हिन्दी-उर्दू / लफ़्टंट पिगसन की डायरी / बेढब बनारसी
आशा है मेरे देशवासी मुझसे इस बात पर रुष्ट न होंगे जब मैं यह कहूँ कि मेरा हिन्दी के प्रति प्रेम प्रतिदिन बढ़ने लगा। अपनी मातृभाषा छोड़कर दूसरों की भाषा के प्रति प्रेम करना कुछ अस्वाभाविक अवश्य जान पड़ता है, किन्तु इसमें दो बातें हैं। एक तो मैंने अंग्रेजी छोड़ी नहीं, दूसरे मैंने यह सोचा कि भारतवासियों की संस्कृति बहुत पुरानी है। मैं तो जानता ही नहीं, परन्तु मेरे देश के कुछ लेखकों ने इनके साहित्य की भी बड़ी प्रशंसा की है। फिर जब यह हमारे देश की भाषा के प्रति इतना प्रगाढ़ प्रेम दिखलाते हैं, तब अवश्य यह भी एक गुण होगा।
एक और बात है। उर्दू से मुझे हिन्दी काव्य में अधिक आनन्द आने लगा। उसका एक कारण तो यह था कि उर्दू में मार-काट का ही विवरण अधिक है और मेरा तो प्रतिदिन का यह कार्य ही है कि मारूँ और मौत के घाट उतार दूँ। इसलिये उसमें विशेष मनोरंजन नहीं हुआ।
यहाँ तो हमें नृत्य और संगीत का आनन्द आता था और हिन्दी लेखकों का, विशेष कर कवियों का दिमाग तो बहुत ही उपजाऊ है। एक पुस्तक मैंने पढ़ी। जिसमें पाँच सौ छन्द केवल नाक के नथ पर थे। ऐसी ही एक पुस्तक एक लेखक ने लिख डाली है, केवल नागफनी के काँटे पर।
हिन्दी के लेखकों की यह विशेषता है कि भूत से लेकर ईश्वर के कान तक पर यह लिख सकते हैं और इतना, जितना शेक्सपियर ने सब मिलाकर लिखा होगा।
इसी बीच एक दिन मेरे पुराने मौलवी साहब आ गये। उनके त्योहार-ईद-का अवसर था। मैंने पाँच रुपये उनके हवाले किये। वे जा ही रहे थे कि उसी समय पंडितजी भी पहुँच गये। दोनों व्यक्तियों का मैंने परिचय कराया। मौलवी साहब को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैं हिन्दी पढ़ रहा हूँ। पंडितजी को इस बात पर तअज्जुब हुआ कि मैंने उर्दू भी पढ़ी है और हिन्दी तथा उर्दू पर कुछ बात होने लगी। दोनों ओर से दूसरे की भाषा के दोष बताये जा रहे थे। उस दिन मेरी आँख खुली और मैंने जाना कि दोनों में से किसी भाषा में कोई गुण नहीं है। दोनों भाषायें क्या हैं, दोषों की खानें हैं। कितनी देर तक विवाद होता रहा मुझे स्मरण नहीं है क्योंकि मुझे उस समय होश आया जब भाषा की सीमा को यह दोनों विद्वान पार कर चुके थे और इस्लाम तथा हिन्दू-धर्म पर विवाद होने लगा था और वह व्यक्तिगत आचार-व्यवहार, शरीर-स्वास्थ्य तक आ गया। मैं कह नहीं सकता, किन्तु मैं न होता तो मेरा कमरा अखाड़े का स्वरूप धारण करता। मैंने मन में सोचा कि जब एक हिन्दू तथा मुसलमान इतने स्वाभिमानी हैं कि यदि अंग्रेज उनके बीच में न हो तो अपनी शक्ति की परीक्षा लेने के लिये तत्पर रहते हैं, तब जहाँ करोड़ों हिन्दू और मुसलमान रहते हैं, वहाँ यदि उनके बीच कोई अंग्रेज न हो तो कैसे यह लोग रहेंगे। मैंने किसी भाँति उन्हें शान्त किया और वे लोग वहाँ से एक उत्तर और एक दक्षिण की ओर चले। उनकी दृढ़ता की मैं प्रशंसा करने लगा कि एक सड़क पर भी दोनों साथ नहीं चले।
पंडितजी तो बराबर आते ही थे। अब मुझे एक ऐसे विद्वान की खोज हुई जो पंडितजी से अधिक योग्य हो। मैंने स्थानीय अंग्रेजी पत्र में विज्ञापन दे दिया। मैंने सोचा कि कानपुर में दो-एक सज्जन मिल ही जायेंगे क्योंकि कानपुर में कई कॉलेज भी हैं। यद्यपि कुलियों की आबादी यहाँ अधिक है, फिर भी हिंदी के विद्वान, जिन्होंने आलोचनात्मक ढंग से अध्ययन किया हो, मिल ही जायेंगे।
पाँच-छः दिनों के बाद एक दिन सन्ध्या समय मैं परेड से लौटा तो मेरी मेज पर पत्रों का एक गट्ठर रखा था। मुझे सन्देह हुआ कि डाकिया अपना बण्डल भूल गया है। मैंने बेयरा से पूछा तो उसने कहा कि हुजूर यह सब पत्र आपके हैं।
मेरे पास दो-एक पत्र प्रतिदिन आते थे। इतने पत्र कहाँ से आ गये? मैंने उनमें से एक देखा तो ज्ञात हुआ मैंने जो विज्ञापन दे रखा था, उसी का आवेदन-पत्र था। एक-दो-तीन, सब वही। कुछ इधर-उधर देखा। कानपुर ही नहीं, लखनऊ, बनारस, दिल्ली सब स्थानों से आवेदन-पत्र मिले। मैं घबरा गया। बेयरा को दिया कि इससे चाय बनाना। मुझे इससे यह पता चला कि भारतवर्ष में हिन्दी के विद्वानों की संख्या अनन्त है। उस ढेर में से मैंने यों ही कानपुर के एक व्यक्ति का पत्र उठा लिया और उन्हें पत्र लिख दिया। वह सज्जन मिले। वह युवक थे, कवि भी थे, हिन्दी के विद्वान भी थे और बातचीत से उनमें मनुष्यता पायी जाती थी। मुझे मिलकर प्रसन्नता हुई। कानपुर के एक कॉलेज में वह हिन्दी पढ़ाते थे। उन्होंने हिन्दी के विषय में बहुत-सी बातें मुझे बतायीं और सबसे बड़ी बात तो यह थी कि मुझे प्रतिदिन अपनी रचना सुनाते थे।
कविता कैसी थी, वह जानने की मुझमें क्षमता न थी, पर उनका गला सुरीला था और याद भी उन्हें खूब था।
उनके कॉलेज में एक दिन कवि-सम्मेलन था। मुझे बड़े आग्रह से वह वहाँ ले गये।
मैं एक बार उर्दू के कवियों के कविता-पाठ में गया था। वह मैं कहीं लिख चुका हूँ। हिन्दी का कवि-सम्मेलन भी कुछ-कुछ वैसा ही होता है।
मैं तो यों ही उत्सुक था। प्रोफेसर साहब के कहने से और भी तैयार हो गया और चला। सात बजे का समय था। आठ बजे प्रोफेसर साहब मेरे यहाँ आये। साढ़े आठ बजे वहाँ पहुँचे। भीड़ काफी एकत्र हो गयी थी, परन्तु सभापति महोदय नहीं थे। सभापति महोदय बनारस से आये थे। मैंने प्रोफसर साहब से पूछा कि यदि वह न आये हों तो दूसरे को बैठाकर आरम्भ कीजिये। उन्होंने कहा कि नहीं, वे आ गये हैं। अभी सन्ध्या को उनकी गाड़ी आयी है। उनकी भाँग पीसी जा रही है। छान लें, तो आयें।