हिन्दी और लोकभाषाओं का अन्योन्याश्रित अनुवाद / कविता भट्ट

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[डॉ.कविता भट्ट जहाँ योगदर्शन विशेषज्ञता के साथ दर्शनशास्त्र की गम्भीर चिन्तक और विदुषी हैं, वहीं हिन्दी और अंग्रेज़ी साहित्य में भी समान रूप से लेखन -कार्य में सिद्धहस्त हैं। पहाड़ी पर चन्दा( काँठा माँ जून) हाइकु का गढ़वाली में काव्यानुवाद करके अपनी बहुमुखी प्रतिभा का परिचय दिया है। इनके अनुवाद सम्बन्धी विचार प्रस्तुत हैं-कृष्णा वर्मा, कैनेडा] प्रश्नः आपने किस भाषा में अनुवाद कार्य किया है?

उत्तरः यों तो अपने शैक्षणिक लेखन में मैंने हिन्दी से अंग्रेजी और अंग्रेजी से हिन्दी में भी अनुवाद किया। साथ ही हिन्दी और गढ़वाली भाषाओं की कृतियों का इन दोनों ही भाषाओं में एक से दूसरे में अनुवाद किया।

प्रश्नः आपने हिन्दी साहित्य में किन विधाओं के और कैसे अनुवाद किए?

उत्तरः मैंने लघुकथा तथा हाइकु विधाओं के अनुवाद किए। मेरी पुस्तक ‘पहाड़ी पर चन्दा (काँठा माँ जून) के अन्तर्गत विश्व भर से चयनित 5 देशों के 43 हाइकुकारों के 468 हाइकु का मैंने हिन्दी भाषा से गढ़वाली लोकभाषा में अनुवाद किया। यह हाइकु का गढ़वाली अनुवाद अनेक विद्वानों द्वारा ऐतिहासिक माना गया; क्योंकि विश्वस्तर पर हिन्दी हाइकु का इतनी बड़ी संख्या में गढ़वाली भाषा में अनुवाद एक ही पुस्तक में प्रस्तुत करना अभूतपूर्व है।

प्रश्नः इन विधाओं का लोकभाषा में अनुवाद करते हुए आपके सम्मुख क्या समस्याएँ आईं?

उत्तरः यदि लघुकथा की बात करें, तो यह अनुवाद यान्त्रिक न होकर भावानुवाद भी होना आवश्यक है; क्योंकि लघुकथा का आकार छोटा ही होता है; तो अनेकशःः यथोचित शब्द और यथोचित भाव को एक साथ पिरोने में समस्या होती है। लघुकथाकार के मूलभाव तक पहुँचना अत्यंत आवश्यक है; इसके अभाव में अनुवाद निरर्थक है।

कुछ लोगों का मानना है कि हाइकु या ताँका आदि तो छोटे से होते हैं; इनका अनुवाद तो अत्यंत सरल है, जबकि उन लोगों को यह समझना चाहिए कि किसी बड़ी से बड़ी पुस्तक के कई पृष्ठों का अनुवाद करना, एक हाइकु के अनुवाद से अधिक सरल है; जबकि हाइकु का अनुवाद प्रत्येक के वश की बात नहीं है। हाइकु मूलतः जापानी विधा है; जिसके वर्ण-विधान को ध्यान में रखते हुए ही अनुवाद करना होता है। सारगर्भित हाइकु काव्य विधा में 3 पंक्तियाँ और 17 वर्ण होते हैं; प्रथम, द्वितीय और तृतीय पंक्ति में क्रमशः 5, 7 और 5 वर्ण होते हैं। अध्यात्म, रहस्य, प्रकृति तथा सौन्दर्यबोध से परिपूर्ण हाइकु के मूल भाव को समझना और समझकर दूसरी भाषा में उसके लिए उतने ही वर्णों में भावानुवाद बहुत ही परिश्रम और सूझ-बूझ का कार्य है। शब्दों के चयन में वर्ण-विधान और भाव का अनुपालन भी सुनिश्चित होना अनिवार्य प्राथमिकता है। इसके साथ ही हिन्दी से लोकभाषा में अनूदित करते हुए अनुस्वार और महाप्राण का ध्यान भी रखना होता है। अनेकशः सटीक सम्प्रेषण के लिए यथार्थ शब्द मिलना अत्यंत कठिन हो जाता है; तो कई बार एक ही हाइकु के अनुवाद में कई-कई दिन लग जाते हैं। यहाँ पर तदनुरूप अर्थपूर्ण शब्दचयन अत्यंत कठिन होता है; इसमें बुद्धि, समय और भाषा-कौशल तीनों ही अपेक्षित हैं।

प्रश्नः क्या अच्छा अनुवाद किसी विधा का पुनः सृजन है?

उत्तरः पाठकवर्ग की रुचि और विस्तृत आयाम के दृष्टिकोण से यह सर्वथा पुनः सृजन है। अनुवादक को विषयस्तु को हृदयंगम करना पड़ता है। इसके बाद अनुवाद का सोपान आता है। अनुवादक का दोनों भाषाओं पर अधिकार होना चाहिए।

प्रश्नः लोकभाषाओं में अनुवाद की वर्तमान प्रासंगिकता क्या है?

उत्तरः सामान्य जनमानस और क्षेत्रों तथा राज्यों की लोकभाषाओं के अस्तित्व से ही हिन्दी भाषा का अस्तित्व है। जैसे लघुसरिताओं से गंगा बनती है और भारतभूमि को व्यापक ढंग से अभिसिंचित करती है। वैसे ही लोकभाषाओं से ही हिन्दी का अस्तित्व सुरक्षित है। भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति में भी मातृभाषा के रूप में लोकभाषा को प्रमुख स्थान प्रदान किया गया है। इस दृष्टि से किसी भी साहित्य को अपनी भाषा में पढ़ना आनन्द और ज्ञान प्रदान करता है। इस समय लोकभाषााएँ विलुप्ति की ओर अग्रसर हैं; ऐसे समय में हिन्दी का संरक्षण और संवर्धन तभी हो सकता है; जब लोकभाषाओं का संवर्धन हो। इसके लिए लोकभाषा का हिन्दी और हिन्दी का लोकभाषा में अनुवाद अत्यंत प्रासंगिक है। यह हमारी सभ्यता और संस्कृति के संरक्षण की दिशा में एक बड़ा प्रयास सिद्ध होगा।

-0- [हरियाणा प्रदीप दैनिक-31 जुलाई 2021 में प्रकाशित]