हिदायत और पूर्वा नरेश की कामयाबी / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 09 नवम्बर 2013
बीसवीं सदी के प्रारंभिक वर्षों में मिर्जा हादी रुसवा का उपन्यास उमराव जान अदा इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि अनेक लोग उनकी काल्पनिक नायिका उमराव को यथार्थ का व्यक्ति मानने लगे। यह ठीक उसी तरह है जैसे इम्तियाज अली ताज की अनारकली को ऐतिहासिक चरित्र मान लिया गया है। यह तो इन लेखकों का कमाल है कि उनके द्वारा रचे जीवंत पात्रों को सचमुच में जन्मे इंसान माना गया। उमराव जान अदा को 1857 के गदर के जमाने की ऐसी तवायफ माना गया है जो प्रसिद्ध शायरा थीं। राम बाबू सक्सेना ने उर्दू अदब के अपने इतिहास में यह लिखा है कि उपन्यास को जैसा हम आज मानते हैं, उसका प्रथम उदाहरण मिर्जा हादी रुसवा का यह उपन्यास है।
काबिल-ए-गौर यह है कि जब रुसवा बुजुर्ग हुए तब मुंशी प्रेमचंद युवा थे। कालांतर में प्रेमचंद की रचना 'शतरंज के खिलाड़ी' भी वाजिद अली शाह के दौर के लखनऊ के सांस्कृतिक वातावरण को बयां करती है जिसका विवरण रुसवा का उपन्यास भी करता है। कल रात पृथ्वी थिएटर्स मुंबई में रुसवा के उपन्यास के पूर्वा नरेश द्वारा किए नाट्य रूपांतरण को निर्देशक हिदायत ने बखूबी प्रस्तुत किया। दरअसल इस ऑपेरानुमा प्रस्तुति का असर कुछ ऐसा था कि दर्शकों को लगा कि वाजिद अली शाह के लखनऊ को देखकर वे आए हैं और टाइम मशीन में इतना पीछे जाने का कमाल भी नाट्य विधा की जीत है। हमें 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रारंभ और पराजय के संकेत भी इस प्रस्तुति में तवायफ के कोठे से मिलते हैं जहां जंग के घायल सिपाही भी आते हैं और आजादी के लिए सब कुछ कर गुजरने के हौसले का यह आलम है कि तवायफ भी सिर उठाकर चलती है। उसे उसके उस्ताद सिखाते हैं कि जंग केवल मैदान में ही नहीं लड़ी जाती वरन् हर घर में अपना आत्म स्वाभिमान कायम रखकर भी लड़ी जा सकती है।
उस्ताद की मौत का दृश्य हिदायत ने कमाल का गढ़ा है कि उस्ताद उमराव से वाजिद अली शाह का लिखा 'बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए, चार कहार मिले, मोरी डोलियां सजावें, मोरा अपना बेगाना छूटो जाए...' गाने को कहते हैं और गीत के दरमियान कुछ शागिर्द उन्हें घेर के खड़े हैं तथा गाना खत्म होने पर चार शागिर्द उस्ताद की सफेद चादर को ऐसे ले जाते हैं मानो जनाजा लेकर जा रहे हों। रंगमंच छोटा होता है परंतु निर्देशक अपनी कल्पनाशक्ति से उसे विराट बना देता है।
बारह वर्ष की अमीरन और उसकी सहेली रामदेई को गुंडे उठाकर ले जाते हैं और कोठे पर बेच देते हैं। अमीरन का बचपन कोठे में बीतता है। वहां उसका अंतरंग दोस्त गौहर उसे मिलता है जो ताउम्र दोस्ती निभाता है। दोस्ती क्या, वह उससे प्यार करता है परंतु अमीरन की कीमत नहीं चुका सकता। हिदायत ने एक दृश्य में जवान हो गई उमराव (अमीरन) को आते दिखाया है और वह अपने बचपन (अमीरन) को बिदा करती है परंतु पूरी प्रस्तुति में जब भी उमराव को बचपन याद आता है तब उसका बचपन अभिनीत करने वाली उसके साथ खड़ी होती है वरन् उसकी गजलों को भी तरन्नुम में गाती है। इसी तरह हिदायत ने पूरी प्रस्तुति में वह जादू और कशिश पैदा की है जिसे पैदा करने की बात उसके उस्ताद उससे कहते हैं और गौहर उसे समझाता है कि इस कशिश से ही इश्क इब्तिदा होता है। इस प्रस्तुति में निदा फाजली ने हिदायत को सलाह दी है और उमराव द्वारा बनाया गीत 'कद्रे उलफत में सितमगर ने न जाने मेरी, हाय मेरा दिली, हाय जिगर, हाय जवानी' भी लिखा है।
पूरी प्रस्तुति का केंद्रीय विचार स्त्री की स्वतंत्रता है। एक पात्र कहता है कि क्या यह आदर्श सौ साल में संभव है या डेढ़ सौ साल में संभव है? हम सब जानते हैं कि अभी तक कुछ खास नहीं हुआ है। प्रसिद्ध कवि नरेश सक्सेना की बेटी पूर्वा नरेश ने कमाल का लिखा है और उन्हें हिदायत की इस सफलता में बराबर का हकदार माना जाना चाहिए। पूरी प्रस्तुति में महिला स्पर्श स्पष्ट हैं और उमराव को मर्द कभी समझ ही नहीं पाते। पूर्वा नरेश और हिदायत का नजरिया मुजफ्फर अली की रेखा अभिनीत फिल्म से अलग है और समसामयिक भी है।
यह मुंबई नाट्यप्रेम है कि रात के दोनों शो फुल थे। सैकड़ों दर्शक टिकट नहीं मिलने के कारण निराश लौटे हैं। बहरहाल, यह उम्मीद कर सकते हैं कि यह नाटक हिंदुस्ता के हर शहर में खेला और देखा जाएगा। ज्ञातव्य है कि फरीदा जलाल के भाई व फिल्मकार खालिद समी का बेटा है हिदायत।