हिन्दी का अण्डबण्डीकरण / अशोक सेकसरिया

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आजादी के बाद से राजभाषा का दरजा दिये जाने और करोड़ों रुपये खर्च किये जाने के साथ-साथ हिन्दी की जिस रफ्तार से चिन्दी हो रही है, वह खौफनाक है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश के इक्कीसवीं सदी में प्रवेश करने तक वह एक अण्ड-बण्ड भाषा बन जाएगी। यह आशंका अतिरंजित जरूर है पर निराधार नहीं है। राजीव गाँधी के शासन काल के पाँच वर्षों में देखते-देखते हिन्दी का जिस तेजी से 'अण्डबण्डीकरण' हुआ है। वह ऐसी आशंका को बल प्रदान करता है। क्या हमें हिन्दी पत्र पत्रिकाएँ और समाचार पढ़ते टेलीविजन पर राजीव गाँधी से 'करा-करी' और रामायण और महाभारत के पात्रों से 'तातश्री- मातश्री' सुनते यह नहीं लगता कि यह कौन सी भाषा है? यह तो अण्ड-बण्ड है।

अण्ड-बण्ड का अर्थ क्या होता है? यही न, जो अच्छी तरह समझ में न आये और जिसमें सम्प्रेषण की आवश्यकता महसूस न की जाए। दरअसल अण्ड-बण्ड को भाषा कहा ही नहीं जा सकता। क्योंकि वह भाषा के सर्वोपरि गुण संप्रेषणियता से रहित होता है। चूंकि हमारे समाज में इस अण्ड-बण्ड का ही बोलबाला है, हमारे नेता, प्राध्यापक, संपादक, हिन्दी अधिकारी यहाँ तक कि हमारे लेखक इसी को बरतते हैं, हम अण्ड-बण्ड को ही भाषा का गुण समझ बैठते हैं और इस तरह हिन्दी की चिन्दी किए जाने में शामिल हो जाते हैं।

बचपन में हम हिन्दी में लेख लिखने के लिए कहे जाने पर बिना समझे-बुझे बड़े-बड़े गुरु गंभीर लगनेवाले अबूझ शब्दों का इस्तेमाल कर प्रसन्न होते थे कि हमने कोई बहुत बड़ा तीर मारा है, अध्यापक को बेवकूफ बनाने में सफल हो जाएंगे, वह हमारे अबूझ शब्दों से आतंकित होकर हमें ज्यादा नम्बर दे देगा। हमें सम्प्रेषणीयता से कोई मतलब नहीं होता था। बचपन में बचपना सोहाता है क्योंकि उसमें आगे सीखने की संभावना रहती है लेकिन बालिग होने पर वह अखरता है और वह हमारे अविकसित रहने को ही प्रकट करता है।हिन्दी की चिन्दी और उसके अंड-बंडी करण को समझना आवश्यक है। व्यापक परिप्रेक्ष में तो यह प्रक्रिया आजादी के बाद देश में अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व और विकास के मौजूदा स्वरूप से सीधी जुड़ी हुई है। अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व और विकास के मौजूदा स्वरूप के बीच अन्योन्याश्रित संबंध है। अगर देश का विकास देश की परिस्थितियों के अनुरूप और बहुसंख्यक जनता के कल्याण के लिए होता तो हिन्दी समेत सारी भारतीय भाषाएँ अर्थवान सारगर्भित और ज्यादा से ज्यादा संप्रेषणीय होने की दिशा में अग्रसर होती। तब कलकत्ता के हिन्दी और बांग्ला स्कूलों मेंअंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने के लिए अलग विभाग की नौबत नहीं आती। हिन्दी स्कूलों के संचालकों को यह बहाना नहीं मिलता कि 'क्या करें'! माता- पिता अपने बच्चों को हिन्दी माध्यम से पढ़ाना ही नहीं चाहते।'

मौजूदा विकास नीति देश के ८० करोड़ लोगों में से ज्यादा १० करोड़ लोगों का विकास करने की नीति है पर ७० करोड़ लोगों के अस्तित्व को कोई भी शासक भले ही वह हिटलर हो या स्टालिन या राजीव- इंदिरा गाँधी नजरअंदाज नहीं कर सकता। राजनीति कितनी भी भ्रष्ट क्यों न हो जाए उसे आदर्शों का मुखौटा पहनना पड़ता ही है। देश में कोई भी सरकार प्रत्यक्ष रूप से अंग्रेजी के प्रभुत्व की हिमायत नहीं कर सकती । उसे हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को प्रोत्साहन देने का नाटक करना ही पड़ता है। हालांकि प्रोत्साहन देने का असल में उद्देश्य हतोत्साहित करना होता है, कि इस तरह प्रोत्साहित करना कि अस्तित्व का आधार ही समाप्त हो जाये।

हिन्दी की भारतीय भाषाओं में विशेष स्थिति है। अन्य भारतीय भाषाएँ अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व और विकास के मौजूदा स्वरूप के चलते क्षीण और दुर्बल होती जा रही है पर उनका अंडबंडीकरण उतना तेजी से नहीं हो रहा है जितना हिन्दी का। हिन्दी की यह विशेष दुर्दशा उसे राजभाषा का दरजा प्रदान करने से उत्पन्न हुई है। वह राजभाषा है पर उसकी सत्ता और प्रतिष्ठा राजभाषा की नहीं है। हिन्दी की भारतीय भाषाओं में विशेष स्थिति है। अन्य भारतीय भाषाएँ अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्व और विकास के मौजूदा स्वरूप के चलते क्षीण और दुर्बल होती जा रही है। पर उनका अंडबण्डीकरण उतना तेजी से नहीं हो रहा जितना हिन्दी का। हिन्दी की यह विशेष दुर्दशा उसे राजभाषा का विशेष दर्जा प्रदान करने से उत्पन्न हुई है। वह राजभाषा है पर उसकी सत्ता और प्रतिष्ठा राजभाषा की नहीं है।अगर होती तो कलकत्ता के मारवाड़ी सेठों के हिन्दी स्कूल अंग्रेजी माध्यम क्यों अपनाने लगते? क्यों हम अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूल में दाखिला दिलवाने के लिए आकाश पाताल एक करते होते? हम आकाश पाताल एक करते हैं तो कहीं यह मानते हैं कि हिन्दी का भविष्य नहीं है।

जब हिन्दी का भविष्य नहीं बनाना है और उसे राजभाषा के पद पर आसीन भी रखना है तो उसका अंडबण्डीकरण करना अनिवार्य है। यह कुछ वैसी ही बात है जैसी कि किसी को हम गहनों और मुकुटों से लादकर राजा या सम्राट बना दें और साथ ही यह चाहे कि वह राज-काज में कोई भूमिका न ग्रहण करे तो हमारी कोशिश स्वभाविक रूप से यही होगी कि वह अलंकारों से विभूषित जरूर रहे पर उसके बोल अंड- बंड माने जायें।

राजभाषा का दरजा प्रदान किये जाने के कारण सरकारी दफ्तरों, न्यायालयों में पार्लियामेंट और विधानमंडलों में अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद करने के विभाग खुल गए हैं। चूंकी असली काम अंग्रेजी में ही होता है सो हिन्दी के विभाग एक निर्थक काम करते होते हैं। अनुवाद के नाम पर खानापूरी करने का काम धड़ल्ले से हो रहा।

चूंकी यह काम छपता है और प्रसारित होता है सो उसका प्रभाव सरकारी दफ्तरों की अपेक्षा कम खानापूरीवाला होता है। पर उसकी प्रकृति में बहुत अंतर नहीं होता है। अनुवाद के चलते हिन्दी एक अजीब काया ग्रहण कर रही है- अगर एक हाथ हिन्दी का है तो दूसरा अंग्रेजी का, नाक अंग्रेजी की है तो होंठ हिन्दी के। यह विभिन्न कारटूनी भाषा अंडबण्डीकरण की प्रक्रिया को तेज करती जाती है। ​ हमारे विश्वविद्यालयों को ज्ञान प्रदान करने से मतलब नहीं है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि प्राध्यापकों और विद्यालयों दोनों को ही ज्ञान और संप्रेषण में रूचि नहीं है। प्राध्यापक अंडबण्ड बकते हैं, और विद्यार्थी समझते हैं कि अंडबण्ड लिखने से ही ज्यादा नम्बर मिलेंगे सो विश्वविद्यालय अंडबण्डीकरण की प्रक्रिया को रोकने के बजाए उसे बढ़ाने में ही मददगार हो रहे हैं।

हिन्दी के नाम पर जो मठ चल रहे हैं उनमें मठाधीशों को वही सब रूचता है जो सरकार और सत्ता को। सो वे दफ्तरी और अनुवादी हिन्दी को आदर्श हिन्दी मानकर दूसरा अनुकरण करते हैं।

कलकत्ता में मारवाड़ी सेठों की जो हिन्दी संस्था है उनके निमंत्रणों , सूचनाओं और उनमें होनेवाले व्याख्याओं में यह देखा गया है कि दफ्तरी हिन्दी किसी भी भाषा में सबसे निकृष्ट भाषा उसकी दफ्तरी शाखा मानी जाती है। आदर्श हिन्दी के रूप में व्यवहार की जाती है। हिन्दी से प्रेम नहीं है होताा तो न अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाते और ना ही स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम शुरू करते । पर प्रेम जताना जरूर है सो हिन्दी को ज्यादा से ज्यादा अलंकृत की जाती है। निष्प्राण अर्थहीन और संदर्भच्युत शब्दों का अंबार लगा दिया जाता है। इस तरह जो हिन्दी बोली लिखी पढ़ी सुनी जाती है वह जीवन और समाज जीवन से दूर और सम्प्रेषण से विमुख होती जाती है। उसमें शब्द जरूर होते हैं पर शब्दों को प्राण और संदर्भ प्रदान करने की क्षमता शून्य होती है। इसी प्रक्रिया को यहां अंडबण्डीकरण कहा गया है।

इस अंडबण्डीकरण की ५-६ धाराएँ हैं । हमें इन्हें पहचानना चाहिए और इन्हें बोलने लिखने और सुनने से उसी स्वभाविक ढंग से बचने की कोशिश करनी चाहिए जिस तरह हम सड़क पर पड़े जू से बचने की कोशिश करते हैं। मोटे तौर पर ये ५-६ धाराएं हैं- अनुवादी हिन्दी, प्राध्यापकीय हिन्दी, अलंकृत हिन्दी, दफ्तरी हिन्दी, अंग्रेजी मिश्रित हिन्दी, करा करी की हिन्दी।

(काँचरापाड़ा से निकलने वाली 'कण' पत्रिका में प्रकाशित)​