हिन्दी कविता में तुकान्त-विधान / ओम नीरव

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गीतिका के शिल्प में पदान्त और समान्त अर्थात तुकान्त का विशेष महत्त्व है, इसलिए तुकान्त को समझना आवश्यक है, इसलिए आइए हम तुकान्त को समझने का प्रयास करें।

सोदाहरण परिचय

इसे समझने के लिये एक तुकान्त रचना का उदाहरण लेकर आगे बढ़ें तो समझना बहुत सरल हो जाएगा। उदाहरण के रूप में हम इस मुक्तक पर विचार करते हैं-

रोटियाँ चाहिए कुछ घरों के लिए,

रोज़ियाँ चाहिए कुछ करों के लिए,

काम हैं और भी ज़िन्दगी में बहुत-

मत बहाओ रुधिर पत्थरों के लिए.

-ओम नीरव

इस मुक्तक के पहले, दूसरे और चौथे पद तुकान्त हैं। इन पदों के अंतिम भाग इस प्रकार हैं-

घरों के लिए = घ् + अरों + के लिए

करों के लिए = क् + अरों + के लिए

थरों के लिए = थ् + अरों + के लिए

इनमें निम्न बातें ध्यान देने योग्य हैं-

(1) इनमें अंतिम शब्द-समूह 'के लिए' तीनों पदों में ज्यों का त्यों है इसे पदान्त कहते हैं।

(2) इस पदान्त के पहले जो शब्द आये हैं–'घरों, करों, थरों' , इन सबके अंत में आता है– 'अरों' , इसे समान्त कहते हैं, इसका प्रारम्भ सदैव स्वर से ही होता है। समान्त को धारण करने वाले पूर्ण शब्दों को समान्तक शब्द कहते हैं जैसे इस उदाहरण में समान्तक शब्द हैं–घरों, करों, पत्थरों।

(3) समान्त और पदान्त सभी पदों में एक जैसे रहते हैं।

(4) समान्त के पहले जो व्यंजन आते है (जैसे घ्, क्, थ्) , वे सभी पदों में भिन्न-भिन्न होते हैं, इन्हें हम चर कह सकते हैं।

(5) समान्त और पदान्त को मिलाकर तुकान्त बनाता है अर्थात-

समान्त + पदान्त = तुकान्त

अरों + के लिए = अरों के लिए

इसे हम अचर कह सकते हैं।

(6) तुकान्त में पदान्त का होना अनिवार्य नहीं है, ऐसी स्थिति में समान्त को ही तुकान्त कहते हैं।

तुकान्त का चराचर सिद्धान्त

उपर्युक्त तुकान्त पदों को इस प्रकार लिखा जा सकता है-

घ् + अरों के लिए

क् + अरों के लिए

थ् + अरों के लिए

इन पदों में बाद वाला जो भाग सभी पदों में एक समान रहता है उसे 'अचर' कहते हैं और पहले वाला जो भाग प्रत्येक पद में बदलता रहता है उसे 'चर' कहते हैं। चर सदैव व्यंजन होता है और अचर का प्रारम्भ सदैव स्वर से होता है। चर सभी पदों में भिन्न होता है जबकि अचर सभी पदों में समान रहता है।

उक्त उदाहरण में-

चर = घ्, क्, थ्

अचर = अरों के लिए

अचर के प्रारम्भ में आने वाले शब्दांश (जैसे 'अरों' ) को समान्त तथा उसके बाद आने वाले शब्द या शब्द समूह (जैसे 'के लिए') को पदान्त कहते हैं।

तुकान्त की कोटियाँ

तुकान्त की उत्तमता को समझने के लिए हम इसे निम्नलिखित कोटियों में विभाजित करते हैं-

(1) वर्जनीय तुकान्त–इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जो वस्तुतः वर्जित हैं। उदाहरणार्थ–

(क) जिनमें समान्त का प्रारम्भ स्वर से न होकर व्यंजन से होता है जैसे–अवरोध, प्रतिरोध, अनुरोध आदि में समान्त 'रोध' व्यजन से प्रारम्भ हुआ है। ऐसा तुकान्त सर्वथा त्याज्य है।

(ख) जिनमें समान्त अकार 'अ' होता है जैसे सुगीत, अधीर, दधीच आदि में समान्त 'अ' है। ऐसा तुकान्त सर्वथा त्याज्य है।

(2) पचनीय तुकान्त-इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जो वस्तुतः हिन्दी में अनुकरणीय नहीं हैं किन्तु चलन में आ जाने के कारण उन्हें स्वीकार करना या पचाना पड़ जाता है। उदाहरणार्थ-

(क) जिनमें समान्त 'केवल स्वर' होता है जैसे आ जाइए, दिखा जाइए, जगा जाइए, सुना जाइए आदि में तुकान्त 'आ जाइए' है। इसमें समान्त केवल स्वर 'आ' है। ऐसा तुकान्त हिन्दी में अनुकरणीय नहीं है। वास्तव में समान्त का प्रारम्भ स्वर से होना चाहिए किन्तु समान्त 'केवल स्वर' नहीं होना चाहिए. उल्लेखनीय है कि उर्दू में ऐसा तुकान्त अनुकरणीय माना जाता है क्योंकि उर्दू में स्वर की मात्रा के स्थान पर पूरा वर्ण प्रयोग किया जाता है जैसे 'आ' की मात्रा के लिए पूरा अलिफ प्रयोग होता है।

(ख) जिनमें समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन की पुनरावृत्ति होती है जैसे-अधिकार चाहिए, व्यवहार चाहिए, प्रतिकार चाहिए, उपचार चाहिए आदि में पदों के अंतिम भाग निम्न प्रकार हैं-

कार चाहिए = क् + आर चाहिए

हार चाहिए = ह् + आर चाहिए

कार चाहिए = क् + आर चाहिए

चार चाहिए = च् + आर चाहिए

स्पष्ट है कि इनमें समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन क् की पुनरावृत्ति हुई है, इसलिए यह अनुकरणीय नहीं है किन्तु चलन में होने के कारण पचनीय है।

(3) अनुकरणीय तुकान्त–इस कोटि में ऐसे तुकान्त आते हैं जिनमें 'स्वर से प्रारम्भ समान्त' और 'पदान्त' सभी पदों में समान रहते हैं तथा 'समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजन' की पुनरावृत्ति नहीं होती है जैसे-

चहकते देखा = च् + अहकते देखा

महकते देखा = म् + अहकते देखा

बहकते देखा = ब् + अहकते देखा

लहकते देखा = ल् + अहकते देखा

स्पष्ट है कि इनमें समान्त 'अहकते' का प्रारम्भ स्वर 'अ' से होता है, इस समान्त 'अहकते' और पदान्त 'देखा' का योग 'अहकते देखा' सभी में समान रहता है तथा समान्त के पूर्ववर्ती व्यंजनों च्, म्, ब्, ल् में किसी की पुनरावृत्ति नहीं हुई है। इसलिए यह तुकान्त अनुकरणीय है।

(4) ललित तुकान्त–इस कोटि में वे तुकान्त आते हैं जिनमें अनिवार्य समान्त के पहले भी अतिरिक्त समानता देखने को मिलती है, जिससे अतिरिक्त सौन्दर्य उत्पन्न होता है। जैसे-

चहचहाने लगे = चहच् + अहाने लगे

महमहाने लगे = महम् + अहाने लगे

लहलहाने लगे = लहल् + अहाने लगे

कहकहाने लगे = कहक् + अहाने लगे

इस तुकान्त में चहच्, महम्, लहल्, कहक्–इनकी समता तथा चह, मह, लह, कह की दो बार आवृत्ति से अतिरिक्त लालित्य उत्पन्न हो गया है। इसलिए यह एक ललित तुकान्त है।

ललित तुकान्त को स्पष्ट करने के लिए तुकान्तके निम्न उदाहरण क्रमशः देखने योग्य हैं, जो सभी पचनीय या अनुकरणीय हैं किन्तु समान्त जैसे-जैसे बड़ा होता जाता है, वैसे-वैसे सौन्दर्य बढ़ता जाता है-

(क) लहलहाने लगे, बगीचे लगे, अधूरे लगे, प्यासे लगे–इनमें समान्त केवल स्वर 'ए' है, जो मात्र पचनीय है।

(ख) लहलहाने लगे, दिखाने लगे, सताने लगे, बसाने लगे–इनमें समान्त 'आने' है, जो हिन्दी में अनुकरणीय तो है किन्तु इसमें कोई विशेष कौशल या विशेष सौंदर्य नहीं है क्योंकि समान्त मूल क्रिया (लहलहा, दिखा, सता, बसा आदि) में न होकर उसके विस्तार (आना) में है। उल्लेखनीय है कि उर्दू में ऐसे समान्त को दोषपूर्ण मानते हैं और इसे 'ईता' दोष कहते हैं किन्तु हिन्दी में ऐसा समान्त साधारण सौन्दर्य साथ अनुकरणीय कोटि में आता है।

(ग) लहलहाने लगे, बहाने लगे, ढहाने लगे, नहाने लगे–इनमें समान्त 'अहाने' है जो अपेक्षाकृत बड़ा है और मूल क्रिया में सम्मिलित है। इसलिए इसमें अपेक्षाकृत अधिक सौन्दर्य है। यह समान्त विशेष सौन्दर्य के साथ अनुकरणीय है।

(घ) चहचहाने लगे, महमहाने लगे, लहलहाने लगे, कहकहाने लगे–इनमें समान्त 'अहाने' है जिसके साथ इस तुकान्त में पूर्ववर्णित कुछ अतिरिक्त समताएँ भी है। इसलिए इसमें सर्वाधिक सौन्दर्य है। यह अति विशेष सौन्दर्य के कारण एक 'ललित तुकान्त' है।

यहाँ पर हम ललित तुकान्त के कुछ अन्य उदाहरण दे रहे हैं, जिनमें अनिवार्य मुख्य तुकान्त के अतिरिक्त अन्य प्रकार की समता ध्यान देने योग्य है-

करती रव, बजती नव, वही लव, नीरव (मुख्य तुकान्त–अव, अतिरिक्त-ई)

ढले न ढले, चले न चले, पले न पले, जले न जले (मुख्य तुकान्त–अले, अतिरिक्त–अले न)

भाँय-भाँय, पाँय-पाँय, धाँय-धाँय, चाँय-चाँय (मुख्य तुकान्त–आँय, अतिरिक्त-आँय)

पोथियाँ, रोटियाँ, गोलियाँ, धोतियाँ (मुख्य तुकान्त–इयाँ, अतिरिक्त-ओ)

चलते-चलते, छलते-छलते, मलते-मलते, गलते-गलते (मुख्य तुकान्त–अलते, अतिरिक्त-अलते)

उमर होली, हुनर होली, मुकर होली, उधर हो ली (मुख्य तुकान्त–अर होली, अतिरिक्त-उ)

तुकान्त का महत्त्व

(1) तुकान्त से काव्यानन्द बढ़ जाता है।

(2) तुकान्त के कारण रचना विस्मृत नहीं होती है। कोई पंक्ति विस्मृत हो जाये तो तुकान्त के आधार पर याद आ जाती है।

(3) छंदमुक्त रचनाएँ भी तुकान्त होने पर अधिक प्रभावशाली हो जाती हैं।

(4) तुकान्त की खोज करते-करते रचनाकार के मन में नए-नए भाव, उपमान, प्रतीक, अलंकार आदि कौंधने लगते हैं जो पहले से मन में होते ही नहीं है।

(5) तुकान्त से रचना की रोचकता, प्रभविष्णुता और सम्मोहकता बढ़ जाती है।

तुकान्त साधना के सूत्र

(1) किसी तुकान्त रचना को रचने से पहले प्रारम्भ में ही समान्तक शब्दों की उपलब्धता पर विचार कर लेना चाहिए. पर्याप्त समान्तक शब्द उपलब्ध हों तभी उस समान्त पर रचना रचनी चाहिए.

(2) सामान्यतः मात्रिक छंदों में दो, मुक्तक में तीन, सवैया-घनाक्षरी जैसे वर्णिक छंदों में चार, गीतिका में न्यूनतम छः समान्तक शब्दों की आवश्यकता होती है।

(3) समान्तक शब्दों की खोज करने के लिए समान्त के पहले विभिन्न व्यंजनों को विविध प्रकार से लगाकर सार्थक समान्तक शब्दों का चयन कर लेना चाहिए. उनमे से जो शब्द भावानुकूल लगें, उनका प्रयोग करना चाहिए. उदाहरण के लिए समान्त 'आइए' के पहले अ और व्यंजन लगाने से बनाने वाले शब्द हैं–आइए, काइए, खाइए, गाइए, घाइए, चाइए, छाइए, जाइए ... आदि। इनमें से सार्थक समान्तक शब्द हैं–आइए, खाइए, गाइए, छाइए, जाइए ... आदि। इन शब्दों के पहले कुछ और वर्ण लगाकर और बड़े शब्द बनाए जा सकते हैं जैसे खाइए से दिखाइए, सुखाइए; गाइए से जगाइए, भगाइए, उगाइए, भिगाइए...आदि। इसप्रकार मिलने वाले समान्तक शब्दों में कुछ ऐसे भी होंगे जो रचना में सटीकता से समायोजित नहीं होते होंगे, उन्हें छोड़ देना चाहिए. सामान्यतः कुशल रचनाकारों को इसकी आवश्यकता नहीं पड़ती है लेकिन नवोदितों के लिए और दुरूह समान्त होने पर प्रायः सभी के लिए यह विधि बहुत उपयोगी है।

-ओम नीरव