हिन्दी के मुख्यधारा में आने की संभावनाएँ / संतलाल करुण
1000 ई. के आस-पास जिन आधुनिक भारतीय भाषाओं का उद्भव हुआ, उनमें से सर्वाधिक लचीली होने के कारण हिन्दी ने जो व्यापकता अर्जित की वह भारतीय भाषिक परिप्रेक्ष्य में अनुपम है। जनसंख्या और भू-भाग दोनों दृष्टियों से हिन्दी भारत की सर्वप्रमुख भाषा के रूप में उभरी। साहित्य और लोक-जीवन के क्षेत्र में वह शीर्ष पर समादृत हुई। अपनी असाधारण लोकप्रियता के कारण उसे अनेक समृद्ध भाषाओं के होते हुए लगभग दो-ढाई सौ वर्षों तक चले भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम की प्रमुख वाणी होने का गौरव मिला। स्वतंत्रता के बाद भारत की राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा के रूप में उसे प्रतिष्ठापित किया गया।
किन्तु क्या सैद्धांतिक और संवैधानिक धरातल से ऊपर उठकर हिन्दी वास्तव में भारत की राष्ट्रभाषा और राजभाषा बन सकी ? क्या वास्तव में वह राष्ट्रीय जीवन की मुख्यधारा का प्रतिनिधित्व करती है ? क्या आज की युवा पीढ़ी रोजगारोन्मुख योग्यता के लिए हिन्दी की ओर देखती है ? उत्तर स्पष्ट है –- नहीं, बिल्कुल नहीं। क्योंकि राष्ट्रभाषा हिन्दी के होते हुए हिन्दी-अहिन्दी समस्त भू-भागों में भारत का जन-मानस संविधान में द्वितीय राजभाषा के रूप में उल्लखित अंग्रेज़ी के प्रति व्यावहारिक दृष्टि से अधिक ललक रखता है। हर कोई अपने बच्चों का दाखिला अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूल में कराने को लोलुप रहता है। न केवल अहिन्दी भाषी राज्यों में बल्कि हिन्दी भाषी राज्यों में भी बाबू-स्तरीय काम-काज के ऊपर के समस्त राज-काज, शासन-प्रशासन, शिक्षा, व्यापार आदि के लिए अंग्रेज़ी को ही उपयुक्त माना जाता है। यही कारण है कि आज की भारतीय युवा-प्रतिभा हिन्दी को छोड़ अंग्रेज़ी की ओर भाग रही है। उसकी सामयिकता में रोज़ी-रोटी की प्रबल संभावनाएँ अंग्रेज़ी माध्यम की दक्षता में अधिक दिखाई देती हैं। इन्हीं कारणों से भाषा और लिपि दोनों रूपों में सशक्त होते हुए भी हिन्दी दिनोंदिन भारतीय जीवन और उसके विकास की मुख्यधारा में अंग्रेज़ी की अपेक्षा कमज़ोर पड़ती जा रही है।
फिर भी हिन्दी के मुख्यधारा में आने की संभावनाएँ बराबर बनी हुई हैं। आज़ादी के पूर्व और आज़ादी के बाद हिन्दी के लिए जितने भी प्रयास हुए जैसे कि ‘हिन्दी साहित्य सम्मलेन प्रयाग’, ‘नागरी प्रचारिणी सभा काशी’, ‘केन्द्रीय राजभाषा समिति’, विभिन्न हिन्दी विश्वविद्यालयों आदि के प्रचार-प्रसार-तन्त्र तथा केन्द्र और विभिन्न राज्यों के शिक्षा-परिषदों द्वारा 10 वीं या 12 वीं कक्षा तक हिन्दी को अनिवार्य विषय किए जाने का प्राविधान या फिर भारतीय संविधान के 343 वें अनुच्छेद में हिन्दी को दिए गए राजभाषा के पद आदि से हिन्दी को जो राष्ट्रव्यापी अपनत्व मिला, उसमें सबसे बड़ी बाधा संविधान में अंग्रेज़ी को द्वितीय राजभाषा के रूप में दिए प्रतिद्वंदी स्थान से आ खड़ी हुई। आज़ादी के विगत 66 वर्षों में हिन्दी दिवस-सप्ताह-पखवाड़े के रूप में हिन्दी की अर्चना-वन्दना का राजकीय आयोजन तो किया जाता रहा, किन्तु उच्च वर्ग द्वारा हिन्दी को काम-काज के लिए कब और कहाँ अपनाया गया ? साल-दर-साल अग्रेंजी का ही वर्चस्व बना रहा।
इसलिए इस समस्या का केन्द्रक और हल की कुंजी दोनों भारतीय संविधान में निहित हैं। यदि अंग्रेज़ी को संविधान की 8वीं अनुसूची में संशोधन कर विदेशी भाषा- सूची में डाल दिया जाए और उसे अंतर्राष्ट्रीय सम्पर्क की भाषा घोषित करते हुए राजभाषा के रूप में हिन्दी को निर्द्वंद्व प्रतिष्ठापित कर दिया जाए तो भारत की भाषिक चेतना की स्थिति रातों-रात बदल सकती है। कुछ ही वर्षों में देश से प्रतिभाओं का असीम पलायन संतुलित हो सकता है। विज्ञान, चिकित्सा, कृषि, उद्योग, यातायात आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों में मौलिक रूप में देश की आविष्कारक क्षमता बढ़ सकती है। भारत की विकास-दर विश्व को चौंकाने वाली अभूतपूर्व ऊँचाई नाप सकती है।
जहाँ तक अंतर्राष्ट्रीय संपर्क की बात है तो उसके लिए न केवल अंग्रेज़ी, बल्कि फ्रेंच, जर्मन, रुसी, चीनी, फ़ारसी-जैसी अनेक भाषाओं की आवश्यकता है और हमारे यहाँ अनेक विदेशी भाषाओं की शिक्षा एवं प्रवीणता के लिए विदेशी भाषा-संस्थानों तथा विभिन्न विश्वविद्यालयों में डिग्री-डिप्लोमा-कोर्स की अनेकानेक व्यवस्थाएँ हैं। प्रतिवर्ष अंतर्राष्ट्रीय संपर्ककर्ताओं तथा अनुवादकों की अच्छी खेप तैयार होती है और देश का अंतर्राष्ट्रीय संबंध समृद्द होता है।
अन्यथा 66 वर्षों से न्याय संगत, राजनैतिक इच्छा शक्ति के अभाव में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रति छलावे का वातावरण चला आ रहा है।अब तो उच्च वर्ग बोल-चाल को छोड़ लेखन में हिन्दी-देवनागरी का प्रयोग करता ही नहीं। अब तो आम आदमी भी अपने बच्चे की शिक्षा की लिए अंग्रेज़ी-माध्यम की ही बात करता है। ऊपर से हिन्दी दिवस-सप्ताह-पखवाड़े का आयोजन हिन्दी की रही-सही चेतना को फूल-मालाओं से लादकर फूलकर कुप्पा होने का मात्र क्षणिक आह्लाद देता है और अंग्रेज़ी साल भर की दौड़ में फिर आगे बढ़ जाती है। और भारतेंदु हरिश्चंद्र का यह कथन जिसे न सुनने के लिए देश के नियंताओं ने अपने दोनों कान जबरन बंद कर रखें हैं, हमें बहुत-बहुत याद आता है —
“निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।”