हिन्दी पत्रकारिता में बेजोड़ :चाँद का फाँसी अंक / स्मृति शुक्ला

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पत्रकारिता को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ कहा जाता है। यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि भारत की आजादी में हिन्दी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही है। यह आकस्मिक नहीं है कि सम्पूर्ण भारत में जब साहित्यकार पत्रकारों ने राष्ट्रीयता की अलख जगाई तब प्रत्येक भारतीय, देश की आजादी के लिए कृत संकल्पित हुआ।

इस प्रकार जो हमारी स्वाधीनता का इतिहास है,वही पत्रकारिता का भी इतिहास है। 'हिकी गजट' से प्रारम्भ होकर पत्रकारिता आज तक अपना नैरन्तर्य बनाए हुए है। हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास में साहित्यिक पत्रिकाओं की अहम भूमिका है। साहित्यकार जीवन का द्रष्टा होता है और पत्रकारिता जीवन और जगत के अन्तःसूत्रों को जोड़ने वाली विधा है। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में पत्रकारों और साहित्यकारों की अहम भूमिका थी। स्वतन्त्रता-पूर्व की पत्रकारिता एक महान् उद्देश्य को लेकर चल रही थी। आज की पत्रकारिता से नितान्त भिन्‍न भारत की स्वतन्त्रता-पूर्व की हिन्दी पत्रकारिता ने समाज की प्रत्येक डूबती हुई रग का स्पर्श कर समाज को चेताने का काम किया था। हिन्दी भाषा के विकास में और भारत को एकसूत्रता में पिरोने का कार्य साहित्यिक पत्रिकाओं ने बखूबी किया। युगानुरूप पत्रकारिता का स्वरूप बहुत परिवर्तित हुआ है। हिन्दी पत्रकारिता कि बात करें, तो 30 मई, 1826 ई. में "उदन्त मात्तंड से प्रारम्भ होकर" प्रयाग दूत',' हरिश्चन्द्र मैगजीन',' बालाबोधिनी',' कविवचन सुधा',' अभ्युदय', हिन्दी प्रदीप' , ' भारत-मित्र', सारसुधानिधि' , उचित वक्‍ता', आनन्द कादम्बिनी' , 'प्रताप' , ब्राह्मण, 'सरस्वती' , 'प्रभा' , 'कर्मवीर' , 'श्रीशारदा' , 'माधुरी' , मतवाला',' सुधा', प्रेमा' और 'चाँद' जैसी अनेक पत्रिकाएँ थीं जिन्होंने साहित्य की सेवा के साथ आजादी की लड़ाई में अपना अमूल्य योगदान दिया।

'चाँद' सच्चे अर्थों में भारतीय पत्रकारिता के आकाश पर ‘चाँद' की भाँति आभामय था। रामरख सहगल ने प्रयाग से ज्ञानानन्द ब्रह्मचारी के सम्पादकत्व में सन्‌ 1920 में 'चाँद' का प्रकाशन किया। प्रारम्भ में यह पत्रिका साप्ताहिक थी, बाद में मासिक हो गई। इस पत्रिका में 'सम्पादकीय विचार' शीर्षक से जो अग्रलेख प्रकाशित किए जाते थे , वे सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक और राष्ट्रीय विचारों पर केन्द्रित थे। श्री नन्दकिशोर तिवारी, श्री शुकदेव राय, चंडी प्रसाद हृदयेश, मुंशी नवजादिकलाल श्रीवास्तव, चतुरसेन शास्त्री से लेकर महादेवी वर्मा जैसे यशस्वी साहित्यकार ‘चाँद' के सम्पादक रहे हैं।' चाँद' पत्रिका के विशेषांक आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं , जितने कल थे। इतने स्तरीय प्रामाणिक और साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध विशेषांक सम्भवतः किसी और तत्कालीन पत्रिका ने नहीं निकाले जितने की चाँद ने। इस पत्रिका के सोलह विशेषांक प्रकाशित हुए थे, जिनमें गल्पांक अंक, महिला अंक, शिशु अंक, संरक्षण गृह-सम्बन्धी विशेषांक, फाँसी अंक, विधवांक, प्रवासी अंक प्रवेशांक, अछूतांक, मारवाड़ी विशेषांक, नव वर्षांक, विदुषी अंक और भारतवर्ष अंक प्रमुख हैं।

‘चाँद' का फाँसी अंक नवम्बर 1928 में प्रकाशित तीन सौ तेईस पृष्ठों का वृहद् अंक है। यह चाँद के सातवें वर्ष का प्रथम अंक नवम्बर में 'दीपावली' पर्व पर प्रकाशित हुआ। यह वह काल था , जब राष्ट्रीय आन्दोलन उग्र-से-उग्रतर होता जा रहा था।

प्रसिद्ध साहित्यकार चतुरसेन शास्त्री ने विनयांजलि शीर्षक से इस अंक के हृदयस्पर्शी सम्पादकीय का प्रारम्भ करते हुए लिखा था-“चाँद' की बहिनों, भाइयों और बुजुर्गों के हाथ में दीपावली के शुभ अवसर पर-'फाँसी अंक' जैसा हृदय को दहलाने वाला साहित्य सौंपते हुए हमारा हाथ काँपता है। हम नंगे हैं, भूखे हैं, रोगी, निराश्रय हैं, हम थके हुए हैं, मरे हुए और तिरस्कृत हैं, हम स्वार्थी, पापी और भीरु हैं। हम पूर्वजों की अतुल सम्पत्ति का नाश करने वाली सन्तान हैं। बच्चों को भिखारी बनाने वाले माता-पिता हैं। रूढ़ि की वेदी पर स्त्रियों की बलिदान को पशु बनाने वाले पुजारी हैं। " इस सम्पादकीय में चतुरसेन शास्त्री ने हमारी वास्तविक दयनीय स्थिति का चित्र खींचते हुए भारतवासियों से कहा है कि सदियों से हम गुलामी की कारा में आबद्ध हैं। राहू के समान अनन्त अमावस्या-रूपी गुलामी में हम पीढ़ियों से जी रहे हैं। इस गुलामीजन्य अन्धकार को ये छुद्र पार्थिव दीए क्या मिटा सकेंगे। इस फाँसी अंक को आप दीपावली की अमावस्या समझिए। आगे उन्होंने बहुत ही प्रेरणास्पद भाषा में देशवासियों को यह सन्देश दिया कि देश की आजादी के लिए हमें फाँसी के फन्दे पर भी चढ़ना पड़े, तो हम सहर्ष फाँसी पर चढ़ने के लिए तैयार हो जाएँ। तभी राजलक्ष्मी अपने हाथों से स्वाधीनता के रत्नदीप जलावेगी। "

हृदय को झकझोरकर रख देने वाले इस राष्ट्रभाव से भरे हुए मार्मिक सम्पादकीय में चतुरसेन शास्त्री जी ने आगे लिखा कि में अपनी समस्त वेदनाएँ, कठिनाइयाँ और विकलताएँ भूलकर 'चाँद' के दो लाख पाठक-पाठिकाओं को कम-से-कम एक वर्ष तक न भूलने वाली सामग्री उपलब्ध करा रहा हूँ। सम्पादक ने जिस विचारोत्तेजक शैली में सम्पादकीय लिखा था, उसी कोटि के देश-प्रेम में डूबी हुई राष्ट्र-प्रेम और समर्पण की रचनाएँ 'फाँसी अंक' में प्रकाशित की थी। इस अंक के मुखपृष्ठ पर कवि पंडित रामचरित जी उपाध्याय की कविता ‘प्राणदंड’ शीर्षक से प्रकाशित है।

इस कविता में बहुत ही विवेकपूर्ण ओर तर्कसम्मत ढंग से फाँसी को वध या हत्या की संज्ञा देकर उसे अनुचित ठहराया है। 'सम्पादकीय विचार' शीर्षक से दंड का निर्णय' 'अपराध का विकास' ‘कानून ओर उसका विकास', ‘ क्रान्तिवाद' , और 'फाँसी' शीर्षक से 11 पृष्ठों में फैला विचारपरक और अन्‍तरराष्ट्रीय स्थितियों और घटनाओं को अपने में समेटे यह लेख निस्सन्देह अत्यन्त मूल्यवान् है। अन्त में निष्कर्ष रूप से लेखक कहता है - " फाँसी इतिहास के निष्कलंक और श्रद्धास्पद पृष्ठों को कलंकित करने वाला भीषण पाप! मनुष्य के द्वारा मनुष्य की हत्या का जघन्य काम ! पृथ्वी-भर के मनुष्यों की सभ्यता, मनुष्यता और सहदयता पर कभी न मिटने वाला काला दाग है! " अँग्रेजों द्वारा क्रान्तिकारियों के लिए बनाए गए फाँसी के कानून का विरोध करते हुए लेखक ने कहा है-'बुरा हो इस कानून का। इस कानून का तिरस्कार होना चाहिए। करोड़ों मनुष्यों की बलि इस कानून के हाथों से हो चुकी है। अब धर्म, दया, सभ्यता और सार्वजनिक स्वाधीनता के नाम पर फाँसी को फाँसी होना चाहिए।'

इस अंक का उद्देश्य 'फाँसी' जैसे जघन्य दंड की निन्‍दा करना था। सम्पादक ने अत्यन्त परिश्रम से बहुत ही विवेकपूर्ण ढंग से इस अंक की सामग्री का संचयन किया है। 'प्राणदंड' पर आचार्य रामदेव जी ने प्राचीन भारतीय विचारकों के मत प्रकट किए हैं। सेवानिवृत्त न्यायाधीश रायसाहब हरविलास जी ने ‘प्राणदंड’ पर कानूनी ढंग से विचार करते हुए इसे अनुचित ठहराया है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने कवि विक्टर ह्यूगो के ‘प्राणवध’ का छायानुवाद किया है। फ्रांस की राज्यक्रान्ति के रक्त-रंजित पृष्ठों पर रघुवीर सिंह का गम्भीर और विस्तृत लेख है। आचार्य चतुरसेन शास्त्री की कहानी 'फन्दा' और इसी शीर्षक से विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कीशिक' की कहानियाँ इस अंक को पठनीय बनाती हैं। सम्पादक ने आदिवासियों के प्रतिनिधित्व स्वरूप 'टंटयाभील' की पूरी कहानी और उनकी फाँसी की सजा को केन्द्र में रखकर एक बड़ा मार्मिक लेख भी चाँद के फाँसी अंक में सम्मिलित किया है। ख्वाजा हसन देहलवी ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में बहादुर शाह जफ़र और उनके बेटों के इतिहास ओर बलिदानों को आँखों देखे घटनाक्रम की तरह प्रस्तुत किया है। इस लेख के साथ सम्पादक की टीप है कि ' ख्वाजा साहब की जागती कलमें तड़प का यह नमूना हैं। "

इसके अतिरिक्त पूरे वैश्विक परिदृश्य को ‘चाँद’ के इस अंक में समेटा गया है। 'स्काटलैंड की रानी मेरी' और फ्रांस में स्त्रियों को प्राणदंड' जैसे लेख हमें बताते हैं कि फ्रांस में स्त्रियों को भी फाँसी दी जाती थी। सुकरात और मंसूर जैसे दार्शनिक और प्रेमियों को भी इस अंक में स्थान मिला है। 'चाँद' का फाँसी अंक राष्ट्रीयता की दृष्टि से तो महत्त्वपूर्ण है, साथ ही यह क्रान्तिकारियों के बलिदान का जीवन्त इतिहास है। आज हम जब इतिहास की किताबें पलटते हैं , तो हमें क्रान्तिकारियों के जीवनवृत्त और बलिदान का भावनात्मक और संवेदनात्मक ब्योरा उतना नहीं मिलता, जितना चाँद के फाँसी अंक में मिलता है। इस अंक में पृष्ठ क्रमांक दो सौ चवालीस से तीन सो तेईस तक कुल सत्तर पृष्ठों में तिरेपन क्रान्तिकारियों के बलिदान की गाथा है ,जो हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर झूल गए थे। इनके बलिदानों के कारण ही भारत स्वतन्त्र हुआ। माखनलाल चतुर्वेदी की प्रसिद्ध कविता ‘सिपाही’ की महत्त्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं-‘हरी घास शूली के नीचे की निकली बलवान’ इन क्रान्तिकारियों की शूली के नीचे ही आजादी की हरी-भरी घास विकसित हुई। ‘चाँद’ का फाँसी अंक बलिदानियों के त्याग और आत्मोत्सर्ग का वह अरण्य है, जिससे गुजरते हुए हमारे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। इसे पढ़कर आज हम अपने पुनर्मूल्यांकन के लिए बाध्य होते हैं कि सरदार भगत सिंह, अशफाक उल्ला खाँ, राजेन्द्र नाथ, सन्‍ता सिंह, दलीप सिंह,खुदीराम बोस, उधम सिंह, गेंदालाल दीक्षित, सूफी अम्बा प्रसाद, बाबू हरिनाम सिंह,केहर सिंह, जीवन सिंह जैसे अनेक देशभक्त देश की आजादी के लिए हँसते-हँसते फाँसी के फन्दे पर झूल गए और आज हम अपने छुद्र स्वार्थों के लिए देश की परवाह नहीं करते। हम भ्रष्टाचार, अनैतिकता और उपभोकतावाद के जलजले में ऐसे डूबे कि शहीदों की बलिदान गाथाओं को विस्मृत ही कर गए। फाँसी अंक में प्रभात जी का राम प्रसाद विस्मिल पर केन्द्रित लेख पढ़कर पाठक विस्मिल की माँ के प्रति असीम आदर और श्रद्धा से भर जाते हैं। प्रभात जी लिखते हैं कि फाँसी के एक दिन पूर्व राम प्रसाद विस्मिल की माँ उनसे मिलने आईं। माँ को देखकर बिस्मिल की आँखों से अश्रु की बूँदें निकल पड़ीं। उस समय जननी ने हृदय पर पत्थर रखकर कहा- "मैं तो समझती थी, तुमने अपने हृदय पर विजय पाई है, किन्तु यहाँ तो तुम्हारी कुछ और ही दशा है। जीवन-पर्यन्त देश के लिए आँसू बहाकर अब अन्तिम समय तुम मेरे लिए रोने बैठे, तुम्हें वीरों की भाँति हँसते हुए प्राण देते देखकर में अपने-आपको धन्य समझूँगी। मुझे गर्व है कि इस गुलामी के ज़माने में तुम देश की आजादी के लिए अपने प्राण दे रहे हो। मेरा काम तुम्हें पाल-पोषकर बड़ा करना था, इसके बाद तुम देश की चीज थे और उसी के काम आ गए।” तब बिस्मिल ने कहा था कि माँ मुझे अपनी मृत्यु से ख़ौफ़ नहीं है। उन्होंने फाँसी के पहले कहा-

मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे।

बाकी न में रह न मेरी आरजू रहे॥

अब न अहले बलबले हैं और न अरमानों की भीड़

एक मिट जाने की हसरत, बस दिले बिस्मिल में है।

चाँद के फाँसी अंक को पढ़कर संवेदनशील पाठक लगभग नब्बे साल पुराने उस इतिहास को अपने आँखों से देखने लगता है, जब हम पददलित थे, शोषित थे,और आततायी अँग्रेजों के अत्याचारों के शिकार थे, लेकिन उस समय हमारी युवा पीढ़ी के हौसले बुलन्द थे, वे अँग्रेजों के अत्याचारों के आगे झुकना नहीं जानते थे, वे उनकी नीतियों का विरोध करते थे और मृत्यु को फूलों का हार मानकर उसका वरण कर लेते थे। इस अंक को पढ़ते हुए हम जीवन्त और उत्तेजक इतिहास से गुजरते हैं। राष्ट्रीय आन्दोलन को पुनः जीते हैं। यह अंक तत्कालीन समय और जनमानस का 'बैरोमीटर' है। यह अंक हमारी रगों में राष्ट्रप्रेम भर देता है, हमें बेचैन कर देता है, हमारी धड़कनों को बढ़ा देता है । इस अंक के माध्यम से हम उन राष्ट्रभक्त और बलिदानियों की स्मृतियों को जिन्दा रख पा रहे हैं जिनकी प्रत्येक साँस में देश की आजादी का राग था, प्रत्येक धड़कन में भारत माँ की स्वाधीनता का स्पन्दन था और आँखों में आजादी के स्वप्न थे। कूका विद्रोह के क्रान्तिकारी, चापेकर बन्धु, और काकोरी कांड के सभी क्रान्तिकारियों को समर्पित 'चाँद' का 'फाँसी' अंक निस्सन्देह हिन्दी पत्रकारिता की वह मशाल है जिसने भारतीय जनमानस में राष्ट्रीयता की अलख जगाई। भारतीय चेतना पर अपनी अमिट छाप छोड़ी और देशवासियों के हृदय में आत्मगौरव का संचार कर, अँग्रेजों की उपनिवेशवादी नीतियों से लोहा लेने की शक्ति प्रदान की।

वर्तमान परिवेश में जब पत्रकारिता के मायने बदल गए हैं। आज प्रेस में उच्च पूँजी का वर्चस्व है, विज्ञापनवाद का प्रभाव, पत्रकारों का सुविधाभोगी होना, मीडिया का एक प्रोडक्ट में रूपान्तरण, प्रायोजित समाचार, पेज श्री संस्कृति को बढ़ावा मिलना आदि ऐसे-ऐसे कारण हैं, जिनसे पत्रकारिता के क्षेत्र में मूल्यहीनता बढ़ी है।

ऐसे समय में 'चाँद' पत्रिका के 'फाँसी' अंक की बात करना कुछ लोगों को अवान्तर प्रसंग-सा लग सकता है; लेकिन इस अंक के लेखों में आज भी वह सामर्थ्य है कि उपभोक्तावाद से सुविधाभोगी हो चुके हमारे शरीर और संवेदनाओं की कमी से जड़ हो चुके हमारे हृदय में राष्ट्रप्रेम की तरल धारा प्रवाहित कर दें। हमें सोचने पर विवश कर दें कि हमने यह आजादी कितने बलिदानों से पाई है। चाँद के इस अंक ने अज्ञान, अन्याय और उत्पीड़न को पाठकों के सामने रखने के साथ पाठकों से यह प्रश्न पूछा है कि देश के लिए मर-मिटने वाले, अतिशय संवेदनशील, वन्देमातरं का उद्घोष करने वाले इन भोले-भाले वीरों के लिए क्या फाँसी का दंड उचित है?

वर्तमान समय में 'चाँद' का 'फाँसी अंक' इसलिए प्रासंगिक है; क्योंकि आज की भौतिकतावादी संस्कृति की चकाचौंध में हम अपनी आजादी के इतिहास को विस्मृत रहे हैं। देश के लिए शहीद होने वाले वीरों को अँग्रेजों द्वारा दी जाने वाली कठोर यातनाओं को और आजादी के उद्देश्यों को हम विस्मृत कर चले हैं। ‘चाँद' का फाँसी अंक पवित्र मन्त्रों की भाँति है जिनका असर सीधे हमारे हृदय पर होता है।

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