हिन्दी चेतना विशेषांक की कहानियाँ:मेरी दृष्टि / स्मृति शुक्ला
कहानी एक ऐसी विधा है, जिसने अपनी रोचकता, समाज-जीवन के विविध और अंतरंग पक्षों को पूरी मार्मिकता से उकेरने की क्षमता तथा शिल्प के कसे हुए विधान के कारण पाठकों के हृदयों में स्थान बनाया है। कहानी ने लोकप्रिय विधा के रूप में ख्याति अर्जित की है। इस विधा में सृजन करने वाले मुंशी प्रेमचंद वैश्विक स्तर के कथाकार हैं। हिन्दी कहानी- लेखन में महिलाओं का पदापर्ण कहानी के विकास के प्रारंभिक काल में ही हो चुका था; इसलिए स्त्री की रचनात्मकता को किसी कालखंड के घेरे में आबद्ध नहीं किया जा सकता।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने बंगमहिला (राजबाला घोष) की कहानी ‘दुलाईवाली’ को हिन्दी प्रारंभिक मौलिक और भावप्रधान कहानियों में तृतीय क्रम पर रखा है। यह कहानी 1907 में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी। उषा देवी मित्रा ने स्वतंत्रता के पूर्व की कथा लेखिकाओं में एक प्रतिष्ठित नाम है। आँधी के छंद, महावर, नीम चमेली, मेघ मल्हार, रागिनी, सांध्य-पूर्वी और ‘रात की रानी’ आपके प्रमुख कहानी- संग्रह हैं। उषा देवी मित्रा ने स्त्री जीवन की सच्चाइयों को अपनी कहानियों में अभिव्यक्त किया है।
स्वातंत्र्योत्तर कथा- साहित्य में उषा प्रियंवदा, कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी और शिवानी ने अपनी कहानियों में स्त्रियों की पारिवारिक और सामाजिक स्थितियों नारी-शोषण के साथ नारी की दुविधाग्रस्त मनःस्थिति, कुंठा नारी की दिशाहीनता को चित्रित करने के साथ स्त्री की प्रच्छन्न शक्तियों को पहचानकर अपनी कहानियों का वर्ण्य विषय बनाया। सूर्यबाला, मेहरुन्निसा परवेज, नासिरा शर्मा, ममता कालिया, मृदुला गर्ग, मंजुल भगत, चित्रा मुद्गल, मैत्रेयी पुष्पा, मृणाल पांडेय, दीप्ति खंडेलवाल, प्रभा खेतान, सुधा अरोड़ा, राजी सेठ, नमिता सिंह, अलका सरावगी, उर्मिला शिरीष, अल्पना मिश्रा, जया जादवानी आदि अनेक कहानीकारों ने नारी मुक्ति की राह तलाशती स्त्री के संघर्षों उसकी सामाजिक स्थितियों, समस्याओं और उसके अस्मिताबोध को जाग्रत करने वाली अनेक सशक्त कहानियाँ लिखी हैं। इन लेखिकाओं की एक लम्बी सूची है। इन्होंने स्त्री- जीवन और समय के जटिल प्रश्नों के उत्तर अपनी कहानियों में तलाशे हैं।
विगत तीन दशकों में स्त्री कथा लेखन में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। स्त्रियों ने अपने भोगे हुए यथार्थ, सामाजिक जीवन की सच्चाइयों को अपने संघर्ष और अस्मिता के स्वरों को अभिव्यक्ति दी। कहानियों में सामाजिक जीवन की सच्चाइयाँ स्त्रियों के दृष्टिकोण से अभिव्यक्ति हुईं। सदियों से पुरुष वर्चस्ववादी सामाजिक संरचना और स्त्रियों के लिए सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक नैतिक मूल्यों, आदर्शों और संस्कारों के नाम पर, जिस ताने-बाने को बुना गया था, स्त्री उसमें उलझकर रह गई है। स्त्री रचनाकारों ने अपने साहित्य के माध्यम से पितृसत्ता के उन तरीकों की बड़ी सूक्ष्म पड़ताल की है, जो स्त्री की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाते हैं। यद्यपि साहित्य की स्त्री या पुरुष लेखन में नहीं बाँटा जा सकता, न ही बाँटा जाना चाहिए; तथापि महिला रचनाकारों ने अपने जीवन की भोगी हुई सच्चाई को स्वानुभूति के धरातल पर रचा है। हिन्दी कहानी साहित्य में उन बारह महिला कहानीकारों की एक-एक प्रतिनिधि कहानी को आधार बनाकर चर्चा करेंगे, जिनका चयन कथाकार सुभाष नीरव जी ने ‘नई कथा पीढ़ीः कथा के स्त्री स्वर’ के अंतर्गत किया है। इसके अंतर्गत उन्होंने गीताश्री, प्रज्ञा, हंसा दीप, निर्देश निधि, अंजू शर्मा, निधि अग्रवाल, आशा पांडेय, कल्पना मनोरमा, सुषमा गुप्ता, भावना सक्सेना, प्रियंका गुप्ता और सिनिवाली की एक कहानी को शामिल किया है। इन चयनित कहानियों का मूल्यांकन इस लेख में किया जा रहा है।
गीताश्री हिन्दी की चर्चित कथाकार हैं। उनकी कहानियाँ समाज के एक-एक रेशे की बड़ी बारीकी से पड़ताल करती हैं। उनकी चौकस दृष्टि स्त्री जीवन और उसके अन्तर्तम के कोने-कोने संधान कर, जिस यथार्थ को भेदती है और सामने लाती है, वह कई बार अलक्षित रह जाता है। पत्रकारिता जैसे पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्र में गीताश्री ने प्रवेश कर इस क्षेत्र में काम करने वाली स्त्रियों के संघर्ष को देखा और यहाँ से अपनी कहानियों के लिए कच्चा माल प्राप्त किया है। स्त्री- विमर्श पर उनकी-स्त्री आकांक्षा के मानचित्र (2008) औरत की बोली और अँधेरे समय में तीन पुस्तके प्रकाशित हो चुकी हैं। प्रार्थना के बाहर एवं अन्य कहानियाँ, स्वप्न साजिश और स्त्री, डाउनलोड होते हैं सपने, लेडीज सर्कल, बलम कलकत्ता, मन बसंत तन जेठ और मत्स्यगंधा जैसे कहानी- संग्रहों से हिन्दी कथा-जगत् में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है। उनकी कहानी ‘सैंया निकस गए, मैं न लड़ी थी’, एक ऐसी घटना को लेकर लिखी गई कहानी है, जो यदा-कदा समाज में घटित होती रहती है। यह कहानी उस स्त्री की है, जिसका पति बारह साल पहले छोड़कर चला गया था और उसने अपने पत्नी बच्चों की कोई खोज-खबर नहीं ली थी। स्त्री यानी रेहाना को अपने बच्चों की खातिर अजहर के छोटे भाई मजहर से दूसरी शादी करना पड़ी थी। शादी क्या थी, बस एक छत थी उसके युवा शौहर की एक युवा बीबी भी थी। रेहाना तो बस हाड़तोड़ मेहनत इसलिए करती थी कि उसके बच्चों की परवरिश हो सके। कहानी एक दार्शनिक वाक्य से शुरू होती है - ‘‘लौटना हमेशा सुखद नहीं होता है। जो सोचते हैं कि लौटकर खोया हुआ सुख- संसार वापस पा लेंगे, वे बहुत भ्रम में जीते हैं। जिस दिन वे उस जगह को छोड़ते हैं, वह जगह उसी दिन उन्हें छोड़ देती है।’’ इस एक वाक्य में पूरी कहानी का केन्द्रीय भाव सिमटा हुआ है। अजहर 1972 में ढाका चला गया था, जब बारह साल बाद लौटकर आया, तो घर में सब कुछ बदल गया है। कोई उससे सीधे मुँह बात नहीं कर रहा है, उसके बीबी बच्चे पराये हो चुके हैं। अजहर चाहता है कि उसकी बीबी वापिस आ जाए; लेकिन रेहाना वापिस नहीं आती। वह जानती है कि अब वह मजहर की बीवी है। वह वैवाहिक जीवन की सीमा- रेखा को नहीं तोड़ती। अपने पूर्व पति अजहर से वह प्रेम तो करती है; लेकिन वक्त के कहर ने उसे पहले वाली रेहाना नहीं रहने दिया है। जब अजहर उसे अकेले में मिलने के लिए बुलाता है, तो वह अपने गहनों की पोटली उसे पकड़ाकर कहती है कि तुम यहाँ से चले जाओ। तुम्हारा अपमान मुझसे देखा नहीं जाता। वह बताती है कि ये गहने उसने जमीन के अंदर गाड़ दिए थे। सबको यही पता है कि मैं ये गहने पहले ही तुम्हें दे चुकी हूँ। गीताश्री ने इस कहानी में रेहाना के रूप में एक ऐसा किरदार रचा है, जो तमाम मुश्किलें झेलकर अपने बच्चों की खातिर संघर्ष कर रही है। गीताश्री ने रेहाना के मुख से यह कहलवाकर कि तुम ये गहने बेचकर अपनी नई जिंदगी शुरू कर लेना। तुम मर्दों की नई जिंदगी किसी भी उम्र से शुरू हो सकती है। दिक्कत तो हम औरतों की है...... उम्र गई, जिंदगी गई।’’
गीताश्री ने इस कहानी में मुस्लिम समाज की एक स्त्री के जीवन की लाचारी के साथ उसकी पीड़ा का मार्मिक अंकन किया है। रेहाना वक्त के थपेड़ों से जूझकर भी अपने सारे रिश्ते के साथ ईमानदार है; इसलिए यह चरित्र पाठकों को प्रभावित करता है।
समकालीन हिन्दी कथा-जगत् में प्रज्ञा ने अपनी गहन सामाजिक दृष्टि, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवीय चेतना से सम्पन्न अंतर्दृष्टि और भाषिक सामर्थ्य की वजह से अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है। लेखन के संस्कार उन्हें अपने पिता प्रसिद्ध कथाकार रमेश उपाध्याय से विरासत में मिले हैं। धर्मपुर लॉज के बाद हाल में ही प्रकाशित उनका उपन्यास ‘काँधों पर घर’ खासा चर्चित हुआ है। प्रज्ञा की पहली कहानी परिकथा में 2013 में प्रकाशित हुई थी। रज्जो मिस्त्री और मालूशाही उनकी चर्चित कहानी संग्रह हैं। ‘कलाकार’ कहानी में प्रज्ञा ने टेलीविजन के गुजरे दिनों के एक कलाकार के मार्फत भूमंडलीकरण के बाद के तीव्र बदलावों को अत्यंत पैनेपन से अभिव्यक्त किया है। भूमंडलीकरण सबसे बड़ा अस्त्र है बाजार और इसी बाजार के एक रूप व्यापार मेले से कहानी प्रारंभ होती है। प्रज्ञा ने व्यापार मेले में चलने वाली खींचतान और व्यापार के लिए बड़े उद्योगपतियों से संबंध बनाने की होड़ का आँखों देखा हाल कहानी में इस तरह *विन्यस्त* किया है कि पाठक को लगता है कि वह कहानी पढ़ नहीं रहा; बल्कि व्यापार मेले में घूम रहा है। जहाँ कुछ पुराने खिलाड़ी, कुछ बाजार की नब्ज़ पकड़ने में माहिर तो कुछ बाजार पलट देने में शातिर, कुछ नौसिखिये तथा कुछ अपने मंद पड़ गए धंधे को उबार लेने की फिक्र में हैं। यहीं गुजरे जमाने के लोकप्रिय धारावाहिक ‘परिवार’ के हीरो रौनक कुमार भी पहुँचे है। वे इंदौर की एक बड़ी नमकीन कंपनी के मालिक श्री गोवर्धनदास द्विवेदी को अपना चाचाजी बताते हुए इंतजार कर रहे हैं। प्रज्ञा ने इस कहानी में पात्रों के मनोजगत् की भी सघन पड़ताल की है। गोवर्धनदास द्विवेदी पक्के बिजनेसमैन हैं। वे अनुराग द्विवेदी की लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें लिफ्ट नहीं देते । अनुराग द्विवेदी के साथ फोटो खिंचवाने में भी उन्हें परहेज है। दरअसल अनुराग द्विवेदी एक जमाने में टी.वी. के सुपर स्टार थे; पर आज उनका वह वक्त बीत चुका है। कहानी की वाचिका यह समझ चुकी है कि अनुराग के अतीत का भव्य महल वर्तमान में जर्जर होकर भी शिकस्त मानने को तैयार नहीं है। प्रज्ञा ने कलाकार कहानी में अनुराग द्विवेदी की उन सभी चेष्टाओं का वर्णन पूरे मनोयोग से किया है, जिनके माध्यम से अनुराग द्विवेदी गोवर्धनदास का दिल जीतने का असफल प्रयास कर रहे थे। कथाकार ने उनकी उदासी और दुख को जिस विश्वसनीयता और अनुभूति के साथ व्यक्त किया है वह इस कहानी का प्राणतत्त्व है। कहानी अतीत में शोहरत की बुलंदियों पर पहुँचे; किन्तु अब ढलते हुए कलाकार की बेबसी को सामने लाती है। लेकिन वह अभिनेता है; इसलिए भीतर से खाली होकर अपने दुख और अपमान को भूलकर वह पुनः सहज और उत्साही दिखने का अभिनय करता है। प्रज्ञा ने कहानी में पूँजीवाद के निर्मम और संवेदनाहीन चेहरे को भी बेनकाब किया है। ‘कलाकार’ कहानी अपनी संवेदना और शिल्प की कसावट के कारण एक मुकम्मल कहानी है।
प्रतिष्ठित कथाकार हंसा दीप टोरंटों में रहती हैं। अब तक उनके चार उपन्यास तथा आठ कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘बत्तीसी’ कहानी में हंसा दीप ने एक ऐसा विषय उठाया है, जिस पर हिन्दी कथा-साहित्य में संभवतया कम लिखा गया है। कहानी की मुख्यपात्र बा हैं, जिनका आज दाँतों के डॉक्टर के साथ अपॉइंटमेंट है। दाँतों के एक क्लिनिक में चार-पाँच घंटे की कालावधि में कथानक सिमटा हुआ है। बा को दाँत के डॉक्टर के पास जाने में डर लगता है; लेकिन वे ऊपर से शांत और सहज बनने का भरसक प्रयास कर रही है। बा को मेज पर लिटाकर हाइजिनिस्ट एनी सारी तैयारी कर रही है। पैंसठ साल की उम्र में बा पूरे बत्तीस दाँतों की मालकिन हैं, यही लोगों की परेशानी का सबब है। यह बात भी काबिले-तारीफ है कि उनके दाँतों में कोई परेशानी नहीं है। वे सिर्फ दाँत साफ कराने आई हैं।
कहानीकार ने बा के मन में चल रही हलचल और मानसिक स्थिति का अत्यंत वास्तविक चित्रण किया है। लगभग डेढ़ घंटे तक चली दाँतों की सफाई की प्रक्रिया के दौरान एनी का बा से लगातार बोलते रहना, प्रश्न पूछते रहना तथा बोल न पाने की स्थिति में भी बा का एनी को मन ही मन उत्तर देना, इन्हीं संवादों से कहानी का ताना-बाना बुना गया है। कहानीकार हंसा दीप ने बड़े कौशल से कहानी को एक मुहावरे के माध्यम से उत्कर्ष तक पहुँचाया है। बा अपने स्वस्थ दाँतों का राज बताते हुए कहती हैं कि मेरे खाने के दाँत हैं, दिखाने के दाँत दूसरे नहीं है; अर्थात बा निर्मल अंतःकरण की मालकिन है। इस छोटी कहानी में निहित संदेश गहरा है यही कहानी को विशिष्टता प्रदान करता है।
कथाकार निर्देश निधि ने अपनी कहानियों से मुकम्मल पहचान बनाई हैं। झांनवादन (2017 ), सरोगेट मदर (2021) इनके चर्चित कहानी-संग्रह हैं। झांनवादन का मराठी में भी अनुवाद हो चुका है। इनकी कहानी ‘पहली मृत्यु’ के केन्द्र में दादी की मृत्यु की दुखद अनुभूति की करुण स्मृति है। एक छोटी बच्ची जो अपने माता-पिता और भाई-बहिनों के साथ कलकत्ते में रहती है और उसकी दादी गाँव में एक सहायिका के साथ रहकर खेती-बाड़ी देखती हैं। दादी कभी-कभी कलकत्ता आती थी; पर उनका मन वहाँ लगता नहीं था, उन्हें तो अपना गाँव ही प्यारा था। कहानी में दादी और पिता के स्नेह को अनेक स्थलों पर गहराई से रेखांकित किया गया है। दादी की मृत्यु का पूर्वाभास शायद पिताजी को हो गया था; इसलिए वे परिवार सहित तीन दिन की यात्रा पूरी करके गाँव पहुँचे थे। जिस रात पूरा परिवार गाँव पहुँचा, उसी रात दादी की मृत्यु हो चुकी थी। गाँव वाले आश्चर्यचकित थे कि अभी तो तार भी नहीं दिया गया और ये लोग कैसे आ गए?
निर्देश निधि ने कहानी में प्राकृतिक दृश्यों के साथ छोटी बच्ची के मन की कल्पनाओं को बड़ी सुन्दरता के साथ गूँथा है। बालिका को सारी प्रकृति उदास लग रही है। गाँव पहुँचकर दादी के अंतिम संस्कार तक छोटी बच्ची अत्यंत दुखी है, भूखी भी है; लेकिन उसका कल्पनाशील मन दादी को लेकर अनेक कल्पनाएँ कर रहा है। दादी का विमान आसमान में जाएगा, दादी को लेने भैंसे पर सवार होकर यमराज आएँगे, जैसी जिज्ञासाएँ बच्ची के कोमल हृदय को मथ रही हैं। वह अपनी माँ से प्रश्न भी कर रही है; लेकिन उसे समुचित उत्तर नहीं मिल पा रहा है।
दादी की मृत्यु पर जो असहजता और दुख बच्ची ने झेला था, बड़ी होकर इस दुख से वह अपने बच्चों को बचाना चाहती थी। जब उसकी शादी हुई, बच्चे हुए, तब उसने अपने बच्चों को समझाया कि एक दिन सभी बूढ़े होते हैं, और अंततः मृत्यु को प्राप्त होते हैं। जब इन बच्चों की बीस-बाईस वर्ष की बुआ की मृत्यु किसी बीमारी से हो जाती है, तो बच्चों के सामने एक प्रश्न खड़ा होता है कि बुआ तो कम उम्र की थीं; पर वे इतनी जल्दी क्यों मर गईं? यहाँ कहानीकार लिखती हैं कि मेरी लाख दार्शनिक तैयारियों के बावजूद बच्चे मृत्यु को लेकर प्रश्नाकुल और दुखी थे। वे उतने ही असहज थे, जितनी कि स्वयं लेखिका अपनी दादी की मृत्यु के समय थी। कहानी में तीसरी मृत्यु का चित्र भी है। यह कथावाचिका की माँ की मृत्यु का है। यह उस माँ की मृत्यु है, जो लम्बे समय से बिस्तर पर हैं। यहाँ उनकी बेटी माँ के शारीरिक कष्ट देखकर स्वयं उनकी मृत्यु के लिए प्रार्थना कर रही है। कहानीकार निर्देश निधि कहानी के अंत में यह संदेश देती हंै कि मृत्यु के संबंध में कुछ बातें सिखाई नहीं जा सकतीं, अनुभव ही सिखाता है कि मृत्यु अवश्यंभावी है, यह कब आएगी, कहा नहीं जा सकता। किसी बच्चे को अपने किसी प्रियजन की पहली मृत्यु देखना अत्यंत दुखदायी अनुभूति है, जिसका प्रभाव उसके जीवन भर रहता है। निर्देश निधि ने मृत्यु जैसे दार्शनिक विषय पर यह कहानी अत्यंत सहजता से रची है और यही सहजता इस कहानी की खूबी है। कहानी एक लम्बे कालखंड को समेटती हुए आगे बढ़ती है, पर कहानी में कहीं समय का अंतराल दिखाई नहीं देता। कहानी स्वाभाविक गति से आगे बढ़ते हुए अपने चरम तक पहुँचती है। बिम्बात्मक भाषा और शिल्प की कसावट कहानी को सम्पूर्णता प्रदान करती है।
अंजू शर्मा हिन्दी कथा-जगत् का एक चिर-परिचित नाम हैं। उन्होंने गली नंबर दो, आज शाम है बहुत उदास तथा बंद खिड़की खुल गई जैसे कहानियों से अपनी पहचान सुनिश्चित की है। उनकी विवेच्य कहानी ‘लव रिएक्शन’ आज के फेसबुकिया समय और समाज की सच्चाई को उजागर करने वाली कहानी है। फेसबुक, जिसे कहानीकार ने ‘आभासी चौपाल’ नाम दिया है। इस पर लोगों के सैकड़ों हजारों मित्र हैं, यहाँ खुशी और गम, आपत्ति और विपत्ति, समृद्धि और गरीबी, खाया, पिया और खरीदा तथा बेचा सभी कुछ शेयर किया जाता है। फेसबुक के माध्यम से ही कथानायक प्रणव सभी के सुख-दुख में शरीक हो लेता है। फेसबुक के हर स्क्रॉल के साथ वह एक नई मनःस्थिति में शरीक होता है सारे मनोभाव उसे छूते हैं; पर हृदय की गहराई में जगह नहीं पाते। भाव, पानी की सतह पर उठी लहर की तरह आते-जाते रहते हैं। इसी फेसबुक के आभासी पटल पर कथानायक प्रणव की दोस्ती शीना नाम की महिला से होती है। शीना की और उसकी पसंद काफी मिलती- जुलती है, इस कारण वह शीना से भावनात्मक रूप से जुड़ जाता है। कहानीकार ने इस दौरान प्रणव की मनःस्थितियों को बड़ी बारीकी से उकेरा है। किस तरह वह पत्नी की सादा ढंग से परोसी गई थाली की तुलना शीना की फेसबुक पर शेयर की गई सजावटी प्लेट से करने लगता है।
कहानी में मोड़ तब आता है, जब अचानक शीना फेसबुक पर दिखाई नहीं देती। उस समय प्रणव की बेचैनी तीव्रता से बढ़ती है। वह इनबॉक्स में मैसेज भेजता है, अन्य लोगों से शीना के बारे में पूछताछ करता है; पर कहीं से कोई प्रत्युत्तर नहीं आता। अंजु शर्मा ने आभासी दुनिया के सच को इस कहानी में अनेक स्थलों पर प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त किया है।
कहानी चरम पर तब पहुँचती है, जब एक हफ्ते बाद प्रणव को पता चलता है कि शीना बीमार है और अस्पताल मेंे है। अड़तीस वर्षीय प्रणव सोचता है कि अस्पताल तो उसके आॅफिस के रास्ते में है, क्यों न शीना से मिल लूँ। शीना की बीमारी उसे मेल-जोल बढ़ाने वाले अवसर की तरह लगती है। वह एक सुन्दर- सा बुके लेकर अस्पताल के उस कक्ष में धड़कते हुए दिल से प्रवेश करता है, जहाँ उसका आभासी स्वप्न साकार होने वाला है। शीना से मिलने की उत्कंठा उसकी खुशी हजार गुना बढ़ा देती है; लेकिन वह कमरे जिस महिला को देखता है, वह प्रोफाइल पिक्चर वाली शीना से बिलकुल अलग, पचास-पचपन वर्ष की कमजोर खिचड़ी बालो वाली स्त्री दिखती है। प्रोफाइल पिक्चर वाला चेहरा इस स्त्री के चेहरे का बीस वर्ष पुराना अतीत था। उसे लगा फेसबुक के लाइक कमेंट्स और बुके तक की यात्रा में शायद वह अकेला सफर करता रहा। वह काल्पनिक स्त्री तो वास्तविकता में कहीं थी ही नहीं।’’
अंजु शर्मा ने यह कहानी बड़ी सूझबूझ से पात्रों के मनोजगत् और उसमें उठने वाली भावनात्मक तरंगों के सूक्ष्म चित्रण के ताने-बाने से बुनी है। कहानी में अनावश्यक विस्तार नहीं हैं, भाषा की सहजता और शिल्प की सादगी के साथ अनुभव की प्रामाणिकता इस कहानी को सफल कहानी बनाती है। आज दुनिया की काल्पनिकता यथार्थ पर भारी पड़ रही है। दाम्पत्य जीवन में दरार और टूटने में बहुत हद तक सोशल मीडिया की भी भूमिका है। यह कहानी उन लोगों को एक सकारात्मक संदेश भी देती है, जो आभासी यथार्थ को ही सच मान बैठे हैं।
कहानीकार निधि अग्रवाल अपने कहानी संग्रह ‘गिल्लू की नई कहानी’ से काफी लोकप्रिय हुई है। उनकी कहानी ‘चुप में भी एक पुकार होती है’ आज की भागमभाग भरी जिंदगी के शोर में आत्मीयता से उपजी चुप्पी की गहरी आश्वस्ति- भरी कहानी है। भारत की सिलिकॉन वैली कहे जाने वाले शहर बैंगलोर में एक मल्टीनेशनल कंपनी में कम करने वाले दम्पती की कहानी है। कहानीकार ने लिखा है- ‘‘यह एक ऐसा भागता हुआ शहर बन गया है कि यहाँ की झीलों के मुँह से भी झाग निकलने लगा है।’’ कहानीकार ने औद्योगिक नगरों के पर्यावरण के प्रति गहरी चिंता भी कहानी व्यक्त की गई है। कहानी कथानायिका की व्यस्त जिंदगी की दास्तान है। घर और बाहर की दोहरी जिम्मेदारी निभाती नायिका, जब सप्ताह में आराम करना चाहती है, तो ऊपर वाले फ्लैट से कुत्ते के रोने की और खटखट की आवाजें उसका चैन छीन लेती हंै। एक दिन परेशान होकर शिकायत करने ऊपर के फ्लोर पर बने उस फ्लैट की घंटी बजाती है। इस फ्लैट का दरवाजा एक बुजुर्ग महिला खोलती है और बड़ी आत्मीयता और वात्सल्य भाव से उसका स्वागत करती है। वे लकड़ी के स्टूल का सहारा लेकर चलती हैं, इसी वजह से ठकठक की आवाज होती है। उनके व्यवहार में जो आत्मीयता है, वह कथानायिका को उनके निकट ले जाती है। अब वह दोपहर में उनके पास जाकर बैठती है, उनके खाने की प्लेट लगा देती है। एक दिन वह स्कूल से लौटते हुए रबड़ के फ्लोर प्रोटेक्टर लाकर उनके स्टूल में फिट कर देती है और उन्हें माँ कहकर संबोधित करती है। दोनों की आँखों से स्नेह की धारा प्रवाहित होने लगती है, उनके काँपते हाथों पर हाथ रखकर कथानायिका को लगता है कि झीलों को सहेजना इतना भी कठिन नहीं है। एक सकारात्मक संदेश के साथ समाप्त होने वाली बेहतरीन कहानी है। कहानी इकहरी नहीं है; बल्कि अनेक छोरों को समाहित करने वाली है। पितृसता के शोषक किन्तु सभ्यता के लिबास में ढके उन अदृश्य तरीकों को भी सामने लाती है, जहाँ परिवार में पुरुष बैठे-बैठे हुक्म चलाता है, घरेलू कार्यों में कामकाजी पत्नी की कोई मदद नहीं करता। कहानी की गझिन बुनावट और संवादों की अर्थवत्ता उसे पूर्णता प्रदान करती है।
कहानीकार आशा पांडेय की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अने कहानियाँ मैं एक पाठक के तौर पढ़ती आई हूँ। उनकी कहानियाँ हारा हुआ राजा, दंश, फिर फिर, खुद्ददार काफी चर्चित हुई हैं। धूप का गुलाब और चबूतरे का सच उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं। उनकी कहानी ‘गाढ़े का रंग’ भाई-बहिन के रिश्तों और उनकी उष्मा की कहानी है। कथानक के केन्द्र में एक मध्यम वर्गीय परिवार है। जिसकी आय के स्रोत- पिता का छोटा- सा व्यवसाय चैपट हो जाने के कारण बंद हो चुके हैं। परिवार का बड़ा बेटा अपने कम्प्यूटर कोर्स के बलबूते पर तीस चालीस हजार कमा रहा है; पर पिता की बीमारी के खर्चे उसे चिंता में डाल देते हैं। परिवार में माँ बेटे की बुआ को पसंद नहीं करती। बुआ की शादी हो जाने के बाद माँ बुआ को बुलाने से बचती हैं। भाई की बीमारी की खबर सुनकर बुआ दौड़ी चली आती हैं; लेकिन माँ के व्यंग्य बाण चलते रहते हैं। यह कहानी ज्यादातर मध्यमवर्गीय परिवारों की है, जहाँ शादी के बाद भाई-बहिन एक दूसरे से दूर से हो जाते हैं और अपने-अपने परिवारों में व्यस्त हो जाते हैं; लेकिन भाई-बहिन का प्यार सच्चा प्यार होता है। मुसीबत के समय दोनों एक दूसरे के साथ खड़े रहते हैं। जिस बुआ को मयंक की माँ ने और बाद में मयंक ने भी गलत समझा, वही बुआ बिना बताए अस्पताल के सारे बिल चुकाकर चलीं गई हैं। कहानी के अंत में मयंक का यह वाक्य- ‘‘गाढ़े दिनों के रंग भी गुलाबी हो सकते हैं।’’ कहानी की मूल संवेदना को व्यक्त करता है। भाई-बहिन के निस्वार्थ प्रेम की यह एक बेमिसाल कहानी है।
कल्पना मनोरमा ने हिन्दी कथा साहित्य में एक स्थान सुरक्षित किया है। उनकी कहानी ‘उसके हिस्से का मौन’ माँ की स्मृति की बहाने उन तमाम स्त्रियों के जीवन का पुनराख्यान रचती हैं, जो पितृसत्ता की वर्चस्ववादी व्यवस्था के भारी पहियों के तले कुचली जाती रही हैं। कल्पना मनोरमा ने माँ को जीवन भर मिली कटुताओं, उपेक्षाओं और पीड़ाओं का मर्मांतक चित्र प्रतीकात्मक ढंग से अंकित किया है। माँ का जाना, बेटी के कलेजे में कील चुभने जैसा है। माँ के जाने के बाद उसकी उदारता और त्याग तथा कर्मठता के चर्चे किए जा रहे थे। मृत देह के लिए नई साड़ी और रेशमी शॉल लाए जा रहे थे; लेकिन जीते जी माँ को कभी किसी ने अच्छा नहीं कहा, माँ कभी एक क्षण के लिए भी प्रसन्न नहीं रह पाईं। उम्र बढ़ने के साथ जब माँ ने जहर- बुझी बातों का प्रतिरोध करना प्रारंभ किया, वहीं से बात बिगड़ना शुरू हो गई । माँ घुट-घुटकर छटपटाकर कम उम्र में ही संसार से बिदा हो गईं, एक तरह से दुख, अवहेलना से मुक्त हों गईं। पूरी कहानी एक स्त्री की गहन पीड़ा-नद के मंद प्रवाह की कहानी है। इस कहानी में कल्पना मनोरमा, समाज और परिवार से स्त्री को देवी की पदवी नहीं देना चाहती; अपितु उसे एक मनुष्य की गरिमा और सम्मान देना चाहती हैं। ‘उसके हिस्से का मौन’ कहानी हमारे सामने अनेक प्रश्न खड़े करती है, हमें सोचने पर विवश करती है।
हिन्दी लेखिकाओं में डॉ. सुषमा गुप्ता एक प्रतिष्ठित नाम है। उन्होंने अपने कहानी-संग्रह ‘तुम्हारी पीठ पर लिखा मेरा नाम’ उपन्यास ‘कितराह’ से ख्याति अर्जित की है। ‘हीरे की कनी’ कहानी आरंभ तो होती है एक अस्पताल के दृश्यात्मक चित्र से; पर कहानी के केन्द्र में है स्त्री। यह स्त्री पृथ्वी के किसी भी कोने में हो सकती है। यह घर में, अस्पताल में, किसी स्कूल, कॉलेज, मल्टीनेशनल कंपनी के आॅफिस में, चाय के बागान में, खेतों में या घरों में घरेलू काम को निपटाते हुए देखी जा सकती है। कहानी की नायिका अस्पताल में है और जिसकी बात यहाँ की जा रही है, वह उसी अस्पताल में नर्स है। वह किसी से फोन पर बात कर रही है। उस नर्स को फोन पर दूसरी तरफ से कोई गंदी-गंदी गालियाँ दे रहा था। गालियाँ सुनकर वह एकदम निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गई, उसका बी.पी. लो हो गया था। यह नर्स एक पच्चीस वर्ष की युवती है, जिसका पति शराबी है और शराब पीकर वह लड़की पर हाथ उठाता है। लड़की की जिंदगी नरक बन चुकी है; पर वह एक दो साल की बच्ची की माँ भी है और शायद अपनी बच्ची की खातिर ही अपने शराबी पति की ज्यादती को झेल रही है। कहानी में इस लड़की को सफेद हीरे की कनी कहा गया है। यह लड़की कहानी की वाचक लड़की से कहती है- ‘‘पुरुष के विरोध का पर्याय, समाज से रिजेक्ट हो जाना है।’’ पर कथा की वाचिका लड़की उसे ढाढस बँधाती है और उसे परिस्थितियों से लड़ने और हार न मानने की सीख देती है। यह कहानी दो लड़कियों की दास्तान से मिलकर बनी कहानी है। दूसरी लड़की को प्यार में धोखा मिला है और वह इस धोखे को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है। वह अपनी जान देने का प्रयास करती है; किन्तु बच जाती है। यह कहानी स्त्री- विमर्श की कहानी है। कहानीकार सुषमा गुप्ता ने स्त्री-जीवन को अनेक समस्याओं का प्रामाणिक हल भी कहानी में प्रस्तुत किया है। कहानी अपनी संवेदनाओं में गहरी कहानी है। स्त्री के अस्तित्व की पहचान कराने वाली कहानियों में यह कहानी अपनी पहचान बनाती है।
भावना सक्सेना की सृजनधर्मिता बहुआयामी है। उन्होंने काव्य की अनेक विधाओं में लिखा है। उन्होंने सूरीनामी साहित्य पर कार्य किया है। उनकी ‘मुट्ठी पर धूप’ कहानी ने उन्हें अपार लोकप्रियता दिलाई। उनकी कहानी ‘जिंदगी के स्वर’ कहानी प्रेम विवाह और विवाह में आई टूटन की कहानी है। टूटन का कारण है पति का पत्नी को स्पेस न देना। शुरू में यह बात पत्नी को अच्छी लगती थी कि अमन उसका बहुत ध्यान देता है; लेकिन यही बात बाद में उसे खटकने लगी। पति का बात-बात में टोकना अपनी पसंद थोपना, उसे कष्टकारी लगने लगा और दोनों के बीच बढ़ती ऊब ने एक न पटने वाली खाई का रूप ले लिया। यद्यपि तब तक काव्या एक बच्चे की माँ बन चुकी थी। यह कहानी एक सिंगल मदर की परेशानियों और आशंकाओं तथा असुरक्षा को भी सामने लाती है। भावना सक्सेना कहानी में प्रेम, विवाह, पति-पत्नी के रिश्तों की नजाकत, पुरुष की वर्चस्ववादी विचारधारा को कहानी के माध्यम से सामने लाती है। कहानी एक सुखद अंत पर जाकर समाप्त होती है। कहानी का कथ्य तो पुराना है; पर उसके कहने का ढंग नया है। भावना सक्सेना की समर्थ लेखनी सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से सफल कहानी बताती है।
प्रियंका गुप्ता की कहानी ‘साया’ एक विवाहित स्त्री के प्रेम पड़ जाने की कहानी है। पति के स्वभाव और से असंतुष्ट स्त्री पड़ोस के युवक श्याम के सपने देखने लगी है। पति सुरेश का हाथ टूट जाने की वजह से श्याम उनके घर आता है। सुरेश को अस्पताल ले जाता है। इसी बीच उन दोनों के बीच हँसी-मजाक भी चलने लगता है। एक रात स्त्री सपने में स्वयं को श्याम के साथ देखती है और अपराधबोध में घिर जाती है कि एक शादीशुदा स्त्री दूसरे पुरुष का सपना कैसे देख सकती है। एक स्त्री की मानसिक उहापोह और ग्लानि को कहानी में अत्यंत विश्वसनीयता से उकेरा गया है। कहानी को हम स्त्री विमर्श की कहानी कह सकते हैं, जिनकी कहानियों में मानव-जीवन के विविध संदर्भों के साथ स्त्री-जीवन और उस जीवन की समस्याएँ तथा उनके हल भी छिपे हुए हैं।
सिनीवाली हिन्दी की प्रसिद्ध कथाकार हैं। उन्होंने अपने उपन्यास ‘हेति’ से अपनी पहचान सुनिश्चित कर ली है। उनकी कहानी ‘दंश’ का कथानक परिवार और रिश्तेदारों के इर्द-गिर्द ही बुना गया है। आत्मसम्मान कहानी की अन्तर्वस्तु में विनयस्त है। कहानी में चचेरी बुआ के बेटे संतोष कुमार पुलिस विभाग में डी.एस.पी. है। इन्हीं के घर से फोन आता है कि आपके भाई आपसे मिलना चाहते हैं। अब इन रुतबे वाले दूर के रिश्ते के भाई के यहाँ बहिन जाती है; लेकिन उस घर में सहजता से रह नहीं पाती। एक चार साल पुरानी घटना उसके स्मृति पटल पर छा जाती है और उसका सुख-चैन छीन लेती है। चार वर्ष पहले वह अपने किसी रिश्तेदार के घर शादी में गई थी। सफर की थकान मिटाने के लिए एक कमरे में लेट गई थी। यहीं से उस पर गहनों की चोरी का शक कर लिया गया था। उसकी तलाशी ली गई थी। उसका आत्मसम्मान को तार-तार कर दिया गया था। आज फिर उसे संतोष भैया के घर कुछ देर के लिये अकेले रहना पड़ रहा था। वह बेचैन थी; इसलिए बिना कुछ खाए- पिए वह उनका घर छोड़ चुकी थी। ‘सिनिवाली’ की यह कहानी सामान्य और संभ्रान्त वर्ग के अन्तर को दर्शाती मनोवैज्ञानिक कहानी है। सम्भ्रान्त वर्ग जिस प्रकार का व्यवहार करता है, वह ईमानदार सामान्य वर्ग के मन पर जो खरोंच छोड़ जाता है, उसकी टीस बहुत गहरी होती है। चचेरी बुआ के रुतबेदार बेटे सन्तोष भैया के यहाँ अकेले जाने में वह असहज महसूस कर रही थी। इस कहानी की बुनावट मानसिक उद्वेलन, तनाव, अन्तर्द्वन्द्व और दंश की बहुत खूबसूरती से व्याख्या करती है। लेखिका ने सशक्त भाषा एवं सन्तुलित प्रस्तुति से इस कथा को अविस्मरणीय बना दिया है।
निष्कर्षतः नयी कथा पीढ़ी की ये बारह महिला कहानीकार, हिन्दी कहानी सृजनात्मक के आकाश पर चमकते, वे बारह नक्षत्र है, जिनकी कहानियों में मानव- जीवन के विविध संदर्भों के साथ स्त्री- जीवन और उस जीवन की समस्याएँ तथा उनके हल भी छिपे हुए हैं। इन बारह महिला कथाकारों ने अपनी-अपनी कलम से अनुभवों को कथा-शिल्प में ढाला है। सुभाष नीरव का चयन यह बताता है कि वे उन कहानियों को पाठक के सामने लाना चाहते हैं, जिनसे समाज को कोई दिशा प्राप्त हो।
पुनश्चः हिन्दी चेतना के अंक 86, अप्रैल- जून 2000 में रश्मि शर्मा की कहानी ‘मनिका का सच’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। एक वह दौर था, जब देश के अनेक पिछड़े गाँवों में ‘डायन’ शब्द बड़ी तेजी से प्रसारित हुआ था। ऐसी अनेक खबरें समाचारपत्रों में प्रकाशित हो रहीं थीं कि किसी भी स्त्री को डायन घोषित कर, सार्वजनिक रूप से पीट- पीटकर मार डाला गया है। कहानीकार रश्मि शर्मा ने इसी विषयवस्तु पर ‘मनिका का सच’ शीर्षक से बड़ी कारुणिक कहानी लिखी है, जिसका चयन हिंदी चेतना के सुयोग्य संपादक और प्रसिद्ध रचनाकार, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ ने ‘पुनर्पाठ’ के अंतर्गत किया है। कहानी की केन्द्रीय पात्र मनिका नाम की निःसंतान विधवा है। एक अकेली स्त्री का अपनी अस्मिता बचाने के लिए संघर्ष, सामाजिक प्रताड़ना और उससे उपजी अंतहीन यातना, बेबसी और अन्ततः कारुणिक मृत्यु की यह दास्तान पाठक को व्यथित करने के साथ सोचने पर भी विवश करती है। कथ्य और शिल्प की दृष्टि से कहानी अत्यंत प्रभावी है। भाषा में दृश्यात्मकता और चित्रविधान कहानी को संप्रेषणीय बनाते हैं।