हिंदुस्तान की दशा – 5 / हिंद स्वराज / महात्मा गांधी
पाठक : वकीलों की बात तो हम समझ सकते हैं। उन्होंने जो अच्छा काम किया है वह जान-बूझकर नहीं किया, ऐसा यकीन होता है। बाकी उनके धंधे को देखा जाए तो वह कनिष्ठ ही है। लेकिन आप तो डॉक्टरों को भी उनके साथ घसीटते हैं। यह कैसे?
संपादक : मैं जो विचार आपके सामने रखता हूँ, वे इस समय तो मेरे अपने ही हैं। लेकिन ऐसे विचार मैंने ही किए हैं सो बात नहीं। पश्चिम के सुधारक खुद मुझसे ज्यादा सख्त शब्दों में इन धंधों के बारे में लिख गए हैं। उन्होंने वकीलों और डॉक्टरों की बहुत निंदा की है। उनमें से एक लेखक ने एक जहारी पेड़ का चित्र खींचा है, वकील-डॉक्टर निकम्मे धंधेवालों को उसकी शाखाओं के रूप में बताया है और उस पेड़ के तने पर नीति-धर्म की कुल्हाड़ी उठाई है। अनीति को इन सब धंधों की जड़ बताया है। इससे आप यह समझ लेंगे कि मैं आपके सामने अपने दिमाग से निकाले हुए नए विचार नहीं रखता, लेकिन दूसरों का और अपना अनुभव आपके सामने रखता हूँ।
डॉक्टरों के बारे में जैसे आपको अभी मोह है वैसे कभी मुझे भी था। एक समय ऐसा था जब मैंने खुद डॉक्टर होने का इरादा किया था और सोचा था कि डॉक्टर बनकर कौम की सेवा करूँगा। मेरा यह मोह अब मिट गया है। हमारे समाज में वैद्य का धंधा कभी अच्छा माना ही नहीं गया, इसका भान अब मुझे हुआ है; और उस विचार की कीमत मैं समझ सकता हूँ।
अंग्रेजों ने डॉक्टरी विद्या से भी हम पर काबू जमाया है। डॉक्टरों में दंभ की भी कमी नहीं है। मुगल बादशाह को भरमाने वाला एक अंग्रेज डॉक्टर ही था। उसने बादशाह के घर में कुछ बीमारी मिटाई, इसलिए उसे सिरोपाव मिला। अमीरों के पास पहुँचने वाले भी डॉक्टर ही हैं।
डॉक्टरों ने हमें जड़ से हिला दिया है। डॉक्टरों से नीम-हकीम ज्यादा अच्छे, ऐसा कहने का मेरा मन होता है। इस पर हम कुछ विचार करें।
डॉक्टरों का काम सिर्फ शरीर को सँभालने का है; या शरीर को सँभालने का भी नहीं है। उनका काम शरीर में जो रोग पैदा होते हैं उन्हें दूर करने का है। रोग क्यों होते हैं? हमारी ही गफलत से। मैं बहुत, खाऊँ और मुझे बदहजमी, अजीरन हो जाए; फिर मैं डॉक्टर के पास जाऊँ और वह मुझे गोली दे; गोली खाकर मैं चंगा हो जाऊँ और दुबारा खूब खाऊँ और फिरसे गोली लूँ। अगर मैं गोली न लेता तो अजीरन की सजा भुगतता और फिर से बेहद नहीं खाता। डॉक्टर बीच में आया और उसने हद से ज्यादा खाने में मेरी मदद की। उससे मेरे शरीर को तो आराम हुआ, लेकिन मेरा मन कमजोर बना। इस तरह आखिर मेरी यह हालत होगी कि मैं अपने मन पर जरा भी काबू न रख सकूँगा।
मैंने विलास किया, मैं बीमार पडा़; डॉक्टर ने मुझे दवा दी और मैं चंगा हुआ। क्या मैं फिर से विलास नहीं करूँगा अगर डॉक्टर बीच में न आता तो कुदरत अपना काम करती, मेरा मन मजबूत बनता और अंत में निर्विषयी (बे-नंस-परस्त) होकर मैं सुखी होता।
अस्पतालें पाप की जड़ हैं। उनकी बदौलत लोग शरीर का जतन कम करते हैं और अनीति को बढ़ाते हैं।
यूरोप के डॉक्टर तो हद करते है। वे सिर्फ शरीर के ही गलत जतन के लिए लाखों जीवों को हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्म को मंजूर नहीं। हिंदू, मुसलमान, इसाई, जरथोस्ती - सब धर्म कहते हैं कि आदमी के शरीर के लिए इतने जीवों को मारने की जरूरत नहीं।
डॉक्टर हमें धर्मभ्रष्ट करते हैं। उनकी बहुत सी दवाओं में चरबी या दारू होती है। इन दोनों में से एक भी चीज हिंदू-मुसलमान को चल सके ऐसी नहीं है। हम सभ्य होने का ढोंग करके, दूसरों को वहमी मानकर और बे-लगाम होकर चाहे सो करते रहें; यह दूसरी बात है। लेकिन डॉक्टर हमें धर्म से भ्रष्ट करते हैं, यह साफ और सीधी बात है।
इसका परिणाम यह आता है कि हम नि:सत्व और नामर्द बनते हैं। ऐसी दशा में हम लोकसेवा करने लायक नहीं रहते और शरीर से क्षीण और बुद्धिहीन होते जा रहे हैं। अंग्रेजी या यूरोपियन डॉक्टरी सीखना गुलामी की गाँठ को मजबूत बनाने जैसा है।
हम डॉक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचने की बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमाने का धंधा करने की इच्छा है। उसमें परोपकार की बात नहीं है। उस धंधे में परोपकार नहीं है, यह तो मैं बता चुका। उससे लोगों को नुकसान होता है। डॉक्टर सिर्फ आडंबर दिखाकर ही लोगों से बड़ी फिस वसूल करते हैं और अपनी एक पैसे की दवा के कई रुपए लेते हैं। यों विश्वास में और चंगे हो जाने की आशा में लोग डॉक्टरों से ठगे जाते हैं। जब ऐसा ही है तब भलाई का दिखावा करनेवाले डॉक्टरों से खुले ठग-वैद्य (नीम हकाम) ज्यादा अच्छे।