हिन्दी की होली तो हो ली / गोपालप्रसाद व्यास

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(इस लेख का मज़मून मैंने होली के ऊपर इसलिए चुना कि 'होली' हिन्दी का नहीं, अंग्रेजी का शब्द है। लेकिन खेद है कि हिंदुस्तानियों ने इसकी पवित्रता को नष्ट करके एकदम गलीज़ कर दिया है। हिन्दी की होली तो हो ली, अब तो समूचे भारत में अंग्रेजी की होली ही हरेक चौराहे पर लहक रही है।)

भारत यानी 'इंडिया' ने आज़ादी 'फ्रीडम' हासिल करने के बाद बेहद तरक्की यानी 'प्रोग्रेस' की है। सुई से लेकर हवाई जहाज तक बनाने की बात में कोई खास वज़न नहीं। सुई का फावड़ा तो हिंदुस्तानी पहले भी कर दिया करते थे। अब देख-देखकर हवाई जहाज बनाने लगे, तो कौन सा तीर मार लिया ! प्रोग्रेस के असली मुद्दे तो कुछ दूसरे हैं। उदाहरण के लिए, नहीं-नहीं फॉर एग्ज़ाम्पल, सन्‌ 47 के बाद इतना बदलाव आया, आई मीन चेंज हुआ कि हिंदुस्तानी, हिंदुस्तानी नहीं रह गया। वह बहुत जल्द अपनी असलियत को पहचान गया। अब पंजाबी है, हरियाणवी है, ब्रजवासी है, बुंदेलखंडी है, भोजपुरी है, बिहारी है, मैथिली है, छत्तीसगढ़ी है, उड़िया है, बंगाली है, असमी है, मलयाली है, कन्नड़ी है, द्रविड़ है, केवल मराठी नहीं, देशस्थ है, कोंकणस्थ है, गुजराती है, महाराष्ट्री की जुबान में सौराष्ट्री है, सिंधी है, कश्मीरी है। कितनी खुशी होती है हिंदुस्तान के इस नए 'गार्डन' में खिले हुए नए-नए फूलों को देखकर। आई मीन-हिन्दी वाले फूल, अंग्रेजी वाले 'फूल' नहीं।

यह तो हिंदुस्तान की विशेषता है (क्या कहते हैं अंग्रेजी में विशेषता को? जो भी कहते हों) कि यहां हर आदमी की, हर इलाके की, हर सूबे की अलग-अलग पहचान है। कोई ब्राह्‌मण है, कोई वैश्य, कोई क्षत्रिय है, कोई हरिजन तो कोई गिरिजन। कोई सूचित है, कोई अनुसूचित, कोई आदिवासी है, कोई वनवासी, कोई सिक्ख है, तो कोई जैन, कोई पारसी है, कोई मुसलमान है और कोई अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी का रिप्रेजेंटेटिव यानी क्रिश्चियन। आज़ादी के बाद इन सबको अपनी-अपनी जाति, प्रदेश, भाषा और संस्कृति को विकसित करने का अचूक अवसर दिया है भारत की होनहार लोकप्रिय सरकारों ने। इतिहास में इनकी देन को 'गोल्डन लैटर्स' यानी स्वर्ण-अक्षरों में लिखा जाएगा। आगे आने वाली पीढ़ियां यों गर्व से सीना फुलाकर यह कहेंगी कि जो काम सम्राट अशोक, हर्ष, चंद्रगुप्त, अकबर, विक्टोरिया और जार्ज नहीं कर सके, वह स्वतंत्र भारत की सरकारों ने केवल 50 वर्षों में करके दिखा दिया। और आप जानते हैं कि इतना बड़ा काम इतने छोटे समय में इतनी आसानी से कैसे होगया। इसका श्रेय यानी 'क्रेडिट' हमारे इंटरनेशनल बनने की सच्ची लगन को है। इसके लिए हमने आमूल-चूल, ओह नो, टाप टू दी बौटम परिवर्तन, आई मीन चेंज करने का बीड़ा उठा लिया। कितनी कड़ी मेहनत करनी पड़ी है, हमारे नेताओं को इसके लिए। अब यही लीजिए कि भारतीयों के अब शादी-विवाह नहीं होते, मैरिज होती है। औरतें गर्भवती नहीं, 'प्रैगनैंट' होती है। उनका जापा नहीं, 'डिलीवरी' होती है। घर में शिशु जन्म नहीं लेता, बाबा या बेबी पैदा होते हैं। बच्चे के पैदा होते ही मां मम्मी हो जाती है और पिता डैडी। बच्चे पाठशाला में नहीं जाते, पेड़-पौधों की तरह नर्सरियों में सींचे-सहेजे जाते हैं। फिर स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी-जहां वे आर्ट्‌स पढ़ते हैं, साइंस सीखते हैं और वह सब भी, जिनका सीखना पुराने घरों, गंदी गलियों और बेतरतीब बसे हुए शहरों में बड़े-बूढ़ों, पुरानी तहज़ीब से चिपटे, कब्र में पैर लटकाए लोगों के बीच मुमकिन नहीं।

इस बदल का असर सोसायटी में किस कदर हुआ है, उसकी बानगी बाजारों, होटलों, क्लबों, रेस्तराओं और कल्चरल शोज़ में बखूबी देखी जा सकती है। तेजी से बदलते हुए हिंदुस्तान की तस्वीर हेयर स्टाइलों और दाढ़ियों के कट-छंट से देखी जा सकती है। दाढ़ी फ्रेंच कट हुई और बुल्गानिन कट भी, अमरीकी कट भी और इंग्लिश कट भी। औरतों के बाल तो अब कमाल की काबिलियत से कटने लगे हैं। पुराने देहातीपन की निशानी धोती हिंदुस्तान से तेजी से भागी जा रही है। अचकन और शेरवानियों को अलविदा कह दिया गया है और टोपी गांधी बाबा के मरने के साथ ही उतार दी गई है। जब गांधीजी खुद टोपी नहीं पहनते थे, तो हम क्यों पहनें? वह दिन दूर नहीं जब ग्रामवासियों में भी ग्राम, किलो, क्विंटल और किलोमीटर की तरह पूरे देश में पैंट और बुश्शर्ट का चलन आम हो जाएगा।

मगर सॉरी, हिंदुस्तानी औरतों ने अभी तक साड़ी का मोह नहीं छोड़ा है। भई पहनें इसे, लेकिन इसका नाम तो इंटरनेशनल कर दें। पेटीकोट, ब्लाउज, रिबन, लिपस्टिक और क्रीम-पाउडर की तरह साड़ी का भी तो अंतर्राष्ट्रीय नामकरण किया जा सकता है। ठीक वैसे, जैसे अंगूठी का रिंग, हार का नेकलेस, कर्णफूल का इयरिंग और बाजूबंद का आर्मलेट कर दिया गया। कपड़ों का, गहनों का पुराने नामों से और इनके पहनने से देहातीपन झलकता है। जब रसोई किचन होगई, खाने की मेज डाइनिंग टेबल होगई, बैठक ड्राइंगरूम होगई, सोने का कमरा बेडरूम होगया, नाश्ता ब्रेकफास्ट, दोपहर का भोजन लंच और रात का डिनर होगया तो बेलन ब्रेड-रोलर क्यों नहीं हो सकता?

हमें अफसोस है कि लोग अंग्रेजी के गुण और गौरव को बिना समझे उसका विरोध करते हैं। क्या आपने कभी अंग्रेजी में किसी को गालियां दी हैं या किसी से खाई हैं? कितना फोर्स होता है उनमें ! ब्लडी, नॉनसेंस, रासकल के वज़न के शब्द हिन्दी में हैं?

किसी कहने वाले ने सच कहा है कि सत्यनारायण की कथा तो हिन्दी में अच्छी लगती है और गालियां देने का मज़ा अंग्रेजी में ही है। उन्हें जो समझा वह भी मरा और न समझा वह भी मरा ! गालियों को छोड़िए, अध्यात्म को लीजिए। डॉ0 राधाकृष्णन ने कितनी बढ़िया अंग्रेजी में भारतीय दर्शन को विवेचित, सॉरी एनालाइज़ किया है। अब आप ही बताइए कि यदि रवीन्द्रनाथ टैगोर गीतांजलि का अनुवाद अंग्रेजी में नहीं करते तो क्या वे विश्व-कवि बनते या नोबेल पुरस्कार पाते? यह तो आपको पता ही नहीं है कि भारत से अंग्रेज हिन्दुस्तानियों की ताकत के बल पर नहीं गए, वे तो श्रीमती सरोजिनी नायडू की बढ़िया अंग्रेजी की तकरीरों से और गांधीजी के ठोस गूढ़ लेखों और अंग्रेजी तर्कों से तथा कांग्रेस वर्किंग कमेटी के लिए तैयार किए नेहरूजी के सारगर्भित अंग्रेजी प्रस्तावों से भागे हैं। इसीलिए तो हमारे अफसर और नेता टूटी-फूटी और ग़लत ही सही, अंग्रेजी बोलते और लिखते नहीं सकुचाते। जब वाल्मीकि मरा-मरा जपकर रामायण लिखने के काबिल होगए तो आज के अंग्रेजीदां लोगों को नाकाबिल कैसे कह सकते हैं? सवाल अंग्रेजी का उतना नहीं है, जितना अंग्रेजियत का है। अंग्रेजियत आदमी को आला इंसान, आला अफसर, ऊंचा डिप्लोमेट और बड़ा व्यापारी बनाती है। हिंदुस्तान के व्यापारी मूर्ख नहीं हैं। वे खुद अंग्रेजी न जान तो इससे क्या हुआ, कूड़ेमल, घसीटाराम आदि सब अपने बच्चों के जन्मदिन पर, मुंडन और कनछेदन पर, विवाह पर अपने मित्रों और सगे-संबंधियों को अंग्रेजी में 'इनवाइट' करते हैं। तभी तो उनका व्यापार छलांगें मार रहा है। हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए उन किशोर-किशोरियों का, उन प्रौढ़-प्रौढ़ाओं का, उन छड़ों-बछड़ों और सांडों का जो घर-बाजार, बस और रेल, शिप और प्लेन, यानी देश और विदेश में परस्पर अंग्रेजी बोलकर दुनिया को यह अहसास दिलाते हैं कि प्रगति की रफ्तार में हम किसी से पीछे नहीं हैं। कुछ सिरफिरे हिन्दी के लोग जो यह दलील दिया करते हैं कि जर्मनी, फ्रांस, इटली, चैकोस्लोवाकिया, पोलेंड, हंगरी और जापान में लोग अंग्रेजी नहीं जानते। अपने इसी अज्ञान के कारण तो ये देश सैकिंड वर्ल्ड वार में हार गए। दक्षिण अफ्रीका के सभी लोग पढ़ गए होते और अंग्रेजियत को स्वीकार, यानी एक्सेप्ट कर लिया होता तो ऐसा खून-खराबा नहीं होता। चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य से बढ़कर देशभक्त, विद्वान और राजनीतिज्ञ कौन हुआ? वे भारत को आने वाली मुसीबतों से बचाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने अंग्रेजी का प्रचार किया। हर्ष की बात है कि राजाजी की बात हम इंडियंस के गले में अच्छी तरह उतर गई, इसलिए आजकल के फादर अपने बच्चों को होनहार बनाने के लिए उन्हें पंखा दिखाकर कहते हैं- बोलो, बोलो-फैन। बिजली की रोशनी दिखाकर कहते हैं- 'लाइट'। बंदर की तस्वीर दिखाकर कहते हैं- बोलो-मंकी। गधे को गधा क्या कहना, कहो-डंकी। ओलम और बारहखड़ी, पहाड़ा और भिन्न भी कोई सीखने की चीजें हैं। उन्हें शुरू से ही वन, टू, थ्री तथा टू टू जा फोर, टू थ्री जा सिक्स सिखाते हैं। बताइए बड़े होकर बाप का और देश का नाम ये ऊंचा करेंगे या वे जिनको शुरू से ही यह सिखा दिया जाता है-ओना मासी धम, बाप पढ़े न हम।

हे प्रभो आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए। अन्न बढ़ता है इरीगेशन यानी सिंचाई से और ज्ञान बढ़ता है अंग्रेजी पढ़ाई से। हिंदुस्तानियों की समझ में जितनी जल्दी यह बात आ जाए, उतना अच्छा है। संस्कृति और संस्कृत क्या बला है, यह हमारी समझ में आज तक नहीं आया। हिंदुस्तान और कब तक पोंगापंथी पंडितों, झाड़-फूंक करने वाले ओझाओं, मीन-मेख निकालने वाले ज्योतिषियों के चक्कर में फंसा रहेगा?

आप ही बताइए कि नक्षत्र शब्द कॉमन है या स्टार? भाग्य के पीछे कब तक भागते रहेंगे, अब 'लक' को आज़माइए। रविवार, सोमवार, मंगलवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्र और शनिवार ज्यादा आमफ़हम हैं या संडे, मंडे...? यह तो अच्छा ही हुआ कि सरकारी मशीनरी में ढाले हुए शब्द रूपी सिक्कों को जनता ने नामंजूर कर दिया, वह टेलीफोन को टेलीफोन ही कहती है, दूरभाष नहीं। टेलीविज़न को टी.वी. कहती है, दूरदर्शन नहीं। सड़क को 'रोड' ही कहती है, मार्ग या पथ नहीं। पुस्तक को 'बुक' ही कहती है, पोथी या किताब नहीं। न्यूज़पेपर को अख़बार नहीं, पेपर कहकर ही खरीदती है। आप ही बताइए कि कलम या लेखनी शब्द एप्रोप्रिएट है या पेन। कलम से तो ऐसा लगता है कि जैसे यह विचारों का सर कलम करने वाली कोई चीज है। और लेखनी तो देखनी भी पसंद नहीं। आज के लेखक को अगर वह फाउंटेन पेन से लिखता है, तो उसे ऐसा अनुभव होता है, जैसे उसके विचार फाउंटेन की तरह ऊंचे-से-ऊंचे उठकर बुलंदियों को छू रहे हैं और उसकी फुहारें नीचे गिर-गिरकर एटमॉसफियर को ही कोल्ड नहीं, बल्कि लेखक को भी कोल्ड बना रही हैं। भारत में तो हम और हमारे पुरखे हजारों वर्ष रह लिए, लेकिन हमारा रंग काला ही रहा। हम काले, हमारे राम-कृष्ण काले, हमारे ऋषि-मुनि और उनके मुखिया ब्लैक द्वीप वाले, आई मीन कृष्ण द्वैपायन, यानी व्यासजी भी काले थे। केवल कश्मीर के लोगों का रंग गोरा है, इसलिए संसार के बड़े-बड़े देश इसे भारत से अलग करना चाहते हैं। पिछले 50 वर्षों में हमने दल-बदल की ही ट्रेनिंग नहीं ली, रंग

बदलने के लिए भी कम एफर्ट्‌स नहीं किए गए हैं। कम-से-कम उत्तर भारत में तो रंग बदलने के लिए नए-नए एक्सपैरीमेंट किए जाते रहे हैं और उनमें भारतीयों को सफलता भी मिली है। लेकिन यह पूर्ण सफल तब हो सकता है, जबकि हम अपने आपको अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी में पूरी तरह मिला लें। केवल लिबास बदलने से काम नहीं चलेगा, इसके लिए हमें खून भी बदलना पड़ेगा ! तभी हम प्राचीनता के मिथ्या गर्व से, पुरातत्व के उजड़े हुए खंडहरों के मोह से और झूठी-सच्ची कहानियों से भरे इतिहास के माया-जाल से मुक्ति पा सकते हैं। अपने को मिटाकर ही हम कुछ एचीव कर सकते हैं। विश्व मानवता के विकास की ज़िम्मेदारी अब केवल हिंदुस्तान पर ही है। वह संस्कृत, हिन्दी, उर्दू, बंगला, मराठी और दक्षिण की भाषाओं के पढ़ने से पूरी नहीं हो सकती। इनको पढ़ने से हम फिर पीछे की ओर लौटेंगे। इसलिए अंग्रेजी को सहभाषा के पद से उठाकर शीघ्र से शीघ्र राष्ट्रभाषा और राजभाषा के पद पर एस्टेब्लिश कर देना चाहिए। भले ही इसके लिए कांस्टीट्यूशन में चेंज करना पड़े। भले ही इसके लिए ज़ोर-ज़बरदस्ती ही करनी पड़े। क्योंकि देश की उत्तर-दक्षिण की समस्या को हल करने का यही रास्ता है। हर्ष की बात है कि हमारे नेताओं ने राष्ट्र की एकता के इस मूलमंत्र को अच्छी तरह समझ लिया है। अब मोशनल नहीं, इमोशनल इंटीग्रेशन चाहिए। इस महान कार्य को केवल अंग्रेजी ही कर सकती है।

आप सोचिए- स्वराज हमें किसने दिलाया है? क्या अंग्रेजी पढ़े-लिखों ने नहीं? गांधी, नेहरू, सुभाषचंद्र बोस यदि विदेशों में जाकर अंग्रेजी न पढ़े होते तो मुल्क को फ्रीडम मिलती? जिस भाषा ने संसार से हमारा इंट्रोडक्शन कराया, जिसके कारण ज्ञान-विज्ञान के हमारे लिए दरवाजे खुले, जिसके कारण हम दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता और मद्रास को लंदन, वाशिंगटन और पेरिस बना सके, उस महान मुंहलगी जुबान को हम छोड़ दें, तो हमारे जैसा कृतघ्न कौन होगा? इस कृतघ्न शब्द को ही ले लीजिए, इसे हिंदुस्तान के कितने लोग समझते हैं? केवल काशी और प्रयाग के मुट्ठीभर लोग या यूनिवर्सिटियों में हिन्दी पढ़ाने वाले कुछ दर्जन हिन्दी के लेक्चरर। ये सब देश को रिप्रजेंट नहीं करते। हिंदुस्तान तो सात लाख से भी अधिक गांवों में बसा हुआ है। किसी ग्रामवासी से कृतघ्न शब्द का अर्थ पूछ लीजिए। वह आपके मुंह की ओर ऐसे देखने लगेगा, जैसे उसे भद्दी गालियां दी जा रही हों। अगर हिंदुस्तान को उठाना है तो उसके गांवों को उठाना होगा। भारत के गांव हिन्दी या देशी भाषाओं के सहारे नहीं उठ सकते। वे तो अंग्रेजी से ही उठेंगे। हमें ग्रामवासियों को भी आरंभिक स्टेज से अंग्रेजी पढ़ानी होगी। संसार के वैज्ञानिकों को यह चुनौती है कि क्या वे प्लेग, टी.बी. और मलेरिया की तरह कोई ऐसा इंजेक्शन नहीं तैयार कर सकते, जिससे बच्चा पैदा होते ही अंग्रेजी बोलने लगे? बिना अंग्रेजी के भारत का कल्याण नहीं, और बिना भारत के कल्याण के दुनिया का कल्याण नहीं। क्योंकि हिंदुस्तान ने दुनिया का ठेका ले लिया है, इसलिए उसे अंग्रेजी चलानी ही पड़ेगी।

हम अंग्रेजों को देश से निकाल सकते हैं, अंग्रेजी को नहीं। क्योंकि दासता, जिसका पवित्रतम अर्थ है 'भक्ति', इसलिए अंग्रेजी को मानसिक दासता न कहकर हम इसे विश्वात्मा की पवित्रतम भक्ति के रूप में अंगीकार करते हैं। लोग भले ही कहें कि हिंदुस्तानियों ने अंग्रेजी को अपनाकर अंग्रेजों की मानसिक दासता अभी तक बरकरार रख छोड़ी है, हम भले और हमारी भक्ति भली।