हिन्दी कहानी के नए आयाम / स्मृति शुक्ला
मानव जीवन और संवेदनाओं के साथ सदैव रहने वाली कहानी मनुष्य के साथ ही जन्मी है और जब मानवीय सभ्यता है तब तक कहानी भी अस्तित्व में हैं। एक विधा के रूप में कहानी का जन्म आधुनिक काल में हुआ। किस्सागोई की परंपरा से प्रारंभ होकर कहानी, माधवराव सप्रे, गुलेरी, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, जैनेन्द्र, यशपाल और अज्ञेय की लेखनी से संस्कारित होकर स्वतंत्रता के बाद नई कहानी, अकहानी, सचतेन कहानी, समांतर कहानी, सक्रिय कहानी और जनवादी कहानी आदि विविध आंदोलनों के रूप में कहानी ने बहु आयामी यात्रा तय की है। इसी बीच कहानी की मृत्यु की भी घोषणा हुई. 1978 में निर्मल वर्मा ने कहानी के अंत की घोषणा करते हुए कहा था कि अब हमें कहानी की मृत्यु की चर्चा करनी चाहिए.
घोषित रूप से मृत विधा कहानी आज बहुत फल-फूल रही है। बीसवीं सदी के अंतिम दशक एवं इक्कीसवी सदी के इन पन्द्रह वर्षों में हिन्दी कहानी में अनेक परिवर्तन आए और नए आयाम विकसित हुए. आज कहानी अपने बहुआयामी संदर्भों के कारण केवल मनोरंजन करने वाली विधा नहीं रह गयी; अपितु यह गंभीर बौद्धिक विमर्श की विधा बन गयी है। आज कहानी अपनी रोचकता के बावजूद समय के गंभीर प्रश्नों से जूझ रही है।
पिछले बीस-पच्चीस वर्षों के कालखंड में प्रकाशित कहानियों की बात करें, तो हम पाते हैं कि भूमंडलीकरण के फलस्वरूप समाज में आये प्रत्येक छोडे़-बड़े परिवर्तनों और समस्याओं पर कहानीकारों की नजर है। वैश्वीकरण, उदारीकरण, इलेक्ट्रानिक मीडिया, सूचना प्रौद्योगिकी, परिवर्तित जीवन मूल्य, शिक्षा का व्यावसायीकरण, युवाजीवन एवं युवा पीढ़ी पर बढ़ते दबाव, प्रेम का बदलता स्वरूप, तकनीक का बढ़ता प्रभाव, सैनिकों का जीवन, बुज़ुर्गों की समस्याएँ, बच्चों की समस्याएँ, नि:शक्तजनों की समस्याओं, कॉरपोरेट जीवन, वैश्विक मंदी, स्त्री और दलित जीवन, प्रवासी भारतीयों की समस्याएँ, गाँव, ' शहर और किसान सभी वर्तमान कहानी के विषय हैं। इस प्रकार हम देखें तो हम पाते हैं कि आज की कहानियों का कथ्य बहुआयामी है। आज हिन्दी कहानी किसी वाद या किसी फार्मूले की गिरफ़्त में नहीं है। उसकी चिंता के केन्द्र में संपूर्ण मनुष्य और उसकी आभ्यन्तर एवं बाह्य समस्याएँ हैं। न आज कहानीकारों की एक वरिष्ठ पीढ़ी लेखन में सक्रिय है वहीं दूसरी ओर युवा पीढ़ी भी लिख रही है। वरिष्ठ कथाकारों में दूधनाथ सिंह, हृदयेश, रमेशचन्द्र शाह, मधुरेश, रमेश दवे, संजीव, शिवमूर्ति, उदय, प्रकाश, अखिलेश, सृंजय, संजय खाती, बलराम, धीरेन्द्र अस्थाना, गोविंद मिश्र, पंकज विष्ट, सुभाष पंत, पुन्नी सिंह, प्रियंवद आदि हैं तो दूसरी ओर चंदन पांडेय, पंकज मित्र, संजय कुंदन, कृणाल सिंह, पंकज सुबीर, प्रभात रंजन, मनोज कुमार पांडेय, राकेश मिश्र, मनोज रूपड़ा, राजीव कुमार, दीपक श्रीवास्तव, अनिल यादव, 'शशिभूषण द्विवेदी आदि युवा कहानीकारों ने समय की नब्ज को टटोलकर बहुत ही यथार्थपरक कहानियाँ लिखी हैं। हाँ इन कहानीकारों के लिखने का अंदाज अलग-अलग है सबकी' शैली अलग हैं। पिछले बीस वर्षों में लिखी गई कहानियों में उपभोक्तावाद एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा बनकर सामने आया है।
उपभोक्तावाद की सच्चाइयों को कथाकार संजीव ने अपनी अनेक कहानियों में उजागर किया है। जिनमें ब्लैक होल, काऊंट डाऊन, प्रमुख है। उपभोक्ता संस्कृति बहुत कुछ चार्वाक् के दर्शन से मिलती जुलती है। जीवन क्षणभंगुर है और उपभोक्तावाद हमें यह सीख देता है कि हम इस क्षणभंगुर जीवन के प्रत्येक का उपभोग करें। आज प्रत्येक क्षण नई रुचियाँ गढ़ी जा रही हैं, नये-नये आस्वाद और नयी ज़रूरतें गढ़ी जा रही है। उपभोक्तावाद के सर्वग्रासी प्रवाह में संस्कृति तक एक उत्पाद बन गई है। कहानीकार उदयप्रकाश की कहानियों में उपभोक्तावाद के दुष्परिणामों को फेन्टेसी 'शैली में बड़े प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया गया है, उनकी' पॉलगोमरा का स्कूटर तिरिछ 'एवं' मैंगोसिल'जैसी कहानियों में भारत के गरीब वर्ग एवं उपभोक्तावाद के कुचक्रों का प्रभावी चित्रण हैं। शिल्पी की कहानी' क्वालिटी लाइफ' आज के मध्यवर्ग किशोरों के जीवन संघर्ष और उनकी मानसिकता को बड़ी गहराई से व्यंजित करने वाली कहानी है। इस कहानी की प्रमुख पात्र है-तेरह वर्ष की लड़की आकांक्षा, जो असीम संभावनाओं से भरी है। लेकिन वह आज के उपभोक्तावादी कुचर्कों से भी बच नहीं पाती।
अनिल यादव की कहानी आर.जे.साहब का रेडियो कॉरपोरेट जगत् किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक्जीक्यूटिव रजनजोत सांभरिया की कहानी है। आर.जे.साहब आज के भौतिकतावादी युग में उन सफल व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिन्हें अपनी फर्म, शेयर, क्लब और दुनिया जहान की जानकारी तो है लेकिन वे स्वयं अपने को भूल चुके हैं। कहानीकार लिखते हैं कि जिन दिनों वे इच्छाशक्ति बटोरकर ढाई पेग विह्स्की छोड़कर सेहत बनाने का जनत करते उन्हें अनिन्द्रा घेर लेती। ए.सी. कमरे में सफेद चादर उपर बैठे इन्सोमेनिया की हालत में वे लैंपशेड, परदे, टेलीफोन, सोफा, परफ्यूम की' शीशियाँ, फूलदानों, कलाकृतियों, सजावटी स्टैंडों और अपने प्रिय कुत्ते की परछाइयों को घूरते हुए मद्विम रोशनी में बैठे रहते। " आर.जे.साहब के पास सभी आधुनिक संसाधन थे, कमी थी तो सिर्फ़ चैन की नींच की। ऐसे में उनके साथ अजीब घटना घटती है कि जब कभी वे दूर बजते रेडियों को सुनते हैं, तो उनका बचपन, उनका अतीत जीवंत होकर रूप, रस, गंध और स्पर्श के साथ उनके सामने उपस्थित हो जाता है और उनका बेचैन मन कुछ क्षण के लिए विश्रांति पा लेता है। आर.जे.साहब का रेडियों बहुअर्थों वाली कहानी है। इस कहानी में भारत देश के अमीरों के स्वर्ग हैं तो गरीबों के नरक भी है। ऐसे लोग हैं जो नाले कि किनारे घोर गरीबी में पॉलीथिन के ढेरों के बीच ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं जिनके लिए दो-पॉच रुपये बहुत मायने रखते हैं, जिनके घर में खाने के लिये कुछ नहीं है तो चूहे मारकर खा रहे हैं।
शिल्पी की 'क्वालिटी लाइफ' एक सशक्त कहानी है। उपभोक्तावाद में फँसे युवा नायक संकेत की त्रासदी को अभिव्यक्त करने वाली महत्त्वपूर्ण कहानी राजीव कुमार की 'कॉकरोच' है। अखिलेश की 'शापग्रस्त' , संजीव की 'काउंट-डाउन' , 'ब्लेक होल' , जैसी कहानियाँ गहरे अंतर्विरोध की कहानियाँ है। इनमें एक ओर उपभोक्तावादी लक्ष्यों के पीछे भागते जीवन में निरर्थकता का बोध है जो दूसरी ओर सार्थकता की तलाश और सही रास्ते पर न चल पाने की मजबूरी है।
पूरे विश्व में आई आर्थिक मंदी और उसके दुष्परिणामों पर कहानीकारों ने कई कहानियाँ लिखी है। विनोद दास की 'हत्यारी हँसी' इस विषय पर लिखी गयी बड़ी मार्मिक कहानी है। कथानायक कुणाल जो प्रेस में काम करता था प्रेस के बंद हो जाने और उसके मालिक घोषबाबू के अंडरग्राउंड हो जाने के बाद बेरोजगार हो गया है। बेरोजगारी ने उसके जीवन की दिशा ही बदल दी है। पत्नी शिखा के साथ मिलकर देखे गए सपने की बलि उसे देना पड़ती है और अंततः अपने होने वाले बच्चे को जन्म से पूर्व ही समाप्त कर देना होता है। कहानीकार अंत में पाठक के सामने प्रश्न छोड़ जाता है कि इस बच्चे का हत्यारा कौन है।
आज से लगभग बीस साल पहले धीरेन्द्र अस्थाना की एक कहानी आई थी 'नींद से बाहर'। यह कहानी धीरेन्द्र अस्थाना के निजी अनुभव से उपजी थी। कहानी की थीम आर्थिक मंदी भी है। कथानायक मीडिया डायरेक्टर धनराज चौधुरी को 'सम्राट-समूह' में आई मंदी के कारण घर बैठना पड़ता है और तब उसे पता लगता है कि अब तक का पैसा यश, प्रतिष्ठा जेसे एक स्वप्न की भाँति था वह अब तक नींद की खुमारी में था और अब 'नींद से बाहर' है।
कहानी में युवा पीढ़ी का सार्थक हस्तक्षेप है। सूचना प्रौद्योगिकी से लैस इस युग में सूचनाओं के आधिक्य और सत्ता द्वारा प्रायोजित तथा मीडिया द्वारा प्रसारित सूचनाओं ने मनुष्य की अखंड चेतना की लय को झकझोर कर रख दिया है। एक नए प्रकार ज्ञान, आयाम, नए विचार आम आदमी पर थोपे जा रहे हैं। आज आम आदमी एक अरूप भीड़ में परिवर्तित होता जा रहा है। आज ऐसा बोध युवाओं के सम्मुख परोसा जा रहा है, जो न नितांत वास्तविक है और न कोरा छद्म। ऐसे समय में युवा दिग्भ्रमित है मूल्यों को लेकर, कॅरियर को लेकर अपनी बुजुर्ग पीढ़ी को लेकर; लेकिन युवा लेखनी ऐसी सशक्त कहानियाँ लेकर साहित्य जगत् में आई है, जो भूमंडलीकरण के चमकीले आवरण को हटाकर सामाजिक विद्रूपताओं को उजागर करती है। राजेश जैन की 'क्यू में खड़ी उदासी' वंदना राग की 'क्रिसमस कैरोल' एवं 'शर्मिला बोहरा जालान की' कॉर्न सूप' आदि कहानियॉ भी उपभोक्तावाद के जाल में फँसे हुए मध्य वर्ग की दुविधा को अभिव्यक्त करती हैं।
इस समय गॉव भी कहानियों के विषय बने हैं। गौरीनाथ की 'नाच से बाहर' एवं 'पैमाइस' , जयनंदन की 'पगडंडी की आहटें' एवं लोकतंत्र की पैकिंग आज के गॉवों की समस्याओं एवं गॉव की यथार्थ रूप का चित्रण करने वाली सशक्त कहानियॉ हैं।
जयनंदन की कहानी 'लोकतंत्र' की पैकिंग (नया ज्ञानोदय, अगस्त 2014) आज के उपभोक्तावादी समय के अनेक संदर्भों को खोलने वाली महत्त्वपूर्ण कहानी है। गॉव में गरीबी और गुरबत झेलने वाला मुदितचन्द्र 'शहर में आकर नौकरी करने लगा है। नौकरी करते-करते उसे सैंतीस वर्ष हो गए हैं। तनख्वाह चालीस हजार के करीब पहुँच गई है। उसने' शहर के कोने में एक घर बना लिया है। पारिवारिक जिम्मेदारियाँ पूरी हो गई हैं। उसकी अपनी कोई विशेष ख्वाहिशें नहीं है। वह अपनी बची हुई कमाई का कुछ हिस्सा गाँव भेजता है, जो उसकी पत्नी को पसंद नहीं है। उपभोक्तावादी सोच की पत्नी और दोनों बच्चे अपने पिता पर कार बदलने के लिए दबाव डालते हैं। इस कहानी में जयनंदन ने बड़ी कुशलता से अमीरी के स्वर्ग और गरीबी के नरक के चित्र खींचे हैं। पूँजीपतियों द्वारा अपनी विलासिता पर किए गए खर्च को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है।
आप दुनिया को बहुत कम जानते हैं पापा आप दुनिया को अपने चश्मे से देखते हैं। आप एक टी.वी. खरीदेगे और उसे तब तक चलाएँंगे जब तक वह खराब न हो जाए और यही ' शर्त आपकी हर भौतिक सामान के साथ है; लेकिन अमीर पचास-साठ लाख में एक कार खरीदेंगे और तीसरे साल में उसे बदल देंगे। एक लाख में टी.वी. खरीदेगे और दूसरे साल में उसे बदल देंगे। उनके घर में हर आधुनिक गेजेट् होगा उनके घर ताजमहल की आभा को पीछे छोड़ देंगे। वे पचास हजार के जूते और ढाई लाख की घड़ियाँ पहनेंगे। आप एक बाल्टी पानी से नहा लेते हैं और वे बाथ टब में पचासों बाल्टी पानी से तैरते हुए नहाएँंगे । कथानायक चिढ़ जाता है कि "क्या यही लोकतंत्र है कोई राजा और कोई रंक।" बेटा समझाता है कि कैसा लोकतंत्र, कहाँ है लोकतंत्र? आप फिर समझने में भूल कर रहे हैं, जिसे आप लोकतंत्र कह रहे हैं, वह लोकतंत्र की पैकिंग में राजतंत्र ही है।
परदेशीराम वर्मा की कहानी " पीढ़ियाँ' गाँव के पारिवारिक झगड़ों की कथा है, जहाँ युवा नायक अपने ही काका पर लाठी से वार करता है। लेकिन काका के प्यार स्नेह से कथानायक का हृृदय परिवर्तित होता है। यह कहानी प्रेमचंद की परंपरा की कहानी है।
ज्ञानरंजन की पिता के बाद धीरेन्द्र अस्थाना की पिता और देवी प्रसाद मिश्र की कहानी ' अन्य कहानियाँ और हेलमेट भी पिता पर केन्द्रित हैं।
कथाकार गोविंद मिश्र की कहानियों का मूल विषय है वृद्धावस्था। कचकौंध, संध्यानाद, निरस्त और 'मुक्ति' आदि कहानियों के केन्द्र में हैं वृद्ध। वृद्ध जीवन से जुड़ी अनेक समस्याएँ इन कहानियों में दर्ज है। इकलौते बेटे को विदेश भेजकर अकेलेपन से जूझते माता-पिता। बेटा पिता के अंतिम संस्कार में भी नहीं आना चाहता। माँ के टिकिट भेजने पर आता है तो जैसे तैसे क्रियाकर्म निपटाकर अपने से बारह वर्ष बड़ी मंगेतर के पास लौट जाने को व्याकुल है। वह माँ से इस विवाह की स्वीकृति लेने की ज़रूरत नहीं समझता। चित्रा मुदगल की 'गेंद' कहानी में बुजुर्ग और बच्चों की समस्याओं को एक साथ उठाया गया है।
हरियश राय की 'वृंदावन' वृंदावन में रहने वाली बुजुर्ग विधवा स्त्रियों के जीवन के कारुणिक पक्ष पर लिखी सशक्त कहानी है। जया जादवानी स्त्री मन की परतों का विश्लेषण करने वाली तथा स्त्री समस्याओं को केन्द्र में रखकर लिखने वाली जया जादवानी ने एक बुजुर्ग स्त्री को केन्द्र में रखकर बिल्कुल अछूते विषय पर कहानी लिखी, जिसका 'शीर्षक है' कोई नहीं दूसरा' इस कहानी की बुजुर्ग नायिका अपने परिवार के विरोध के बाद भी एक ध्यान शिविर में जाती है। लेकिन वहाँ के नीरस और उबाऊ वातावरण से घबराकर दूसरे ही दिन घर वापस आकर अपने झूले में सोए हुए पोते को प्यार करने लगती है। दरमसल यह कहानी संदेश देती है कि मनुष्य एकदम से गृहस्थ्य आश्रम छोड़कर दुनिया से नाता नहीं तोड़ सकता। ध्यान केन्द्रों में जाकर ध्यान लगाना उतना आसान भी नहीं है, इस सच को इस कहानी में उकेरा गया है।' छावनी में बेघर'कहानी से चर्चित होने वाली सशक्त कहानीकार अल्पना मिश्र की' ए अहिल्या 'तथा' नीड़' स्त्री की समस्याओं को बड़ी गहराई से उठाने वाली कहानियाँ हैं।
दीपक श्रीवास्तव की कहानी 'सत्ताइस साल की सॉवली लड़की' चर्चित कहानी है। इस कहानी की पात्र सत्ताइस साल की लड़की विवाह हेतु बार-बार लड़के वालों के सामने नुमाइश की तरह प्रस्तुत की जाती है और हर बार साँवले रंग के कारण रिजेक्ट कर दी जाती है। उसके साथ पढ़ने वाला उसका दोस्त भी उसे छोड़कर चला जाता है। इन घटनाओं से लड़की टूट जाती है; लेकिन एक दिन अचानक उसे एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी लगने से उसका आत्मविश्वास पुनः वापस आ जाता है।
इस कालखंड में प्रेम का बदलता स्वरूप एवं प्रेम में धोखा खाने वाली लड़कियॉ भी कहानीकारों का प्रिय विषय रही हैं। प्रभात रंजन की कहानी 'मिस लिली' कस्बों में रहने वाली निम्न मध्यवर्ग की लड़की की कहानी है। मिस लिली सीतागढ़ी की उभरती हुई गायिका है। यही के एक युवक अरुण चैधरी उसके कैरियर के ग्राफ को ऊँचा उठाने में मदद करने के साथ उसे अपने प्रेमजाल में फँसा लेता है और बाद में मिस लिली को नेपाल जाकर बेच देता है। चूँकि अरुण चैधरी नेता है, बड़े-बड़े अधिकारियों से उसके सम्बंध है; इसलिए कोई उसका बाल बाँका भी नहीं कर पाता। अखिलेश के कहानी संग्रह 'अँधेरा' में एक कहानी है 'यक्षगान' यह कहानी एक भोली लड़की सरोज की कहानी है जो प्रेम के चक्कर में पड़कर अपने रक्षक यानी अपने प्रेमी के बाद राजनेता, धर्मगुरु और उनके चेले, पुलिस तथा पत्रकार के 'शोषण का शिकार होती है। बाद में एक महत्त्वाकांक्षी स्त्री मीरा भी उसे अपने राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करती है। इस दौर में अनेक कहानियाँ विज्ञापन और फ़िल्म जगत् में काम कर रही महिलाओं पर भी लिखी है।' शशिभूषण द्विवेदी की 'अभिशप्त' भी लगभग इसी थीम पर लिखी गई प्रभावशाली कहानी है। 'शशिभूषण द्विवेदी की' ब्रह्महत्या',' एक बूढ़े की मौत विप्लव',' काला गुलाब 'और' खिड़की'जैसी कहानियाँ बहुत चुपके से जीवन और यथार्थ की रंग बिरंगी छवियों को अभिव्यक्त करती हैं। संजीव की कहानी' दुनिया के सबसे हसीन औरत' सब्जी बेचने वाली स्त्री के प्रतिरोध की कहानी है।
शिवमूर्ति की 'सिरी उपमा जोग' , 'तिरिया चरित्तर' आदि कहानियों के केन्द्र में ग्रामीण स्त्रियाँ और उनके 'शोषण की दास्तान है। दूधनाथ सिंह की कहानी' धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे'में भी नारी-' शोषण है। यह कहानी बताती है कि कैसे आज का मनुष्य व्यावसायिक हो गया है। इस व्यावसायिकता में वह सारे मूल्यों को छोड़कर अपनी बहू-बेटियों का भी सौदा करने लगा है। रमेश दवे की कहानी 'स्त्री से स्त्री तक' स्त्री के स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाली एक सशक्त कहानी है। इसे हम वैचारिक कहानी कह सकते हैं। कहानी के अंत में कहानीकार कहते हैं-'हम स्त्री के अंदर स्त्री की बात कर रहे थे माना कि' स्त्री का नाम जुल्म सहना है; लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है। स्त्री एक देह है, यह भी पूरा सच नहीं है, स्त्री का एक अर्थ माँ, बहन, बेटी है; लेकिन यह भी पूरा सच नहीं है क्योंकि उसे गुलाम बना दिया जाता है। औरतों को मंडियों में बेच दिया जाता है। पूरा सच कुछ भी नहीं है; मगर यह सच है, स्त्री रहेगी यह भी सच है। " रमेश दवे ने अगरबत्ती बनाने वाले मजदूरों की पीड़ा को अपनी कहानी 'सुगंध के हाथ' में अभिव्यक्त किया है।
गीताश्री की कहानी 'लबरी' किशोर अवस्था के प्रेम, ईर्ष्या आदि भावोें के साथ गाँवों के बदलते रूप को दिखाने वाली कहानियाँ मृदुला सिन्हा की कहानी 'बेमेल तस्वीरे' में बेमेल दाम्पत्य की झलक है।
आजादी के बाद से ही देश में भ्रष्टाचार अपनी जड़ें जमा चुका है। आजादी के 68 वर्षों के बाद भी हम भ्रष्टाचार मुक्त देश की कल्पना को साकार नहीं कर पाये हैं। इस विषय पर मुंशी प्रेमचंद से लेकर आज तक के युवा कथाकारों ने सैकड़ों कहानियाँ लिखी है। वागर्थ सित। 2014 के अंक में राजा खुगसाल की कहानी 'बरगद वन' सरकारी योजनाओं के बनने और कागजों में उनकी सफलता की कहानी है जबकि वास्तविकता कुछ और है। इस कहानी की खास बात यह है कि यह कहानी जहाँ भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और बेईमानी का खुलासा करती है, वहीं पाठक को आश्वस्त भी करती है कि देश में अभी भी अच्छे, कर्मठ और ईमानदार लोग हैं।
युवा कहानीकारों में कृणाल सिंह की 'सनातन बाबू का दाम्पत्य' कहानीकार ने सनातन बाबू का जो चरित्र गढ़ा है, वह चरित्र समाज में हमें अनेक रूपों में मिल जाएगा। सनातन बाबू अकेले हैं विवाह नहीं किया है। सारे गाँव में उनकी सज्जनता के, उनके चरित्र के चर्चे हैं। स्त्रियाँ उन्हें इज्जत की दृष्टि से देखती हैं। बच्चे दौड़कर उनका काम कर देते हैं। हारी बीमारी में पूरा गाँव उनके साथ है। सनातन बाबू का यह ऊपरी रूप है। उनके भीतर अनेक कुंठाएँ है। वे इन कुण्ठाओं की पूर्ति करना चाहते हैं; लेकिन समाज से छुपकर। कहानी का कथ्य एक व्यक्ति के अवचेन की परते खोलता है और पाठक के सामने इस सच को रखता है कि जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं है। युवा कहानीकारों में चंदन पांडेय, की कहानी 'परिंदगी है कि नाकामयाब, प्रभात रंजन की' जानकी पुल', मुहम्मद आरिफ की फूलों का बाड़ा' , मनीषा कुलश्रेष्ठ की 'कठपुतली' अल्पना मिश्र की 'मुक्ति यात्रा' , धर्मांतरण पर लिखी संजीव की कहानी 'नशा जब फटता है' , तथा राजेश जैन की 'ग्रीन देवता' का भी जिक्र करना चाहूँगी कि कैसे स्वार्थ के लिए धर्म को इस्तेमाल किया जाता है।
सूचना-क्रांति ने कैसे ज्ञान के सूचनाओं में बदल दिया, इसका अच्छा उदाहरण है पंकज मित्र की कहानी 'क्विज मास्टर' और प्रत्यक्षा की कहानी 'ईमेल' शीमेल'। ये कहानियाँ आज के तकनीकी युग की विसंगतियों को सामने लाने वाली कहानियाँ हैं।
नई सदी की कहानियों में बच्चे भी हैं। राकेश मिश्र की कहानी 'गाँधी लड़की' पंकज बिष्ट की 'टुंड्रा प्रदेश' और शिल्पी की 'क्वालिटी लाइफ' विभिन्न वर्ग के बच्चों की अलग-अलग समस्याओं पर लिखी सशक्त कहानियाँ है। दलित विमर्श और स्त्री-विमर्श पर अनेक कहानियाँ आई है।
महिला कथाकारों की वरिष्ठ पीढ़ी में चित्रा मुद्गल मन्नू भंडारी, मृदुला गर्ग, कृष्णा सोबती, सुधा अरोड़ा, गीतांजलि श्री, राजी सेठ, ममता कालिया, कमल कुमार, नासिरा ' शर्मा, सूर्यबाला आदि। प्रेम के सूक्ष्म ताने-वाने के साथ समकालीन यथार्थ के बहुरंगी संसार को प्रस्तुत कर रही हैं।
युवा कहानीकारों में मनीषा कुलश्रेष्ठ, जया जादवानी, प्रत्यक्षा, अल्पना मिश्र, पंखुरी सिन्हा, उर्मिला शिरीष, नीरजा माधव, अनीता रश्मि राजुला ' शाह आदि विविध विषयों पर कहानियाँ लिख रही हैं।
ओमप्रकाश बाल्मीकि, सूरजपाल चौहान जयप्रकाश कर्दम, कँवल भारती, श्योराज सिंह बेचैन, अजय नावरिया, आदि दलित साहित्यकारों ने दलित जीवन की त्रासदी और' शोषण की करुण दास्तान अपनी कहानियों में कही है। दलित साहित्यकारों को सदियों की पाखंडी समाज व्यवस्था के प्रति आक्रोश है। वे इस सवर्णवादी समाज व्यवस्था को बदलने के लिये भी आतुर हैं।
पिछले बीस वर्षों में साम्प्रदायिकता और आतंकवाद की समस्याएँ श्री कहानीकारों की कहानियों का विषय रही हैं। चन्द्रकांता की 'काली बर्फ' , पंकज की बिष्ट की 'क्या कहना' , सत्यकेतु की 'कर्फ़्यू अखिलेश की' अँधेरा', मनोज रूपड़ा की' जबह'और अब्दुल विस्मिल्लाह की' अतिथि देवो भव' आदि कहानियों के मूल में जम्मू कश्मीर की समस्या, मुंबई पर आतंकवादी हमले की घटनाएँ रही हैं। कहानीकारों ने सांप्रदायिक मनोवृत्तियों का पुरजोर विरोध किया है।
इक्कीसवी 'शताब्दी में ऐसी अनेक सार्थक कहानियाँ आई है, जिन्होंने पाठक को उद्वेलित किया है, उसकी अन्तरात्मा को झकझोरा है।' दामले'(नया ज्ञानोदय सितम्बर 2006)' शीला इन्द्र की ऐसी ही कहानी है, जिसमें एक प्रायवेट स्कूल में पढ़ाते, दिनरात ट्यूशन करते, प्रबंधन की चालाकियों को झेलते, संयुक्त परिवार का बोझ उठाते और आर्थिक कठिनाइयों को झेलते और इस कमरतोड़ मँहगाई में हाड़तोड़ परिश्रम करते-करते दामले सर दम तोड़ देते हैं। यह कहानी सिर्फ़ अकेले 'दामले सर' की कहानी नहीं है, वरन् देश के लाखों संविदा शिक्षकों के जीवन की त्रासदी को बड़ी गहराई से अंकित करने वाली मार्मिक कहानी है। इन बीस वर्षों में कहानी ने जीवन के, समाज के, मानव के आंतरिक एवं भावजगत् और बाह्य जगत के कोने-कोने की पड़ताल की है। ज्ञानप्रकाश विवेक की कहानी 'यात्रा' और मनीषा कुलश्रेष्ठ की 'बिगलैड़ बच्चे' (वागर्थ, 2006) भी युवा पीढ़ी के मूल्य और मानवीय संवेदनाओं के प्रति आस्था की कहानियाँ है।
आज की कहानियों के कथ्य के बाद हम कहानीकारों के शिल्प पर भी चर्चा करेंगे। आज के कहानीकारों ने अपने हिसाब से भाषा की खोज की है। संजीव और शिवमूर्ति जहाँ देशज 'शब्द बहुल भाषा का प्रयोग करते हैं वहीं अखिलेश, प्रियंवद, पंकज बिष्ट की भाषा में पैनेपन के साथ चित्रात्मकता है। ये कहानीकार संदर्भों, स्थितियों और प्रसंगों को उभारने के लिये जीवन से जुड़ी उपमाओं का प्रयोग करते हैं। मैत्रैयी पुष्पा, मृदुला गर्ग, राजी सेठ और सूर्यबाला अपनी कहानियों में बिम्ब और प्रतीकों का उपयोग अधिक करती है। मनोज रूपड़ा, कुणाल सिंह, आनंद हर्बल, योगेन्द्र आहूजा, नवनीत मिश्र, नीलाक्षी सिंह, अल्पना मिश्र की भाषा में प्रयोगशीलता के साथ एक जागरूक सजगता है। निर्मल वर्मा की कहानी' परिन्दे' नई कहानी की प्रथम कहानी मानी जाती है। आज की कहानियों में भी परिन्दा बार-बार आया है। बिल्ली, तिरिछ, चूहा, छछूंदर, चिड़िया, गिलहरी भी परिन्दे के साथ-साथ है।
युवा कहानीकारों ने साहित्यिक कविताओं का प्रयोग अपनी कहानियों में किया है। ग्रेवियल गार्सिया मारकेज की जादुई यथार्थ वाद और फैण्टेसी ' शैली का प्रयोग भी नए कहानीकार कर रहे हैं। अपनी अनुभूतियों को और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए डॉट डेश और हाइफन के प्रयोग के साथ मुहावरे और लोकोक्तियों का प्रयोग भी नये कहानीकार कर रहे हैं; लेकिन कुछ युवा कहानीकार भाषा के स्वरूप को भी बिगाड़ रहे हैं। भाषा एक गंभीर मसला है; इसलिए कहानीकार में भाषिक सजगता होनी चाहिए.
निष्कर्षतः आज कहानी ने युगीन संवेदना को वहन कर सक्षम विधा के रूप में सम्मान अर्जित किया है। कहानी का प्रयोगधर्मी मिज़ाज शिल्प व कथ्य की जड़ मान्यताओं सरलीकरण के विरुद्ध एक संभावनाशील अन्वेषण के लिए उत्सुक है। आज के कहानीकार वर्तमान के द्वन्द्वात्मक स्पंदन से बहुत कुछ ले रहे हैं। आज के कहानीकार कथ्य और शिल्प को अलग कर नहीं चल रहे हैं। कुछ कहानीकारों की भाषा में खिलंदड़पन और चुहुलबाजी है, तो कुछ की भाषा व्यंग्यात्मक है। विगत बीस वर्षों में लिखी गई कहानियों की पहचान उनकी रचनाधर्मिता से है।
आज कहानी साहित्य जगत के केन्द्र में है। जिसने अपनी लघुता यानी वामन रूप में अखिल ब्रह्मांड को माप लिया है। प्रियम अंकित के ' शब्दों में कहें-"कहानी का उद्देश्य जीवन को खंडित करना नहीं; बल्कि खंड में समग्रता का, लघु में विराट का अहसास कराना है।" जब कहानी इस उद्देश्य में सफल होती है तभी सार्थक भी होती है। -0-