हिंदू जाति का स्वाभाविक गुण / बालकृष्ण भट्ट
गीता में भगवान कृष्णचंद्र ने गुण कर्म के विभाग पर बड़ा जोर दिया और सिद्ध कर दिया है कि मानव जाति का बनना बिगड़ना सत्व रज तम इन गुण और सात्विकी राजसी तामसी इन तीन प्रकार के कर्म पर निर्भर है। इन्हीं गुण कर्म के विभाग के अनुसार हमारा यह लोक और परलोक दोनों बनता और बिगड़ भी जाता है। इन्हीं बातों पर लक्ष्य कर आज हम हिंदुओं का स्वाभाविक गुण अपने पढ़ने वालों को दरसाया चाहते हैं। इनमें सन्देह नहीं हिंदू जाति में अब भी अधिकतर लोगों में स्वाभाविक सरलता सिधाई आर्जव आदि देख; या चाहे यों कहिये इनमें जैसा गाऊदीपन है; उनसे यही बोध होता है कि स्वभावत: इनकी सात्विक प्रकृति है। प्रारंभ में जब इनका पूरा अभ्युदय था और जिस समय इस भूमंडल पर केवल यही यही थे आस पास के जितने देश और उन-उन देशों के रहनेवाले जन-समूह या तो नितांत असभ्य और वन्य थे या किसी जनपद के निवासी कुछ मनुष्यत्व अपने में रखते थे तो बहुधा तो उनमें तामसी प्रकृति के थे। असुर, राक्षस, दस्यु, दानव, गंधर्व, किन्नर या किंपुरुष उपाधि धारी हुए। सात्विक प्रकृति किसी-किसी में कहीं लेश मात्र को पाई गई। इस बात के साक्षी पुराणों के अनेक इतिहास कथानक और किंवदंती हैं। पुराण ही क्या वरन् संहिता और ब्राह्मण भाग की अनेक कथाएँ भी इसमें प्रमाण हैं। इससे तो लाचारी है कि हमारे नई तालीम वाले अपने नये इल्म के जोश में बिना कुछ सोचे समझे सहसा कह डालें कि वह सब गप्प कवि या ग्रंथकर्ताओं के मस्तिष्क की कारीगरी, किस्से कहानियाँ दंतकथाएँ या पढ़े-लिखे लोगों के दिल बहलाव हैं किंतु तले तक डूब कर खोजते रहो तो यही पता लगता है कि यहाँ पुरानी आर्य जाति जो अब हिंदू के नाम से विख्यात है चरित्र की कसौटी में सात्विक वृत्ति का वैसा ही एक उदाहरण है जैसा प्रतिभा, धारण शक्ति, आदि मानसिक व्यापार में इन धरातल पर अनुपम और अप्रतिद्वंद्वी हैं। इसकी कुशाग्र बुद्धि 'शाणोल्लीट' खराद पर कहाँ तक तीक्ष्ण हो सकती है। यह एक नहीं वरन् बीसों बार के कंपटीशन संघर्ष में सिद्ध हो चुका है। जहाँ प्रतिस्पर्धियों के मुकाबले ये आगे ही बढ़े देख पड़े।
इनके और-और उत्तम गुणों की समालोचना आगे चल के करेंगे पहले उनकी धर्मभीरुता का विचार करते हैं। हमसे कोई अधर्म न बन पड़े जिसमें हमारा परलोक बिगड़े और ईश्वर का कोप हमारे ऊपर आये। इनके अकुटिल सरल चित्त में प्रतिक्षण इसका ध्यान रहता है और यह ख्याल इतना पोढ़ा पड़ गया है और इतनी मजबूती के साथ इसनें जड़ पकड़ लिया है कि किसी तरह उखाड़े नहीं उखड़ता। परिणाम में ये अनेक सुखद पदार्थों में वंचित रह जाते हैं परलोक में उसके सेवन या धारणा से बोध होगी इसलिए इन पदार्थों को बरकाते हैं। कितने खाद्य पदार्थ इन लोगों में जो अखाद्य मान लिए गए हैं। उसका कारण यही है कि कितनी वस्तु जो सात्विक नहीं है इसलिये उनके भोजन पान या सेवन से हमारी बुद्धि पर तामसी असर पड़ेगा। बुद्धि में जब तमोगुण आया तब कौन सा अकार्य करनें को बच रहा और अकार्य बन पड़ा तब यह लोक परलोक दोनों में कुगति होने में क्या कसर रही। यह सब ख्याल कर कितनी चीजों का भोजन और पान तो दूर रहे उनका स्पर्श भी ये बचाते हैं। भारत भूमि की सीमा के बाहर रहने वाली जाति में ऐसे निंदित घृणित पदार्थों का पान भोजन सेवन देख इन्हें घिन हुई और उन्हें ये म्लेच्छ कहने लगे। पीछे इन्हीं म्लेच्छों का दल बढ़ता गया और भारत पर आक्रमण के उपरांत इतना घिष्ट-पिष्ट यहाँ के लोगों कों उनके साथ बढ़ गया कि ये भी अनेक-अनेक आचरणों में उनके सदृश हो अपने को आध्यात्मिक विषय में नीचे गिरे देख भी अनदेखी कर गये और करते जाते हैं। उन गिरे हुओं का समूह प्रतिदिन अधिक होता गया और होता जाता है जो शुद्ध आचार के बचे हैं। उन बेचारों पर मूर्खता, अत्याचार दीनावातिली का दोष आरोपित किया जाता है। समय का प्रभाव तो है। जो गुण था वह दोष में शामिल किया गया। हमारी समझ में गुण जो इनमें दोष हो गया उसका यही कारण मालूम होता है कि ये धर्मवृक्ष के मूल को सींचना तो भल गए डाली और पत्तों को सींचने लगे। परस्पर की सहानुभूति, अपने देश और जाति का अनुराग, स्वत्व रक्षा, स्वत्वाभिमान आदि मूल सेवन था सो सब न जाने कब से छोड़ बैठे। खान-पान और आचार-विचार की छिलावट के प्रचार संचार में पड़े सड़ते हुए बैठे रहे जिनसे ये घिनाते थे वे इन्हें लात मार कर इनके प्रभु और शासनकर्त्ता बन बैठे। यहाँ तक शांति और धर्मभीरुता ने प्रभुशक्ति और मुल्की जोश की अग्नि को इनमें प्रशांत कर दिया कि सर्वथा दास दीन-हीन पराधीन हो-
'कोउ नृप होहि हमे का हानी
चेरी छोड़ न होइब रानी'
को पढ़ते हुए संतोष कर बैठे रहे।"
अब दूसरी बात इंद्रियनिग्रह या दमन उसकी समालोचना करते हैं। अनेक तामसी भोजन को जो इन्होंने बचाया उसका एक यह भी कारण था कि पातंजलि के योग सूत्र 'आहारात्सत्वशुद्धि:' के अनुसार तामसी वस्तु के सेवन से निग्रह की कौन कहे इंद्रिय चाचंल्य बहुत अधिक बढ़ जाता है। धर्मशास्त्र वालों ने दो तरह की पवित्रता कहा है बाहरी और भीतरी और इन दोनों तरह की पवित्रताओं का बड़ा विस्तार किया गया है। अंत को बाहरी पवित्रता पर विशेष जोर दे जैसा 'नवारिणा शुध्यति चांतरात्मा' इत्यादि अनेक वाक्य पाये जाते हैं। भीतरी पवित्रता में आभ्यंतर शौच को मुख्य माना है। यह आभ्यंतर शौच और है क्या? यही आत्मदान। विदेशीजन जो हमको हर एक बात के सिखलाने का दावा बाँध रहे हैं उनके यहाँ बाहरी सफाई की कितनी अधिक तरक्की है पर भीतरी सफाई में कुछ भी नहीं। पादरी साहबान जुदा ही तान भर रहे हैं कि हिंदुओं में 'मोरालिटी' दमन शिक्षा हुई नहीं और वह केवल ईसाई धर्म के द्वारा प्राप्त हो सकती है। जरा इस घमंड और विकत्थन पर ध्यान दीजिये और उनके मत की जो कुछ पूँजी या मूल ग्रंथ अथवा दमन सामग्री उनके धर्म में हैं उसे टटोलियों। हमारे यहाँ षट् दर्शनों में एक पातंजल दर्शन है जिसमें योग का अंतिम निचोड़ इस दमन शक्ति का प्राप्त करना ही है जिसका आधे के लगभग केवल यम-नियम के विवरण में है और अंत में इस बात को सिद्ध कर दिया है कि उन यम-नियम के अभ्यास से इंद्रियों का निग्रह होता है। निग्रहीतोंद्रिय अपने चंचल मन को को स्थिर कर चित्त की वृत्तियों के निरोध से परमात्मा में मन लगा सकता है।
इन सब बात से यह बिल्कुल स्पष्ट है कि हमारे हिंदू कितना दमन की ओर प्रवण चित्त थे। किंतु अत्यंत पछतावा और महादुख होता है कि विजातियों का घनिष्ठ संपर्क पाय ये कितना बिगड़ गये और इनके सात्विक स्वभाव और गुणों में बराबर कमी होती आई। अब जो इतने नराधम और अपाहिज हो गए यह सब उसी घनिष्ठ संबंध का फल है। परिणाम में चिर संचित अपने पूर्वजों की पूँजी भी गँवाय बैठे, यवनानुयायी हो सर्वथा पौरुषेय गुण विहीन हो गये। जरा-सी बातों के लिए दूसरे का मुँह जोहते हैं। विष-लता के समान अकर्मण्यता सब ओर छा भारत की उर्वरा भूमि को ऐसा छेंक लिया और यहाँ इतना विस्तार इसने पाया कि उद्यम, साहस, आत्मगौरव, जातीयताभिमान, उत्तेजना आदि पौरुषेय गुण जो आत्मदमन के सहकारी और सदा साथ-साथ रहने वाले हैं उनके बीज को अब बोने का कहीं अवकाश ही न रहा। जैसे आधुनिक विज्ञान प्रकृति के परिवर्तन और उसे नष्ट-नष्ट करने में वज्रपात-सा हुआ वैसे ही पश्चिमी सभ्यता हिंदुओं के आत्मदान में डिनामाइट के सदृश तहस-नहस करने वाली हुई। यों तो इंद्रियों अपने-अपने ढ़ग पर सब प्रबल हैं पर दो प्रबल हैं कामवासना और रसना-क्योंकि कहा भी है -
"जितं सर्व जिते रसे"
रसना को जीत लेने से सब इन्द्रियाँ आप से आप वश में हो जाती हैं। मुसलमानों के अधिक संपर्क से उनकी सी भोग लिप्सा हमारे में बढ़ गई, न जानिये कितने हिंदू यवनी के प्रेम में आसक्त हो अपने बाप दादा का छोड़ खुलाखुली मुसलमान हो गए। मेरे मन में ऐसा आता है कि तीन चौथाई मुसलमान जो अपने मत को बदल हिंदू से मुसलमान हुए हैं ऐसे ही हैं। इतने तो प्रकट रीति पर खुलाखुली हो गये और गुप्त रीति पर तो मैं समझता हूँ न जानिए कितने होंगे उनके यावनिक आचरण, बोलचाल, रहन-सहन अरबी फारसी के पढ़ने से हम इन्हें अर्द्ध यवन कहें तो अनुचित न होगा।
अस्तु, यवन तुल्य होने पर भी संस्कृत हिंदी के प्रचार का सर्वथा लोप हो जाने से और मुसलमान बादशाहों के अत्याचार के कारण वैदिक धर्म केवल आभास मात्र को बच रहा। केवल ब्राह्मण मंडली वेदशास्त्र का पठनपाठन करती रही। उत्तम वर्ण के कुलीन घरानों में वैदिक धर्म दीपक की ज्योति-सा कहीं-कहीं फिर भी टिमटिमाता ही रहा किंतु आस्तिक्य बुद्धि और धर्म पर श्रद्धा जो यहाँ की आबोहवा में छाया हुआ है और जो हिंदू जाति में स्वभाव सिद्ध है उसे जब वैदिक धर्म का सहारा न रहा तब निकृष्ट वर्ण के लोगों में कोई-कोई ऊँचे घरानों में भी पीर पैगंबर पूजने लगे। आधे से अधिक ने अपने को पचपिरिया कर डाला आभास मात्र को हिंदू कहलाये। उपरांत ब्रिटिश शासन के इस उग्र वैभव में और अंगरेजी शिक्षा के प्रबल प्रताप से उस श्रद्धा बुद्धि में भी बड़ा भारी धक्का लग गया। मजहब अब कोई चीज न रहा, आजादगी लोगों में ज्यादा पसंद आने लगी। अभी तक तो रसना इंद्री का पूरा निग्रह था। प्रत्येक बात मुसलमानों की ग्रहण कर लिया था पर खाने पीने में उनका साथ बड़ी सावधानी से बचाते रहे। अब तो उसमें भी-
"सबै भूमि गोपाल की यामे अटक कहा,
जाके मन में अटक है सोई अटक रहा।"
जिसमें भी पानदोष तो इतनी तरक्की कर रहा है जैसा किसी समय आर्य जाति में सोमपान की तरक्की रही। दूसरे विलायत की अंगरेजी चीजों की नफारस आशा इस ओर आराम ने रजोगुण का इतना विस्तार देश में कर दिया कि यहाँ के लोगों की शुद्ध वे बनावटी प्रकृति में बनावट जिसका अंकुर मुसलमानी राज्य में पड़ चुका था अब बहुत-ही-बहुत बढ़ गया। जब तक देश में धन भरपूर था सब लोग खुश खुर्रम और रँजे-पुंजे थे यह ऊपरी बनावट भी शोभा देती थी अब निरी बनावट केवल आडंबर मालूम होता है-
"सिद्धि रही सो गोरख ले गये-खाक उड़ावें चेले"
हर एक बात की आशा इस ओर आराम तथा ब्रिटिश राज्य का स्वास्थ्य पाय उचित था कि हम आगे बढ़ने के लिए चेतते सो गहरी नींद में सोना अपने लिए कल्याण और सुख मान बैठे। हिंदू समाज की अनेक प्रचलित बुराइयाँ जो यवनों के अत्याचार के कारण हमारे में कुलक्रमागत की भाँति हो गई थीं उचित था कि सोच समझ उनका संशोधन कर डालते सो उसमें परिवर्तन अपने बात-दादों की हेठी और अपनी सपूती के विरुद्ध समझ बाल बराबर भी उस क्षुण्णवर्त्मा से इधर-उधर नहीं हटा चाहते सभ्य बनने को बहुत-सी बुराईयाँ अलबत्ता हमने ग्रहण कर ली। अस्तु, जो हो यह देख थोड़ा संतोष अवश्य होता है कि संपूर्ण आबादी का छठवाँ हिस्सा अब तक यहाँ ऐसा है जिसमें शुद्ध आर्य क्रम अब भी पाया जाता है, अहोभाग्य यदि अंगरेजी शिक्षा का प्रभाव न हो इतना ही बना रहे।
किसी देश के रहने वालों की समष्टि में जो गुण या दोष आ जाता है वह उस देश की प्राकृतिक बनावट और वहाँ की जलवायु के कारण से होता है। जैसे जो पर्वतस्थली हैं वहाँ भोजन आदि पदार्थ जिनसे मनुष्य का जीवन चल सकता है बड़े क्लेश से संपादित हो सकता है। वहाँ के मनुष्य बहुधा अति परिश्रमी व्यवसायी कुशाग्र बुद्धि दिल के कड़े और अनुदार प्रकृति के होते हैं। जो समुद्र के तट के देश में रहने वाले हैं जहाँ की पृथ्वी उर्वरा और जलवायु न अत्यंत उष्ण नातिशीतल है वहाँ के लोग स्वभाव के मृदु दयावंत सीधे सहनशील उदार प्रकृति कृतज्ञ किंचित आलसी और प्राय: भोगलिप्सु होते हैं। अत्यंत उष्ण देश के निवासी जहाँ की पृथ्वी सूर्य की खरतर किरणों से झुलसी हुई रहने से कम उपजाऊ है और जहाँ का जलवायु भी स्वच्छ नहीं है वहाँ के लोग बुद्धि से कुंठित, मरभुखे, दगाबाज, कृतघ्न, निष्ठुर, निर्दयी, खोटे, अविश्वासी औ प्रभुत्वशक्ति विहीन होते हैं। इत्यादि, प्राकृतिक नियम के अनुसार हिंदुस्तान की स्थिति उसी जलवायु की है जो न अत्यंत उष्ण है न बहुत ठण्डा अधिकांश जिसका और अत्यंत उर्वरा पृथ्वी का है। बहुत ही थोड़े परिश्रम में भोजनाच्छादन यथेष्ट मन माफिक और सुख से होता आया। यही कारण हुआ कि यहाँ के लोग कम मेहनती और व्यवसायशील न हुए। जिनमें व्यवसाय की कमी है वे आलसी होंगे जो आलसी हैं वे झंझट में पड़ना कभी पसंद न करेंगे। समूची की जगह आधी खाकर रह जाना उन्हें भायेगा इसीसे सहनशील और संतोषी हुए जो हर तरह पर खुश खुर्रम सब भाँत पूर्ण किसी भोग पदार्थ के लिए लालाइत नहीं हैं वे अवश्य ही उदार प्रकृति सीधे स्वभाव और अकुटिल भाव के होंगे।
आस-पास के रहने वाले विदेशी यवन उनके इस परमोत्कृष्ट सात्विक गुण का लाभ उठाय पुन:-पुन: इनको आक्रमण करते हुए इनका सर्वस्व निगल बैठे और इन्हें अपने अधीन कर लिया पर ये अपनी स्वाभाविक सहनशीलता से पदाघात सह कर भी क्रोध के वश न हुए जो कुछ बचा जिस तरह पर उन्होंने इन्हें रखा उसी में संतुष्ट रहे। यवनों का अधिक सन्निकट और संपर्क से अपने बहुत से उत्कृष्ट सात्विक गुण खो बैठे। उन युवनों की भोगलिप्सा इनमें बहुत अधिक आ गई बल्कि यों कहिए जितनी पहले थी उसकी दो चंद हो गई। पीछे से यवन भी यहाँ के जलवायु के वशीभूत हो बहुत बातों में उन्हीं हिंदुओं के सहकारी हो गए। ये हिंदू यद्यपि अनेक तेज-बर्ताव चाल-चलन निशिस्त बरखास्त में अर्द्ध यवन हो गये सही पर अपनी जाति का स्वाभाविक भोलापन समूची की जगह आधी संतोष स्वामिभक्ति कृतज्ञता आदि गुण न छोड़ा। थोड़े ही उपकार में निहाल हो जाना और पहले किये हुए अपकार को बिलकुल भूल जाना यह गुण इसी कौम में है।
प्रत्येक देश की कौम के इतिहासों को पढ़ इनसे मिलाइये तो इसकी टटोल भरपूर आपको हो जायगी और हमारा कहना कहाँ तक सच है इसका अंदाजा आपको हो जायेगा। थोड़े उपकार को भी बहुत कर मानने वाले इस जगतीतल में दूसरे नहीं हैं। अकबर ऐसे कई एक मुसलमान बादशाहों ने इनमें इस गुण को पहचान लिया था और तदनुसार इनके साथ बर्ते भी जिसका फल यह हुआ कि ये प्राणपन के साथ इनकी फरमाबरदारी से नहीं चूके। हमारे सामयिक शासनकर्त्ता हर तरह पर बुद्धिमान होकर भी न जाने क्या कारण है कि सौ वर्ष से ऊपर इनको यहाँ राज्य करते बीत गया सब भाँत इनकी परख भी न जाने कै बार कर चुके और पूरी तरह इन्हें राजभक्त पाया तो भी इन्हें न पहचान सके। सच है स्वार्थ का लोभ ऐसा ही प्रबल होता है जिसकी प्रेरणा से मनुष्य स्वार्थान्ध हो उचित को अनुचित, अनुचित को उचित मानने लगता है। अस्तु, ये अपने काम में त्रुटि करते हैं करें पर हम अपने कर्त्तव्य से न चूकेंगे। राजा को साक्षात् ईश्वर का अंग मानना हमारे यहाँ के धर्मग्रंथों में लिया दिया गया है कि तब साधारण रीति पर यह हमारा एक धर्म हो गया। आचार-विचार आदि धर्म के अनेक अंग उपांग के समान मान है। धर्मभीरु होना भी इस जाति का एक स्वाभाविक गुण है। सब जाय पर परमार्थ और परलोक न बिगड़ने पाये उसी बुनियाद पर अत्याचारी से अत्याचारी मुसलमान बादशाहों की इबादत करते ही आये तब उनके मुकाबले तो इनका बहुत दूर तक धर्म राज्य माना गया है। उसके साथ भी हमको वही भाव रखना ही पड़ेगा। अब वह स्वार्थ दृष्टि अंतिम छोर को पहुँच गई है इसी से हमारा क्लेश भी दिन-दिन अधिक होता जाता है। भविष्य जैसा हिंदुस्तान के रहने वालों का धुँधला देख पड़ता है वैसा किसी देश के रहनेवालों का न। सुधार और आगे बढ़ने का इरादा न किया तब और अब कब करेंगे। ठीक है-
"प्रकृति यांति भूतानि निग्रह: किं करिष्यति"
जिसका जो स्वभाव है नहीं छूटता, कोई कितना ही उसके रोकने का उपाय करे कृतकार्यता नहीं होती। अथवा-
"विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपात: शतमुख:"
जिनको अपने भले बुरे का ज्ञान नहीं है वे बराबर नीचे ही को गिरते जाते हैं। आगे अब इस निर्बुद्धि अंधी समाज का और क्या होने वाला है। भगवान जाने हमारा अनुमान सर्वथा लँगड़ा है। जिसकी गति वहाँ तक हुई नहीं।