हिन्दी अनुवाद का क्रेज / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
मशहूर विचारक ‘बेकन’ का एक कथन है, “कुछ किताबें चखने के लिए होती हैं, कुछ निगल जाने के लिए और कुछ थोड़ी-सी चबाने और पचाने के लिए होती हैं।” पाठकों को क्या चाहिए, यह पाठक ही जानें मगर इन दिनों हिन्दी अनुवाद का क्रेज बढ़ता ही जा रहा है। शायद यही वजह है कि मूल रूप से जितनी पुस्तकें हिन्दी में प्रकाशित हो रही हैं, किसी भी अन्य भाषा से हिन्दी में अनुदित पुस्तकों की संख्या भी उसी के आसपास है। यह बात, इस ओर भी इशारा करता है कि हिन्दी के पाठक अपनी रुचि के साथ अब भी मौजूद हैं। (यह बात मैं इसीलिए कह देना चाहता हूँ, क्योंकि 18 दिसम्बर 2011 को दिल्ली में आयोजित एक कार्यक्रम ‘समन्वय’ का विषय था – “नई सदी में नए पाठकों की तलाश”। बड़ी लम्बी बहस छिड़ी हुई थी। अंत में निष्कर्ष यह निकला कि सभी वक्ता अपनी-अपनी राय के साथ सही थे। समस्या वहीं की वहीं रह गई। समाधान की शक्ल में किसी के हाथ कुछ भी नहीं लगा।) तो फिर क्या वजह है कि हिन्दी में अनुदित पुस्तकों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है? ‘प्रकाशक की रुचि’ और ‘व्यवसाय का नया फंडा’ के अलावे, इस सवाल के पीछे दो बातें साफ तौर पर नज़र आती हैं।
पहली बात, अनुवाद ‘ग्लोबलाइजेशन’ को एक नया आयाम प्रदान करता है। जब भी कोई रचना एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुदित की जाती है, तो एक अर्थों में उस रचना के साथ-साथ रचनाकार की मानसिकता, उसकी संस्कृति, उसका समाज, उसका राजनीतिक-आर्थिक पहलू आदि का भी अनुवाद हो जाता है। यहाँ यह बात याद रखने योग्य है कि अनुवादक के सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक पहलू भी उस अनुवाद में कहीं न कहीं शामिल हो जाते हैं। यह सब, अनुवादक के ‘शब्द चयन’ की व्यवस्था के साथ-साथ कई और चीज़ों पर निर्भर करता है। उदाहरण के लिए, पानी से भरा आधा गिलास को आधा ख़ाली गिलास भी कहा जा सकता है। लेकिन गिलास को आधा भरा कहना या आधा ख़ाली कहना, अनुवादक की मानसिकता (सकारात्मक/नकारात्मक) का परिचय हो जाता है। यह बात अच्छी है कि एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद हो, ताकि दूसरी भाषाओं के पाठकों तक यह बात आसानी से पहुंच जाए कि दुनिया के अन्य भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है। दुनिया के दूसरे हिस्से में लेखक किस तरह अपने समय को दर्ज़ कर रहा है? कवि किस तरह अपने दर्द को बयान कर रहा है? अनुवाद करते हुए एक असुविधा यह होती कि किसी भी भाषा के सांस्कृतिक शब्दों का अनुवाद किस तरह से किया जाए? हर एक भाषा का अपना इतिहास है। उसके उद्गम का एक स्त्रोत है। कभी-कभी सुनने में आता है कि अनुवाद ऐसी समस्या को नज़रअंदाज़ कर देते हैं और कोई कामचलाऊ शब्द अपनी भाषा में गढ़ लेते हैं। ऐसा करना मेरी दृष्टि में उचित नहीं है। ऐसी स्थिति में अनुवादक को चाहिए कि उस शब्द विशेष के गर्भ में जाए और पूरी जनम-पत्री खंगाल कर संदर्भ में उसका उल्लेख करे। साथ ही, उस शब्द विशेष को ‘ज्यों का त्यों’ प्रयोग में लाए। इससे एक फायदा यह भी होगा कि जिस भाषा में अनुवाद किया जा रहा है, उस भाषा की शब्दावली समृद्ध होगी। इतना ही नहीं, पाठकों को दुनिया की दूसरी भाषाओं और संस्कृति के बारे में जानने का अवसर भी मिलेगा।
दूसरी बात, आख़िर क्या वजह है कि प्रकाशक मूल भाषा की बजाय अनुवाद की पुस्तकें प्रकाशित करने में ज़्यादा रुचि दिखाते हैं। अगर मैं हिन्दी की बात करूँ, तो कोई भी प्रकाशक किसी नए लेखक की पुस्तक प्रकाशित करने से पहले कई बार सोचता है। इसका मतलब यह नहीं कि हिन्दी में अच्छे लेखकों की कमी है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि ज़्यादातर नए लेखक अपना धन देकर अपनी पुस्तक प्रकाशित कराने के लिए उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। क्यों? यह एक अलग सवाल है। यह एक बेहद सम्वेदनशील स्थिति है। इस सवाल पर नए लेखकों और प्रकाशकों की अपनी-अपनी राय है। नए लेखक कहते हैं कि प्रकाशक सिर्फ़ अपना फायदा देखते हैं। वहीं, प्रकाशक मानते हैं कि नए लेखकों की रचनाओं में उतनी क्षमता नहीं कि उन्हें मौक़ा दिया जाए। यह बहस ख़ासकर हिन्दी कविता की ज़मीन पर आजकल तेज़ी से दौड़ रही है। तो क्या यह मान लिया जाए कि हिन्दी में अच्छी कविताएँ लिखने वाले नए कवि नहीं हैं? जहाँ तक कविता का सवाल है, मुझे राइनेर मारिया रिल्के की एक बात याद आती है। रिल्के युवा कवि को सलाह देते हैं, “उस कारण (केंद्र) को ढूँढ़ने की कोशिश करो जो तुम्हें लिखने का आदेश देता है... अपने से पूछो यदि तुम्हें लिखने की मनाही हो जाए तो क्या तुम जीवित रहना चाहोगे? ...प्रेम कविताएँ मत लिखो (जोकि नए लेखक का पहला स्वाभाविक रूझान है) उन सब कला रूपों से बचो जो सामान्य और सरल है। उन्हें साध पाना कठिनतम काम है। वह सब व्यक्तिगत विवरण जिनमें श्रेष्ठ और भव्य परम्पराएँ बहुलता से समाई हों, बहुत ऊँची और परिपक्व दरज़े की क्षमता माँगती है।” फिलहाल, इस बहस को यहीं विराम देते हुए एक बात आसानी से समझ में आती है कि कुछ तो बात होगी, उन नए लेखकों (या रचनाओं) में जिनकी पुस्तकें प्रकाशित हो जाती हैं। चाहे वे पुस्तकें किसी सरकारी संस्था से प्रकाशित हों या निज़ी संस्था से। पुराने प्रकाशन संस्था से या फिर नए प्रकाशन संस्था से, कोई विशेष अंतर नहीं है।
यह बात सच है कि अनुवाद जितना हिन्दी भाषा में फल-फूल रहा है, वह किसी और भाषा में नहीं। इसका उदाहरण इन दिनों दिल्ली में कुंडली जमाए 20वें विश्व पुस्तक मेले में जाकर आप देख सकते हैं, जहाँ हर तरह की पुस्तकें मौजूद हैं। कई प्रकाशकों से बात करते हुए मैंने पाया कि हाल में प्रकाशित हुए हिन्दी पुस्तकों की संख्या और दूसरी भाषाओं से हिंदी में अनुदित पुस्तकों की संख्या में बहुत कम का अंतर है। यह बात सुनकर कान को सुकून भी आता है कि तमाम भारतीय भाषाओं की कृति हमें हिन्दी में पढ़ने को मिल जाती है। इसके अलावा, अंग्रेज़ी या अन्य भाषाओं की कृति भी हिन्दी में अनुदित होकर लोकप्रियता हासिल कर रही है। वैसे, एक अनुवादक के तौर पर किन-किन परेशानियों का सामना करना पड़ता है, इस विषय पर फिर कभी बात करूँगा। फिलहाल, मैं अपने अनुवादक मित्रों को बधाई देता हूँ, जो अनुवाद के इस काम में अपनी साँस और उम्र झोंक रहे हैं। जो कवि और लेखक होने के साथ-साथ एक अनुवादक के तौर पर भी साहित्य को समृद्ध कर रहे हैं, प्रतिष्ठित कर रहे हैं।