हिन्दी कथा-साहित्य: नवीन प्रवृत्तियाँ / मोहन राकेश
पिछले पाँच-छ: वर्षों में हिन्दी कथा-साहित्य के अन्तर्गत बहुत से ऐसे प्रयोग हुए हैं जिनसे साहित्य के इस अंग को नई दिशा और नई अर्थवत्ता प्राप्त हुई है। उपन्यास के क्षेत्र में 'बूँद और समुद्र' तथा 'परती : परिकथा' जैसी कृतियों ने सर्वथा नए धरातल छूने में सफलता प्राप्त की है तो कहानी के क्षेत्र में 'भाग्य रेखा', 'डेक', 'परिन्दे', 'जहाँ लक्ष्मी क़ैद है', 'राजा निरबंसिया', 'डिप्टी कलक्टरी', 'बदबूदार गली', 'गुलरा के बाबा', 'शहीद' और 'कोसी का घटवार' जैसी रचनाओं ने नए मूल्यों की स्थापना का श्रेय प्राप्त किया है।
प्रेमचन्द के बाद हिन्दी कथा-साहित्य दो सर्वथा अलग-अलग धाराओं में बँट गया था जिनका प्रतिनिधित्व क्रमश: यशपाल और अज्ञेय की रचनाएँ करती हैं। यशपाल की रचनाओं में सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन मिलता है तो अज्ञेय की रचनाओं में एक गूढ़ सांकेतिकता है, साथ ही भाषा का वह गुम्फन है जिससे भाषा की सामथ्र्य का विस्तार होता है। उपन्यास के क्षेत्र में 'मनुष्य के रूप' और 'नदी के द्वीप' इन दो सीमाओं का संकेत देते हैं तो कहानी के क्षेत्र में'प्रतिष्ठा का बोझ' एक दिशा है और 'साँप' दूसरी। परन्तु इन दोनों लेखकों और दोनों प्रतिनिधि धाराओं में एक बात सामान्य प्रतीत होती है और वह है अतिशय रूमानी वातावरण की सृष्टि का मोह। अन्तर केवल इतना है कि यशपाल यथार्थ की भूमि पर वर्तमान रहते हुए ऐसा करते हैं और अज्ञेय एक कल्पित भावुकतापूर्ण विश्व की सृष्टि करके उसके अन्दर जाकर। परन्तु स्त्री और पुरुष के निकट सम्बन्धों के वर्णन में दोनों की प्रतिभा रमती है। परिणामस्वरूप इन दोनों की रचना के निश्चित दायरे बन गये जिनके बाहर वे प्रयत्न करके भी नहीं निकल पाये। इस बीच जीवन ने कई करवटें लीं। समाज में कई तरह की हलचल और उथल-पुथल हुई। परन्तु उसने या तो इन्हें प्रभावित किया ही नहीं,और किया भी तो उन्होंने उससे उतना ही ग्रहण किया जो इनकी निश्चित परिधि में समा सकता था। जीवन के बहुमुखी यथार्थ को चित्रित करने की जिस परंपरा का प्रेमचन्द ने सूत्रपात किया था, वह लगभग अछूती ही पड़ी रही।
साहित्यकार अपनी वैयक्तिक कुंठाओं के कारण जब अपनी रचना से जनहृदय में स्पन्दन नहीं भर पाता तो वह अपनी असमर्थता को ढाँपने के लिए एक दर्शन की सृष्टि करता है। जिस रचना में अपने पैरों खड़े होने की सामथ्र्य नहीं होती, उसे आलोचना की छड़ी के सहारे खड़ा करने का प्रयत्न किया जाने लगता है। यह बात इस काल की रचनाओं-विशेषतया सांकेतिक शैली की रचनाओं के साथ हुई। इस काल की आलोचना को पढ़ें तो सम्भवत: यही प्रतीत होगा कि सृजन की दृष्टि से इतना सम्पन्न काल शायद और कोई नहीं रहा। परन्तु कम-से-कम गद्य के क्षेत्र में यह सम्पन्नता आलोचना की ही है, रचनात्मक साहित्य की नहीं।
आज के युग की साहित्यिक अभिव्यक्ति में हम एक चीज़ की प्रमुखता देखते हैं और वह है बिम्ब और विचार का सामंजस्य-अर्थात् बिम्बों का ऐसा संगठन कि विचार उसके बीच से ही प्रस्फुटित हो, चरित्र और घटनाएँ कुछ ऐसे मूर्त चित्रों के रूप में प्रस्तुत की जाएँ कि वही लेखक के अभिप्राय या संकेत को स्पष्ट कर दें। प्रेमचन्द की रचनाओं में बिम्ब और विचार दोनों हैं, परन्तु दोनों का ऐसा गुम्फन कहीं-कहीं ही हो पाया है। प्रेमचन्द रचना के आन्तरिक गुण की अपेक्षा उसके उद्देश्य को ही महत्त्व देते थे, इसलिए ही ऐसा हुआ है। वे जितने सचेत इन्सान थे, उतने सचेत कलाकार नहीं। आज की नई कथा-कृतियों में, जिनमें से कुछ एक का उल्लेख पहले किया जा चुका है, इस तरह गुम्फन के कई सफल प्रयत्न दृष्टिगोचर होते हैं। 'बूँद और समुद्र' के लेखक ने यदि अपनी रचना में मथुरा की यात्रा का वर्णन करने और साथ एक आध्यात्मिक तत्त्व का समावेश करने का लोभ न किया होता तो गली-मुहल्ले के जीवन को चित्रित करने की दृष्टि से वह एक अन्यतम रचना होती। 'परती : परिकथा' का विन्यास काफी शिथिल है, परन्तु उसमें बिम्बों और विचारों को एक साथ प्रस्तुत करने की लेखक की अद्भुत शक्ति का परिचय मिलता है। इन लेखकों की कृतियों ने हिन्दी उपन्यास को यशपाल और अज्ञेय की अर्द्ध-रूमानी परंपरा से हटाकर एक नए मोड़ पर ला दिया है और एक नए और अधिक सशक्त रूप में जीवन के व्यापक और बहुमुखी यथार्थ को प्रस्तुत करने की दिशा में क़दम उठाया है। यह बात अपने में ही आगे की सम्भावनाओं का विश्वास दिलाने वाली है।
इन छ:-सात वर्षों में उपन्यास की अपेक्षा कहीं अधिक हलचल कहानी के क्षेत्र में दिखाई दी है। इसका एक कारण शायद यह भी है कि नए कहानीकारों ने एक-दूसरे की होड़ में रचना करने का प्रयत्न किया और न केवल कई एक सशक्त और मँजी हुई कहानियों की सृष्टि की, बल्कि कहानी के क्षेत्र में नए मूल्यों की अवतारणा भी कर दी। बिम्बों के माध्यम से अपनी जीवन-दृष्टि को व्यक्त करने और कला के गर्भ से सामाजिक जीवन को प्रगति और नव-निर्माण का संकेत देने के जैसे सफल और सार्थक प्रयत्न कहानी के अन्तर्गत हुए हैं, साहित्य की और किसी भी विधा के अन्तर्गत नहीं हो पाये। नई कविता का रूप-विधान एक निश्चित दिशा ग्रहण कर गया है, परन्तु नई कहानी की सबसे बड़ी सफलता इसी बात में रही है कि उसने एक निश्चित रूप या दिशा को न अपनाकर अलग-अलग कहानीकारों के हाथों कई दिशाओं में प्रगति की है। जीवन के कई नए खंडचित्र, जिनकी ओर न आज तक की कहानी ने मुँह किया था न कविता ने, आधुनिक कहानी के आश्रय से सजीव हो उठे हैं। आज के कहानीकार दो दृष्टियों से जीवन के व्यापक चित्र प्रस्तुत कर रहे हैं। एक तो इस दृष्टि से कि उनके कहानी चुनने का क्षेत्र पहले से कहीं विशाल है। जीवन और समाज के बहुत दूर-दूर उपेक्षित और छिपे हुए कोनों तक उनकी दृष्टि अपने कथानक की तलाश में पहुँच जाती है। और दूसरे इस दृष्टि से कि छोटी से छोटी और साधारण से साधारण घटना को भी वे जीवन के विशाल सन्दर्भ में निश्चित आलोक देकर प्रस्तुत करते हैं। यही वजह है कि 'बदबू' जैसा साधारण कथानक भी आज के कहानीकार के हाथों कहीं अधिक सार्थक और प्रभावशाली हो उठता है।
आधुनिक कहानी की चर्चा करते हुए एक और बात भी कही जानी चाहिए और वह यह कि उपन्यास के क्षेत्र में जिस संगठित शिल्प का विकास अभी तक सम्भव नहीं हुआ, वह कहानी के क्षेत्र में आज एक साधारण-सी बात हो गयी है क्योंकि नए कहानीकारों ने वैयक्तिक और सामूहिक रूप में कहानी के शिल्प को बहुत माँजा है। एक बड़ी बात यह भी है कि इन कहानीकारों ने दूसरी भाषाओं के समृद्ध साहित्य के बने-बनाये नुस्खों को अपने लिए आदर्श मानकर रचना नहीं की। उन्होंने परंपरा से बहुत कुछ ग्रहण किया है, फिर भी उन्होंने अपने लिए सफलतापूर्वक नए मार्ग की खोज की है। और, विभिन्न कहानीकारों ने विभिन्न स्तरों पर खोज करते हुए अपने व्यक्तित्व की छाप भी नई कहानी को दी है। इसीलिए उपलब्धियों के साथ-साथ कुछ नए नाम भी कहानी के क्षेत्र में सीमा-चिह्न से बन गये हैं।
परन्तु पुरानी पीढ़ी के कुछ लेखक और आलोचक नई कहानी से शिकायत करते हैं कि वह उन्हें उलझी हुई प्रतीत होती है। इसका मुख्य कारण यही है कि वे जिन कोष्ठों में रहकर सोचते हैं, उनमें अभी तक वही पुरानी दकियानूसी मान्यताएँ भरी पड़ी हैं। वे कहानी के शिल्प, संकेत या व्यापक कैनवस को ग्रहण ही नहीं कर पाते। इसलिए वे कहानी के कहानीपन, घटियापन और बढिय़ापन की शब्दावली में ही घूमकर रह जाते हैं या बहुत दूर जाएँ तो स्ट्रक्चर और टैक्सचर की बात करके रह जाते हैं। चरित्र-चित्रण के क्षेत्र में उन्हें करने की एक ही बात सूझती है कि लेखक ने कितने उदात्त चरित्रों की सृष्टि की है। वे इस बात को भूल जाते हैं कि कहानी के अन्तर्गत पहली चीज़ ही चरित्र है और सफल चरित्र-चित्रण का अर्थ है उन्हें उनकी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ एक सजीवन और विश्वसनीय रूप में प्रस्तुत करना। कहानी नि:सन्देह कुछ अभिजात, उदात्त और उदार व्यक्तियों की जीवनगाथा का नाम नहीं है। और, स्ट्रक्चर और टैक्सचर से पहली चीज़ कहानी का यार्न है, वह तन्तुवाय जो आज का यथार्थ है-एक व्यक्ति विशेष या समुदाय-विशेष के जीवन का यथार्थ नहीं, हमारे सामाजिक जीवन का यथार्थ, वह व्यापक यथार्थ जो इकाइयों से लेकर राष्ट्रों तक के संघर्षों के मूल में है। यह प्रसन्नता की बात है कि नई कहानी के अन्तर्गत उस व्यापक यथार्थ की चेतना ज़ोर पकड़ रही है और नई कहानी, आलोचना की सीमाओं के बावजूद, अपने रूप और आत्मा का और परिष्कार कर रही है।