हिन्दी कविता रूमानियत के प्रति घटता आकर्षण / नंद भारद्वाज

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बीसवीं शताब्दी के आरंभ से आज तक हिन्दी कविता में अनेक बदलाव आये हैं। इन बदलावों के बीच क्रमशÁ विकसित और सहज होती हुई काव्य­यात्रा का इतिवृत्त और इसके उतार चढ़ाव सहृदयों और अध्येताओं की रूचि का विशेष आकर्षण रहे हैं । शताब्दियों से चली आ रही रसिकता और रूमानियत हिन्दी कविता की एक उल्लेखनीय प्रवृत्ति रही है और बहुत से काव्य आंदोलनों के केन्द्र में इसी प्रवृत्ति का वर्चस्व भी रहा है, लेकिन बीसवीं शताब्दी के चौथे­पाँचवे दशक में वस्तुगत हालात बदलने लगे और इससे कविता की चाल भी अप्रभावी न रह सकी।

सन 47 में हिन्दुस्तान के आज़ाद होने की घटना जहाँ दुनिया के दूसरे मुल्कों के लिये एक बड़ी ख़बर रही —ख़ुद हिन्दुस्तान की जनता के लिए भी यह एक गैरमामूली और वर्षों तक लोगों के दिलो­दिमाग पर छाया रहने वाला अनुभव साबित हुआ। हिन्दी के कुछ रचनाकार जहाँ इस ख़बर से बेहद उत्साहित हुए और लगभग राष्ट्रीय कवि कहलाने की हैसियत को प्राप्त हुए, वहीं कुछ रचनाकारों के लिये इसके बाद का परिदृश्य एक मोहक सपने के बिखर जाने का ऐसा पीड़ादायक अनुभव रहा, जिससे वे ताउम्र नहीं उबर सके। हिन्दी काव्य­यात्रा के इस इतिवृत्त को समझने के लिये हमें थोड़ा और पीछे जाना होगा।

हिन्दी साहित्य के अधिकांश इतिहासकारों ने आधुनिक काल की शुरूआत विक्रम संवत 1900 ह्य1857 के गदर के आस­पासहृ से मानते हुए आरंभ के 50 वर्षों के हिन्दी लेखन पर पूर्ववर्ती रीतिकालीन संस्कारों, सामन्ती परम्पराओं के गहरे असर को बहुत साफ तौर पर रेखांकित किया है। नई चेतना और युगीन परिस्थितियों से उदासीन उस दौर के कवियों की काव्य चेतना पौराणिक आख्यानों के मिथ्या गौरव और प्रकृति एवं मनुष्य के रूमानी रिश्तों की आदर्शवादिता के बीच झूलती रही। परिणाम स्वरूप कविता आख्यान, वृत्तान्त और ब्यौरों की हद तक सपाट हो गई। इस इतिवृत्तात्मकता के विरूद्ध सूर्यकान्त त्रिपाठी ' निराला ', जयशंकर प्रसाद और सुमित्रानंदन पंत ने अप्रस्तुत विधान के जरिये हिन्दी कविता की एक नई छवि और पहचान बनाने की कोशिश की।सरलीकृत राष्ट्रीयता और वायवीय आदर्शों के स्थान पर कवि की आन्तरिक अनुभूति एवं कल्पना शक्ति एकाएक मुखर हो उठी, बल्कि इसका असली विरोध इस इतिवृत्तात्मकता या सरलीकृत आदर्शवादिता से उतना नहीं था, जितना रीतिकालीन बाह्य सौंदर्य प्रधानता, स्थूल शारीरिक वासना से उत्प्रेरित नारी का नख­शिख वर्णन और अतिरंजित अलंकारिता से था, जिसमें कबीर, तुलसी, सूर की साहित्यिक उपलब्धियों, उनकी सदाशयता और मर्यादित जीवन की सदाचारिता को समाप्तप्र्राय सा कर दिया था। इतिवृत्तवादी कवियों के बाद इस अराजकता का जिस नवीन काव्यधारा ने पुरजोर विरोध किया, उसे कालान्तर में " छायावाद " की संज्ञा से जाना गया। इस संज्ञा के साथ जुड़े हुए "वाद" शब्द के प्रति अफसोस जाहिर करते हुए उस दौर के समालोचक गंगाप्रसाद पांडेय ने लिखा — " जीवन की स्वछन्द तथा आत्मा सी निर्लेप वह किरण उदित हुई थी, किन्तु पार्थिव­अस्तित्व में रहकर वह निर्लिप्त नहीं रह सकी, वह भी छायावाद नाम के बंधन में बंध गई।"

हिन्दी कविता की इस नवीन काव्यधारा की शुरूआत सन 1916 में निराला द्वारा लिखित "जूही की कली" से मानी जाती है, जिसके कुछ ही अर्से बाद पंत की पल्लव", की परिमल और प्रसाद की झरना, आँसू आदि काव्यकृतियाँ प्रकाशित होकर सामने आई। सन 30 के लगभग महादेवी की दीपशिखा और यामा, पंत की वीणा और गुंजन, निराला की अनामिका,तुलसीदास और राम की शक्ति पूजा तथा प्रसाद की कामायनी जैसी कृतियों ने छायावाद को उसकी शक्ति–सीमाओं में चरम–उत्कर्ष तक पहुँचा दिया।

राम की शक्ति पूजा और कामायनी से प्राप्त इस उँचाई के बाद छायावादी काव्यधारा ने धीरे– धीरे अपने को भाव–भूमि और रचना–संसार से अलग कर लिया। द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में जिस छायावाद का उदय हुआ था, उसके विकास की गति इतनी तेज़ रही कि अगले दो–तीन सालों में ही कविता ने अपने पूर्व धरातल से बहुत लम्बा सफर तय कर लिया। यह सही है कि छायावादी कविता के अभ्युदय और तेज़ विकास–क्रम के कारणों में रविन्द्रनाथ, शैली, वर्डसवर्थ की कविताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, इसके बावजूद छायावाद का अपना निजी अस्तित्व और अलग पहचान रही है। डॉ नामवर सिंह के अनुसार छायावादी कवियों ने जब उन्हें अपनाया और उनसे प्रेरणा ली तो उन्हें एकदम अपनी आकांक्षाओं का प्रतिबिम्ब समझ कर। उन्हीं के शब्दों में छायावाद हमारी विशेष सामाजिक और साहित्यिक आवश्यकताओं से पैदा हुआ और इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये ऐतिहासिक कार्य किया। समाज और साहित्य को उसने जिस तरह पुरानी रूढ़ियों से मुक्त किया, उसी तरह आधुनिक, राष्ट्रीय और मानवतावादी भावनाओं की ओर भी प्रेरित किया।

व्यक्ति की स्वाधीनता, विराट–कल्पना, प्रकृति साहचर्य, मानव–प्रेम, वैयक्तिक प्रणय, उच्च नैतिक आदर्श, देशभक्ति, राष्ट्रीय स्वाधीनता आदि के प्रसार द्वारा छायावाद ने हिन्दी जाति के जीवन में ऐतिहासिक कार्य किया। कविता के रूपविन्यास को पुरानी संकीर्ण रूढ़ियों से मुक्त करके उसने नवीन व्यंजना प्रणाली के द्वार खोल दिये।छायावाद वस्तुतÁ एक व्यापक जीवन दृष्टि थी, जिसकी अभिव्यक्ति सामान्यतÁ कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, आलोचना आदि सभी विधाओं के माध्यम से हुई, परन्तु भावात्मकता के कारण उसकी विशेष अभिव्यक्ति कविता में ही हो सकी और उसी में उसे प्रधानता मिली।

साहित्य में इस व्यापक परिव्याप्ति और प्रभाव के बावजूद छायावादी काव्यचेतना अधिक समय न टिक सकी। अधिकांश आलोचकों ने इसे एक आवेग की तरह स्वीकार किया, जिसमें जीवन के कई आवश्यक पक्ष छूट गए। अन्ततÁ राष्ट्र जिस राजनैतिक दौर से गुज़र रहा था, उसमें छायावादी कविता निरन्तर अप्रासंगिक और असरहीन होती जा रही थी।

सन 1935 के बाद हिन्दी में प्रगतिशील आंदोलन की गतिविधियाँ प्रारंभ हो चुकी थी। पंत जी के संपादन में 'रूपाभ' के प्रकाशन को इस परिवर्तन की प्रारंभिक कड़ी कहा जा सकता है। कविता छायावादी वायवीयता एवं कल्पना–लोक से यकायक ठोस धरातल पर उतर आई। तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलनों एवं राजनैतिक जागरुकता का कविता पर गहरा प्रभाव पड़ा। रूस में माक्र्सवाद की सफलता हिन्दी कवियों के लिये आकर्षण का विषय थी। थोड़े ही अरसे में इसी वर्ग–संघर्ष की चेतना पर आधारित कविताओं का ज्वार सा आ गया। हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में कहा गया है कि जो विचारधारा राजनैतिक क्षेत्र में समाजवाद और दर्शन में द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है वही साहित्य क्षेत्र में प्रगतिवाद के नाम से अभिहीत है।

प्रगतिवाद का उदय सन 1936 में भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ हुआ, जिसकी अथ्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की थी। प्ांत , निराला , दिनकर और नवीन जैसे प्रतिष्ठित रचनाकारों ने इसमें अपना सक्रिय योगदान दिया।

पंत जी ने अपनी पत्रिका 'रूपाभ' के संपादकीय में लिखा था— इस युग की वास्तविकता ने जैसे उग्र रूप धारण कर लिया है।

प्रगतिवादी–जीवन आदर्शों से प्रेरित कवियों में प्रमुख थे— नरेन्द्र शर्मा, शिवमंगल सिंह सुमन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव और त्रिलोचन। सन 40–42 के आस–पास प्रगतिवाद से सम्बध युवा कवियों में प्रमुख थे— शमशेर बहादुर सिंह, नेमीचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, गजानन माधव और मुक्तिबोध ।

प्रगतिवाद के फलस्वरूप हिन्दी कविता में पहली बार शोषित वर्ग को भारी समर्थन प्राप्त हुआ। उसके करुण गान को सार्थक अभिव्यक्ति मिली। इस संसार में केवल दो ही जातियाँ हैं— शोषित और शोषक।जब तक पूंजीवादी व्यवस्था बनी रहेगी, इस शोषण का अंत असंभव है, प्रगतिवादी इस जघन्य व्यवस्था को ख़त्म कर डालने के पक्ष में था— हो यह समाज चिथड़–चिथड़े शोषण पर जिसकी नींव गड़ी

ऐसी व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश भरे स्वर में कभी रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा था—

श्वानों को मिलता वस्त्र दूध भूखे बालक अकुलाते हैं। माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं। युवति की लज्जा–वसन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं। मलिक तब तेल फुलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं।

उस समय के कवियों को क्रान्ति का बुखार चढ़ा तो इस कदर कि अपनी जनता और वास्तविकता को भूलते हुए वे सब कुछ कविता के माध्यम से ही कर लेना चाहते थे। यह एक गलत किस्म की अपेक्षा थी, इससे न केवल प्रगतिवादी विचारधारा का ही अहित हुआ बल्कि कवियों की अनुभूति एवं उनके कधन की प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लग गये। विद्रोह का स्वर अलापने वाला यह काव्य बहुत ही कम अरसे में ही रूढ़िग्रस्तता और और हृासोन्मुखी प्रक्रिया का शिकार बन गया।

प्रगतिवादी काव्यधारा में सामाजिकता के अतिरिक्त आग्रह के कारण उसमें जीवन की स्थूल समस्याओं का ऊपरी और सरलीकृत विवेचन प्रमुख हो गया। फलतÁ इस काव्य में अनुभूति की गहराई और संवेदनशीलता के गुण न आ सके।

सन 1943 में अज्ञेय द्वारा संपादित ' तार सप्तक ' के साथ ही प्रगतिवादी विचारधारा का अवसान प्रारंभ हो गया। आज़ादी अब भी एक विलक्षण रूप में आकर्षण का विषय थी और द्वितीय विश्व–युद्ध की समाप्ति तक लोग काफी आश्वस्त हो गये थे। यानि राजनैतिक स्तर पर तमाम कवियों की तकलीफ एक सी थी, लेकिन आज़ादी मिलने के कुछ अरसे बाद ही राजनैतिक स्तर पर कवियों के तेवर बदल गये। बहुत हद तक यह सही है कि हिन्दुस्तान की जनता को अंग्रेजी हुकूमत के समाप्त होने से लेकर आज तक आज़ादी का सही बोध नहीं हो पाया है। दरअसल हुकूमत बदली नहीं बल्कि हस्तान्तरित हो गई, सारी संरचना सारे कायदे कानून और व्यवस्था का बरताव वही रहा। आज़ादी के बाद की नई काव्यधारा के अनेक कवियों को आज़ादी की प्राप्ति को लेकर मोह–भंग हुआ। सन 1953 में गजानन मुक्तिबोध को इस मोह–भंग का गहरा अहसोस हुआ, जिसका ऐतहासिक दस्तावेज़ है उनकी कविता 'चाँद का मुँह टेढ़ा है'।

मुक्तिबोध ' तार सप्तक ' के पहले कवि हैं, अन्य कवि हैं नेमीचन्द्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, प्रभाकर माचवे, गिरिजाकुमार माथुर, रामविलास शर्मा तथा अज्ञेय। संकलनकर्ता एवं संपादक अज्ञेय ने तार सप्तक की भूमिका में ही इन कवियों के सम्बंध में उल्लेख कर दिया कि वे किसी एक स्कूल के नहीं हैं , किसी मंज़िल पर पहुँचे हुए नहीं हैं, अभी राही हैं – राही नहीं राहों के अन्वेषी। अज्ञेय के सप्तक के कवियों के लिये एक आवश्यक शर्त यह रखी थी कि उनमें प्रयोग की प्रवृत्ति मुखर होनी चाहिये और उनके इसी आग्रह के कारण तार सप्तक के कवियों को प्रयोगवादी कहा गया, जबकि अज्ञेय ने सप्तकों की भूमिका में इस नाम का विरोध भी किया है। ' तार सप्तक ' के राहों के अन्वेषी अन्वेषी या प्रयोगधर्मी रह पाए या नहीं, यह एक अलग अध्ययन का विषय हो सकता है, लेकिन दूसरे सप्तक में ये जुमला बदलकर ' आत्मान्वेषी ' हो गया। प्रयोग की शर्त वहाँ भी यथावत रही, लेकिन ये ' आत्मान्वेषी ' आत्मा की खोज में कुछ इस कदर लीन हो गए कि कविता उनकी एकान्तिक साधना का शगल बनकर रह गई।अज्ञेय स्वयं भी ऐसे अमूर्त और आध्यात्मिक चितंन में लीन से हो गए। उनकी दो शब्दों के बीच नीरवता में कविता वाली बात समझ तो आती है, लेकिन जब वे दोनों शब्द ही नीरवता की दहशत से न उबर पाये तो उनके बीच से कविता तलाशना बड़ा पेचीदा काम हो जाता है। प्रगति और प्रयोग पर जारी इस बहस के चलते सन 60 के आसपास हिन्दी काव्यधारा फिर एकबार गतिरोध और संक्रमण का शिकार हुई। एक तरफ प्रगतिवादी कविता की अति यथार्र्थवादिता और बौद्धिकता का अतिरेक कवि कर्म के लिए चुनौती बना हुआ था तो दूसरी ओर धर्मवीर भारती और अज्ञेय जैसे कवियों की अतिशय आध्यात्मिकता और सौन्दर्यवादी दृष्टिकोण कविता को प्रासंगिकता से दूर घसीट रहा था। इस विकट स्थिति में काफी उठा–पटक का दौर– दौरा चला। एक दौर वह भी आया कि जिसमें अनेक युवा कवि अपने को कवि नहीं बल्कि अकवि कहलाना पसंद करने लगे– गंगा प्रसाद विमल, श्याम परमार, जगदीश चतुर्वेदी, राजकमल चौधरी, मुद्राराक्षस आदि ऐसे ही कुछ कवि थे जिनकी कविता 'अकविता संप्रदाय' में शुमार की जाती थी। अकविता के सतहीपन और तथाकथित आधुनिकता के कारण अशोक बाजपेयी ने उसे एक नई रूमानियत कह कर सम्बोधित किया था।

डॉ .जगदीश गुप्त और लक्ष्मीकान्त वर्मा ने इस दौर की कविता को व्यापक अर्थ में ' नई कविता' नाम से अभिहीत किया है। इस रूप में नई कविता न तो कोई नामकरण है और न ही कोई वर्गीकरण है। इस दौर में कुछ ही कवि ऐसे रहे हैं जो अतिशय सामाजिकता और विशुद्ध सौन्दर्यवादिता के बीच संतुलन कायम रखते हुए कविता को सार्थक एवं प्रासंगिक बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सके। स्व .गजानन मुक्तिबोध का स्थान ऐसे कवियों में उल्लेखनीय है।

आज की हिन्दी कविता रूमानियत के उन सभी आवरणों को हटाकर अपनी अन्र्तवस्तु, बुनावट और बरताव में बहुत सहज और मन को छू लेने वाली संवेदना के ठोस धरातल पर आ खड़ी हुई है। कुछ नए कवियों में अब भी मुद्राओं, मुहावरों और अपनी काव्य–भाषा को गढ़ने–तराशने या कुछ विशिष्ट दिखने का अतिरिक्त आग्रह ज़रूर दिखाई देता है लेकिन कविता के समग्र विकास के सामने ऐसी प्रवृत्तियाँ गौण हो गई हैं। कविता को लेकर चल रही अब तक की बहस और मशक्कत का ही यह परिणाम है कि छायावाद नई कविता के दौर की रूमानियत के प्रति आज कवि या पाठक के मन में कोई आकर्षण नहीं रह गया है।