हिन्दी नवगीत का विकास और राजेन्द्र प्रसाद सिंह / रवि रंजन

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हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास में मुजफ्फरपुर, बिहार के निवासी राजेन्द्र प्रसाद सिंह (12 जुलाई, 1930 - 8 नवंबर, 2007) नवगीत के प्रवर्तक तथा एक बड़े कवि के रूप में जाने जाते हैं। जमींदार परिवार में जन्म लेने (जिनमें से ज्यादातर ज़मीन-जायदाद उनके जन्म के पहले से तरह -तरह की मुक़दमेबाज़ी में फँसी थी) और मुजफ्फरपुर जैसे एक छोटे-से शहर में आजीवन रहने के चलते वे हिन्दी जगत की उपेक्षा एवं कई बार येन-केन-प्रकारेण हरदम छोटा-बड़ा पुरस्कार पाने के लिए जुगाड़ भिड़ाने और पैसा बनाने की फ़िराक में लगे तथाकथित साहित्यिकों के द्वारा उपहास के शिकार भी हुए. नामवर सिंह ने एक भिन्न सन्दर्भ में एंगल्स के हवाले से लेखकों की इस प्रवृत्ति को 'टुटपुंजिया मध्यवर्गीय जलन' कहा है। गौरतलब है कि सामंत या दरिद्र परिवार में पैदा होना न तो किसी व्यक्ति का अपना चुनाव होता है न ही इसकी वजह से वह अनिवार्यत: सामंती प्रवृत्तियों या सर्वहारा चेतना का वाहक होता है। हिन्दी के विद्वान प्रगतिशील-जनवादी आलोचकों को शायद याद दिलाना ज़रूरी हो कि जहाँ खुद कार्ल मार्क्स ने ‘दुराग्रह से मुक्ति को सच्ची आलोचना की पहली शर्त’ माना है वहीं रेमण्ड विलियम्स जैसे मार्क्सवादी आलोचक ने भी साहित्यिक कृतियों के रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव की मीमांसा के क्रम में रचनाकार की सामाजिक स्थिति और उसकी रचनाओं को सीधे-सीधे जोड़कर देखने से पैदा होने वाले सरलीकरण के खतरे को रेखांकित किया है।

(युवा अवस्था का एक दुर्लभ चित्र : काव्यकृति ‘उजली कसौटी’ (1969, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली) के फ्लैप से साभार)

बिहार के सामंतों के बीच कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह की छवि एक सामंत-विरोधी वामपंथी बुद्धिजीवी और साहित्यकार की थी, जबकि हिन्दी के कुछ तथाकथित प्रगतिशील एवं जनवादी विद्वान राजेन्द्र जी की पारिवारिक पृष्ठभूमि के चलते उनकी लेखकीय प्रतिबद्धता को संदेह की नज़र से देखते थे। ऐसे में कवि इक़बाल की याद न आए, यह मुमकिन नहीं :

ज़ाहिदे-तंग- नज़र ने मुझे काफ़िर जाना
काफ़िर ये समझता है मुसलमां हूँ मैं।

मुजफ्फरपुर के ‘बनारस बैंक चौक’ पर बैजू बाबू की चाय की दुकान पर गर्मागर्म चाय की तपिश को महसूसते हुए कम बोलने और आँखों से ज्यादा कहने का भाव लिए शहर के नए-पुराने हिन्दी व उर्दू कवियों के बीच बैठे सुदर्शन एवं सौम्य व्यक्तित्व के धनी राजेन्द्र प्रसाद सिंह से पहली बार मिलने के पहले मुझे इल्म नहीं था कि आने वाले समय में मेरी साहित्यिक रुचि और समझ को उनका व्यक्तित्व अपनी विलक्षण मेधा तथा गहरे स्नेह से परिष्कृत और सुसंस्कृत करेगा। जहां तक याद है, सहपाठी कवि मित्र मनोज मेहता मुझे वहां ले गए थे। धीरे-धीरे हर शाम ढले एम्.ए. की कक्षा के बाहर अनौपचारिक बातचीत के दरमियान कुछ नया सीखने की ललक लिए मेरी साइकिल के हैंडल बैजू बाबू की दुकान की ओर मुड़ने लगे। इसके पहले प्राय: गुरुवर प्रमोद जी और यदा-कदा आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री के घर आना-जाना होता था, जो अंत तक बना रहा। प्रमोद जी के घर तो जो कोई भी आता था, वह कुछ् नया सीखने के साथ-साथ बगैर चाय-पानी के कभी नहीं लौटता। पर शास्त्री जी और प्रमोद जी के यहाँ अगाध पांडित्य और स्नेह-वत्सल वातावरण के बावजूद अनुशासन का एक अनजाना दबाव था।

राजेन्द्र जी न तो हमारे परिवार से सीधे जुड़े थे और न ही वे हमारे शिक्षक थे। इसलिए उनसे खुलकर बातें होने लगीं और मेरे जैसे कई छात्रों की बुभुक्षित बौद्धिक चेतना प्राय: उनके साथ बीती संध्या-बैठकों में देशी-विदेशी साहित्य पर होने वाले विमर्श से तृप्त-परितृप्त होने लगी। संभवत: 1985-86 में पटना साइंस कॉलेज के सभागार में ‘जनसंस्कृति मंच’ के एक कार्यक्रम में पहली बार मैंने उन्हें ‘भैया,कूदे उछल कुदाल हँसिया बल खाए’ जनगीत गाते सुना, जिसका सभागार में जादुई असर हुआ और हौल तालियों की गड़गड़ाहट भर गया। उस दिन मंच पर गोरख पांडे भी मौजूद थे, जिन्होंने ‘सुतल रहलीं सपन एक देखलीं’ जनगीत गाया था। वर्ड्सवर्थ ने सही लिखा है कि जनसाधारण की भाषा में रचित कविता ही आम जनता के भावों का वहन कर सकती है। इसलिए ऐसे जनगीतों को ‘लोकगीतों की पैरोडी’ बताने वाले आलोचकों को अपने तमाम पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर इनके महत्व पर पुनर्विचार करना चाहिए।

साहित्यिक हलकों में बारहा प्रचलित व्यक्तिगत निंदा-शिकायत पर मौन साध लेने वाले कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह मुज़फ्फरपुर में बाहर से आनेवाले साहित्यकारों के आतिथ्य, स्थानीय साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों एवं शब्द्कर्मियों पर जिस तरह दिल खोल कर खर्च करते थे उसके मद्देनज़र उन्हें मुजफ्फरपुर का भारतेंदु हरिश्चंद्र कहना सही होगा। कहने की ज़रूरत नहीं कि उनके इस अतिरिक्त साहित्यप्रेम से परिवार के लोग बहुत खुश नहीं रहते थे।

राजेन्द्र जी ने 'नयी कविता' के समानांतर रचे जा रहे गीतों की भिन्न प्रकृति एवं रचना विधान को रेखांकित करने वाले नए गीतों के प्रथम संकलन 'गीतांगिनी' (1958) का संपादन किया और उसकी भूमिका में 'नवगीत' के रूप में नए गीतों का नामकरण एवं लक्षण निरूपित किया। कालान्तर में अनेक कविता संग्रहों (भूमिका, मादिनी, दिग्वधू,संजीवन कहाँ, डायरी के जन्मदिन, शब्दयात्रा, प्रस्थानबिंदु इत्यादि) के साथ-साथ उनके कई स्वतन्त्र नवगीत संग्रह ('आओ खुली बयार', 'रात आँख मूँद कर जगी', 'भरी सड़क पर' आदि ) भी प्रकाशित हुए और जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने अनेक जनगीतों की भी रचना की जो 'गज़र आधी रात का' एवं 'लाल नील धारा' के नाम से प्रकाशित हैं. बावजूद इसके पारंपरिक ही नहीं, बल्कि प्रगतिशील-जनवादी विचारधारा की दुंदुभि बजानेवाले आलोचकों के ने भी इन कृतियों की कोई ख़ास नोटिस नहीं

ली। पुन: याद आते हैं नामवर जी, जिन्होंने लिखा है कि ‘नए जनवादी लेखन में आलोचना-बुद्धि का अभाव नहीं, बल्कि अतिरेक है. यह अतिरेक कभी-कभी शत्रुओं से अधिक मित्रों को – यहाँ तक कि अपने आपको भी काट बैठता है। ’

कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह हिन्दी के अलावा अंग्रेज़ी, बांग्ला एवं संस्कृत आदि भाषाओं के जानकार और इन भाषाओं में रचित साहित्य के गहरे पारखी विद्वान तथा गीत, नवगीत के सुमधुर ही नहीं बल्कि जनगीतों के ओजस्वी गायक भी थे। जिन लोगों ने उन्हें विभिन्न साहित्यिक मंचों से गीत-नवगीत-जनगीत गाते, काव्यपाठ करते या साहित्यिक-सांस्कृतिक मुद्दों पर व्याख्यान देते हुए सुना है, उनके लिए राजेन्द्र जी को सुनना एक अनुभव रहा है। कला-पारखी कवि यतीन्द्र मिश्र ने सही लिखा है कि “एक गाया जाने वाला पद अथवा गाया जा चुका गीत असीमित सन्दर्भ प्रक्षेपित करता है। उस घट चुके समय में गुंजरित शब्द, शब्द मात्र नहीं रह जाता। शब्द से थोड़ा ऊपर उठकर कुछ संभावनाओं के द्वार खोलता है। ”(गिरिजा, पृ.24) राजेन्द्र जी एक अच्छे अनुवादक भी थे जिसका प्रमाण है उनकी Beach Grove Books,Inc, Canada से प्रकाशित उनकी स्वानूदित पुस्तक ‘SO HERE I STAND’ (A selection of anti-slogan poems translated from Hindi original by the poet).

यदि हममें से किसी के पास उनके गायन/व्याख्यान के कैसेट/ रिकार्ड/ प्रकाशित – अप्रकाशित रचनाएं आदि हैं, तो उसे हमें हिन्दी जगत के सामने लाने का कष्ट उठाना चाहिए. साथ ही हम सब को यथाशीघ्र कवि राजेंद्र प्रसाद सिंह रचनावली / ग्रंथावली के प्रकाशन के लिए भी प्रयास करना चाहिए।

हिन्दी नवगीत के रचना-वैविध्य एवं स्वीकृति-संघर्ष में राजेन्द्र प्रसाद सिंह की भूमिका अविस्मरणीय है। उपर्युक्त विषय पर विचार करते हुए सर्वप्रथम हमारा ध्यान कवि की पहली काव्यकृति ‘भूमिका’(1950) की ओर आकृष्ट होता है जिसके दोनों फ्लैप पर ‘निराला’ एवं सुमित्रानन्दन पन्त की लम्बी, महत्वपूर्ण सम्मतियाँ छपी हैं।

‘भूमिका’ में आदि से मध्य तक राष्ट्रीय भाव-धारा की, प्रगतिशील और यथार्थवादी वैचारिक कविताएं हैं, जिनमें भी ‘आवरण’ ‘प्रकाश-पुंज’ है। और ‘प्रगति-गीत’ नए गीत-प्रयोग हैं और कृति के उत्तरार्द्ध में युवा प्रेमी के मनःसंघर्ष, अंतर्द्वंद और प्रेमाकांक्षा से महत्वाकांक्षा तक दूरी मापते लगभग पचास गीत हैं। 1950 ई. में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की इस पहली काव्यकृति की समीक्षा करते हुए डॉ॰धर्मवीर भारती ने लिखा था- “मुझे स्मरण नहीं पड़ता कि किसी भी तरुण कवि कि प्रथम काव्य कृति में इतनी हुंकार सबलता और प्रौढ़ता रही हो। ”

डॉ॰ भारती ने कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में मुख्य रूप से दो-तीन बातों को रेखांकित किया है- “सबसे पहली बात यह है कि उनकी भाषा और उनके विचारों में सस्ती भावुकता और चटपटा आवेश न होकर सशक्त हुंकार और प्रौढ़ बल है। ‘सिंहावलोकन’ में एक अजब-सा उन्मेष है, एक विद्रोह-भरी चुनौती है और विजय के विश्वास का अनोखा दर्प है-

“जागा किशोर आलोक सिंह गिरि गुहा फोड़,
निकला बनकर यौवन, पाषाण-कपाट तोड़,
तम के नभचुम्बी अद्रि-भाल पर गरज उठा,
दिशि-दिशि की काली जीर्ण मेखलाएं मरोड़।“

-दूसरी बात यह है कि उनमें आत्मदृष्टि नहीं, युगदृष्टि का प्राधान्य है। जिस संक्रांति के युग में उन्होंने अपनी कलम उठाई है उसके संकट, उसकी जर्जरता, उसकी उलझनों से वे परिचित हैं और उनकी विकृतियों से लड़ने के लिए कटिबद्ध हैं ... इन्हीं गीतों की भूमिका में आगामी मानवता अवतरित हो, इसके लिए वह सचेष्ट हैं। मानवता के प्रति उसमें अदम्य विश्वास है। उनके गीतों में इतिहास के कारवां गुजरते नज़र आते हैं और दिग्विजय, अकाल, रक्तपात, युद्ध, अंधकार और इन सबों को चीर कर भी जिन्दा रहने वाली और अपना सतत विश्वास करने वाली मानवता की विजय का वह उल्लास भरा गायक है। ”

राजेन्द्र प्रसाद सिंह की रचनाओं में भौतिकवाद व आदर्शवाद के समुचित समतोल को रेखांकित करते हुए डॉ॰ भारती ने आगे लिखा है- “मार्क्सवाद ने हमें इतिहासों में विकसित होती हुई मानवता का परिज्ञान कराया है, हमारी परम्परागत संस्कृति ने हमें मानवता के मनोगत मूल्यों का महत्व सिखाया है और आज का युग हमें दोनों के जिस पर स्वस्थ समन्वय की ओर प्रेरित कर रहा है, राजेन्द्र जी की कविता उस दिशा में दूर तक जा चुकी है।”

‘भूमिका’ की रचनाओं पर गंभीरता से विचारने पर स्पष्ट हो जाता है कि इस संग्रह के अनेक गीत अवश्य ही ‘नवगीत’ के आरंभिक स्वरूप को पता देने में सक्षम हैं। मनोवस्था के तापमान से जीवन्त इन गीतों में उल्लेखनीय हैं – ‘गा मंगल के गीत सुहागिन, चौमुख दियरा बाल के’, और ‘शरद की स्वर्ण-किरण बिखरी’। बाद में ये दोनों गीत ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘प्रतीक’ द्वैमासिक में 1949 के ‘शरद’ अंक में छपे और प्रकृति-काव्य-संकलन ‘रूपांबरा’ (सम्पा॰ अज्ञेय) में भी संकलित किए गए। इनके अतिरिक्त - ‘सब सपने टूटे संगिनी, बिजली कड़क उठी’, ‘मेरे स्वर के ये बाल-विहग जा रहे उड़े किस और’, ‘सखि, मधु ऋतु भी अब आई’, ‘मधु मंजरियाँ, नव फुलझरियाँ’, ‘यह दीवार कड़ी कितनी है’- आदि गीत विशेष रूप से ध्यातव्य हैं, जिनमें नवगीत को अंकुरित करने की तैयारी है।

1995 में प्रकाशित, राजेन्द्र प्रसाद सिंह की काव्य कृति ‘मादिनी’ में गीतों की प्रचुरता है उनमें अधिकांश को 1958 के बाद ‘नवगीत’ के रूप में स्वीकृति मिली। मेरी समझ से प्रक्रिया और रचना-प्रक्रिया पर हिन्दी में सर्वप्रथम राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ही ‘मादिनी’ की भूमिका में विचार किया था। ज्ञातव्य है कि 1954 तक मुक्तिबोध ने भी इस विषय पर कुछ भी लिखा या प्रकाशित नहीं करवाया था। गीत की रचना-प्रक्रिया समझने में उक्त भूमिका की विचार-शृंखला का अपना महत्व है। ‘मादिनी’ के उन गीतों में, जो ‘50’ से ‘54’ तक रचे गए और वस्तुतः बाद में ‘नवगीत’ के ही अघोषित नमूने माने गए, कुछ हैं- ‘तनिक उठा ले यह घूंघट-पट/ओ मधुमुखी सयानी’, ‘मेरे रास्ते पर/चल रहे सपने अधूरे/टूट जाने के लिए’ और लोकतत्व से भरे गीतों में कई हैं, जैसे ‘मूकपहेली’, ‘पावसी’, ‘सजला’, ‘तुमने किसकी ओर उठाई/ अंखियां काजलवाली री” (कजली) इत्यादि। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के छह ऋतुओं के गीतों की कई-कई शृंखलाओं के लिए ‘मादिनी’ के नवगीत-बीजों को महत्व दिया जाना चाहिए। उनकी तीसरी कृति है ‘दिग्वधू (1956) जो मुख्य रूप से कविता-संग्रह है, पर उसमें भी कुछ ऐसे गीत हैं जिन्हें कवि की प्रथम घोषित नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ के नए प्रार्थना-गीतों की शृंखला से जोड़ा जा सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि बहुत पहले ही प्रथम नवगीत-संकलन के रूप में ‘गीतांगिनी’ की योजना प्रसारित करने और 1958 में उसे संपादित–प्रकाशित करने के पूर्व भी राजेन्द्र प्रसाद सिंह के प्रायः सौ गीत अपनी नई शैली के साथ प्रशस्त और प्रस्तुत हो चुके थे; जिनमें हर तरह से नवगीत की सही और चमत्कारपूर्ण समझ मूर्त हो चुकी थी। इसका उदाहरण चंद्रदेव सिंह द्वारा संपादित ‘कविताएं-1956’में संकलित उनका गीत ‘विरजपथ’ द्रष्टव्य है :-

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं।
खिलते-मुरझाते किन्तु कभी
तोड़े जाते ये फूल नहीं।

खुलकर भी चुप रह जाते हैं ये अधर जहां,
अधखुले नयन भी बोल-बोल उठते जैसे;
इस हरियाली की सघन छांह में मन खोया,
अब लाख-लाख पल्लव के प्राण छुऊं कैसे?
अपनी बरौनियां चुभ जाएं,
पर चुभता कोई शूल नहीं।

निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर
है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ी;
घर्घर-पुकार उस पार रेल की गूंज रही,
इस पार जगी है उत्सुकता थोड़ी-थोड़ी।
सुषमा में कोलाहल भर कर
हँसता-रोता यह कूल नहीं।

इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा
अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो,
मुट्ठी में थामें हो जिस दिल की चिड़िया को
उसको छन-भर इस खुली हवा में छोड़ो तो।
फिर देखो, कैसे बन जाती है
कौन दिशा अनुकूल नहीं?
इस पथ पर उड़ती धूल नहीं। ”

1956 में रची, ‘नवयुग’ (साप्ताहिक) में छपी और 1957 में संकलित इस गीत रचना में नवगीत के कौन से प्रारम्भिक तत्व नहीं है? प्रतीकात्मक अर्थसंकेतों में जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व और परिसंचय, सभी की मनोज्ञतापूर्ण झलक इसमें मिल जाती है।

सन् 1947 के आसपास हिन्दी गीतकाव्य में नवीन प्रवृतियों का आविर्भाव और गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास प्रारम्भ हो चुका था जिसे उस समय की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक पत्रिका ‘प्रतीक’ (द्वैमासिक) के ‘शरद अंक’ (1948) में प्रकाशित कुछ गीतों के तुलनात्मक अध्ययन द्वारा लक्षित किया जा सकता है। ‘प्रतीक’ के उस अंक में बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ द्वारा रचित प्रकृति चित्रण से संबंधित छायावादी-रहस्यवादी निकाय का एक दार्शनिक गीत प्रकाशित है, जिसकी कुछ पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-

“सरस तुम्हारे वन-उपवन में फूले किंशुक फूल
उनके रंग में रंग लेने दो हमें आज अंग-अंग
प्राण यह होली का रस रंग।
कंपित पवन, विकंपित दस दिशि, गगनांगन गतिलीन
उन्मन मन तन चरण स्मरणगत नेह-विदेह अनंग
प्राण यह होली का रस रंग। ”

‘प्रतीक’ के इसी अंक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का भी एक ‘शरदगीत’ प्रकाशित है, जिसे कालान्तर में अज्ञेय ने ‘रूपाम्बरा’ में भी संकलित किया। कुछ पंक्तियाँ देखिए-

“मोह-घटा फट गई प्रकृति की, अन्तर्व्योम विमल है,
अंध स्वप्न की व्यर्थ बाढ़ का घटता जाता जल है।
अमलिन-सलिला हुई सरी, शुभ-स्निग्ध कामनाओं की,
छू जीवन का सत्य, वायु बह रही स्वच्छ साँसों की।
अनुभवमयी मानवी-सी यह लगती प्रकृति-परी।
शरद की स्वर्ण किरण बिखरी। ”

(रूपाम्बरा: सं अज्ञेय)

राजेन्द्र प्रसाद सिंह का यह ‘शरद गीत’ वस्तुतः जीवनदर्शन-परक प्रकृति के रूपांकन और गुणात्मक मानवीय परिवर्तन की वस्तुवादी समझ का प्रमाण है। प्रकृति को साभिप्राय जीवनानुभव में उरेहने का यह गुणांतरित स्वाद ही नया था, फलतः ‘अज्ञेय’ ने इसे बाद में अपने संपादित प्रकृति–काव्य-संकलन ‘रूपाम्बरा’ में भी सम्मिलित किया और कलकत्ता की ‘भारतीय संस्कृति-परिषद’ ने भी ‘सिन्धुभैरव’ राग में संगीत कर्मियों के द्वारा मंच पर प्रस्तुत किया। ‘प्रतीक’ के उस अंक में ही छपे दो दीप-गीतों की कुछ पंक्तियों पर गौर करें-

1. किसने हमें सँजोया;
जिन दीपों की सिहरन लख-लख, लाख-लाख हिय सिहरें,
वे दीपक हम नहीं कि जिन पे मृदुल अंगुलियाँ विहरें
हम वह ज्योतिर्मुक्ता जिसको जग ने नहीं पिरोया। ”

-बालकृष्ण शर्मा “नवीन”

2. सम्मुख इच्छा बुला रही/ पीछे संयम-स्वर रोकते,

धर्म-कर्म भी दायें-बायें/रुकी देखकर टोकते,
अग-जग की ये चार दिशायेँ/ तम से धुंधली दिखती,
चतुर्मुखी आलोक जला ले/ स्नेह सत्य का ढाल के।
गा मंगल के गीत, सुहागिन/ चौमुख दियरा बाल के। ”

-राजेन्द्र प्रसाद सिंह

उपर्युक्त दोनों गीतों की तुलनात्मक समीक्षा प्रस्तुत करते हुए हिन्दी नवगीत के अग्रगामी रचनाकार एवं समीक्षक श्री रामनरेश पाठक ने लिखा है :-

“बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की इन पंक्तियों में जहाँ उपेक्षित जीवन की निराशा को आध्यात्मिक गौरव से मंडित करते करते हुए भी बिसुरा गया है, वहीँ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दीप-गीत में नयी पीढ़ी की आशा-आकांक्षा का हौसला-भरा मंगल नर्तन है। ” ‘दीपावली’ शीर्षक से प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के इस गीत को ‘प्रथम नवगीत-बीज’ मानते हुए उन्होंने आगे लिखा है,- “जिसके मन में नवीन जी की पीढ़ी के नरेन्द्र शर्मा का गीत गूँजता हो-

“चौमुख दियना बाल धरूँगी चौबारे पर आज,
जाने कौन दिशा से आवें मेरे राजकुमार? ”

उन्हें समझना होगा कि अपने ही शब्दों में ‘क्षयिष्णु रोमान’ के कवि नरेन्द्र शर्मा ने ‘प्रवासी के गीत’ की इस रचना में लोक-प्रचलित बिम्ब ‘चौमुख दियना’ को तो ले लिया है मगर काम उससे भावुकता का ही लिया है। नरेन्द्र शर्मा की सीमा को पीछे छोड़कर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने उस दीपक के चारों दिशा-मुखों से जुड़े लोकधर्मी प्रतीकार्थों को उजागर करने का काम किया है और उस बिम्ब को जीवनदर्शन-परक युक्तिसंगति देकर, तब की युवा मानसिकता का बहुकोणी आवेग यों व्यक्त किया है”-

“दीप-दीप भावों के झिलमिल/और शिखायें प्रीति की,
गति-मति के पथ पर चलना है/ज्योति लिए नवरीति की,
यह प्रकाश का पर्व अमर हो/तम के दुर्गम देश में
चमकी मिट्टी की उजियाली/नभ का कुहरा टाल के। ”

‘गीतांगिनी’ (1958) के प्रकाशन से पूर्व रचित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के जिन गीतों में गीत-रचना के पूर्वागत प्रकारों से भिन्न प्रयास परिलक्षित होता है, उनमें कुछ तो ‘मादिनी’ (55) में संकलित हैं तथा कुछ ‘दिग्वधु’ (56) में। ‘मादिनी’ में संकलित ‘मधुमुखी’ शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं जिसे कई आलोचकों ने ‘औद्योगिक वातावरण में नयी मानवीयता की संवेदना’ उरेहने के लिए रेखांकित किया है-

“उसी विभा में धुलने को/सिन्दूर क्षीर बन जाता,
कच्चा लोहा पिघल-पिघल कर/तरल आग बन आता।

× × ×

बिम्बित करने को/उस छवि का हास ही
सागर बन लहराता/है इतिहास ही। ”

इसी प्रकार सन 1956 में प्रकाशित कवि की तीसरी काव्य कृति “दिग्वधु” की निम्नलिखित पंक्तियाँ भी तत्कालीन गीत की रचनाधर्मिता में परिवर्तन की सूचना देती हैं –

“फिर मैं मोल चुका दूँ ग्रह-तारों के,
नद-निर्झर के,-- पर्वत, सागर, वन के।

सन् 1962 में प्रकाशित राजेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रथम घोषित स्वतंत्र नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ में इसी शीर्षक से संकलित जो मुख्य रचना है, वह भी जनवरी, 1956 में ही कवि के वक्तव्य के साथ ‘अलका’ मासिक में प्रकाशित हो चुकी थी; जिसे रामनरेश पाठक ने गीत-तत्व के सांगोपांग और सप्राण परिवर्तन के प्रमाण के रूप में रेखांकित किया है। चन्द्रदेव सिंह द्वारा सम्पादित ‘कवितायें-57’ में संकलित राजेन्द्र प्रसाद सिंह के गीत ‘विरजपथ’ से जाहिर होता है कि “नवगीत जिस पीढ़ी के हाथों निर्मित होने के उपक्रम में था, वह थी आज़ादी के बाद की पहली नौजवान पीढ़ी, जो गाँव के नैसर्गिक और अर्जित संस्कारों से हिम्मत और हौसला ही नहीं, मानवीयता की अटूट पहचान लेकर छोटे-बड़े शहरों में आई और आज़ाद देश की नयी संभावनाओं से अपनी परिवर्तनकारी महत्वाकांक्षाओं को जोड़कर संघर्ष की धूप-धूल से लड़ती हुई जीने लगी। स्वभावतः और रहन-सहन के बदलाव की अनवरत लड़ाई में, कभी उस पीढ़ी का सदस्य शहरी एकांत में ग्रामीण नागर मानस का साक्षात्कार करता रहा-”

“इस पथ पर उड़ती धूल नहीं
खिलते मुरझाते किन्तु कभी
तोड़े जाते ये फूल नहीं। ”

इस गीत की अगली पंक्तियाँ में उन छद्मपरिवर्तन-कामियों की खबर ली गई है जो एक ओर तो परिवर्तन हेतु पहलकदमी का नाटक करते हैं पर दूसरी ओर अपने वर्गहित में स्वार्थ-साधन जुटाने से बाज नहीं आते-

“निस्पंद झील के तीर रुकी-सी डोंगी पर
है ध्यान लगाये बैठी बगुले की जोड़ीॱॱॱ।”

इसके साथ ही इस गीत में आत्मविश्वास से पूर्ण और अटूट हौसले से भरी पूरी पीढ़ी की ओर से सोच और सूझ की ताकत भी व्यक्त हुई है-

“इस नये गाछ के तुनुक तने से पीठ सटा
अपने बाजू पर अपनी गर्दन मोड़ो तो;
मुट्ठी में बांधे हो जिस दिल की चिड़िया को,
उसको छन भर इस खुली हवा में छोड़ो तो,
फिर देखो, कैसे बन जाती है
कौन दिशा अनुकूल नहीं। ”

सन् 1947 से 1957 के बीच रचित गीतों की रचनाधर्मिता पर विचारने से स्पष्ट होता है कि इस अघोषित नवगीत दशक में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के साथ ही जिन महत्वपूर्ण रचनाकारों ने अपने गीतों में रचना की प्रचलित परम्परा से हटकर गीत रचने का प्रयास किया उनमें वीरेंद्र मिश्र, रामदरश मिश्र रामनरेश पाठक, रवीद्र भ्रमर आदि उल्लेखनीय हैं।

वस्तुतः गीत रचना के नवीकरण का दशक-व्यापी उपक्रम जो 1947-48 से प्रारम्भ होकर छठे दशक के अन्त तक चलता रहा, वह गीत रचना की नयी प्रक्रिया की कुक्षि में नवगीत के आकार लेने का ही दीर्घ उपक्रम था। अतः यही कहना जायज़ है कि ‘नयी कविता’ के स्वरूप ग्रहण करने की तैयारी के बहुत पहले ही तथा ‘तारसप्तक’ (1943) की समीक्षाएं आने के कुछ ही बाद, नवगीत की तैयारी के आरम्भिक नमूने रचित और प्रकाशित किये जाने लगे। इस क्रम में विभिन्न रचनाकारों की स्वतंत्र गीत-कृतियों के अतिरिक्त जिन संकलनों एवं पत्रिकाओं में नवगीत की तैयारी के गीत संकलित हुए उनमें- ‘कवितायें-54, -55 एवं-57”, रूपाम्बरा (सं॰ अज्ञेय) तथा ‘लहर’, ‘नई धारा’, एवं ‘प्रतीक’ आदि के कवितांकों का अपना महत्व है।

गीतांगिनी” का सम्पादकीय : नवगीत का घोषणा पत्र

स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी गीतकाव्य की एक धारा यदि उन विवेकशील रचनाकारों द्वारा निर्मित हुई जिन्होंने युगबोध-सम्पन्न मानस से परिवर्तन रूप-शैली में काव्य-रचना करते हुए रचना के शिल्प को उसकी वस्तु के आंतरिक आग्रह के अनुकूल ही ग्रहण किया तो दूसरी धारा का प्रतिनिधित्व करने वाले गीतकार मुख्यतः परम्परित एवं मात्र छंदोबद्ध रचना में ही संलग्न थे। चूंकि दूसरी धारा के रचनाकारों का अधिकांश सृजन छंदोबद्ध था इसलिए गीतकवि के रूप में जितनी मान्यता उन्हें मिली, उतनी पहले वर्ग के रचनाकारों को नहीं मिल सकी।

पांचवें एवं छठे दशक में इन दोनों प्रकार की रचनात्मकता के बीच कतिपय कारणों से एक प्रकार के प्रवृत्तिगत तनाव की स्थिति पैदा हो गयी। लेकिन एक ओर न तो ये गीत-कवि खुद को मंचीय प्रलोभनों से मुक्त कर पाए और न ही इनके द्वारा ‘नयी कविता’ के समानान्तर गीत-रचना का सिद्धान्त-विवेचन पक्ष अपेक्षित तौर पर प्रस्तुत किया जा सका। फलतः जहां ‘नयी कविता’ अपनी रचनात्मकता, सैद्धांतिक स्थापनाओं तथा आलोचकीय सहयोग एवं स्वीकृति के द्वारा पांचवें छठे दशक में हिन्दी कविता के क्षेत्र में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गयी वहीं गीत उपेक्षित हो गया। यह वही समय था जब एक ओर ‘अज्ञेय’ द्वारा गीत को ‘गौण विधा’ कहकर अपमानित किया जा रहा था तो दूसरी ओर प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं में गीत का प्रकाशन लगभग बंद हो चुका था।

ऐसी स्थिति में वही हुआ जो ऐतिहासिक क्रम में अनिवार्य तथा युग-स्थितियों के दबाव का अपरिहार्य विस्फोट होता है। छठे दशक के अन्त में गीत की अक्षय शक्तिमत्ता के प्रति आस्थावान कुछ युगबोध-सम्पन्न रचनाकारों ने पुनः एक बार इस उपेक्षित, निराश्रित एवं परिस्थितियों से प्रताड़ित विधा को प्रस्तुत और प्रस्थापित करने का प्रयत्न किया। ओम प्रभाकर के शब्दों में “इन्हीं निःस्वार्थ प्रयत्नों में एक, 1958 में, कविवर राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा प्रस्तुत ‘गीतांगिनी’ है- जिसकी भूमिका में उन्होने गीत की नवगीत में संभाव्य परिणति देखी। ” (ओम प्रभाकर: नया आलोचक-पृ॰ सं॰ 6)

हिन्दी कविता के इतिहास में ‘छायावाद का मेनिफेस्टो’ के रूप में जो महत्व ‘पल्लव’ की भूमिका का है, हिन्दी नवगीत संदर्भ में ‘गीतांगिनी’ की भूमिका का भी वही महत्व है, जिसमें बतौर सम्पादक राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने पहली बार यह उद्घोषित किया था—“नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे धातव्य कवियों का अभाव नहीं है, जो मानव जीवन के ऊंचे और गहरे, किन्तु सहज नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छित्ति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज संवार कर नयी ‘टेकनीक’ से, हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं। प्रगति और विकास की दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता की प्रगति का पूरक बनकर ‘नवगीत’ का निकाय जन्म ले रहा है। नवगीत नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा। ”

इस उद्घोषणा से गुजरने पर किसी भी विवेकशील साहित्यिक को यह सहज अनुभव होगा कि इसमें किसी प्रवर्तक का पैंतरा नहीं, बल्कि उद्घोषक का उल्लास है। ‘गीतांगिनी’ के संपादकीय में दी गई स्थापनाओं की मूल्यवत्ता को स्वीकार करते हुए डॉ॰ रवीन्द्र भ्रमर ने लिखा है -- “गीतांगिनी सम्पादक की यह उक्ति आज पूर्ण रूप से चरितार्थ हो रही है। आज तो गीत की परिभाषा ही बदल गई है। ऐसी कोई भी रचना जिसमें एक अर्थगत आलाप और भावगत संगीत हो- गीत की संज्ञा की अधिकारिणी बन बैठी है। ”

‘गीतांगिनी’ के सम्पादकीय के रूप में वस्तुतः नवगीत का घोषणा-पत्र प्रस्तुत करते हुए राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के जिन पाँच विकासशील तत्वों को निरूपित किया है, वे हैं— जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व, और परिसंचय। यदि हम हिन्दी गीत-काव्य के इतिहास पर वस्तुनिष्ठ होकर विचार करें तो स्पष्ट होगा कि ‘नवगीत’ के पूर्व गीतों में दर्शन की प्रचुरता थी- जीवन दर्शन की नहीं; धर्म, नैतिकता और रहस्य की निष्ठा का स्रोत था- व्यावहारिक आत्मनिष्ठा का नहीं; व्यक्तिवादिता थी- व्यक्तित्व-बोध नहीं, प्रणय- शृंगार था,-जीवनानुभव से अविभाज्य प्रीति-तत्व नहीं, तथा सौंदर्य एवं मार्मिकता के प्रदत्त प्रतिमान थे,- प्रेरणा की विविध विषय-वस्तुओं के परिसंचय का सिलसिला नहीं। ‘गीतांगिनी’ में संकलित नवगीतों पर विचारने से हम पाते हैं कि इसके सम्पादकीय में निरूपित पांचों तत्व गीत के स्वभावगत परिवर्तन को रेखांकित कर स्वयंसिद्ध हुए हैं। ये विशेष तत्व, वस्तुतः नयी पीढ़ी के स्वभाव में भी बदलाव ला रहे थे, जो उस पीढ़ी के गीतकारों में उजागर हुए। कालान्तर में ‘गीतांगिनी’ को हिन्दी नवगीत का नाम-लक्षण-निरूपक प्रथम ऐतिहासिक संकलन तथा इसके सम्पादक को नवगीत के नामकर्ता, तत्व-निरूपक एवं तत्पर व्याख्याता और निःस्वार्थ प्रवर्तक के रुप में स्वीकार किया गया।

‘नयी कविता’ और ‘नवगीत’ का अन्तःसंबंध

‘नयी कविता’ और ‘नवगीत’ के परस्पर सम्बंध को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है। विद्वानों का एक वर्ग यदि नवगीत को नयी कविता के अंतर्गत शुमार करता है तो दूसरा इसे नयी कविता के समानान्तर काव्य प्रवाह के रूप में घोषित करता है। इसी प्रकार कुछ महानुभावों को नवगीत यदि बौद्धिक काव्य के ‘पैटर्न’ की प्रतिक्रिया में फिर छायावादी पैटर्न का पुनरुद्धारक प्रतीत होता रहा है तो कई कवि-आलोचकों ने नयी कविता और नवगीत के मध्य परस्पर सम्पूरकता स्थापित करने की चेष्टा की है।

नवगीत की रचना एवं आन्दोलन-चेष्टा को प्रतिक्रिया स्वरूप मानने वाले आलोचक भ्रम में हैं। जिन्होंने नवगीत को बौद्धिक काव्य के पैटर्न की प्रतिक्रिया में फिर छायावादी पैटर्न का पुनरुद्धारक माना है या जिन्हें यह ‘नयी कविता’ की प्रतिक्रिया में ‘निनकेम्पुप’ कवियों द्वारा छोड़ा गया एक लंगड़ा ऊँट’ दिखता रहा है उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि नवगीत पूरकता के अत्यन्त विशिष्ट संबंध में नयी कविता से संपृक्त है। यह पूरकता परिमाण-मूलक न होकर गुणात्मक पूरकता है जो आमंत्रित या आरोपित नहीं हो सकती। इसी आशय से, कविता-मात्र को अविभाज्य संदर्भ में रखकर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ‘गीतांगिनी’ में स्वीकारा था –

“नयी कविता के सात मौलिक तत्व हैं- ऐतिहासिकता, सामाजिकता, व्यक्तित्व, समाहार, समग्रता, शोभा, और विराम, तो पूरक के रूप में ‘नवगीत’ के पाँच विकासशील तत्व हैं - जीवनदर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्वबोध, प्रीति तत्व और परिसंचय। “

वस्तुतः नवगीत को नयी कविता का दूसरे अर्थों में पूरक मनाने वाले लोग दोनों की रचना-प्रक्रिया की जगह दोनों आंदोलनों को ही परस्पर पूरक मान बैठे हैं। जबकि असलियत उलटी है। वस्तुतः दोनों के बीच पूरक संबंध, दोनों की रचना-प्रक्रियाओं के भिन्न पहलुओं का मनोनीत संबंध है, जिसके अभाव में शायद कविता मात्र की रचना-प्रक्रिया सम्पूर्णता प्राप्त नहीं करती। इसकी युक्ति-संगति को अपनी साक्षात्कार-वार्ता में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने स्पष्ट किया है :

“जहां तक सौन्दर्य-बोध का प्रश्न है, नयी कविता में यदि यह परिवेशगत चुनौती के फलस्वरूप वस्तुनिष्ठता या आत्मनिष्ठता के ध्रुवांतों पर सक्रिय है; तो नवगीत में सौंदर्यबोध, परिवेश की सहजता के फलस्वरूप आत्मीयता के समतोल में संचरित है। इसलिए नयी कविता का सौंदर्यबोध, जहां अभिव्यक्ति में अनुभव और उसकी प्रतिक्रिया का प्रक्षेपण करता है; वहाँ नवगीत के सौंदर्यबोध में अनुभव और उसके प्रति आसक्ति का प्रक्षेपण होता है। जिसके फलस्वरूप नयी कविता की अभिव्यक्ति नवगीत की तरह संलयात्मक न होकर मुख्यतः चित्रात्मक हो जाती है। ”

नयी कविता से नवगीत के अंतसंबंध के प्रसंग में सुप्रसिद्ध नवगीतकार श्री रामनरेश पाठक के विचार ध्यातव्य है :-

  1. नयी कविता जटिलता के प्रति विवश और नकारात्मक है। नवगीत सहजता के प्रति उन्मुख और सकारात्मक है। यह सहजता नये जीवन परिवेश की है, जिसे नयी कविता जटिल कहती है।
  2. (इसीलिए) नयी कविता दुश्चिंता का काव्य है : नवगीत शोभात्मक अथच शुभात्मक बोध का काव्य है।
  3. नयी कविता कथ्य को विश्लिष्ट करके देखती है : नवगीत उसे संश्लिष्ट करके उपस्थित करता है।
  4. नयी कविता कथ्य-प्रधान है, नवगीत मनःस्थिति-प्रधान है। कथ्य के पूर्व की मनःस्थिति का तनाव नवगीत का आंतरिक वातावरण है और कथ्य-विरेचन की क्षमता नयी कविता का।
  5. शिल्प की दृष्टि से नयी कविता चित्र-प्रधान है : नवगीत ध्वनि-प्रधान।
  6. नयी कविता के बिम्ब कथ्य का विस्तार करते हैं : नवगीत के बिम्ब कथ्य का संकोचन करते हैं।
  7. नयी कविता के प्रतीकार्थ स्वतंत्र महत्व रखते हैं : नवगीत में इनका पारस्परिक अर्थ-संबंध महत्व रखता है।
  8. नयी कविता में मुक्त आसंग (फ्री एसोसिएशन) प्रतिक्रियाओं के द्वारा सुलभ है, नवगीत में अनुस्मरण (रिकौल) के द्वारा।
  9. नयी कविता ‘ताल’ अथवा ‘विराम’ की कविता है; नवगीत ‘लय’ और ‘गति’ से जुड़ा है।
  10. नयी कविता में अनुभवशील व्यक्ति ‘सामाजिक’ है; नवगीत में ‘तात्विक’।

इन्हीं आधार-बिन्दुओं पर रामनरेश पाठक ने ‘नयी कविता’ एवं ‘नवगीत’ को परस्पर पूरक माना है। निश्चित रूप से इस ताल-लय-बद्ध पूरकता की परिकल्पना के पीछे कविता-मात्र की संपूर्णता का भाव था, जिसे गलती से अज्ञेय ने नवगीत के विरोध में एक तर्क बना लिया था। एक स्वतंत्र विधा के रूप में नवगीत की विशिष्टता पर विचार करने के क्रम में हमें सर्वप्रथम नवगीत में रचनाकार, प्रतिपाद्य और आस्वादक की हैसियतों से समीकृत मनुष्य की उस अनुभवशील स्थिति पर विचार करना होगा जिसे रामनरेश पाठक ने तात्विक कहा है। नयी कविता में अनुभवशील व्यक्ति यदि सामाजिक और नवगीत में तात्विक, तो इसकी अभिव्यक्ति नवगीत में कैसे और कहाँ तक हुई है- इसे निष्पक्ष होकर विचारना अपेक्षित है, क्योंकि इस सिलसिले में नवगीत का मार्ग नयी कविता के मार्ग से नितांत भिन्न रहा है। नयी कविता के द्वारा इस दिशा में प्रचारित ‘लघुमानव’ और तथाकथित ‘वैज्ञानिक मानवतावाद’, ‘व्यक्तित्व की खोज’ और ‘पहचान की तलाश’, प्रतिबद्धता और स्वच्छंदता, वैयक्तिक स्वातंत्र्य और मूल्य-मर्यादा, वैचारिक मौलिकता और पारिवेशिक दयित्व आदि विवादास्पद प्रसंगों और नारों का प्रभाव नवगीत की रचनाधर्मिता पर न के बराबर पड़ा है। ये तमाम प्रसंग और नारे साहित्यिक आंदोलनों में नेतृत्व की दलीयता की देन थे मगर इनमें छिपी समस्याओं का सामधान नवगीत में आम आदमी की दृष्टि से मिला है –

मानव जहां बैल घोड़ा है,
कैसा तन-मन का जोड़ा है।
किस साधन का स्वांग रचा यह,
किस बाधा की बनी त्वचा यह।
देख रहा है विज्ञ आधुनिक,
वन्य भाव का यह कोड़ा है।
इस पर से विश्वास उठ गया,
विद्या से जब मैल छुट गया
पक –पक कर ऐसा फूटा है,
जैसे सावन का फोड़ा है।

-‘निराला’ : (गीतांगिनी, पृ॰ 6)

नयी कविता के सर्वाधिक द्वन्द्वग्रस्त नारों- ‘व्यक्तित्व की खोज’ (Quest of personality) और ‘पहचान की तलाश’ (Search for Identity) का संबंध उस एकांतवादी एवं व्यक्तिनिष्ठ पहलू से रहा है, जिसमें व्यक्ति अपने पूरे अस्तित्व का सामूहिक नियति से विलगाव (Alienation) अनुभव करने लगता है; पर समूह से जुड़ा रहने के लिए स्वयं को विवश महसूस करता है और इस प्रकार वह अपनी नगण्यता से फलीभूत आत्महीनता की चुनौती स्वीकार करता है। इस आंतरिक क्षोभ के फलस्वरूप वह समूह में भी भिन्न और आत्मिक रूप से स्वतंत्र रहने के लिए अपनी पहचान की तलाश करता है। विदेशों में “एंग्री-हिप्पी-बीट जेनेरेशंस” की अनुभव एवं अभिव्यक्ति की पद्धतियों में सक्रिय रह चुके इन दोनों गड्डमड्ड नारों ने भारत में अनेक भाषाओं की साठोत्तर रचनाशीलता में प्रतिवादी नाटकीयता को उत्प्रेरित किया। इन नारों के खोखलेपन को वैचारिक कविता के कवियों ने 1965 के बाद समझा मगर नवगीतकारों ने सन 1960 के आसपास ही पहचान लिया था कि व्यक्ति और समाज के सहज संबंध को नकारना एक तरह से वैज्ञानिक सूझ-बूझ से ही मुँह मोड़ना होगा। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के ‘मैं का गीत’ से पता चलता है कि वस्तुतः वैयक्तिकता के रचनात्मक विकास से ऐसे दायभागी व्यक्तित्व का गठन होना चाहिए जिसकी पहचान पूरे दायित्व के निर्वाह में हो। यहीं ध्यातव्य है कि पुराने गीतकारों ने भी नवगीत के दौर में व्यक्ति को आम आदमी से जोड़ कर देखा है-

“आज तू ही बोल मेरे भी गले से। ”

बच्चन (गीतांगिनी, पृ॰ 32)

किन्तु राजेन्द्र प्रसाद सिंह की पंक्तियाँ ‘मैं का गीत’ में घोषित करती हैं :

“तुम हो तो अपने दृष्टिकोण की सीमा हो,
वे हैं तो एक परिस्थिति में कट रहते हैं,
मैं भी हूँ, यह अभिमान नहीं, अपराध नहीं,
मैं तो प्रतीक सबका है, जो- ‘मैं’ कहते हैं। ”

(गीतांगिनी)

यहाँ नवगीतकार अपने व्यक्तित्व के बहुमुखी अंतःसंगीत में दूसरे का साझी है जिससे आम आदमी के समूह में सलयात्मक आंतरिकता पैदा हो सकती है। अतः कहना अनुचित न होगा कि नवगीत के मूल स्वर “व्यक्तित्व-बोध” का अभिप्राय सामूहिक सापेक्षता में आम आदमी का ही बोध है, जिसके अनुभव को सूक्ष्म स्तर पर “व्यक्तित्व के बहुमुखी अंतःसंगीत” का बोध भी मान सकते हैं। राजेन्द्र प्रसाद सिंह की उपर्युक्त मान्यताओं को इसी व्याख्या से रेखांकित करना योग्य है।

‘गीतांगिनी’ में नवगीत-घोषणा के साथ ऐसे गीतों का सम्पादन कर, ‘निराला’ से रौबिन शा ‘पुष्प’ तक, पाँच पीढ़ियों के नवगीतकारों के प्रायः नब्बे नवगीतों को संकलित कर, प्रस्तुत गीतों को पहली बार ‘नवगीत’ के नाम से अभिहित कर और संपादकीय आलेख में नवगीत के आरंभिक लक्षणों एवं तत्वों का निरूपण कर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने वस्तुतः ऐतिहासिक कार्य सम्पन्न किया। इसे उनके समर्थकों और विरोधियों के द्वारा भी और आधुनिक हिन्दी काव्य एवं गीतकाव्य के भ्रम-मुक्त साहित्येतिहासकारों द्वारा सर्वथा स्वीकार कर लिया गया है; जिसके विरुद्ध कोई भी और किसी की दलील थोथी समझी जाएगी- यह अकाट्य है। यह अकाट्य इस लिए भी है कि ‘गीतांगिनी’ में ही पहली बार नवगीतकार की हैसियत से शंभुनाथ सिंह, डॉ॰ धर्मवीर भारती, डॉ॰ चंद्रदेव सिंह आदि रचनाकार अपनी रचनाओं के साथ सम्मिलित हुए, जिन्हें कालांतर में अपने आगे राजेन्द्र प्रसाद सिंह का ‘नवगीत-प्रवर्तक’ पद स्वीकार्य नहीं हुआ। उनमें अग्रधावी डॉ॰ शंभुनाथ सिंह हैं, जिनके द्वारा स्वीकृत तथाकथित नवगीत के दो ही मूलतत्व हैं- आधुनिकता बोध और लोक तत्व। ज्ञातव्य है कि गीतांगिनी में राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दो ही नवगीत हैं और दोनों क्रमशः उन्ही मूल तत्वों को मूर्तित करते हैं- पूरी मौलिकता और गम्भीरता से। आधुनिकता-बोध की रचना ‘जीवन-दर्शन’ खंड के अंतर्गत है : ‘मैं का गीत’। चुनौती का स्वीकार पहली पंक्ति में ही है :

“मैं अरुण-नील अम्बर की सुधा अगर पी लूं,
तो गरल हवा का, लपट धरा की कौन पिये? ”

आगे की पंक्तियों में पाश्चात्य आधुनिकता की संक्रामक लहर का खुलासा करता हुआ कवि कहता है :-

जो नागिन डँसकर मुझे, तुम्हें, उन लोगों को,
बन गई रूप से चित्र और निवसी मन में,
वह और न कोई सिर्फ आधुनिक छलना है,
वह ज्वालाओं की सेज बिछाती जीवन में।

निम्नलिखित पंक्तियों में फैसला लेने की मुद्रा में कवि दृष्टिगत है-

“मैं भी लूं मुखड़ा ढाँक घुटन की चादर से
तो तार-तार आंचल जनता का कौन सिये?”

(‘गीतांगिनी’, पृ.18)

‘गीतांगिनी’ में ही राजेंद्र प्रसाद सिंह का लोकतत्वमूलक दूसरा नवगीत “नूरानी परस” संकलित है जो “झूमर” के एक लोक-छंद में विन्यस्त है :-

“वह नूरानी परस तुम्हारा तन में मन की याद है;
झूल रहा अंखियन डोरों में दिल सिंदूरी चांद है। ”

उपर्युक्त पंक्तियाँ अपना पता देने में स्वयं सक्षम हैं। साथ ही इनसे यह भी जाहिर होता है कि ‘नवगीत’ उस युग में किस प्रकार काव्य-भाषा के क्षेत्र में भी महत्वपूर्ण और दूरगामी अभियान था।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह की प्रथम स्वतन्त्र नवगीत कृति : ‘आओ खुली बयार’

“आओ खुली बयार” (1962) राजेन्द्र प्रसाद सिंह के रचित पचास सुरुचिपूर्ण नवगीतों का संग्रह है। इस कृति के प्रारम्भ में कवि ने “विधि” शीर्षक से नवगीत पर 12 पृष्ठों का महत्वपूर्ण प्राक्कथन लिखा है जो नवगीतों के विश्लेषण के साथ-साथ प्रस्तुत संकलन की रचनाओं के विश्लेषण पर भी अच्छा प्रकाश डालता है। इससे भलीभाँति ज्ञात है कि इस कृति की रचनाएँ आनुषंगिक नहीं प्रत्युत नवगीतों के पथ-अनुसरण और प्रदर्शन की प्रायोगिक सफल अभिव्यक्तियां हैं। ‘गीतांगिनी’ (1958) के संपादकीय के रूप में कदाचित् नवगीत का घोषणा-पत्र प्रस्तुत करते हुए, बतौर सम्पादक, राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने लिखा था “नवगीत-नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकारा होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा। ” आलोचनात्मक दृष्टि से विचारने पर स्पष्ट होता है कि ‘आओ खुली बयार’ के नवगीत उक्त उद्घोषणा को भली भांति चरितार्थ करते हैं।

इस कृति के अनेक नवगीतों में रचनाकार द्वारा उन्मुक्त छंद-प्रयोग और मिश्रित छंद-समाहार अत्यन्त कुशलता से किया गया है जो सिर्फ लय-संधि और ताल-क्षेप के बार-बार बदलाव से नृत्यगीत, संवादगीत, चित्रगीत, बिंबगीत और ध्वनिबंध के गीत की भूमिका उत्पन्न करने में सक्षम हैं। साथ ही इस कृति की अनेक रचनाओं में 1962 के पूर्व से ही नवगीत के प्रस्तुत्यकला में भी विकास के बीज दृष्टिगत होते हैं।

पाश्चात्य आधुनिकता का भारतीय विन्यास- “रॉक-एन-रॉल” के लयावर्त्त पर आधारित नवगीत- “एक रूप, एक नगर और है”- की कुछ पंक्तियों से भी इस तथ्य की पड़ताल की जा सकती है-

एक रूप जिसमें आयाम नहीं,
केवल आसंगी, कुछ नाम नहीं,
एक नगर जिसमें दीवार नहीं,
धरती पर अम्बर हो, द्वार नहीं,
एक कूल, जो जल में डूबा हो,
लीन रहे पर न कभी ऊबा हो,
एक लहर, ज्वार बने, जाम जाए,
चंचल क्षण देख जिसे थम जाए,
एक धूल, उड़े दृष्टि रंगो से,
सुरधनु उग आए आसंगों से,
एक डगर, जिसके हों छोर नहीं,
एक डगर, मुड़े किसी ओर नहीं।
यह हवा,ॱॱॱसांस यह?
यह नदी,ॱॱॱप्यास यह?
यह विभा,ॱॱॱआस यह?
नहींॱॱॱनहीं, एक और है? ”

(आओ खुली बयार, पृ॰ सं॰ 27)

राजेन्द्र प्रसाद सिंह प्रारम्भ से ही आधुनिकता-बोध के हिमायती रहे हैं, आधुनिकता के नहीं। इसीलिए पश्चिमी संगीत की विभिन्न धुनों पर आधारित उनकी रचनाएँ भी अपनी विशिष्ट जातीय पहचान से युक्त हैं। दूसरे शब्दों में कवि ने पाश्चात्य आधुनिकता को ज्यों का त्यों न अपनाकर अपनी रचनाओं द्वारा एक जवाबी भारतीय आधुनिकता के संवेदना-संसार का सृजन किया है। इस सृजन का चरमोत्कर्ष जहां अपने शीर्ष पर है, वह मुकाम ‘आरोही का गीत’ शीर्षक रचना के अन्त में आया हैॱॱॱ

“लालसा पहाड़ की फसल,
ढाल-ढाल झूमती हुई,
बाढ़ से बची रहे मगर,
मेघों को चूमती हुई।
ज़िंदगी खुदी नहीं,
रेत की नदी नहीं,
प्यार धार बांध कर झरे,
तुम भरी-भरी लगी मुझे,
आँधियाँ लिए संभल पड़ीं।

× × ×

तुम नयी नयी लगी मुझे,
धुंध से अभी निकल पड़ी। ”
(आओ खुली बयार, पृ॰सं॰ 35)

झरनों की तरह कुलांचती युवा मानसिकता के ऐसे नवगीत यदि एक ओर इस कृति में बड़ी संख्या में बज रहे हैं तो दूसरी ओर लोकतत्व को मुखर और उजागर करती रचनाएँ भी यहाँ कम नहीं हैं। विकसित क्षमता से उकेरी गई एक लोक-झांकी द्रष्टव्य है-

“पूनम को मैंने ना दियना जलाये,
इस मावस के इन्तजार में।
सांझ के अपूरे ही चौक रहे/मेरे आँगन,
रात के अधूरे ही बोल रहे/चुप मेरे मन,
हाय! उधर जाएँ ना हिय के सब धागे;
बस रह गई इसी विचार में!
चन्दन की रात कभी बीत गई/ किसी तरह यों,
काजल की रात भी कटेगी यह/उसी तरह क्यों?
ऐसे आए कि पिया हो गए पराये,
मुरझा गए दिये कतार में!
ॱॱॱइसी मावस के इन्तजार में! ” (पृ॰ सं॰ 39)

राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने अपने नवगीत-विश्लेषण-क्रम में हमेशा ‘शब्द की लय’ या ‘अर्थ की लय’ की अपेक्षा ‘मनोलय’ को अधिक महत्वपूर्ण माना है। उनके ही शब्दों में “नवगीत की वेधकता इसी में है कि उस समग्र मनःस्थिति की लय को, भाषा के विन्यास में, कथ्य की काँट-छाँट और अर्थ की लय के हावी होने से बचाकर पूरे अनुभव के ही केन्द्रण के द्वारा, अधिकाधिक संक्रमणशील बनाया जाए। ” इसके साथ ही उन्हे आशा है कि आज-न-कल नवगीत के स्वतंत्र सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमान अवश्य निर्मित होंगे जिनके द्वारा उसके शैलीक वैशिष्टय का विवेचन संभव हो सकेगा। इस दृष्टि से विचारणीय उनकी एक रचना के कुछ अंश द्रष्टव्य हैं जिनमें नवगीत के अपने सौंदर्शस्त्रीय के लिए धातव्य मनोलय के दृश्याधार (visuals) देखे जा सकते हैं-

लहरों में आग रुपहली,
ओ S S पुरवाई!
एक मौन की धुन से
हार गई शहनाई।

प्रथम पंक्ति में चित्रित ‘रुपहली आग’ और कुछ नहीं, पुरवा हवा के झोंके से आलोड़ित किसी याद आती नदी में लहरती तटवर्ती प्रकाश-पंक्तियाँ हैं। इसी प्रकार ‘शहनाई की धुन’ का ‘मौन की धुन’ से हार जाना भी टूटे हुए दाम्पत्य-सूत्र का संकेतक ध्वनि-बिम्ब है। रचना की अगली पंक्तियों में नववधू के चित्रांतर, आसंग (association) तथा उसके अंतर्द्वंद को अभिव्यक्ति दी गई है।

जामुनी अंधेरे की,
गजरीली बाहों में,
एक नदी कैद है निगाहों में।
रूठ नहीं पाती-
इन साँसों पर झुकी हुई परछाई।

यहाँ अंधकार की गहनता को व्यक्त करने के लिए दिया गया ‘जामुनी’ विशेषण यदि खुद में एक अछूता प्रयोग है तो ‘गजरीली बाहों’ की मादकता तथा ‘साँसों पर झुकी परछाई’ की भोग-व्यंजना व्याख्या की अपेक्षा नहीं रखती। इसमें महत्वपूर्ण है दोनों चित्रों के बीच व्यक्त नायिका का वह अंतर्द्वंद, जो रचना के इस अंश को नववधू के चित्रित आसंग के रूप में द्योतित करता है। अन्तिम अंश में टूटे हुए दाम्पत्य का मनोबिम्ब एवं संघर्षी जिजीविषा का चरम चित्र दर्शनीय है-

चाँद बिना आसमान
डूब गया धारा में,
लहक भी न उठती
तो हाय! क्यों न बुझती
अब इन ठंडे शोलों की अंगड़ाई।

(आओ खुली बयार, पृ. 54)

राजेन्द्र प्रसाद सिंह उन गिने-चुने रचनाकारों में एक है, जिनमें रचना में अंकुरित होते कथ्य को अनेक भंगिमाओं से व्यक्त करने की प्रवीणता है। यह गुण उसी कवि में पाया जाता है, जो अनुभव और अभिव्यक्ति के बीच संतुलन कायम रख पाने में सक्षम होता है। अन्यथा, अनुभव के प्रति अधिक मोह रखने वाले रचनाकार प्रायः अभिव्यक्ति को दोयम दर्जे का कर देते हैं अथवा अभिव्यक्ति पक्ष पर अतिरिक्त मोह होने से चमत्कार तो उत्पन्न हो जाता है पर उसके द्वारा घनीभूत अनुभव सही-सही अभिव्यक्त नहीं हो पाता है। नवगीत कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह अनुभव की गहराई में प्रवेश करते समय यह नहीं भूलते कि उसकी सफल अभिव्यक्ति के लिए काव्यभाषा कैसी होनी चाहिए। इस क्रम में उनहोंने अभिव्यक्ति के कुछ ऐसे पहलुओं का अन्वेषण किया है जिससे भाषा की शक्ति बढ़ी है। इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है –

ढँक लो और मुझे तुम,
अपनी फूलों सी पलकों से, ढँक लो।
अनदिख आँसू में दर्पण का,
रंगों की परिभाषा,
मोह अकिंचन मणि-स्वप्नों का
मैं गन्धों की भाषा,
ढँक लो और मुझे तुम
अपने अंकुरवत अधरों से ढँक लो।

रख लो और मुझे तुम,
अपने सीपी-से अन्तर में रख लो।
अनबुझ प्यास अथिर पारद की,
मैं ही मृगजल लोभन,
कदली-वन; कपूर का पहरू
मेघों का मधु शोभन।
रख लो और मुझे तुम
अपने अनफूटे निर्झर में, रख लो।

सुप्रसिद्ध साम्यवादी मनोवैज्ञानिक एरिक फ्राम ने अपनी पुस्तक “आर्ट ऑफ लव” में प्रेम के संदर्भ में विचार करते हुए जिस कोमलता (टेंडरनेस) एवं प्रेमी युगल द्वारा परस्पर सुरक्षा देने की भावना को महत्वपूर्ण माना है वही- जैसे इस प्रतिनिधि प्रेम-परक नवगीत का थीम है। गीत की प्रथम पंक्ति से ही स्पष्ट है कि अनुभव की किस गहराई तथा कोमलता से यह रचना उदभूत हुई है। उपर्युक्त अंश पर ध्यान देने से स्पष्ट होता है कि पहले बंद में यदि अकथ्य का कथन व्यक्त हुआ है तो दूसरे में विपरीत की एकता को अभिव्यक्ति दी गई है। दूसरे बंद की अंतिम पंक्ति में कवि द्वारा प्रयुक्त ‘मेघों का मधु’ स्वाति जल के लिए दूसरा नाम है जो उसकी निजी भाषागत सुरुचि का परिचायक है। अन्तिम बंद में ज्ञात उपकरणों के माध्यम से नए अज्ञात संबंधों की सृष्टि कर नवार्थों का स्फुरण (nuances) द्रष्टव्य है-

“सह लो और मुझे तुम,
अपने पावक-से प्राणों पर सह लो। ”

यहाँ पावक-से प्राणों पर सहने की बात इसलिए की जा रही है, क्योंकि आगे का ‘मैं’ ‘रुई का सागर’ है :

“मैं हो गया रुई का सागर,
कड़वा धुआँ रसों का,
कुहरे का मक्खन अनजाना,
गीत अचेत नसों का,
सह लो और मुझे तुम,
अपने मंगल वरदानों पर सह लो। ”

(आओ खुली बयार पृ॰सं॰ 55)

इस गीत की विभिन्न अंतराओं में एक क्रम है और ऐसा लगता है जैसे कोई अपने अस्तित्व और व्यक्तित्व की भीतरी रचना को संवेदना की कई सतहों पर क्रमशः खोल रहा हो। रचना की अन्तिम पंक्ति हैॱॱॱ ‘मंगल वरदानों पर सह लो’ॱॱॱ वस्तुतः यह सृजन का उन्मेष है। साथ ही इससे यह भी साफ पता चलता है कि यह किसी भारतीय कवि की रचना है

‘आओ खुली बयार’ में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने नवगीत के निकाय में जो नये ‘प्रार्थना गीत’ प्रस्तुत किए हैं उन्हे ‘निराला’ के स्वप्न-गीतों की शृंखला से वैसे ही नहीं जोड़ा जा सकता है, जैसे तुलसी की ‘विनयपत्रिका’ के गीतों से ‘निराला’ की तद्विषयक रचनाओं को। क्योंकि युग-बोध और जन-पक्ष की संधि पर प्रश्न-मुद्रा में उपस्थित ये नये प्रार्थना-गीत भी आधुनिकतालोचन से आगे बढ़कर सभ्यतालोचन की दिशा में सक्रिय हैं। एक उदाहरण द्रष्टव्य है-

“आज संस्कारों का अर्पण लो!
गुहा-मनुज मुझ में चुप/प्रस्तर–युग मौन,
धातु-छंद से मुखरित/करतल-ध्वनि कौन?
मध्ययुगी रक्त-स्नात यौवन का दर्पण लो!
आधुनिक मनुज मेरे/नख शिख में लीन,
विद्युन्मुर्च्छिता/धरा में यंत्रासीन,
‘इहगच्छ, इहतिष्ठ’- अजिर का समर्पण लो।
लो, अब स्वीकारो यह व्यापक सन्देह,
अपने प्रति शंका का उद्वेलित गेह,
विगत के कुशासन पर आगत का तर्पण लो
आज संस्कारों का अर्पण लो। ”

(आओ खुली बयार, पृ॰ सं॰ 98)

समग्रत: कहा जा सकता है कि ‘नयी कविता’ के प्रक्रियात्मक (processive) दृष्टिकोण के कवि राजेन्द्र प्रसाद सिंह की कृतियाँ कदाचित उनके सीमांतक (marginal) संस्कारों की देन हैं। पूरे संग्रह में नव्य कल्पना के जाल यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। इसकी सुंदर भावाभिव्यक्तियाँ ओज और प्रसादपूर्ण भाषा के वहन से सहज ही पाठक को अपनी ओर उन्मुख करने में सक्षम हैं। आचार्य श्री शिवपूजन सहाय की भविष्यवाणी, जो कभी ‘भूमिका’ पढ़कर मुखर हुई थी- “कल्पना का चमत्कार, अभिव्यंजना का सौंदर्य, भाव की गहनता और भाषा की प्रौढ़ता देखकर यही कहना पड़ता है कि कवि ईश्वरदत्त प्रतिभा का प्रसाद पाकर हिन्दी को कुछ अपूर्व चीजें देने आया है”- ऐसी रचनाओं में चरितार्थ होती है।

‘आओ खुली बयार’ (1962) की विभिन्न रचनाओं में मिले एक ओर उन्मुख युवा मानसिकता की सर्वव्यापिनी ऊर्जा के सक्रिय चित्र- जितना अर्थ संकेतित करते हैं, उतना ही वे गेयता की नयी यात्रा में लय-ताल-बद्ध भी हैं। पाश्चात्य आधुनिकता को तल तक समझकर, एक जवाबी भारतीय आधुनिकता का संवेदना-संसार सिरजते हुए, राजेन्द्र प्रसाद सिंह का रचनात्मक प्रकर्ष ‘आओ खुली बयार’ की जिन रचनाओं में देखा जा सकता है, वे है ‘अपरिचय की शपथ’, ‘ओ अतिथि, मेरे द्वार के’, ‘एक नगर, एक रूप और है’, ‘शिशिर गंध, उन्मुक्ति का सहगीत’, ‘आरोही का गीत’, ‘टेलीपैथी के गीत’, खंड की सब रचनाएँ, ‘प्रार्थना गीत-7’, इत्यादि। इन गीतों के अलावा लोकतत्व के गीतों में ‘आओ खुली बयार’, ‘पीछे, आगे, साथ’, ‘जरा दम तो लें’(युगल गान), ‘मावस के इंतजार में ’,‘कपूरी दीये’, ‘ओ पुरवाई’,‘एक युग का बारहमासा’ आदि भी उल्लेखनीय हैं।

‘भरी सड़क पर’ (1980) राजेंद्र प्रसाद सिंह की दूसरी नवगीत कृति है जिसमें नगरीय एवं ग्रामीण निम्न मध्यवर्ग की संवेदनात्मक मनःस्थितियों का सार्थक मूर्तन हुआ है। इसके नवगीतों के द्वारा रचनाकार ने नवगीत की विधागत प्रौढ़ता को जनबोधी नवगीत के रूप में एक नया आयाम देने की पेशकश की है।

‘गीतांगिनी’ (1958) के सम्पादकीय में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने नवगीत को नयी कविता का पूरक माना था। किंतु, ‘भरी सड़क पर’ की भूमिका में जब उन्होंने लिखा कि “अब तो नवगीत नयी कविता का पूरक नहीं, स्वायत्त विधा है।” उन्हीं की कलम से नवगीत की समानान्तर स्वायत्तता की घोषणा अत्यंत ही महत्वपूर्ण सिद्ध हुई। इस घोषणा की पृष्ठभूमि में सन् 1958 से 1980 तक नवगीत के रचनाभियान एवं स्वीकृति-संघर्ष के वे मोड़ हैं, जिनको पार करती हुई यह विधा कविता और ‘किस्म-किस्म की कविता’ के बिखराव से खुद को बचाकर आधुनिकता-बोध और युगबोध विकसित करती रही तथा आठवें दशक में जनबोधी स्वरूप् को ग्रहण कर जनसंघर्षों से जुड़ने लगी। आठवें दशक में नवगीत की स्वायत्तता को सहर्ष उद्घोषित करते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा - “अब नवगीतकार आंचलिक राग-लय का चितेरा, यंत्रीयता और नगरबोध का सहगाता या चेतन सामूहिकता तक, किसी भी अनुभव के मनःसंश्लेष की अपूर्व, अद्वितीय और संलयात्मक अभिव्यक्ति का नियन्ता है।” ‘भरी सड़क पर’ के नवगीत, रचनाकार के शब्दों में ‘मध्यवर्गीय जीवनानुभव और जिजीविषा के अभिव्यंजक’ वैसे नवगीतों की श्रेणी में हैं- “जिसमें मानवीयता की सहसंघर्षी अनुभव-दृष्टि है।” (भूमिका) जाहिर है कि यही अनुभव दृष्टि पूरे मध्यवर्गीय जनबोध की धुरी है।

इस संग्रह का पहला नवगीत ही मध्यवर्गीय जीवन की विडम्बना को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करता है-

“भरी सड़क पर
कुमकुमे जले हैं
कोई सुई हम
ढूँढने चले हैं।”

(भरी सड़क पर - पृ. 1)

इस वर्ग की बड़ी विडम्बना यह है कि अपनी चाहत और दूसरों से उम्मीद के रिश्ते की फटी हुई चादर को सिलने वाली सुई अपने ही घर में खो देने वाला इसका प्रतिनिधि, उसे भरी सड़क पर ढूंढ़ रहा है।

इस कृति की दूसरी रचना में ‘सुबह: दोपहर: शाम’ के अंतर्बंधों में श्रमजीवी एवं कार्यालय-कर्मी समुदायों की यंत्रणामयी दिनचर्या अपनी पूरी मार्मिकता एवं स्वाभाविकता के साथ चित्रित हुई है। वस्तुतः मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था ने आज के आदमी को यांत्रिक जीवन जीने के लिए बाध्य कर दिया है जिसमें उसके जीवन की सुबह, दोपहर और शाम ने अपनी स्वाभाविक पहचान खो दी है। यंत्र-सदृश जीवन जीने को अभिशप्त आधुनिक मनुष्य की मानवीय पहचान से रहित शाम का चित्र द्रष्टव्य है-

“शाम गीत की ढली
चले कुचले से हम राहों पर!
छुट्टी पाते ही घिर आई
घटा नशीली, जोत रंगीली
बिन बरसे गहराई!
बँध चले सभी आटोप से,
दर्पण को लेते चूम
निरे आरोप से।”

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 4)

महानगरीय जीवन की विसंगतियों को उजागर करने वाली इस कृति की तीसरी रचना ‘महानगरी: तारा’ का मुख्य सरोकार आलोचनात्मक यथार्थवाद हैं। महानगरीय बोध को लेकर रचित इस नवगीत में एक रचनाशील व्यक्तित्व की घुटन एवं पराजय को अभिव्यक्ति मिली है :

“महानगरी के गगन का/एक तारा!
धूमिल गगन में वास/धूसर हवा में सांस,
चुपचाप जलता फूल/बिम्बित दहकती प्यास,
घुटन के तम में जला है/दीप धीरज का;
यातनाओं में पला वह/शौर्य हारा! ”

इस रचना की अंतिम पंक्तियां महानगरीय जीवन की उस विद्रूपता को बिल्कुल नंगा कर देती हैं जिसकी परिणति है महानगरीय आसमान में एक टिमटिमाते हुए तारे की तरह तुच्छ जीवन जीता किसी रचनाशील व्यक्तित्व का अनुकूलन-

“दण्ड पा अपराध सीखे
-जन्तु न्यारा!
-एक तारा!"

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 5)

निश्चित रूप से यह पूंजीवादी आधुनिकीकरण ही है जिसके अनुकूलन चलते मनुष्य अपनी सहज-स्वाभाविक प्रवृत्तियों से विलग पशु बन कर निर्वासन का शिकार हो जाने के लिए अभिशप्त है और कहने कि ज़रूरत नहीं कि निर्वासित व्यक्ति के लिए पाशव ही मानवीय और मानवीय पाशव हो जाता है।

राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा है कि “नवगीत में नगरबोध मौजूदा मनोदशा की असलियत और पूंजीवादी आधुनिकीकरण की नीयतों के अन्तर्विरोधी अनुभव के स्तर पर स्वीकृत हुआ है।” अतः वहाँ औद्योगीकरण के कारण मिल मालिक और मजदूरों के संघर्ष तथा जीवन की भागदौड़ आदि के अनेक चित्र देखे जा सकते हैं। ‘भरी सड़क पर’ की पांचवीं रचना ‘ना साधू-ना चोर’ में झुग्गी-झोपड़ी में अपनी जिंदगी गुजार देने को मजबूर मिल-मजदूरों की जीवनस्थिति का जायजा इन पंक्तियों में लिया गया है-

“ओ भैया, ना साधू ना चोर
हम मुंहजोर झुग्गी वाले!
चटकल की चिमनी ने आज तरेरी आँखें,
मिल की भट्ठी आग-लहू का भेद मिटाती!
करखनिया मजदूर/इकट्ठे हिम्मत से भरपूर
नशे में चूर,-कबीरा गाते.....”

इस रचना के माध्यम से कवि ने धर्म की अफीम खिलाकर सर्वहारा को अनुभूति-शून्य बना देने वाली प्रतिगामी शक्तियों तथा मेहनतकश कामगारों के पसीने की कमाई से पैदा हुई पूंजी का जुआ खेलने वाले पूंजीपतियों के आपसी गठजोड़ का पर्दाफाश भी किया है-

“नाम धरम के पेट पालते भीख मांग जो,
या जो खेलें जुआ, पसीने से, पूंजी का,
दोनों धोखेबाज,/लड़ाकर हमें भोगते राज,
खुला यह राज, सामने सबके।”

जन-कविता-जैसी सरल-सहज मगर मर्म को छूकर जगा देने वाली भाषा में रचित जनबोधी नवगीत की इस प्रतिनिधि रचना में मेहनतकश वर्ग के लोग अपना बयान निम्नमध्यवर्गीय लोगों के सामने ही देते दीख रहे हैं क्योंकि वे उनके निकटतम वर्गीय साथी हैं -

“दलदल में धंस, नदी समंदर में भी डूबे,
दबे नींव में, दीवारों में चुने गए हम;
छत से फिसले, गिरे,/पहाड़ों-खानों में फँस मरे,
कैद में सड़े-नाम पर श्रम के।”

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 7)

राजेंद्र प्रसाद सिंह उन गिने-चुने हिंदी कवियों में एक हैं जो मार्क्सवाद के साथ-साथ भारतीय इतिहास एवं संस्कृति के आदि स्रोतों से भी पूरी तरह परिचित हैं। राजनैतिक चेतना के साथ ही कवि की गहरी ऐतिहासिक समझ का प्रमाण कृति की जिन रचनाओं में देखा जा सकता है उनमें सामाजिक अंतर्वस्तु में ही नारी और नारी की भूमिका को विषयवस्तु बनाकर रचित एवं पांच रचनाओं का एक नवगीतबंध- ‘इतिहास मुद्रा में नारी’ विशेष रूप से ध्यातव्य है। इस नवगीत बंध के मात्र पंद्रह पंक्तियों के प्रथम गीत में आदिम युग से आश्रम-काल तक की नारी की सामाजिक पहचान तथा दूसरे गीत की केवल सोलह पंक्तियों में राजतंत्र के आरंभ से मध्ययुग तक के नारीत्व का ऐतिहासिक मूल्यांकन आधुनिक हिन्दी गीतकाव्य की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है।

आदिम युग में जबकि मानव-सभ्यता द्वारा प्राकृतिक उपादानों का नामकरण तक नहीं हुआ था तथा मनुष्य अपने भावों को भाषा की जगह भंगिमा के माध्यम से व्यक्त कर रहा था तब भी नारी गुणमयी थी और पुरूष तेज एवं मेधा की साक्षात प्रतिमूर्ति था-

“पेड़ और पर्वत के नाम न थे,
सिंधु और अम्बर के नाम न थे,
नाम न थे फूल और रंगों के,
-तब भी मैं गंधवती थी,
-तब भी तुम तेजोमय थे।
भाषा भंगिमा में अंकुरती थी,
निकटता परस से ही जुड़ती थी,
संगति तो संग-संग मुड़ती थी,
-तब भी मैं स्वप्नवती थी
-तब भी तुम मेधावी थे।

मध्यकाल तक आते आते क्रमशः विकसित सामंती समाज-व्यवस्था ने इस स्वप्नवती नारी को अपनी गिरफ्त में लगभग कैद कर, महज भोग का साधन बना दिया-

तुम राज-काज में लगे रहे,
मैं भोग-राग में पगी रही;
यों युग बीते!
मणिकुट्टम से रच गए महल
झोपड़ियाँ तकती रहीं,
अश्वारोही तुम चले निकल,
मैं कैद तरसती रही;
तुम जीत-हार में लगे रहे,
मैं मिलन-बिरह में ठगी रही;
यों युग बीते।”

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 10)

तीसरे गीत में आधुनिकता की नयी सभ्यतामूलक त्रासदी मुखरित है-

“मैं नयी सभ्यता की देही
तुम क्या हो?

X X X X X X

फैशन के नये कलेवर में जो बढ़ती रही दुराशा,
मैं पलती रही उसी में,
अधिकारों के हर तेवर का जो चलता रहा तमाशा,
मैं ढ़लती रही उसी में,
अब मैं तनाव की छवि नेही,
तुम क्या हो?”

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 11)

चौथी रचना में नगरों-महानगरों में बसी मध्यवर्गीय नारी के आत्मानुशासन का अंतर्विरोध पूरी मार्मिकता के साथ मुखरित हुआ है।

लेलो जी, अपना भाग,
कल ये हाथ पराये होंगे।
आंगन की मिट्टी का मँह-मँह
चंदन चुक जाएगा,
पिंजड़े में बैठ सुआपंखी
सरगम रूक जाएगा,
गोरैया दर्पण-द्वार न खटकाएगी;
ले लो जी संचित राग,
कल ये चषक जुठाये होंगे!

यही वह अंतर्विरोध है जिस कारण भारत के नब्बे प्रतिशत दम्पति असंतुष्ट जीवन जीने को बाध्य हैं। इसके मूल में वह आवर्जना है जिसके कारण अधिकांश प्रेमिका अपने प्रेमी की पत्नी नहीं बन पाती। इस बंध की पांचवीं रचना गांव से शहर में ब्याही गई एक ऐसी नववधू का आसंग-गीत है, जिसका मन गांव के बाल-सखा से जुड़ा है और शरीर शहर के अपने नए परिवार से।

उम्र बीतने के साथ, अपनी-अपनी, आजीविका की लड़ाई लड़ता मध्यवर्ग का हर श्रमजीवी व्यक्ति अपने पारिवारिक जीवन में प्रेम, सौंदर्य, आत्मिक लगाव और मानवोचित संबंधों में दरार अनुभव करने लग जाता है। इस टूटन के लिए रोज-रोज की उसकी यांत्रिक दिनचर्या जिम्मेदार है। अन्ततः वह अपने बचाव की चेष्टा और विवशता के दुख पर विजय की इच्छा प्रकट कर रह जाता है-

“नीली पड़ गई नदी तेरी/मेरा भी कत्थई वसंत,
धार हलद, सूरज सिंदूरी/उभरेगा जीवन-पर्यन्त
यों पहाड़ ढो लें हम/गोद वृक्ष को लें हम,
गुंथे हुए, नये हुए, मथे हुए लोग;
हम लोग.... हम लोग.... हम लोग।”

(भरी सड़क पर, पृ.सं. 19)

शून्य हो चली अपनी विचारशीलता और घनीभूत होती पारिवारिक सामाजिक अपेक्षाओं को ढ़ोते हुए; तूफानी इरादों को एक जंगल में भटका कर, ऊबे-अजूबे लोगों में शामिल होकर आखिर बौद्धिक, आत्मिक और हार्दिक तौर पर तथाकथित समुन्नत मध्यवर्गीय व्यक्ति भी उपलब्धि के नाम पर क्या पाता है, - बिम्ब छवियों में द्रष्टव्य है-

“जल-गुफा का द्वार आखिर/ढह गया,
आईना-घर चूर होकर/बह गया,
पत्थरों से ही निबटता/थक गया झरना।”

(भरी सड़क पर, पृ. 21)

इस जनबोधी नवगीत-कृति की महत्वपूर्ण विशेषता इसके अंत में संकलित ‘बिजली की वायलिन’ शीर्षक ‘नवगीत-संगीतिका’ है; जिसके द्वारा हिन्दी गीतकाव्य में कदाचित पहली बार जनवादी चेतना से पूर्ण कथ्य को संगीतिका के शिल्प में ढाल-कर शोषण की नींव पर खड़ी मौजूद पूंजीवादी व्यवस्था की मानव-विरोधी कारगुजारियों का पर्दाफाश किया गया है। इसके साथ ही आजीविका की शर्तों से जूझता मध्यवर्गीय युवावर्ग जिस व्यावसायिक व्यवस्था से अनुकूलित और यांत्रिक हो जाता है, उसका खुलासा भी इस रचना में देखा जा सकता है। किंतु, यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हिंदी गीत-काव्य के क्षेत्र में किए गए इस नवीन प्रयोग के मंचन की सफलता और भविष्य के गर्भ में ही छिपी है।

‘रात आंख मूंद कर जगी’ राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा सातवें दशक के आरंभ से आठवें दशक के अंत तक रचित, व्यापक और सूक्ष्म अर्थों में अनुभवगम्य अमानवीयता के विरुद्ध, साधार टिके हुए प्रेम-परक नवगीतों का संग्रह है; जिसकी रचनाएँ मुख्यतः संघर्ष और कलात्मक राग-वृत्ति के रूप में आधुनिक शिल्प के कई स्तरों पर उद्भासित हैं।

किसी समय प्रेम-संबंध में यदि शाश्वत मूल्य के अनुभव की बात की जाती थी तो बीच में एक ऐसा समय भी आया जबकि प्रेम के शुद्ध देहवादी रूप को ही वास्तविक माना गया। किंतु आगे चलकर विचारकों ने इन दोनों प्रकार की अवधारणाओं को अस्वीकार करते हुए प्रेम को मानवीय संबंधों के बीच ऐसे हार्दिक सूत्र के रूप में रेखांकित किया जिसका स्वरूप-निर्धारण बहुत हद तक समाज की आर्थिक संरचना पर निर्भर है और इस संरचना का सीधा नहीं तो गुणात्मक संबंध उत्पादन-वितरण की व्यवस्था से है। द्वंद्वात्मक भौतिकवादी विचारक प्रेम में संलग्न दो व्यक्तियों के संबंधों की सफलता-असफलता को बहुत हद तक उनकी वर्गीय एवं सामाजिक स्थिति पर निर्भर मानते हैं। इसीलिए उनका स्पष्ट मत है कि समाज की आर्थिक संरचना में बदलाव एंव जटिलता के फलस्वरूप प्रेम-प्रक्रिया में भी परिवर्तन एवं जटिलता का समावेश होने लगता है। प्रेम के संदर्भ में अर्थ के साथ ही ‘यौन-पक्ष’ की भूमिका भी अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। किंतु, इस यौन अथवा दैहिक प्रेम को भी कॉडवेल जैसे विचारक आर्थिक संबंधों का परिवर्तित रूप ही मानते हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रेम कदापि मात्र वैयक्तिक रुचि या चयन का परिणाम नहीं हो सकता, क्योंकि सामाजिक-आर्थिक संरचना से किसी न किसी रूप में प्रभावित होना उसकी नियति है। इससे भी आगे बढ़कर यह कहा जा सकता है कि किसी युग विशेष की समाजार्थिक एवं राजनैतिक परिस्थितियों के दबाव से उस युग के मनुष्य की प्रेम-प्रक्रिया भी अनुकूलित होती है। मसलन यदि ग्रामीण संस्कृति को प्लेटोनिक या शुद्धतावादी प्रेम-भावना के सर्वथा अनुकूल माना गया है तो प्रेम का रोमांटिक एवं शौर्यपूर्ण स्वरूप मध्ययुगीन सामंती समाज व्यवस्था की देन सिद्ध हुआ है। मौजूदा पूंजीवादी समाजार्थिक संरचना ने प्रेम को खरीद-फरोख्त, आवश्यकता, भोगवादी उपयोगिता आदि का विषय बनाकर उसे भाव-शून्य यांत्रिक प्रेम में तब्दील कर दिया और आज का आदमी व्यापक रूप में प्रेम की इसी अघोषित यांत्रिकता का शिकार है।

वस्तुतः बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध तक आते-आते विश्व के अधिकांश देशों में तीव्र औद्योगीकरण के फलस्वरूप उत्पादन-वितरण संबंधी जटिलताओं एवं महानगरों के विस्तार आदि की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी थी। इन सबके कारण एक ऐसा परिवेश निर्मित हुआ जिसने मानवीय संबंधों में अलगाव (Alienation) तथा अमानवीकरण (De-humanisation) की प्रवृत्ति को जन्म दिया। अर्नेस्ट फिशर ने लिखा है कि ‘आधुनिक विज्ञान’ की उपलब्धियों और सामाजिक पिछड़ेपन के विरोधाभास के कारण भी (सामाजिकों में) अलगावकी भावना पैदा होती है।” फिशर का यह कथन भारत जैसे सामाजिक रूप से पिछड़े अर्द्धसामंती एवं अर्द्ध-पूंजीवादी संरचना वाले देश के लिए पूरी तरह सच है। भारतीय पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में इसी अलगाव की भावना के कारण प्रेम संबंधों में एक ओर यदि आवेश-उत्साह के दर्शन होते हैं, तो दूसरी ओर उन्हीं संबंधों के प्रति तटस्थता, उपेक्षा आदि प्रवृत्तियां भी दृष्टिगत होती हैं। वस्तुतः व्यक्ति जब ‘स्व’ (सेल्फ) से अलगाव का अनुभव करने लगता है तो एक सीमा के बाद वह अपनी मानवीय पहचान खोकर यांत्रिकता से ग्रस्त हो जाता है और जीवन के प्रति एक प्रकार की ऊब महसूस करने लगता है। मार्क्सवादी विचारकों के अनुसार पूंजीवादी व्यवस्था अपनी ही विसंगतियों के कारण आधुनिक मनुष्य के भीतर उत्पन्न रुग्ण एकांतिकता, ऊब और तनाव आदि को भरने के लिए उसे जो मनोरंजन के कृत्रिम साधन (नाईट क्लब, ब्लू फिल्में, इंटरनेट आदि) उपलब्ध कराती है; उनसे उसकी संवेदना और अधिक विकृत व शून्य बनती चली जाती है।

ऐसे जटिल एवं यांत्रिक परिवेश में गेय कविता की भूमिका पर विचार करते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह ने उसे अत्यन्त महत्वपूर्ण बताया है- “यांत्रिकतावादी जीवन को भी भावना और संवेदना से वही तत्व जोड़ सकता है, - जो मानसिक और दैहिक श्रम से, -रचना और उत्पादन और निर्मितियों का वहन करने वाले जीवन को भावना-संवेदना से युक्त करता है और वह तत्व मानवीयता के सहज हार्दिक अनुभव के अलावा कुछ नहीं है। सांस्कृतिक प्रभाव का संस्पर्श उसे ही जगाता और पूरे मनोदैहिक अस्तित्व और व्यक्तित्व को उसके योग्य बनाता और बदलता है। जाहिर है कि सांस्कृतिक प्रभाव सर्वाधिक कला में ही सक्रिय होता है, उसके अंतर्गत भी सर्वाधिक व्यापक कविता में और उसमें भी तीव्रतम ढंग से वह गीत में रहता है। यांत्रिकता के सामूहिक प्रतिवाद में वैचारिक कविता की वक़त कुछ हो-न-हो, गीत, नवगीत और उसके अद्यतन विकास ‘जनबोधी नवगीत’ की भूमिका तो शामिल है ही।”

हिन्दी नवगीत के नाम-लक्षण-निरूपक प्रथम ऐतिहासिक संकलन ‘गीतांगिनी’ (58) के सम्पादकीय में ‘नवगीत’ के जिन पांच विकासशील तत्वों की चर्चा की गई है उनमें ‘प्रीति तत्व’ भी एक है, जिसे निरूपित करते हुए बतौर सम्पादक राजेंद्र प्रसाद सिंह ने लिखा था कि “प्रीति तत्व की दिशा में व्यक्ति क्रमशः आकर्षण, कामना, पूरकता, अंतर्द्वंद्व, पीड़ा, मूल्यांकन और व्याप्ति, -सात सोपानों से गुजरता चलता है और अपनी अवान्तर अुनभूतियों के सातत्य और व्यक्तित्व की उपलब्धि करता है। गीत-रचना का यह तत्व सर्वाधिक गीतकारों के अनुकूल है और लोकप्रिय भी अतः अधिक विकसित प्रयासों की आवश्यकता भी इसी तत्व के संबंध में है।” ‘गीतांगिनी’ के सम्पादकीय में निरूपित इस तत्व की स्पष्ट व्याख्या राजेंद्र प्रसाद सिंह की प्रथम नवगीत कृति ‘आओ खुली बयार’ की भूमिका की इन पंक्तियों में द्रष्टव्य है- “व्यक्तित्व के सभी तत्वों का संघटन प्रीति भावना के उदय से ही आरंभ हो जाता है। स्वभाव की प्रौढ़ता और अनुभव की प्रांजलता भी प्रीति के उन्हीं सोपानों के समानान्तर बढ़ती जाती है, जिनकी क्रमिक भावाभिव्यक्ति आकर्षण, कामना, पूरकता, अंतर्द्वंद्व, पीड़ा, मूल्यांकन और व्याप्ति इस तत्त्व से ओतप्रोत गीतों में होती है।”

स्पष्ट है कि ‘प्रीति’ आरंभ से ही नवगीत की एक प्रमुख प्रवृत्ति के रूप में अनेकानेक रचनाओं के मूल में सक्रिय रही है। किंतु कालांतर में नवगीत के रचनागत संदर्भ में इसकी भूमिका बदलती रही है। यदि छठे दशक के नवगीतों में इसे मानवीयता की एक मूलभूत प्रवृत्ति के रूप में स्वीकारते हुए भी वैयक्तिक की जगह- ‘मनोदैहिक’ (Psycho-Sometic) तथा अभिव्यक्ति की जगह प्रदर्शन (Exhibition) का विषय बना लिया गया; तो सातवें-आठवें दशक के नवगीतों में उसका वस्तुस्थितिक एवं संरचनात्मक स्वरूप उभरकर सामने आया।

सातवें-आठवें दशक में हिन्दी नवगीत की संरचनात्मक नवीनता को उदाहृत करने वाली राजेंद्र प्रसाद सिंह की रचना का अंश द्रष्टव्य है जिसकी नयी प्रस्तुत्य कलात्मकता और अनुभव-प्रवणता चुनौतियों से भरी है -

रात आंख मूंदकर जगी है,
एक अनकही लगन लगी है,
मैं नयन बनूं,
पवन बनूं,
गगन बनूं,
...कि क्या करूं? (पृ.सं. 5)

विवेच्य कृति के प्रेम-परक नवगीतों में न तो प्रेमी-प्रेमिका द्वारा परस्पर किए गए आत्मनिवेदन का फेनिल उच्छ्वास है और न ही किसी अज्ञात सत्ता के प्रति व्यक्त रहस्यात्मक प्रेम-भावना व्यंजित है। इन सबकी जगह यहां आज के मशीनी युग में मानवीय जीवन की कृत्रिमता और प्रीति-बंधन की अलभ्यता को रचना का विषय बनाया गया है-

“दूधिया शीशे की दीवार चारों ओर हैं।
कैसे जाएगा उस पार ‘फोकस’ अंदर से?
कैद सन्नाटे का आकार, बाहर शोर है।

X X X X X X

अजब वातायन जालीदार, ध्वनि का चोर है।
(रात आंख मूंदकर जगी, पृ.सं. 43)

चेग्वेरा ने ठीक ही लिखा है “भले ही यह तथ्य अजीब लगे लेकिन यह सही है कि प्रत्येक क्रांतिकारी कुछ भी होने से पहले प्रेमी होता है।” तभी तो मुक्तिबोध की कविता ‘अंधेरे में’ में व्यापक प्रेम को ही क्रांति की छटपटाहट के रूप में अनुभव करते हुए प्रेमिका और क्रांति को एकमेक कहा गया है। ‘रात आंख मूंद कर जगी’ से गुजरते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इस कृति के अनेक प्रेम-परक नवगीत अपने मूल रूप में क्रांतिकारी चेतना के नवगीत हैं- तभी उनमें जगह-जगह सामाजिक आलोचना के व्यंग्य ने भी अपनी जगह बना ली है-

“बहसें हर ठौर जारी/सब पर धमाके भारी,
जाती-‘सुनहरे कल’ तक – लॉटरीवाली गाड़ी!
झूठ नारों के सदके/लूट-मारों के सदके!
पूरा आशियां चुप है!

(रात आंख मूंद कर जगी, पृ.सं. 44)

वस्तुतः कवि के प्रेमी मन और उसकी समाजार्थिक एवं राजनैतिक चेतना के बीच निरन्तर एक प्रकार के अंतःसंघर्ष की स्थिति जारी है जिसके चलते वह अंतरंगता के क्षणों में भी परिस्थितियों की भयंकरता के प्रति वह सजग रहता है। ऐसी सजगता अन्तःसंघर्ष को कलात्मक मार्मिकता से खचित करती है:

“रंग-गांठ कसी रही शोणित की लय में,
गंध-गांध खुल आई पूरक विनियम में!
फल गई सचाई अभिनय में!
लाख जतन जान कर किए;
पत्थर कह झुठलाएँ कैसे-रतनों के मोल जो लिए!
पांवों के रूख पलटें कैसे-इतने दिन साथ हम जिए!
(रात आंख मूंद कर जगी, पृ.सं. 36)

किन्तु, रचनाकार परिस्थितियों की भयंकरता से आक्रांत होकर उनके सामने घुटने टेक देने के बजाय डटकर मुक़ाबला करने में यक़ीन रखता है-

“खोलो जी, सुबक नयन खोलो!

X X X X X

यह उजड़ा सा नीड़ तुम्हारा
बस, टूटा सा पेड़ सहारा
सौ तूफानों से लड़कर भी
जो न कभी भीतर से हारा!
डालें कहतीं सुधापन को
विष से होंठ भिंगो लो!
(रात आंख मूंद कर जगी, पृ.सं. 17)

राजेंद्र प्रसाद सिंह के प्रेम-परक नवगीतों की एक महत्वपूर्ण विषयवस्तु है- प्रकृति और कवि का प्रकृति-प्रेम भी उनके मानव-प्रेम का ही एक रूप या उसका विस्तार है पर यह छायावादी प्रेम से भिन्न है। अज्ञेय द्वारा संपादित प्रकृति-काव्य संकलन ‘रूपाम्बरा’ में संकलित राजेन्द्र जी की रचना ‘शरद की स्वर्णकिरण बिखरी’ इसका बेहतर उदाहरण है। डॉ. रामविलास शर्मा ने ठीक ही लिखा है कि “क्या भारत और क्या यूरोप, कहीं भी अब तक कोई बड़ा मानव-प्रेमी कवि नहीं हुआ है, जो प्रकृति का भी प्रेमी न रहा हो।” इसके साथ ही यदि प्रकृति से जुड़ना यांत्रिक जीवन-पद्धति का निषेध करना है तो राजेंद्र प्रसाद सिंह के प्रकृति-प्रेम विषयक नवगीत भी निश्चित रूप से मौजूदा पूंजीवादी आधुनिकीकरण एवं यांत्रिकतावादी सभ्यता के कारण उत्पन्न अमानवीकरण के प्रतिवाद-स्वरूप ही रचे गए हैं। वस्तुतः प्रकृति जीवन का अजस्र स्रोत है इसलिए सांस्कृतिक प्रदूषण के इस युग में स्वस्थ वृत्तियों को जगाने के लिए उसकी ओर मुखातिब होना स्वाभाविक ही है-

“पूर्णिमा की रात में यह मधुर आमंत्रण!
शरद के आकाश में धूमिल, सजल घन खो गए,
चांदनी के पलक-तल थककर नशे में सो गए!
उतर आए दूत पेड़ों के चँवर झलते;
खिल उठे संदेश पाकर आगमिष्यत् क्षण!

X X X X X X

हो उठे सहसा सिंदूरी चांद के लोचन!
(रात आंख मूंद कर जगी, पृ.सं. 12)

‘उजली कसौटी’ (1969) में संग्रहीत उषा-स्वस्ति कविता भी हिन्दी में प्रकृति-काव्य का एक बेहतर नमूना है, जिसमें वैदिक उषा-स्तुति से संबंधित ऋचाओं की सादगी-भरे शिल्प में आधुनिक मनुष्य की संवेदना को व्यक्त किया गया है -

प्यार की
दूरागता पहली पुजारिन-सी
आ रही नभ में उषा!
मौन संशय की अँधेरी छाँह
घिर पड़ी धुँधले क्षितिज पर,
-दूर नावों पर;
अब उसे सस्मित समेटे जा रही
कल्पना की दिशा!
यही सुधिमय समर्पण की घड़ी,
छाया-जगत् को
यों चूमती अरुणिमा,
जैसे बरसती हो
उच्छ्वसित आसंग की माधुरी l
हां, चिरन्तन प्रीति की प्रतिबिम्ब गाथा-सी
तरंगित रंगिनी गंगा;
एक डुबकी ले सहज अभिषेक को
आ गयी जल में उषा!
ओ उषा!
ओ चेतना की माँ!
(ऐसी सन्निकटता के लिए करना क्षमा ),
रह रहा कैसे तुम्हारा रहस और अखंड यौवन,
दिप रहा सद्यस्क अंगों में भला कैसे-
आनन्द यह निस्संग?
दे रही क्यों
जरठता को दान शैशव का?
मैं मुसाफ़िर वंचना की रात का,
विश्वास भी अपमान!
लो, तभी यों हो गयी ओझल
स्वयं उजला अँधेरा ओढ़कर
यह मुँहजली मेरी तृषा!
ओ डूबती जल में उषा! (पृ.49-50)

‘रात आँख मूँदकर जगी’ प्राय: तीन दशकों में बदलती वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और रचनात्मक मानसिकता के विभिन्न तापमानों में ढली नवगीत कृति है। 1963 से 1981 के बीच रचित प्रेम-परक नवगीतों के इस संग्रह में सिर्फ प्रेम का ही मूल्यन, अवमूल्यन एवं पुनर्मूल्यन आदि हो, ऐसा नहीं। यहाँ उससे जुड़े परिप्रेक्ष्य, दृष्टिकोण, संदर्भ, प्रसंग और इकाई, कुटुंब, समूह, समुदाय, व्यवस्था, जीवनस्थिति और मूल्यबोध के भी पीढ़ी-पर-पीढ़ी जो फर्क हैं, ध्वनित या व्यंजित हुए हैं। फिर भी सहज रूप से यह मध्यवर्गीय युवा, प्रौढ़ एवं प्रौढ़तर हार्दिकता की ऐसी नवगीत-कृति है, जिसकी नयी प्रस्तुत्य कलात्मकता और अनुभव-प्रवणता चुनौतियों-भरी है। इस कृति की पहली ही रचना ‘रात आँख मूँद कर जगी’ की अंतिम पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं, जिनकी संरचना में धुन, भाव, छंद, लय, ताल और प्रस्तुत्य गेयता का अभूतपूर्व संयोजन हुआ है-

मुँदी हुई पलकों में बेरुखी अजीब
या बहाना है?
जागती पुतलियों में चिन्ता की बात
या कि ताना है?
... जो अधीन हो रहे, ॱॱॱ विटप बनकर,
... त्रासदी – अशुभ पंछी बन जाए,
... ले जाये बहा, वह अंधेरा हो!
शायद मनुहार दिल्लगी है,
रात तो अभाव की सगी है,
मैं क्षुधा बनूँ,
-विधा बनूँ
-सुधा बनूँ,
कि क्या करूँ?

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि ‘रात आंख मूंदकर जगी’ के प्रीति-परक नवगीतों में प्रीति एक गत्वर मानवीय प्रवृत्ति के रूप में अपनी सहजता और स्वाभाविकता के साथ अभिव्यक्त हुई है। नव्य-रोमानी कथ्य एवं नवीन शिल्पगत उपकरणों से रचित आधुनिक भावबोध-सम्पन्न इन रचनाओं का आस्वादन लीक से हटकर ही किया जा सकता है।

नवें दशक में नवगीत की जनप्रतिबद्ध धारा और राजेंद्र प्रसाद सिंह

राजेंद्र प्रसाद सिंह की रचनाएं सन् 1944 से ही प्रगतिशीलता एवं नव्यान्वेषण की संधि पर वैचारिक कविताओं के रूप में यदि एक ओर ‘नई कविता’ के आरंभ के पूर्व ‘विश्वमित्र’ (मासिक) से ‘प्रतीक’ (द्वैमासिक) में तो दूसरी ओर गीत-रूप में ‘नवगीत’ की घोषणा के पूर्व ‘हिमालय’ (मासिक) से ‘नया पथ’ तक में लगातार प्रकाशित होती रहीं। इसी बीच ‘निराला’ एवं ‘पंत’ के ठोस अभिमतों से अभिषिक्त उनकी पहली काव्यकृति ‘भूमिका’ (1950) का प्रकाशन ‘भारती भंडार’ इलाहाबाद से हुआ। ‘नई कविता’ (स. जगदीश गुप्त) संकलन के प्रथम अंक में ‘मुक्ति-क्षण’ के बाद ‘निकष’ के संयुक्तांक-3/4 (स. धर्मवीर भारती) में राजेंद्र प्रसाद सिंह की एक बहुचर्चित रचना प्रकाशित हुई- ‘आदमी धुएँ के हैं’- जिसके संबंध में आलोचकों में मतभेद रहे -

“तांबे का आसमान / टिन के सितारे,
गैसीला अंधकार / उड़ते हैं कसकुट के पंछी बेचारे।
लोहे की धरती पर / चांदी की धारा,
पीतल का सूरज है / रांगे का भोला-सा चांद बड़ा प्यारा।
सोने के सपनों की नौका है / गंधक का झोंका है,
आदमी धुएं के हैं / छाया ने रोका है,
हीरे की चाहत ने / कभी-कभी टोका है,
शीशे ने समझा कि रेडियम का मौका है,
धूल अनकल्चर्ड है / इसीलिए बकती है,
‘जिंदगी नहीं है यह / धोखा है, धोखा है।” (उजली कसौटी,पृ.11)

इस कविता का राजेंद्र जी द्वारा मूल हिन्दी से अंग्रेज़ी में अनूदित पाठ भी द्रष्टव्य है, जो ‘SO HERE I STAND’ (A selection of anti-slogan poems translated from Hindi original by the poet) शीर्षक से पुस्तक के रूप में ‘बीच ग्रोव बुक्स’,कनाडा से प्रकाशित है –

MEN FORMED IN SMOKE

The sky carved in copper/The stars cut out of tin,
Gaseous darkness growing / Poor birds, cast in alloy, are flying.

Silver streams flow on steel surface/ The Sun is built of brass,
The Moon moulded in zinc/ Looks so innocent and lovely.

The boat of golden dreams is floating/The gusts of sufuric winds repel,
Men formed in smoke/By their own shadows restrained,
Are rudely awakened / By fitful reminders of interest in diamond.

While glass seizes a chance/ To pass for radium,
The dust, uncultured, prattles:
Deception . . . Deception . . . Deception …

(So Here I Stand, p.16)

‘निकष’ के संयुक्तांक में ‘आदमी धुएँ के हैं’ कविता प्रकाशित होने पर सम्पादक डॉ धर्मवीर भारती ने इस कविता से पत्रिका का एक विशिष्ट खंड ही शुरु किया था- ‘यंत्र-युग और मूल्यों का विघटन’। इस कविता के प्रतिपाद्य का संकेत मिल चुका था; फिर भी लक्ष्मीकांत वर्मा ने ‘लहर’ में यदि इसे ‘निरर्थक और टूटे हुए बिम्बों का ढेर’ घोषित किया तो कैलाश वाजपेयी ने उत्प्रेक्षा का चमत्कार - “नवीनता के नाम पर इस युग के कवि विचित्र उत्प्रेक्षाएं करते हैं, उन्हें आसमान तांबे का और सितारे टिन के बने दिखाई देते हैं।” (आधुनिक हिन्दी कविता में शिल्प, पृ. 308) इस अप्रत्याशित फतवे के बाद मुद्राराक्षस ने इसका समुचित मूल्यांकन करते हुए लिखा- “कहना न होगा कि डिस्टोर्शन या बेतरतीबी की प्रकृति भी प्रयोग की ही एक संभावना है। नया कवि जब भाषा में कुछ सर्वथा नया कहना चाहता है या अर्थ को कोई नया आयाम देना चाहता है तो वह कृति के तत्वों को बेतरतीब करता है। यह बेतरतीबी कविता के तत्वों को सामान्य से कुछ विशेष बना देती है। इस रचना की बेतरतीबी या डिस्टोर्शन को मैं प्रतीक या ‘बिम्बदेशीय’ की संज्ञा देना चाहूंगा। टिन के सितारे फिल्मों के सेट पर प्रायः देखे जा सकते हैं। फिल्मी सेट असली दिखने के लिए तैयार किए गए नकली जीवन-चित्र होते हैं। इन सेटों पर फूल-पत्तियों, पक्षियों के ही नहीं, आदमियों के भी डमी इस्तेमाल किए जाते हैं। पक्षी को अगर जिंदगी की उड़ान का प्रतीक मानें और फिर उसी पक्षी को कसकुट का देखें, तो सिर्फ एक अर्थ प्रतिपाद्य लगता है- जिंदगी की सम्भावनाएएं, ऊंची उड़ानें मात्र डमी रह गई हैं। स्वाभाविकता या वास्तविकता से विच्छिन्न होने का यह उदाहरण सिद्ध करता है कि सामान्य प्रतीक एक विशिष्ट जीवन का संकेत देना चाहते हैं- जीवन जो झूठा है, बनावटी है, दिखावटी है। शाब्दिक अर्थ की अपेक्षा यह लय-विच्छिन्नता, संभावनाओं से विच्छिन्न जिस जीवन को संकेतित कर रही है, वही रचना का मुख्य प्रतिपाद्य है।” वस्तुतः यह रचना अमानवीकरण के संदर्भ में है, जिसे आगे चलकर साठोत्तर काव्यांदोलनों ने अपना कथ्य बनाया।

युवावस्था का एक दुर्लभ चित्र : ‘उजली कसौटी’(1969,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली) के फ्लैप से साभार)

इसी प्रकार राजेन्द्र प्रसाद सिंह के कविता संग्रह ‘उजली कसौटी’ (1969,नेशनल पब्लिशिंग हाउस,दिल्ली) की ‘सच बोलना! ’ कविता भी उल्लेखनीय है, जिसमें कवि ने अमूर्तन से काम लेते हुए अपने समय-समाज के कड़वे यथार्थ को अभिव्यक्त किया है :

‘ओ चन्दन-वन के मलयानिल!
सच बोलना,-
सोये थे
नाग सभी,
सहसा तुम
चले तभी,
वरना क्या
शाखों के साथ अभी
तुम्हें भी पड़ता
किरणों में विष घोलना?
-सच-सच बोलना! (‘उजली कसौटी’,पृ.25)

राजेंद्र प्रसाद सिंह ‘नई कविता’ एवं ‘निकष’ के प्रकाशन काल तक हिंदी जगत में एक अग्रगामी कवि एवं गीतकार के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित हो चुके थे। किंतु, आगे चलकर उन पत्रिकाओं एवं संकलनों में उनकी किसी रचना को सम्मिलित करने से परहेज़ किया गया। कारण यह है कि साहित्यिक विवेक में नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन, मुक्तिबोध एवं शील जैसे जुझारू कवि-लेखकों को अपना अग्रगामी मानने वाला यह कवि राष्ट्रीयता, प्रगतिशीलता के वाद-निकायों से टूटकर तथा यथार्थवाद की आलोचनात्मक एवं समाजवादी सरणियों से छूटकर ‘परिमल-प्रकोष्ठ’ का सदस्य बनने को तैयार नहीं था।

इसके बाद राजेंद्र प्रसाद सिंह ने अपनी रचनाशीलता के दो बिंदु चुने - लोकाश्रित गीत का नवोत्थान और वर्गाश्रित रचना-प्रक्रिया का स्थिरीकरण। सन् 1958 में उनके द्वारा ‘गीतांगिनी’ का सम्पादन-प्रकाशन इसी की एक परिणति थी जिसमें उन्होंने ‘निराला’ से ‘जगदीश सलिल’ तक पांच पीढ़ियों के नब्बे गीतकारों के ताजा गीतों को संकलित कर सम्पादकीय आलेख में लोकाश्रयी गीतों का नामकरण ‘नवगीत’ किया। ‘गीतांगिनी’ (1958) के प्रकाशनोपरांत भी राजेंद्र प्रसाद सिंह हमेशा नवगीत के स्वीकृति-संघर्ष, विवादों में उसकी पक्षधर आलोचना और समायोजन-सक्रियता में अग्रगामी भूमिका निभाते रहे। इस बीच नवगीत के रचना-निक्षेप की संभावित नवीनताएँ और सोद्देश्य सार्थकता उरेहते उनके तीन स्वतंत्र नवगीत-संग्रह भी छपे। इतना ही नहीं, जब जनपक्षधर वैचारिक कविता के पुनरोदय के साथ नवगीत को जनबोध से लैस और कारगर परिणति की ओर अग्रसर होते हुए देखा-पहचाना और उसे ‘जनबोधी नवगीत’ के रूप में उद्घोषित किया और ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’ के स्थापना सम्मेलन (1982, दिल्ली) में अपने जनबोधी-जनवादी नवगीतों का एक संग्रह - ‘गजर आधी रात का’ स्वयं प्रकाशित कर वितरित किया तब फ्रंट के घटक संगठनों में क्रांतिधर्मी संस्कृतिकर्मियों के बीच जनबोधी-नवगीतों का भी प्रस्तुत्य-श्रव्य सामग्री की शैली में सामूहिक उपयोग होने लगा।

वस्तुतः ‘जनबोधी नवगीत’ नवें दशक के आरंभिक वर्षों में ही नवगीत की लोकाश्रित प्राणवत्ता की सक्रिय-सोद्देश्य परिणति की हैसियत से कार्य-क्रमबद्ध नयी भूमिका पा चुका था और तभी से प्रगतिशील लेखकसंघ, जनवादी लेखकसंघ, जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, आई. पी.एफ, जनसंस्कृति मंच, लोकसंस्कृति मंच, नवजनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, ‘रिव्योलूशनरी राइटर्स एसोसिएशन’, ‘निशांत’, ‘दस्ता’, ‘आवाहन’, ‘सिलसिला’ आदि संगठनों के कार्यक्रमों में ऐसे जनबोधी नवगीत न केवल संस्कृतिकर्मियों द्वारा गाए जा रहे हैं अपितु विभिन्न संगठन-पुस्तिकाओं में प्रकाशित भी हुए हैं।

नवें दशक में राजेंद्र प्रसाद सिंह की जनबोधी नवगीतकृति : ‘गज़र आधी रात का’

‘आइना’ - 6 (नव वर्षांक 1975) में प्रकाशित अपने एक आलेख ‘नवगीत: बहैसियत जनबोधी नवगीत’ में राजेंद्र प्रसाद सिंह ने दो बातों को स्पष्टतः स्वीकार किया था। इनमें एक बात नवगीत के बदलते हुए तेवर के पक्ष में, सैद्धांतिक महत्व की थी.... “निर्वैयक्तिकता गीत-रचना के प्रतिकूल तथा वैयक्तिकता उसे अनुकूल हो, ऐसा नहीं है, दोनों की संधि ‘आत्मीयता’ ही अनुभूति-प्रवण गीत रचना के लिए अनिवार्य है।” दूसरी बात वहाँ नवगीत के बदलते हुए तेवर को पहचान घोषित करने के क्रम में कही गयी थी... “जनसंघर्ष की अनिवार्य परिस्थितियाँ और राजनैतिक रणनीति, यदि समकालीन वैचारिक कविता के द्वारा संप्रेष्य है, तो तबकों में बंटे आम आदमी की और सर्वहारा की वैयक्तिक-पारिवारिक और पारिवेशिक-सामाजिक मनस्थितियाँ, जो दिनचर्या के एक टुकड़े को दूसरे टुकड़े से जोड़ती हैं और अलग करती हैं...नये मोड़ पर खड़े जनबोधी नवगीत के द्वारा प्रेषणीय हैं। ऐसे नवगीतों में वक्तव्य भी भोक्तव्य के ही अंशों की हैसियत से आते हैं। समग्रतः नवगीत का स्वभाव जनबोधी हो रहा है और वह उपलब्धियों की नयी यात्रा शुरू कर चुका है।” अपने इस आलेख के द्वारा राजेंद्र प्रसाद सिंह ने ‘जनबोधी नवगीत’ या जनगीत का घोषणा पत्र प्रस्तुत करते हुए जिस आरंभ की सूचना दी थी, वह नवें दशक तक आते-आते पूरी तरह परिपक्व हो गया। नवें दशक के आरंम्भिक वर्षों में ही वह, नवगीत की लोकाश्रित प्राणवत्ता की सक्रिय सोद्देश्य परिणति की हैसियत से कार्यक्रमबद्ध नयी भूमिका पाकर, विभिन्न क्रांतिकारी जनसंगठनों के कार्यक्रमों में प्रस्तुत्य-श्रव्य सामग्री की शैली में संस्कृतिकर्मियों द्वारा प्रयुक्त होने लगा।

‘गज़र आधी रात का’ की भूमिका लिखते हुए राजेंद्र प्रसाद सिंह ने घोषणा की - “आज के जनबोधी नवगीत में जन-जीवनगत मनःस्थितियों के मूर्तन की दिशा में जनसांस्कृतिक मानवीयता, पेशों से प्रभावित श्रमजीवी स्वभाव, जीवन-स्तर से बंधी रुचि-धारणा, विकास करती पर्व-चेतना और सबसे बढ़कर, आचारित यथार्थ के आधार पर, संस्कार और संघर्षशक्ति की सक्रिय द्वंद्वात्मकता से फलीभूत जनविरोधी शब्द-जाल और भ्रमों से मुक्त जनबोधी नवगीत, जनसांस्कृतिक क्रांति के लिए सही मानसिकता का निर्माण करने की ओर अभियान में है।” जाहिर है कि राजेंद्र प्रसाद सिंह केवल राजनैतिक क्रांति की जगह पूरी सांस्कृतिक क्रांति की अवधारणा को स्वीकार करते हुए इस संदर्भ में जनबोधी नवगीत की भूमिका को अत्यंत महत्वपूर्ण मानते हैं, क्योंकि इसके द्वारा ही आम जनता की मानसिकता में वह परिवर्तन घटित किया जा सकता है जिससे वह क्रांतिकारी संगठनों द्वारा समाजार्थिक परिवर्तन के लिए की जा रही पहल को उचित प्रतिक्रिया देने में सक्षम हो सके। वस्तुतः जब तक खेत-मजूर और निम्न मध्यवर्ग की पूरी मानसिकता सक्रिय तौर पर राजनीतिकरण के द्वारा प्रशिक्षित, संगठित और विचारधारात्मक दृष्टि से ‘जनवादी’ नहीं होती, तब तक ‘वाद’ नहीं, ‘बोध’ के स्तर पर ही उनकी मानसिकता से गीत जुड़ा रहेगा। ऐसा इसलिए कि राजेंद्र प्रसाद सिंह के अनुसार गीत ही वह विधा है जो कवि और जन की मानसिकता के भाव-लय के आधार पर खड़ी होती है; विचारधारात्मक उत्साह मात्र के आधार पर नहीं। आम जनता की मानसिकता को नारों भरी क़वायद के-से गीतों द्वारा नहीं बदला जा सकता, उसे तो व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामूहिक व्यवहार के गीत ही बदल सकते हैं। यह कहना अनुचित न होगा कि ऐसे गीत ‘वाद’ की जड़सूत्रात्मक, नारों-भरी क़वायद से नहीं, ‘वाद’ की भी ‘बोधपरक मनोवस्था’ से जुड़े होते हैं। ”

गीत-नवगीत के क्षेत्र में इस प्रकार की सार्थक पहलकदमी को राजेंद्र प्रसाद सिंह द्वारा रचित जन-संस्कार-गीतों में कथ्य एवं शिल्प, दोनों ही स्तरों पर संपूर्णता के साथ लक्षित किया जा सकता है। वस्तुतः इन गीतों को आस्वादित करके ही यह समझ पाना संभव है कि किसी मजूर के घर में गाया जाने वाला बच्चे के जन्म का ‘सोहर’, उसके पूरे बदलाव की आस्था से परिपूर्ण ‘बधावा’, ‘मुंडन–गीत’, जवानी में गाया जाने वाला ‘कीर्तन’, उसके विवाह के अवसर पर मजूर-वधुओं द्वारा गायी जाने वाली ‘परिछन’ आदि रचनाएं किस सीमा तक कवि की जनसांस्कृतिक सम्बद्धता को अभिव्यक्त करती हैं। उदाहरण के लिए बिहार के देहाती इलाके में प्रचलित ‘परिछन’ की लोकधुन पर आधारित जनबोधी नवगीत का एक अंश द्रष्टव्य है-

“घुटनों के नीचे है धोती गुलाबी,
माथे अंगोछा सजीला;
कुर्ता पुराना है लेकिन केसरिया
जूता रबड़ का रंगीला।

x x x x x x

बजा दिया तूने नगाड़ा रे दुल्हा,
खूब ढोल पीटे नगरिया।”

ग्रामीण मजूर-जीवन की संवेदना को संपूर्ण स्वाभाविकता में वही कवि सफलतापूर्वक अभिव्यक्ति दे सकता है जो उसे नगरीय-महानगरीय दूरबीन से नहीं देखता हो, बल्कि गाँव में उनके बीच रहकर नंगी-खुली आँखों से सहृदयता के साथ देख और परख सका हो। इस रचना का जनबोधी तेवर तब और अधिक स्पष्ट हो जाता है जब भूस्वामियों के विरुद्ध बँटाइदारी की तैयार फसल को संगठित रूप से काटने-लूटने वाली जमात को इकट्ठा करने के लिए नगाड़ा बजा देनेवाले, इस खेत-मजूरों के अगुआ ‘दुलहा’ को डराने-धमकाने वाले सामंतों के लिए बददुआ करती हुईं मजूर-स्त्रियाँ गाती हैं -

“घूरें जो पीछे से मालिक-महाजन,
ढह जाए उनकी अटारी।” (पृ.सं. 49)

‘गजर आधी रात का’ के फ्लैप पर छपा है- ‘निरंकुशता-विरोधी राष्ट्रीय सम्मेलन के अवसर पर प्रकाशित’। जो लोग इसकी प्रासंगिकता से वाकिफ़ नहीं थे उन्हें अचानक प्रकट हुए इस ‘बैनर’ से बड़ा आश्चर्य हुआ और वे समझ नहीं पाये कि यह घटित भी हुआ हो तो नवगीत-प्रवर्तक कवि का इससे क्या सम्बंध? दरअस्ल राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने कभी अपने गौरवशाली जीवन-तथ्य का मुआवज़ा लेने के लिए स्वयं को स्वाधीनता सेनानी के रूप में प्रचारित करने का कोई हाहाकारी प्रयास नहीं किया। कवि एवं उनके क्षेत्र के प्रमुख नागरिकों से कवि की सामाजिक- राजनैतिक सक्रियताओं के विषय में बातचीत करते हुए जो तथ्य सामने आए उसी प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण कड़ी है ‘इंडियन पीपुल्स फ्रंट’(1982,दिल्ली) के स्थापना सम्मेलन में कवि की महत्वपूर्ण हिस्सेदारी और उसी अवसर पर प्रकाशित अपनी चौथी नवगीत-कृति ‘गजर आधी रात का’- का नि:शुल्क वितरण।

‘गजर आधी रात का’ की रचनाओं को सीधे ‘जनबोधी नवगीत’ मानते हुए ‘जनबोध’ शीर्षक से रचनाकार ने भूमिका में निष्कर्ष दिया है- “आज के जनबोधी नवगीत में, जन-जीवनगत मनःस्थितियों के मूर्तन की दिशा में जन सांस्कृतिक मानवीयता, पेशों से प्रभावित श्रमजीवी स्वभाव, जीवनस्तर से बंधी रुचि-धारणा, विकास करती पर्व-चेतना और सबसे बढ़कर, आचरित यथार्थ के आधार पर, संस्कार और संघर्षशक्ति की सक्रिय द्वंद्वात्मकता से फलीभूत जन-जिजीविषा के विभिन्न प्रारूपों की अभिव्यक्ति हो रही है। आज मतवादों के अंतर्विरोधी शब्द-जाल और भ्रमों से मुक्त जनबोधी नवगीत, जनसांस्कृतिक क्रान्ति के लिए सही मानसिकता का निर्माण करने की ओर अभियान में है।”- इसी मानसिकता के निर्माण हेतु कवि पहले हालात की दोतरफा मगर दो-टूक हक़ीक़त का जायजा लेता हुआ- ‘धोबियाही’ की लोक धुन में रचित ‘न यह समझो’ शीर्षक रचना में लिखता है-

जिधर ‘लछमी जी सदा सहाय’
उधर आँखें हैं सोने की
गड्डियों में कीमत चुकती
खिलखिलाने या रोने की
न अहसासों का कोई मोल
न कुछ मजबूरी की परवाह
न ऐसी नन्ही-नन्ही ख़ुशी
न ऐसी उम्र खींचती आह।

× × ×

इधर है पड़ी गरीबी गले
जिधर सीने हैं फौलादी,
पसीना बिकता अपना रोज,
गैर की होती आबादी!
न अरमानों के खिलते फूल
न उम्मीदों की बढ़ती बेल,
गरीबी फांक रही जो रेत,
अमीरी उसे बनाती तेल।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह के जन-संस्कार-गीतों को ग्रहण कर एवं आस्वादित कर ही यह समझा जा सकता है कि मजदूर के घर बच्चे के जन्म का ‘सोहर’ उसके पूरे बदलाव की उम्मीदों से भरा ‘बधावा’, किशोरावस्था को असीसता ‘मुंडन गीत’, नौजवानी का ‘कीर्तन’ (‘कूदे उछल कुदाल हँसिया बल खाए’), ब्याह का ‘परिछन’ आदि रचनाएं किस हद तक रचनाकार के जन-जुड़ाव से ओतप्रोत मनःस्थितियों का सार्थक मूर्तन करती है। ‘कीर्तन’ की धुन में रचित एक जनगीत की कुछ पंक्तियाँ द्रष्टव्य हैं-

भैया, कूदे उछल कुदाल / हँसिया बल खाए!
भोर हुई, चिड़यन संग जागे/ खैनी दाब, ढोर संग लागे,
आँगन लीप, मेहरिया ठनकी/ दे न उधार बनियवां सनकी,
कारज-अरज जिमदार न माने / लठियल अमला बिरद बखाने।

.....

भैया, गुजरे दो-दो साल / कुर्ता सिलवाये! (पृ.32)

इसी प्रकार ‘ख़ंजरी-गीत’, ‘बंटगवनी’ ‘करताली भजन’ तथा ‘समूहिक श्रम-गान’ के सहारे जनता में सांगठनिक जुड़ाव एवं सक्रियता उत्पन्न करने का गहरा सम्बन्ध संस्कार और संघर्ष-शक्ति की सक्रिय द्वंद्वात्मकता से ही है, जो जिजीविषा के प्रारूपों को फलीभूत करता है। इन जनबोधी नवगीतों में व्याप्त जनचेतना का आधार, आचरित यथार्थ ही है, प्रचारित और तथाकथित या भ्रांतिमूलक यथार्थ नहीं। यह आचरित यथार्थ सामूहिक जीवन-स्थिति में बार-बार आते विचार-बोध में खुलता है और जनान्दोलनों से जीवन-दृष्टि के जुड़ाव में प्रमाणित होता है।

‘गज़र आधी रात का’ में निरंकुशता-विरोधी स्वत:स्फूर्त जनान्दोलन का दमन, आपातकाल, आम चुनाव, सत्ता परिवर्तन आदि का लेखा-जोखा आदि के क्रमिक प्रभावों पर टिकी प्रारंभ की पाँच रचनाएं तथा बिहार-आन्दोलन (1974-77, जिसे बाद में नागार्जुन ने ‘खिचडी विप्लव’ कहा) की स्मृति से जुड़े नवगीत महत्वपूर्ण हैं। इनमें जन-पक्ष का सर्वाधिक कलात्मक जनबोधी नवगीत है- “अभी-अभी विहँसे थे फूल” -

अब तो दिखा जंगल, नर्मदा उधर धुनती
ढेर-ढेर चाँदी की रुई,
शब्द संगमरमर को मोम-सा तराशें, अब
मर्म-दान की बेला हुई।
यहीं कहीं उतरेंगे, श्रम-कण पर बिखरेंगे
इंद्रधनुष के अनछू रंग,
कूल फिर उगा लेंगे फूल
रंग बदलती शाखों में।

अतः स्पष्ट है कि जिस प्रकार “नयी कविता के साठोत्तर विघटन और वामपंथी कविता के पुन:संगठन के साथ सुपरिगणित आज की जनवादी कविता में जनजीवन की परिस्थितियाँ अंकित करने की दिशा में वर्गसंघर्ष, वर्गहितों की पड़ताल, चरित्रालोचन, व्यवस्था का पर्दाफाश और व्यापक तौर पर समाजवादी - यथार्थवादी दृष्टि से जनसंघर्ष की वास्तविक अवस्थाओं और प्रक्रियाओं से जुड़ी संरचनायें प्रस्तुत हो रही है;”- उसी प्रकार ‘गजर आधी रात का’ के जनबोधी नवगीतों में युग के तेजाबी यथार्थ को संवेदना की कोमल अंजुरी में सह सकने का अदम्य साहस आद्योपांत परिलक्षित होता है।

सरकारी आंकड़े बताते हैं कि सन 2012 में भारत सरकार द्वारा आयोजित एक सामान्य रात्रिभोज में प्रति अतिथि लगभग 7700 रुपए का खर्च आया था, जबकि वर्तमान नियम के तहत जिन लोगों की रोज़ाना आमदनी 28 रुपए से ऊपर है, वे गरीबी रेखा के अंतर्गत नहीं आते। इस तथ्य के मद्देनज़र राजेन्द्र प्रसाद सिंह रचित एक जनगीत उल्लेखनीय है,जिसमें उद्बोधनात्मक शैली में मौजूदा समाजार्थिक विसंगति और विडम्बना को उभारा गया है :

कस्बा-कस्बा गाता चल ओ साथी / टोले-गाँव जगाता चल ओ साथी
रात रहे जो भूखे उनकी रोटी / कैसे छिनी बताता चल ओ साथी
सत्तू औ’ गुड़ जिनको नहीं कलेवा/ लंच –डिनर समझाता चल ओ साथी।

राजेन्द्र प्रसाद सिंह वस्तुतः न केवल नवगीत के नामकर्ता, तत्वनिरूपक एवं प्रथम ऐतिहासिक प्रस्तावना-कृति ‘गीतांगिनी’ के सम्पादक हैं; अपितु नवगीत के स्वीकृति-संघर्ष के सारथी एवं तत्पर व्याख्याता की भी हैसियत उन्हीं की है। साथ ही वे नवगीत के अग्रगामी रचयिताओं में भी अद्वितीय, गत्वर एवं प्रासंगिक रहे हैं।

सन् 1958 में ‘गीतांगिनी’ के सम्पादन-प्रकाशन एवं चार स्वतंत्र नवगीत-कृतियों के अतिरिक्त राजेन्द्र प्रसाद सिंह की जो काव्य कृतियाँ चर्चित-समीक्षित होती रही हैं उनमें ‘भूमिका’ (1950), ‘मादिनी’ (1955), ‘दिग्वधू’ (1956), ‘संजीवन कहाँ’(1965), ‘उजली कसौटी’(1969), ‘डायरी के जन्मदिन’(1973), ‘शब्दयात्रा (1984) और ‘प्रस्थानबिन्दु’(1985),आदि उल्लेखनीय हैं। ‘गीतांगिनी’ के प्रकाशन वर्ष (1958) में ही ‘स्ट्रीम ऑफ कांशसनेस’ की शैली में राजेन्द्र प्रसाद सिंह का ‘अमावस और जुगनू’ नामक बहस-तलब मनोवैज्ञानिक उपन्यास प्रकाशित हुआ। इस सबके अलावा कवि की हिन्दी कविताओं का ही अँग्रेजी में स्वानूदित एक संग्रह ‘सो हीयर आइ स्टैंड’ (बीचग्रोव 1973) कनाडा से प्रकाशित हुआ जिसकी एक रचना ‘मैन: ए डिफिनिशन’ लन्दन से प्रकाशित अँग्रेजी-भाषी समाज की कविताओं की एक एन्थोलोजी ‘मेनी पीपुल्स मेनी वॉयसेज’ (1974, हचिन्सन) में संकलित की गई

राजेन्द्र प्रसाद सिंह की किशोरावस्था में ही उनकी रचनात्मकता ऊर्जा से प्रभावित होकर राष्ट्रकवि ‘दिनकर’ ने लिखा था “वह एक निर्मित होता हुआ महान कवि है, वह आलोचक भी है और चिंतक भी मामूली दर्जे का नहीं।” दिनकर की उक्त उद्घोषणा की चरितार्थता राजेन्द्र जी की जिन दो कृतियों में सहज रूप में दृष्टिगत है, वे हैं ‘जनवादी लेखन और रचनास्थिति’, ‘साहित्य की पारिस्थिकी’ एवं ‘भारतीय संगीत का समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य’। (वाणी प्रकाशन,दिल्ली). इसके साथ ही कवि द्वारा एक लम्बे अरसे तक संपादित प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘आइना’ के विभिन्न अंकों व विशेषांकों के अतिरिक्त राष्ट्रीय स्तर की विभिन्न हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में अनेक विषयों पर प्रकाशित उनके निबंधों का भी विशेष महत्व है।

परिशिष्ट

हिन्दी गीतकाव्य के इतिहास में ‘नवगीत’ के प्रवर्तक राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा संपादित-प्रकाशित नवगीत का नाम-लक्षण-निरूपक प्रथम ऐतिहासिक संकलन ‘गीतंगिनी’(1958) का सम्पादकीय :

गीत-रचना और 'नवगीत'

गीत-काव्य-रचना का एक ऐसा प्रकार है, जिसके माध्यम से, रचयिता और रस-ग्राहक, दोनों के आंतरिक भाव-संगीत का विनिमय हो सकता है और जिसकी वस्तु तथा शैली में हृदय की अनुभूति-लीन प्रक्रिया मौलिक रूप से गतिशील रहती है, तथा परिवेश की उत्तरोत्तर व्यापक परिधियों के प्रभाव अनुभूति की विशेषताओं का परिपाक करते रहते हैं।

व्यक्तिगत स्वभाव, परिवेशगत प्रभाव और परम्परागत मान्यताओं के अंतर्द्वंद्व से, अनुभूति की प्रक्रिया में बहता हुआ हृदय जिस मार्मिक समग्रता को संजोता रहता है उसका आत्मीयतापूर्ण स्वीकार ही गीत का उद्गम है। इसीलिए अनुभूति समानांतर प्रक्रियायों से गुजरने वाले रचियता और रस-ग्राहक में गीत के माध्यम से आंतरिक भाव-संगीत का विनिमय हो सकता है। हाँ, माध्यम में अन्विति का होना अनिवार्य है, एक प्रकार की संगति और हार्दिक सर्वनिष्ठता आवश्यक है।

अनुभूति की प्रक्रिया में संचयित उस मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार तो एक प्रकार की हार्दिक सर्वनिष्ठता पा ही जाता है और वह संवेदना की सामर्थ्य से ही व्यक्त होता है। इसीलिए संवेदना की सामर्थ्य का अंतर ही रचयिताओं की कला-प्रौढ़ि का अंतर भी हो जाता है।

एक अन्य वास्तविकता भी ध्यातव्य है कि अनुभूति-प्रक्रिया में संचयित उस मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार ही गीत का क्षेत्र है; उसके परे प्रगीत का क्षेत्र है। ऐसा इसलिए कि अनुभूति की मार्मिक समग्रता, उस आत्मीयतापूर्ण स्वीकार तक तो अन्वित और संगत रह पाती है, एक प्रकार के आंतरिक भाव-संगीत या 'रस'से संश्लिष्ट, अतः सर्वनिष्ठ रह पाती है; किन्तु उससे आगे बढ़ने के साथ ही वह, 'मनीषा' की सीमा में प्रवेश कर, अवांतर भेद, विश्लेषण, समस्यात्मक चिंतन, प्रतिक्रिया, अनेकान्त प्रभाव, मूल्यांकन, अतिक्रांति और विकास की प्रेरणाएँ जगा देती हैं। ये प्रेरणाएँ प्रगीत रचना का उद्रेक कर सकती हैं, ये गीत-रचना में समाहित नहीं होतीं। हाँ, इन प्रेरणाओं की निर्वैयक्तिक प्रखरता जब गह आत्मीयता की छाया में मन्द पड़ जाती है और विश्लिष्ट मन स्थिति में फिर एक प्रकार की अन्विति, संगति और सर्वनिष्ठता आ जाती है, तब पुनः पूर्वाधार पर गीत-रचना हो सकती है।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि निर्वैयक्तिकता गीत-रचना के प्रतिकूल है, या वैयक्तिकता उसके अनुकूल, प्रत्युत दोनों की सन्धि-भावना- 'आत्मीयता' ही अनुभूति प्रवण गीत-रचना के लिए अनिवार्य है। यह आत्मीयता, अनुभूति की मार्मिक समग्रता के प्रति रचयिता के स्वीकार में होनी चाहिए।

गीत-रचना का यह क्षेत्र वैदिक अथवा प्राग्वैदिक काल से इस अंतरिक्ष-युग की संभावनाओं तक अक्षुण्ण प्रतीत होता है, क्योंकि मानव-व्यक्तित्व की सूक्ष्म इन्द्रियों ने अनुभूति का सातत्य नहीं छोड़ा है। व्यक्तित्व के विकास की सीढ़ियां जब तक मनोवैज्ञानिक अनिवार्यता और विशिष्टताओं से प्रछन्न रहेंगी, तबतक गीत-रचना की प्रेरणा अपनी सार्थकता पाती रहेगी। मनुष्य की व्यक्तित्व-मूलक अभिव्यक्ति का कोई भी निकाय कभी विनष्ट या मृत नहीं होता, उसका रूपांतर, दिशांतर और विकास ही होता है। गीत मानव व्यक्तित्व की वैसी ही व्यंजनाओं का माध्यम है।

फिर भी, कुछ समय से, विशेषतः हिंदी कविता के क्षेत्र में गीत-रचना का विरोध या समर्थन एक तनाव पैदा कर रहा है, जिसके फलस्वरूप पक्षधरता बढ़ती जा रही है। इत तनाव से तटस्थ होकर ही औचित्य की खोज हो सकती है।

छायावाद-काल के गीतों में प्रायः वे सभी गुण पाये जाते हैं, जो छायावादी प्रगीतों में हैं, यहाँ तक, कि उन्हें सामान्यतः अभिन्न भी समझा जाता है। हाँ 'ले चल मुझे भुलावा देकर मेरे नाविक, धीरे-धीरे' की संदर्भगत सार्थकता न समझकर उसे पलायन की प्रवृत्ति कहने वाले और 'लायी हूँ फूलों का हास, लोगी मोल, लोगी मोल' की अनुभूतिगत प्रतनुता न समझकर मानवीकरण की दुहाई देनेवाले रसज्ञों (?) को सहज ही अंतर्विरोध जान पड़ेगा। निश्चय ही छायावाद के प्रगीत प्रकृति-बोध के आवरण में, मानवीय सौंदर्य-बोध की व्याप्ति से उन्नीत हैं और छायावाद के गीत जीवन के हार्दिक क्षणों की प्रतनु अनुभूति से अनुकम्पित। रहस्यवाद के प्रगीतों की संख्या कम है, गीतों की अधिक, अतः सामान्यतः वे गीत दर्शन की धार्मिक अनुभूति और काव्यात्मक अभिव्यक्ति के सन्दर्भ में, आरोपित संवेदनाओं की प्रतिष्ठित सहजता से असाधारण हैं। इसीलिए 'कौन तम के पार (रे कह! )' 'या बीन भी हूँ मैं, तुम्हारी रागिनी भी हूँ' की अनुभूति का धरातल, रसज्ञों से, आरोपित और प्रासंगिक संवेदना की असाधारण सहजता का संघटन मांगता है। फिर भी रहस्यवाद के कुछ गीत इसलिए लोकप्रिय हुए कि आरोप और असाधारण अनुभव के अंतराल में, मूलभूत सहज मानव-भावनाएं पर्दर्शित होती रहीं। रहस्यवाद और प्रगतिवाद के बीच सहज मानव-भावना के स्वछंदतावादी गीतों ने मध्यांतर उपस्थित किया। छाया, रहस्य और सहजता का स्वच्छ्न्द उपयोग गीतों की

बहुमुखता बढ़ाता रहा, तभी दर्शन के साथ जीवन-दर्शन, छायावादिता के साथ अन्तर्मुखता, रहस्य के साथ मनोरहस्य और सहज प्रवृत्तियों की अवान्तर अभिव्यक्ति के साथ मार्मिकता, हालावादी मस्ती या सस्ती प्रेमानुभूतियाँ व्यक्त की जाने लगीं। प्रगतिवाद के समानान्तर ही स्वच्छन्दतावादी गीत-धारा बहती रही है और वर्ग-संघर्ष, क्रांति-कोलाहल तथा यथार्थवादी अतिवादिता की चुनौती पर परिस्थिति से क्षोभ, वैयक्तिक पीड़ा, सामाजिक करुणा, जन-संस्कृति, लोकरुचि और ग्राम-सौन्दर्य को स्वर देती रही है।

हिन्दी कविता में 'प्रयोगवाद' के उत्थान के साथ ही साहित्य की पूर्वागत मान्यताओं पर चोट पड़ने लगी और मौलिकता, नवीनता, आधुनिकता, प्रयोग, जटिल संश्लेषण, अनुबिम्बन, छंद विरोध, मनोवैज्ञानिकता और राहों का अन्वेषण,आंदोलन की तीव्रता से चल पड़ा। व्यक्तित्व का बहुमुखी अन्तःसंगीत गीतों में व्यक्त होने को अकुलाता रहा, पर वातावरण होड़ के तनाव से ऐसा भर गया कि पूर्वागत निकायों के रचनाकार पूर्वाग्रही और नये निकायों के अन्वेषक उपेक्षक हो चले। यह अतिवादिता बहुत बढ़ गई और नयी कविता के वर्तमान दशक में तो ‘गीत फरोश’, 'जब गीतकार मर गया, चाँद रोने आया', 'गीत का स्मारक' और अनेक जुमले दिए हैं; साथ ही 'गीतों का हमला', श्रीनीरज की ओर से श्री दिनकर को उत्तर और गीतकारों के नाम पातियाँ भी मिली हैं। इस सरगर्मी के बीच एक अजीव ऊहापोह है। वस्तुस्थिति यह कि अधिक गीतकार रचना की दिशा में वैषयिक और शैलीगत नवीनता के साथ उचित प्रगति नहीं पा रहे हैं और अपनी पूर्वागत सीमाओं से, उन रुचियों और त्रुटियों से भी इस तरह लापरवाह और अनुत्तरदायी होकर आग्रह-बद्ध हो गये हैं कि प्रगीत के क्षेत्र का पिछला गत्यवरोध गीत के क्षेत्र में आ गया है। इसीलिए गीतकारों को अधिक उदार, उदात्त, जागरूक, प्रगतिवान और आधुनिक होने की आवश्यकता है। नयी कविता के अनेक कवि भी गीत रचना करते हैं और उनके गीतों में 'टेकनीक' की आधुनिकता तो रहती है, वैषयिक नवीनता का प्रायः अभाव ही रहता है, फिर भी वे पूर्वागत निकायों के गीतों में प्रायः बराबर है। फिर भी नयी कविता के कृतित्व से युक्त या वियुक्त भी ऐसे ध्यातव्य कवियों का अभाव नहीं है, जो मानव जीवन के ऊँचे और गहरे, किन्तु सहज-नवीन अनुभव की अनेकता, रमणीयता, मार्मिकता, विच्छिति और मांगलिकता को अपने विकसित गीतों में सहेज-सवांर कर नयी 'टेकनीक' से हार्दिक परिवेश की नयी विशेषताओं का प्रकाशन कर रहे हैं। प्रगति और दृष्टि से उन रचनाओं का बहुत मूल्य है, जिनमें नयी कविता के प्रगीत का पूरक बनकर 'नवगीत' का निकाय जन्म ले रहा है। नयी कविता के सात मौलिक तत्व हैं- ऐतिहासिकता, सामाजिकता, व्यक्तित्व, समाहार, समग्रता, शोभा और विराम, तो पूरक के रूप में 'नवगीत' के पाँच विकासशील तत्व हैं- जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्व-बोध, प्रीति-तत्व, और परिसंचय।

समकालीन हिंदी कविता की महत्वपूर्ण और महत्त्वहीन रचनाओं के विस्तृत आंदोलन में गीत-परम्परा 'नवगीत' के निकाय में परिणति पाने को सचेष्ट है। नवगीत- नयी अनुभूतियों की प्रक्रिया में संचयित मार्मिक समग्रता का आत्मीयतापूर्ण स्वीकार होगा, जिसमें अभिव्यक्ति के आधुनिक निकायों का उपयोग और नवीन प्रविधियों का संतुलन होगा। इस स्थापना का आभास उन पाँच तत्वों के समकालीन नये साक्षात्कार से हो सकता है, जो नवगीत का स्वरुप रचने में सचेष्ट हैं।

जीवन दर्शन के आयामों का संघटन परिणति की ओर प्रयास कर रहा है। समस्त मानव-संस्कृति के वर्तमान मर्म का अनुभव करनेवाला व्यक्ति-मन, जिस

प्रतिनिधित्वपूर्ण करुणा, संश्लिष्ट अन्तर्विरोध और प्रछन्न जीवन शक्ति की प्रक्रिया का अनुभव कर सकता है, उसकी सूक्ष्म व्यापकता 'निराला', पन्त, जानकीवल्ल्भ शास्त्री, जयकिशोरनारायण सिंह, देवराज, और 'नीरज' के गीतों में हो रही है। दृष्टिकोण के अन्तर से जीवन-दर्शन भिन्न हो सकते हैं, पर वैषयिक एकता भी स्पष्ट है।

आत्मनिष्ठा के धरातल पर पूर्वागत निकायों के गीतकार भी नयी विशिष्टताओं का समावेश कर रहे हैं। व्यक्ति एक प्रतीक के रूप में, अपनी अन्तर्वाह्य व्यापकता का संकल्प कर, आधुनिक विश्वासों के आवर्त्त में जिस आस्था से धैर्य और धैर्य से आत्म-निर्माण की शक्ति पाता है, उस आस्था में नैसर्गिक और अर्जित संस्कारों के साथ आत्मदान की प्रेरणा भी होती है, जिसकी अभिव्यक्ति महादेवी वर्मा, माखनलाल चतुर्वेदी, विद्यावती 'कोकिल' रामकुमार वर्मा, केदारनाथ मिश्र 'प्रभात' गंगा प्रसाद पाण्डेय, जगदीश अतृप्त, वीरेंद्र मिश्र, कुमारी रमा सिंह आदि के गीतों में हो रही है।

व्यक्तित्व-बोध के परिवेश में व्यक्ति, परिस्थिति और स्वभाव के परमाणुओं का सामंजस्य करने के लिए ही अंतर्विरोध, अन्यमनस्कता, निराशा और अन्य मनोवस्थाओं से गुजरकर जिस जिजीविषा की रक्षा करता है और अपने व्यक्तित्व की जिन संवेदनाओं में निमज्जन करता है, उस जिजीविषा और उन संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हरिवंशराय बच्चन, गोपाल सिंह नेपाली, धर्मवीर भारती, रमानाथ अवस्थी, रवीन्द्र भ्रमर, कृष्णनन्दन पियूष, कुमारी मधु, रंगनाथ राकेश आदि के गीतों में हो रही है।

प्रीति-तत्व की दिशा में, व्यक्ति क्रमशः आकर्षण, कामना, पूरकता, अंतर्द्वंद्व, पीड़ा, मूल्यांकन और व्याप्ति,- सात सोपानों से गुजरता चलता है और अपनी अवान्तर अनुभूतियों के सातत्य और व्यक्तित्व की उपलब्धि करता है। गीत-रचना का यह तत्व सर्वाधिक गीतकारों के अनुकूल है और लोकप्रिय भी। अतः अधिक विकसित प्रयासों की आवश्यकता भी इसी तत्व के सम्बन्ध में है। रामेश्वर शुक्ल 'अंचल', आरसी प्रसाद सिंह, नरेंद्र शर्मा, गोपालदास 'नीरज'; हंसकुमार तिवारी, शंभुनाथ 'शेष', परमेश्वर 'द्विरेफ', जगदीश सलिल, शांतिस्वरूप कुसुम, राजेन्द्र किशोर, चन्द्रदेव सिंह, श्यामनन्दन 'किशोर', रामचन्द्र चन्द्रभूषण आदि के गीतों में यह तत्व नयी विधाएँ और विकास पा रहा है।

परिसंचय के पथ पर वे गीतकार अपने कदम आजमा रहे हैं, जिनके गीतों में किसी एक तत्व की प्रधानता नहीं, अपितु काव्यात्मक, गीतात्मक, आदि कई प्रकार की सामग्रियों का संचयन हो रहा है।

तो कहना नहीं होगा कि 'गीतांगिनी' वर्तमान दशक के हिन्दी गीत-काव्य का प्रतिनिधि संकलन हो सके - ऐसी चेष्टा की गई है। चेष्टा पर मुझे सन्तोष है, क्योंकि कुछ गीत 'दोष-प्रकरण'की रचनाओं का भी प्रतिनिधित्व कर लेते हैं। अनेक गीतकारों ने 'गीतांगिनी' के प्रकाशन में आत्मिक, नैतिक, आर्थिक या चुनौती-भरा योग भी दिया है; उनपर मुझे और हिन्दी गीत-काव्य को गर्व है। अस्तु।