो हिंदू गाय की औलाद (बैल) को पैना (आर) भोंकता है, उस हिंदू को कौन समझाता है? इससे हमारे एक-राष्ट्र होने में कोई रुकावट नहीं आई है।
अंत में, हिंदू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसक का धर्म क्या है? अहिंसक को आदमी की हिंसा करनी चाहिए, ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसक के लिए तो राह सीधी है। उसे एक को बचाने के लिए दूसरे की हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे तो मात्र चरण-वंदना करनी चाहिए, सिर्फ समाझाने का काम करना चाहिए। इसी में उसका पुरुषार्थ है।
लेकिन क्या तमाम हिंदू अहिंसक हैं? सवाल की जड़ में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीव को तो हम मारते ही हैं। लकिन इस हिंसा से हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करने से मालूम होता है कि बहुत से हिंदू माँस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ करना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है। जब ऐसी हालत है तब मुसलमान हिंसक और हिंदू अहिंसक हैं, इसलिए दोनों की नहीं बनेगी, यह सोचना बिलकुल गलत है।
ऐसे विचार स्वार्थी धर्म शिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओं ने हमें दिए है। और इसमें जो कमी रह गई थी, उसे अंग्रेजों ने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखने की आदत है; हर एक जाति के रीति-रिवाज जानने का वे दंभ करते हैं। ईश्वर ने हमारा मन तो छोटा बनाया है, फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आए हैं। और तरह तरह के प्रयोग करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मन में अपनी बात सही होने का विश्वास जमाते हैं। हम भोलपन में उस सब पर भरोसा कर लेते हैं।
जो टेढ़ा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरान शरीफ में ऐसे सैकड़ों वचन हैं, जो हिंदुओं को मान्य हों; भगवद्गीता में ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ मुसलमान को कोई भी एतराज नहीं हो सकता। कुरान शरीफ का कुछ भाग मैं न समझ पाऊँ या कुछ भाग मुझे पसंद न आए, इस वजह से क्या मैं उसे माननेवाले से नफरत करुँ? झगड़ा दोसे ही हो सकता है। मुझे झगड़ा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमान को झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ? हवा में हाथ उठानेवाले का हाथ उखड़ जाता है। सब अपने अपने धर्म का स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओं को बीच में न आने दें, तो झगड़े का मुँह हमेशा के लिए काला ही रहेगा।
पाठक : अंग्रेज दोनों कौमों का मेल होने देंगे?
संपादक : यह सवाल डरपोक आदमी का है। यह सवाल हमारी हीनता को दिखाता है। अगर दो भाई चाहते हों कि उनका आपस में मेल बना रहे, तो कौन उनके बीच में आ सकता है? अगर तीसरा आदमी दोनों के बीच झगड़ा पैदा कर सके, तो उन भाईयों को हम कच्चे दिल के कहेंगे। उसी तरह अगर हम - हिंदू और मुसलमान - कच्चे दिल के होंगे, तो फिर अंग्रेजों का कसूर निकालना बेकार होगा। कच्चा घड़ा एक कंकड़ से नहीं तो दूसरे कंकड़ से फूटेगा ही। घड़े को बचाने का रास्ता यह नहीं है कि उसे कंकड़ से दूर रखा जाए, बल्कि यह है कि उसे पका बनाया जाए, जिससे कंकड़ का भय ही न रहे। उसी तरह हमें पक्के दिल का बनना है। हम दोनों में से कोई एक (भी) पक्के दिल के होंगे, तो तीसरे की कुछ नहीं चलेगी। यह काम हिंदू आसानी से कर सकते हैं। उनकी संख्या बड़ी है, वे अपने को ज्यादा पढ़े-लिखे मानते हैं; इसलिए वे पक्का दिल रख सकते हैं।
दोनों कौमों के बीच अविश्वास है, इसलिए मुसलमान लॉर्ड मॉर्ले से कुछ हक माँगते हैं। इसमें हिंदू क्यों विरोध करें? अगर हिंदू विरोध न करें, तो अंग्रेज चौंकेंगे, मुसलमान धीरे-धीरे हिंदुओं का भरोसा करने लगेंगे और दोनों का भाईचारा बढ़ेगा। अपने झगड़े अंग्रेजों के पास ले जानें में हमें शरमाना चाहिए। ऐसा करने से हिंदू कुछ खोनेवाले नहीं हैं; इसका हिसाब आप खुद लगा सकेंगे। जिस आदमी ने दूसरे पर विश्वास किया, उसने आज तक कछ खोया नहीं है।
मैं यह नहीं कहना चाहता कि हिंदू-मुसलमान कभी झगड़ेंगे ही नहीं। दो भाई साथ रहें तो उनके बीच तकरार होती है। कभी हमारे सिर भी फूटेंगे। ऐसा होना जरूरी नहीं है, लेकिन सब लोग एकसी अकल के नहीं होते। दोनों जोश में आते हैं तब अकसर गलत काम कर बैठते हैं। उन्हें हमें सहन करना होगा। लेकिन ऐसी तकरार को भी बडी़ वकालत बघार कर हम अंग्रेजों की अदालत में ने ले जाएँ। दो आदमी लडें, लड़ाई में दोनों के सिर या एक का सिर फूटे, तो उसमें तीसरा क्या न्याय करेगा? जो लड़ेंगे वे जख्मी भी होंगे। बदन से बदन टकराएगा तब कुछ निशानी तो रहेगा ही। उसमें न्याय क्या हो सकता है?