हिजड़े / प्रेमपाल शर्मा

Gadya Kosh से
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इससे पहले कि कुछ अंदाज लगा पाता, सामने से पत्‍थर आया और तड़ाक से सामने वाले शीशे को तोड़ता हुआ ड्राइवर के माथे पर आकर लगा।

सीट के चारों ओर काँच के टुकड़े बिखर गए और ड्राइवर के माथे पर खून की धार उभर आई।

बस रुक गई और 'क्‍या हुआ, क्‍या हुआ' की सरसराहट लिए सवारियाँ एक-एक करके नीचे उतरने लगीं।

पत्‍थर मारने वाले और उसके साथी ने बस थोड़ा-सा दौड़ते हुए फोरसीटर को हाथ दिया और सभी के देखते-देखते विजयी मुद्रा में आहिस्‍ता से उस पर चढ़ गए।

अब तक लगभग सभी सवारियाँ मय कंडक्‍टर के नीचे उतर आईं थीं और इधर-उधर उँगली किए खड़ी थीं, 'पकड़ो पकड़ो सालों को' - एक युवक दौड़ते हुए चिल्‍लाया।

भीड़ में थोड़ी हरकत हुई, कुछ के हाथ बढ़े, कुछ ने आवाज से ही समर्थन दिया लेकिन पकड़ने के लिए कोई आगे नहीं आया।

अकेले दौड़ने वाले युवक की बाजू उसके साथी ने दौड़कर थाम ली, 'कहीं तू पागल तो नहीं हो गया' शायद वह उसका भाई या नजदीकी दोस्‍त रहा होगा।

पत्‍थर मारने वालों में से एक फोर-सीटर के पीछे पायदान पर खड़ा था - ताल ठोंकने वाले अंदाज में - चुनौती देता हुआ। शायद गाली या ऐसा ही कुछ बोल रहा था जो पूरी तरह सुनाई नहीं पड़ रहा था।

सड़क-मार्ग हाईवेनुमा था अतः इस बीच टूव्‍हीलर, साइकिल और पैदल यात्री आकर रुकने शुरू हो गए। उनकी दृष्टि में प्रश्‍न और कौतूहल दोनों थे।

युवक की कनपटी पर छिटक आई पसीने की बूँदें बता रही थीं उसके अंदर कुछ उबल रहा है।

उसने एक बार फिर कोशिश की - टूव्‍हीलर के पीछे बैठकर फटाफट चलने के लिए, पर वैस्‍पा का पायलट पूरी कहानी जानने के बाद ही स्‍टार्ट करना चाहता था।

युवक को हार कर पीछे हटना पड़ा।

लगभग 3-4 मिनट तक 'भागो दौड़ो' की दाईं-बाईं हुंकार के बाद दो आदमी स्‍कूटरों पर पीछा करने के लिए तैयार भी हुए कि एक अधेड़ ने समझाया, अब क्‍या फायदा तुम्‍हारे दौड़ने का, अब तक तो वे कभी के चुंगी भी पार कर गए होंगे, बीच में उतरकर क्‍या पता किसी और बस में बैठ गए हों।'

चलने को लगभग धकेले गए दोनों व्‍यक्ति हल्‍के संकेत से ही नीचे उतर गए, मानो उन्‍हें यही मौका चाहिए था। उन दो स्‍कूटर वालों के साथ-साथ दूसरे भी फटाफट घुर्रगूँ करते वहाँ से उड़ लिए - कहीं ऐसा न हो उन्‍हें फिर से इस झंझट में फँसना पड़े।

अब तक बस की सवारियाँ 15-20 से बढ़कर 40-50 की भीड़ में तबदील हो गई थीं। दिल्‍ली जैसे महानगर के तमाशाई अंदाज में घेरा गोल बनता जा रहा था और फुसफुसाहटें शुरू हो चुकी थीं।

'उसे फौरन पकड़ा जा सकता था यदि जरा-सी हिम्‍मत दिखाते' - यह शायद उसी युवक का स्‍वर था। उसकी आवाज बता रही थी कि उसका गुस्‍सा अभी तक बना हुआ है।

'पर हुआ क्‍या कंडक्‍टर साहब' - कोई किस्‍सागो पूरी कहानी सुनने को उत्‍सुक जान पड़ता था।

कंडक्‍टर पीछे बैठा था, उसे सिर्फ इतना पता था कि किसी ने पत्‍थर मारा, बस, इसका उसे सिर्फ अंदाज भर था कि शायद कुछ लौंडे-वौंडे बिना स्‍टैंड के बस रुकवाना चाहते हों।

'कोई दुश्‍मनी तो नहीं थी ड्राइवर से। ड्राइवर कहाँ है?'

ड्राइवर के माथे से काफी खून बहा था। उसे पीछे से आते एक वाहन में बिठाकर अस्‍पताल भेजा जा चुका था।

मैं क्‍योंकि ड्राइवर के बराबर वाली सबसे आगे की सीट पर बैठा था अतः घटना का चश्‍मदीद गवाह था।

'हुआ ऐसा कि' - मैं थोड़ा आगे आ गया - 'एक लड़का बीच सड़क पर आकर हाथ दे रहा था, हाथ क्‍या सड़क के बीचों-बीच आकर हाथ हिलाता हुआ वह लगभग उकड़ूँ-सा हो गया बस रुकवाने की कोशिश में, ड्राइवर ने बस हल्‍की करके साइड से काटनी चाही क्‍योंकि स्‍टेंड तो था नहीं, बस हल्‍की हुई कि तभी फटाक से पत्‍थर...

'उसी लड़के ने मारा था ...उसके किसी साथी ने?'

'ये तो मुझे पता नहीं' मैंने सोचकर बताया, 'हो सकता है उसके साथी ने मारा हो क्‍योंकि हाथ हिलाने वाले लड़के के हाथ में पत्‍थर तो कतई नहीं था।'

'वे कम से कम चार-पाँच रहे होंगे, इनका तो गिरोह होता है,' एक ने जोड़ा, 'पक्‍के जेबकतरे होंगे' उसने निर्णय दिया और भीड़ के घेरे से बाहर निकल कर कमीज का कॉलर पीछे खींचकर पसीना सुखाने लगा।

'पुलिस में रिपोर्ट करानी चाहिए इसकी तो, देखो हद हो गई अंधेरगर्दी की। दिन के ग्‍यारह बजे इतनी हिम्‍मत! इस सरकार के बस का कुछ नहीं है,' उन्‍होंने अपना निर्णय दिया और किनारे हटकर नाक सुड़कने लगे।

'थाना कौन-सा पड़ता है यहाँ?' एक स्‍वर उभरा, बदले में कोई आवाज नहीं आई। शायद किसी को पता नहीं था।

'थाने में क्‍या होगा?' मारने वाला मार गया, ड्राइवर अस्‍पताल गया, अब तुम चाहे थाने जाओ या राष्‍ट्रपति भवन। हम तो चलते हैं, आ रे छज्‍जू! आज सुबह जाने किसका मुँह देखकर चले थे, दोपहर साली यहीं हो गई।'

'अजी नहीं, रिपोर्ट तो करानी ही चाहिए। आखिर थाने-वाने होते किस मर्ज की दवा हैं। कई बार इन्‍हें इन सब गुंडा एलीमेंटों की जानकारी भी होती है,' इस बात के समर्थन में कई गर्दनें एक साथ हिलीं।

'हाँ, हाँ भाई साहब, जरूर जाइए, आप दोनों ही जाओ,' कहकर वह दूसरे के कान में फुसफुसाया, 'तुम्‍हें लगता है पुलिस वाले इसमें कुछ करेंगे? वो छूटते ही कहेंगे 'ये क्षेत्र हमारे थाने में नहीं आता। हमारा थाना तो इस पेड़ तक है।' रिपोर्ट भी लिख लें तब भी बहुत समझना।'

'अजी लिख भी लें तो क्‍या होगा, ऐसी रिपोर्ट वे रोज एक हजार लिखते हैं।'

'सही कह रहे हैं आप,' तीसरा आदमी भी उसमें शामिल हो गया, 'यहाँ क्‍या उन्‍हें झुनझुना मिलेगा। न चोर न मालिक। ऐसी-तैसी में जाए बस और उसकी सवारी, उनके ठेंगे से।'

'एक पुलिस वाला तो इस बस में भी था, वह जो खड़ा है, मेरे साथ ही बैठा था।' वह आदमी पास में सरक आया।

अधिकांश लोगों की निगाहें एक साथ उसकी ओर मुड़ गईं।

पुलिस वाला खाकी वर्दी में सबसे बाहरी घेरे से कुछ हटकर खड़ा था किसी वाहन में लिफ्ट लेने के लिए। उसके चेहरे से लग रहा था कि यह बातचीत उसके कानों तक पहुँच रही है और इससे पहले कि इस पचड़े से रूबरू हो वह जल्‍दी से जल्‍दी वहाँ से कूच करना चाहता है।

'पूछो इन महाशय से, मैंने कहा भी कि आप तो पुलिस में हैं चलो दौड़कर, पर मजाल कि टस से मस हुआ हो।'

'कहने के बावजूद? इन्‍हें पता तो होगा?'

'और क्‍या आँखें बंद कर ली होंगी।'

'मैं कह तो रहा हूँ कि मेरे पास ही बैठे थे, और मैंने कहा भी कि साब पकड़िए दौड़कर,' सबको साथ देखकर उसके स्‍वर में कुछ दम आ गया था।

पुलिस कांस्‍टेबिल अभी तक निर्विकार भाव से सुने जा रहा था। आगे शायद उसकी बर्दाश्‍त से बाहर था, 'ज्‍यादा चबड़-चबड़ मत कर! सारी बाबूगिरी निकाल दूँगा। तेरे भी तो टाँगें दी हैं भगवान ने, मुझसे क्‍यों कह रहा था। मुझे क्‍या अपने बाप का नौकर समझ रखा है जो मुझसे कह रहा था।'

पुलिस वाले के इतने उबाल के आगे बाबू जी की बोलती सचमुच बंद हो गई।

बचाव के लिए भीड़ में से एक नया चेहरा उभरा, 'लेकिन भाई साहब, आप पुलिस की वर्दी में हैं, आपका कुछ फर्ज नहीं बनता ऐसे मौकों पर।'

'फर्ज की ऐसी-तैसी, तू मुझे फर्ज समझाने वाला कौन होता है? मैं अपनी ड्यूटी खत्‍म करके आया हूँ, डबल ड्यूटी देकर पूरी अड़तालीस घंटे की। मैंने ठेका ले रखा है घर से दफ्तर तक सारी गुंडागर्दी का। भाड़ में जाए बस और तू।'

'नहीं, इनका मतलब यह था कि अगर आप कुछ पहल करते तो बाकी सवारियों की हिम्‍मत बढ़ती।'

'और मैं कहूँ कि आप सब पहल करते तो मैं पीछे रहता? मुझे पता है कि वे इकट्ठे होकर मुझे चाकू भी मारते तो भी टुकर-टुकर तमाशा देखते तुम सब।'

मगर भीड़ को एकजुट होता देखकर उसने पलटा खाया, 'चलो, कहाँ तक चलते हो, मैं तैयार हूँ।'

'अब क्‍या फायदा। अब तो वे पाकिस्‍तान के बॉर्डर पर पहुँच गए होंगे। अब तो उन्‍हें पकड़वाने के लिए 'फेयर-फैक्‍स' को बुलाना पड़ेगा,' किसी ने चुटकी ली।

'सुना आपने, ये हैं अपनी पुलिस का हाल, भागलपुर में आँखों में तेजाब ये स्‍वयं ही डालेंगे। रेप तो इनसे पहले कोई कर ही नहीं सकता। पर गुंडों को पकड़ने की पहल करें हम और तुम। शाबाश मेरे शेरो!'

'ओए! मुझसे बात कर। इधर-उधर की मत भिड़ा। मैं पूछूँ तू कहाँ काम करता है?' पुलिस वाले ने उसका कंधा पकड़कर झिंझोड़ा।

'अच्‍छा, पहले हाथ पीछे कर तब बात कर। ये तेरा थाना नहीं है।'

'थाना तो नहीं, पर मैं पूछूँ कि तू कहाँ काम करता है?'

'सरकारी अस्‍पताल में, कंपाउंडर हूँ,' उसने कुछ अकड़ से बताया।

'9 से 5 की रहती है तेरी ड्यूटी, यही न! मेरे या किसी के पेट में दर्द हो जाए अभी बस में, तू कुछ करेगा? कान दबाकर चुपचाप निकल जाएगा कि दफ्तर को देरी हो रही है या घर टाइम से पहुँचना है। मैं पूछूँ ड्राइवर के साथ तू क्‍यों नहीं गया अस्‍पताल?'

'मैं चला जाता। उसमें क्‍या बात थी।'

'कोई बात नहीं थी। डाक्‍टर-कंपाउंडर होने के नाते तेरी ड्यूटी सबसे पहले नहीं बनती थी? मुझे तो बड़ा भाषण दे रहा है।'

भीड़ तितर-बितर होकर छोटे-छोटे ग्रुपों में रेंगते-रेंगते पेड़ की छाया में सरकने लगी। 'इस देश का तो अब भगवान ही मालिक है। हद होती है निकम्‍मेपन की भी - कहता है कि मेरी ड्यूटी तो बस थाने में होती है।'

'अजी पुलिस देखनी है तो जापान की देखो। चोरी पीछे होगी चोर पहले अंदर होंगे, मेरे चाचाजी गए थे जापान, वो बताते थे कि आप कोई भी चीज कहीं छोड़ जाओ, मजाल कि कोई छू भी ले उसे।'

'आप जापान की बात कह रहे हैं न, अजी उनका क्‍या मुकाबला। मेरे दामाद जाने वाले हैं, वे कह रहे थे कि छोटा-सा मुल्‍क है जो मिट्टी भी बाहर से मँगाता है। पर दुनिया में कोई चीज है जो उनके नाम से न बिकती हो। अमेरिका और रूस जैसे बड़े मुल्‍कों को उसने दस्‍त लगा रखे हैं।'

'इससे अच्‍छा तो गोरों का ही राज था। किसी की हिम्‍मत थी जो ऐसी बात हो जाए। सरे-आम फाँसी पर लटका देते ऐसे गुंडों को।'

पहला अभी-भी पुलिस को रोये जा रहा था। 'पिछले हफ्ते तीन दिन तक जहाँ भी जाओ वहीं ट्रैफिक जाम कि आतंकवादियों को तलाश रहे हैं। ये हर बार ही ऐसा करते हैं। हफ्ता भर इधर-उधर भागदौड़ कर ड्रामा करेंगे, फिर पकड़कर किसी को अंदर कर देंगे 'अंधेर नगरी चौपट राजा' की तरह।'

'एक पंद्रह वर्ष का लड़का 14 आदमी मार कर चला गया और वह भी साउथ दिल्‍ली में, जहाँ पेड़-पेड़ और खंभे-खंभे पर पुलिस वायरलैस लिए खड़ी है। सब साले हरामखोर हैं। क्‍या खुफिया, क्‍या मंत्री सबकी मिलीभगत है।'

अजी साफ कहो, सबको अपनी-अपनी जेबें भरने की पड़ी है। लाल बहादुर शास्‍त्री होते तो हिंदुस्‍तान का नक्‍शा ही दूसरा होता।

'अजी वो आदमी हीरा था हीरा। मैं कहता हूँ रिजाइन कर देता यदि उसके राज में ऐसा-वैसा हो जाता तो।'

युवक अभी तक सिर्फ सुने जा रहा था। उसने चुस्‍की लेनी चाही।

'रिजाइन करने से क्‍या हो जाता?'

'कुछ होता ही नहीं! उसूल की कोई बात ही नहीं है! पंजाब में परसों बेचारे 36 लोगों को मार दिया। दिल्‍ली में पिछले हफ्ते जो हुआ आपको पता ही है। हमने आपको बनाया है तो आपकी कोई जिम्‍मेदारी नहीं है?'

'तो राजा क्‍या बस में बचाने आएगा बाबाजी?'

'नहीं आएगा तो पुलिस से कहेगा, चुप तो नहीं बैठेगा।'

'तो उसने पुलिस से क्‍या मना किया होगा?'

वह बुजुर्ग चुप हो गए।

'नहीं किया तो ये सब क्‍यों हो रहा है?'

'क्‍योंकि मैं, तुम, ये, सब पुलिस-दरोगा के भरोसे बैठे हैं। दरोगा नेता के और नेता किसी और के इशारे पर, एक पंद्रह वर्ष का लड़का चौदह आदमी मार दे दिन-दहाड़े और टहलता हुआ निकल जाए। क्‍यों‍ नहीं पकड़ा किसी ने? क्‍या ऐसे लोगों को पकड़ना पुलिस की जिम्‍मेदारी ही है, आम नागरिक का कुछ कर्तव्‍य नहीं? पर रिस्‍क कौन ले? पुलिस के भरोसे बैठे रहोगे तो यही होगा जो हो रहा है। कहीं वह न मर जाए चाहे सारी दुनिया समाप्‍त हो जाए।'

'शाबाश! लौंडे का खून तो गर्म लगता है।' पास वाले पान की दुकान से किसी ने टिप्‍पणी की।

'अभी आया-आया ही लगता है इस नगरी में। एक दिन जेबकतरों ने छुरी रख दी तो पानी माँग जाएगा बेटा।'

उनकी बहस अभी जारी थी।

'बेटा कहना बहुत आसान होता, जब करना पड़े तब पता लगता है, उनके पास रिवाल्‍वर होती है, मशीनगन होती है, आप क्‍या कर लोगे खाली हाथ?'

'ताऊजी! मैं रिवाल्‍वर की बात नहीं कर रहा। मैं कुछ और कह रहा हूँ। वह चार होंगे, छह होंगे, बस इससे ज्‍यादा तो नहीं। और बस में थे 60 आदमी। ये अखबार में लिखा है। मैं मानता हूँ कि निहत्‍थों से कुछ नहीं होता पर एक बार मिलकर मुकाबला तो करते। हो सकता है तब 36 की बजाय 46 मारे जाते पर एकाध तो उनका भी मरता, घायल होता, पकड़ में आता, और इसका सबक मिलता बाकियों को। पर कभी सुना कि किसी ने मुकाबला किया। सब ऐसे चुप रहते हैं जैसे जनखे हों, दुनिया की कोई भी पुलिस ऐसे कत्‍लेआम को बंद नहीं कर सकती।'

इस बीच युवक और उसके इक्‍का-दुक्‍का साथियों को छोड़कर ज्‍यादातर लोग अपनी घड़ियों को देखते हुए एक-एक कर वहाँ से खिसक चुके थे।

पान वाले के मुँह में पान दबा था। उसने मुँह ऊपर उठाकर होंठों से पीक अंदर समेटी, 'जरा बता दो भाईजान, इन्‍हें अग्रवाल वाला किस्‍सा, बहुत देर हो गई इन्‍हें भाषण झाड़ते।'

भाईजान सिगरेट समेत मुस्‍कराए, 'लगता है बताना ही पड़ेगा' कह कर उँगली से उन लोगों को पास आने का इशारा किया।

'भाई साहब, माफ करना मैं आपके बीच में बोल रहा हूँ। आपका नाम तो नहीं पता पर इससे क्‍या फर्क पड़ता है।' उनकी आवाज में सुपारी कड़कड़ा रही थी, 'पिछले 15-20 दिन पहले की बात होगी। आपने गवर्नमेंट डिग्री कॉलेज के प्रिंसिपल का नाम तो सुना ही होगा - अग्रवाल का।'

'नहीं, ये तो अभी पिछले हफ्ते ही यहाँ आया है,' युवक के साथी ने बताया।

'चलो कोई बात नहीं। तो कुछ नकल-वकल का चक्‍कर था, इन्‍हीं लड़कों ने जिन्‍होंने अभी इस बस में पत्‍थर मारा है...'

'आप जानते हैं इन्‍हें,' युवक ने बीच में टोका।

'पहले मेरी बात सुनो पूरी - इन्‍हें इस इलाके के ज्‍यादातर लोग जानते हैं - हाँ तो मैं कह रहा था कि इन्‍हीं लड़कों ने सरेआम उसके चाकू मारे। किस्‍मत अच्‍छी थी जो बच गया, उसे अच्‍छी तरह पता है - इधर सुनो इधर - कि कौन लड़के थे, उसी को क्‍यों, सारे स्‍टाफ के लोगों को भी पता है पर पुलिस ने लाख पूछा कि कोई पहचान... कितने थे? पर अग्रवाल साहब ने आज तक मुँह नहीं खोला। अग्रवाल जानता है कि ज्‍यादा से ज्‍यादा दो-चार साल की सजा हो जाएगी इन गुंडों को। और हो सकता है वह भी न हो।'

'ये तो कोई बात नहीं हुई। जब - जब उसे पता है तो नामजद रिपोर्ट करनी चाहिए थी,' युवक ने प्रश्‍न किया।

'उसे अपने बच्‍चों का भविष्‍य भी देखना है भाईजान,' पान वाले की आवाज में तुर्सी आ गई थी।

'ऐसा है, आप रुको यहीं थोड़ी देर। घंटे आधे घंटे में वे इधर आते ही होंगे, आप इसी बस में थे न! एक लड़का लाल रंग की शर्ट पहने था?'

'हाँ' उसने कुछ सोचकर हाँ भरी।

'तो बस, नहीं तो मैं बता दूँगा। फिर देखते हैं कि आप क्‍या करते हैं, और ये भी बता दूँ कि यहाँ पास में चौकी भी है इस पेड़ के पास... वहाँ हरदम दो सिपाही भी रहते हैं, चाहो तो उन्‍हें भी इत्‍तला दे दो।'

युवक के मुँह पर अचानक जैसे चुप्‍पी व्‍याप गई, 'ठीक है कोई बात नहीं।' वह कुछ सोचकर बोला।

'पता है क्‍या टाइम हो गया।' उसके साथी को गुस्‍सा आ गया था, 'ज्‍यादा बहादुर मत बन! इस बहादुरी को अपने गाँव में ही चलाइयो। एंपलायमेंट एक्‍सचेंज बंद हो गया तो तेरा कुछ नहीं बिगड़ेगा, मेरी एक 'सी एल' जरूर खराब हो जाएगी। चल अब यहाँ से।'