हिंदुस्तान की दशा – 4 / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी

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पाठक : आप कहते हैं कि दो आदमी झगड़े तब उसका न्‍याय भी नहीं कराना चाहिए। यह तो आपने अजीब बात कही।

संपादक : इसे अजीब कहिए या दूसरा कोई विशेषण लगाइए, पर बात सही है। आपकी शंका हमें वकील-डॉक्‍टरों की पहचान कराती है। मेरी राय है कि वकीलों ने हिंदुस्तान को गुलाम बनाया है, हिंदू-मुसलमानों के झगड़े बढ़ाए हैं और अंग्रेजी हुकूमत को यहाँ मजबूत किया है।

पाठक : ऐसे इलजाम लगाना आसान है, लेकिन उन्हें साबित करना मुश्किल होगा। वकीलों के सिवा दूसरा कौन हमें आजादी का मार्ग बताता? उनके सिवा गरीबों का बचाव कौन करता? उनके सिवा कौन हमें न्‍याय दिलाता? देखिए, स्‍व. मनमोहन घोष ने कितनों को बचाया? खुद एक कौड़ी भी उन्‍होंने नहीं ली। कांग्रेस, जिसके आपने ही बखान किए हैं, वकीलों से निभती है और उनकी मेहनत से ही उसमें काम होते हैं। इस वर्ग की आप निंदा करें, यह इंसाफ के साथ गैर-इंसाफ करने जैसा है। वह तो आपके हाथ में अखबार आया इसलिए चाहे जो बोलने की छूट लेने जैसा लगाता है।

संपादक : जैसा आप मानते हैं वैसा ही मैं भी एक समय मानता था। वकीलों ने कभी कोई अच्‍छा काम नहीं किया, ऐसा मैं आपसे नहीं कहना चाहता। मि. मनमोहन घोष की में इज्जत करता हूँ। उन्‍होंने गरीबों की मदद की थी यह बात सही है। कांग्रेस में वकीलों ने कुछ काम किया है, यह भी हम मान सकते हैं। वकील भी आखिर मनुष्‍य हैं; और मनुष्‍य जाति में कुछ तो अच्‍छाई है ही। वकीलों की भलमनसी के जो बहुत से किस्‍से देखने में आते हैं, वे तभी हुए जब वे अपने को वकील समझना भूल गए। मुझे तो आपको सिर्फ यही दिखाना है कि उनका धंधा उन्हें अनीति सिखानेवाला है। वे बुरे लालच में फँसते हैं, जिसमें से उबरनेवाले बिरले ही होते हैं।

हिंदू-मुसलमान आपस में लड़े हैं। तटस्‍थ आदमी उनसे कहेगा कि आप गई-बीती को भूल जाएँ; इसमें दोनों का कसूर रहा होगा अब दोनों मिलकर रहिए। लेकिन वे वकील के पास जाते हैं। वकील का फर्ज हो जाता है कि वह मुवक्किल की ओर जोर लगाए। मुवक्किल के खयाल में भी न हों ऐसी दलीलें मुवक्किल की ओर से ढूँढ़ना वकील का काम है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो माना जाएगा कि वह अपने पेशे को बट्टा लगाता है। इसलिए वकील तो आम तौर पर झगड़ा आगे बढ़ाने की ही सलाह देगा।

लोग दूसरों का दुख दूर करने के लिए नहीं, बल्कि पैसा पैदा करने के लिए वकील बनते हैं। वह एक कमाई का रास्‍ता है। इसलिए वकील का स्‍वार्थ झगड़ा बढ़ाने में है। वह तो मेरी जानी हुई बात है कि जब झगड़े होते हैं तब वकील खुश होते हैं। मुखतार लोग भी वकील की जात के हैं। जहाँ झगड़े नहीं होते वहाँ भी वे झगड़े खड़े करते हैं। उनके दलाल जोंक की तरह गरीब लोगों से चिपकते हैं और उनका खून चूस लेते हैं। वह पेशा ऐसा है कि उसमें आदिमियों को झगड़े के लिए बढ़ावा मिलता ही है। वकील लोग निठल्‍ले होते हैं। आलसी लोग पेश-आराम करने के लिए वकील बनते हैं। ऐसा खोज निकालने वाले भी वकील ही हैं। कानून वे बनाते हैं, उसकी तारीफ भी वे ही करते हैं। लोगों से क्‍या दाम लिए जाएँ, यह भी वे ही तय करते हैं; और लोगों पर रोब जमाने के लिए आडंबर ऐसा करते हैं, मानो वे आसमान से उतर कर आए हुए देवदूत हों।

वे मजदूर से ज्‍यादा रोजी क्‍यों माँगते हैं? उनकी जरूरतें मजदूर से ज्‍यादा क्‍यों हैं? उन्‍होंने मजदूर से ज्‍यादा देश का क्‍या भला किया है? क्‍या भला करनेवाले को ज्‍यादा पैसा लेने का हक है? और अगर पैसे के खातिर उन्‍होंने भला किया हो, तो उसे भला कैसे कहा जाए? यह तो उस पेशे का जो गुण है वह मैंने बताया।

वकीलों के कारण हिंदू-मुसलमानों के बीच कुछ दंगे हुए हैं, यह तो जिन्‍हें अनुभव है वे जानते होंगे। उनसे कुछ खानदान बरबाद हो गए हैं। उनकी बदौलत भाइयों में जहर दाखिल हो गया है। कुछ रियासतें वकीलों के जाल में फँसकर कर्जदार हो गई हैं। बहुत से गरासिए इन वकीलों की कारस्‍तानी से लुट गए हैं। ऐसी बहुत सी मिसालें दी जा सकती हैं।

लेकिन वकीलों से बड़े से बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि अंग्रेजों का जुआ हमारी गर्दन पर मजबूत जम गया है। आप सोचिए। क्‍या आप मानते हैं कि अंग्रेजी अदालतें यहाँ न होती तो वे हमारे देश में राज कर सकते थे? ये अदालतें लोगों के भले के लिए नहीं हैं। जिन्‍हें अपनी सत्‍ता कायम रखनी है, वे आदलतों के जरिए लोगों को बस में रखते हैं। लोग अगर खुद अपने झगड़े निबटा लें, तो तीसरा आदमी उन पर अपनी सत्‍ता नहीं जमा सकता। सचमुच जब लोग खुद मार-पीट करके या रिश्‍तेदारों को पंच बनाकर अपना झगड़ा निबटा लेते थे तब वे बहादूर थे। अदालतें आईं और वे कायर बन गए। लोग आपस में लड़ कर झगड़े मिटाएँ, यह जंगली माना जाता था। अब तीसरा आदमी झगड़ा मिटाता है, यह क्‍या कम जंगलीपन है? क्‍या कोई ऐसा कह सकेगा कि तीसरा आदमी जो फैसला देता है वह सही फैसला ही होता है? कोन सच्‍चा है, यह दोनों पक्ष के लोग जानते हैं। हम भोलेपन में मान लेते हैं कि तीसरा आदमी हमसे पैसे लेकर हमारा इंसाफ करता है।

इस बात को अलग रखें। हकीकत तो यही दिखानी है कि अंग्रेजों ने अदालतों के जरिए हम पर अंकुश जमाया है और अगर हम वकील न बनें तो ये अदालतें चल ही नहीं सकतीं। अगर अंग्रेज ही जज होते, अंग्रेज ही वकील होते और अंग्रेज ही सिपाही होते, तो वे सिर्फ अंग्रेजों पर ही राज करते। हिंदुस्‍तानी जज और हिंदुस्‍तानी वकील के बगैर उनका काम चल नहीं सका। वकील कैसे पैदा हुए, उन्‍होंने कैसी धाँधल मचाई, यह सब अगर आप समझ सकें, तो मेरे जितनी ही नफरत आपको भी इस पेशे के लिए होगी। अंग्रेजी सत्‍ता की एक मुख्‍य कुंजी उनकी अदालतें हैं और अदालतों की कुंजी वकील हैं। अगर वकील वकालत करना छोड़ दें और वह पेशा वेश्‍या के पेशे जैसा नीच माना जाए, तो अंग्रेजी राज एक दिन में टूट जाए। वकीलों ने हिंदुस्‍तानी प्रजा पर यह तोहमत लगावाई है कि हमें झगड़े प्‍यारे हैं और हम कोर्ट-कचहरी रूपी पानी की मछलियाँ हैं।

जो शब्‍द मैं वकीलों के लिए इस्‍तेमाल करता हूँ, वे ही शब्‍द जजों को भी लागू होते हैं। ये दोनों मौसेरे भाई हैं और एक-दूसरे को बल देने वाले हैं।