हिन्दी प्रचार-प्रसार में पत्र-पत्रिकाओं की महती भूमिका / सपना मांगलिक

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"निज भाषा उन्नति अहे, सब भाषा को मूल।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटे न हिय को शूल "॥

भारतेंदु के यह उदगार मानव जीवन और सभ्यता में भाषा के महत्त्व को दर्शाते हैं। भाषा हामरे सोचने की दिशा निर्धारित करती है, हम बोलें चाहे कोई भी भाषा मगर सोचते अपनी मातृभाषा में ही हैं। मातृभाषा की तरक्की से ही राष्ट्र की साहित्यिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक उन्नति एवं प्रसिद्धि संभव है और यह तरक्की प्रचार के माध्यम से ही संभव है। बाजारवाद के युग में यह कहावत खूब प्रसिद्द है कि "जो दीखता है वह बिकता है" ठीक वैसे ही आज हिन्दी ने संचार माध्यमों के द्वारा दुनियाभर में क्रांति मचा दी है। हर कोई हिन्दी में लिखना चाहता है, हिन्दी सीखना और बोलना चाहता है। हिंदी में रोजगार के अवसर भी बढे हैं और यह सब संभव हो सका है विभिन्न संचार माध्यमों से जिसमे प्रिंट और वेब पत्र पत्रिकाएँ आते हैं। आज हामरे देश में पत्र-पत्रिकाओं ने सूचना एवं तकनीक का साथ लेकर विश्व भर में हिन्दी के प्रचार की कमान संभाली है और जन-जन में राष्ट्रभाषा के प्रसार और उसे अपनाने का विगुल बजाया है। भाषा राष्ट्र को एकजुट लाती है और हिन्दी ने यह काम बखूबी किया है और इसके पीछे हमारे देश की हिन्दी पत्र पत्रिकाओं का विशेष हाथ है। सर्वसाधारण की जन-भाषा और हृदय को छू लेने वाली हिन्दी का प्रयोग करना और करने के लिए तैयार करना हमारे देश की पत्र पत्रिकाओं का प्रमुख उद्देश्य था। भारतेंदु के आगमन से पूर्व ही हिन्दी पत्रकारिता का आरंभ हो चुका था। हिन्दी भाषा का प्रथम समाचार-पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' 30 मई, 1826 को कानपुर निवासी पं॰ युगल किशोर शुक्ल ने निकाला। सुखद आश्चर्य की बात यह थी कि यह पत्र बंगाल से निकला और बंगाल में ही हिन्दी पत्रकारिता के बीज प्रस्पुफटित हुए. 'उदन्त मार्तण्ड' का मुख्य उद्देश्य भारतीयों को जागृत करना तथा भारतीयों के हितों की रक्षा करना था। यह बात इसके मुख पृष्ठ पर छपी पंक्ति से ही ज्ञात होती है-"यह उदन्त मार्तण्ड अब पहले पहल हिंदुस्तानियों के हित के हेतु जो आज तक किसी ने नहीं चलाया..."

और सबसे बड़ी बात यह पत्र इसमें काफी हद तक सफल भी रहा। उसके पश्चात कई प्रचलित पत्र - पत्रिकाएँ थीं जिन्होंने कहीं भी भाषा को मात्र बुद्धिजीवियों तक ही सीमित रखने का आग्रह नहीं दिखाया, बल्कि सामान्य जन की ही शब्दावली का प्रयोग करते हुए उन्हें जागरूक करने का प्रयास किया। उदाहरण के लिए सारसुधानिधि में 'हिंदी भाषा' नाम से लेख प्रकाशित हुआ जिसकी महत्त्वपूर्ण लाइन हैं-"जब हम सोचते हैं तो पृथम दृष्टी हमारी भाषा पर पड़ती है, क्योंकि जब तक निष्कपट विशुद्ध भाषा की उन्नति नहीं होयगी जब तक निष्कपट सभ्यता और देश की उन्नति भी नहीं होगी।" अपने प्रयोजन की ओर संकेत करते हुए इन्होंने लिखा -॥।यथार्थ हिन्दी भाषा का प्रचार करना और हिन्दी लिखने वालों की संख्या में वृद्धि करना सार सुधानिधि का दूसरा प्रयोजन है। राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ भाषा की महत्ता स्थापित करने का प्रयास इस युग के सभी पत्रकारों का उद्देश्य था। यदि कहा जाए कि भाषा का प्रश्न राष्ट्रीयता का ही प्रश्न था तो ग़लत नहीं होगा।

इस दिशा में सबसे बड़ा योगदान 'भारतेंदु' का है। भारतेंदु ने 1873 में कहा: 'हिंदी नयी चाल में ढली' - यह नयी चाल भाषा की राह को सुगम बनाने का प्रयास थी जिसके लिए भारतेंदु ने सर्वाधिक प्रयास किया। भारतेंदु ने पत्र-पत्रिकाओं को पूर्णतया जागरण और स्वाधीनता की चेतना से जोड़ते हुए 1867 में 'कवि वचन सुधा' का प्रकाशन किया जिसका मूल वाक्य था: 'अपधर्म छूटै, सत्व निज भारत गहै' भारत द्वारा सत्व ग्रहण करने के उद्देश्य को लेकर भारतेंदु ने हिन्दी पत्रकारिता का विकास किया और आने वालेपत्रकारों के लिए दिशा-निर्माण किया। भारतेंदु ने कवि वचन सुधा, हरिश्चंद्र मैगशीन, बाला बोधिनी नामक पत्र निकाले। 'कवि वचन सुधा' को 1875 में साप्ताहिक किया गया जबकि अनेकानेक समस्याओं के कारण 1885 ई॰ में इसे बंद कर दिया गया। 1873 में भारतेंदु ने 'हरिश्चंद्र मैगजीन' का प्रकाशन किया जिसका नाम 1874 में बदलकर 'हरिश्चंद्र चन्द्रिका' कर दिया गया। देश के प्रति सजगता, समाज सुधार, राष्ट्रीय चेतना, मानवीयता, स्वाधीन होने की चाह इनके पत्रों की मूल विषयवस्तु थी। स्त्रियों को गृहस्थ धर्म और जीवन को सुचारु रूप से चलाने के लिए भारतेंदु ने 'बाला बोधिनी' पत्रिका निकाली जिसका उद्देश्य महिलाओं के हित की बात करना था। इस दिशा में सबसे बड़ा योगदान 'भारतेंदु' का है। भारतेंदु ने 1873 में कहा: 'हिंदी नयी चाल में ढली' - यह नयी चाल भाषा की राह को सुगम बनाने का प्रयास थी जिसके लिए भारतेंदु ने सर्वाधिक प्रयास किया.1881 में पं॰ बद्रीनारायण उपाध्याय ने 'आनन्द कादम्बिनी' नामक पत्र निकाला और पं॰ प्रतापनारायण मिश्र ने कानपुर से 'ब्राह्मण' का प्रकाशन किया। 'आनन्द- कादम्बिनी' ने जहाँ साहित्यिक पत्रकारिता में योगदान दिया वहीं 'ब्राह्मण' ने अत्यंत धनाभाव में भी सर्वसाधारण तक जानकारी पहुँचाने का कार्य पूर्ण किया। 'ब्राह्मण' का योगदान साधारण व सरल गद्य के संदर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है.1890 में 'हिंदी बंगवासी' ने कांग्रेस परव्यंग्य की बौछार की वहीं 1891 में 'बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन' ने 'नागरी नीरद' का प्रकाशन किया। राष्ट्र को चैतन्य करना व अंग्रेशों की काली करतूतों का पर्दाफाश करना इस पत्र का उद्देश्य था। भारतेंदु युग से निकलने वाले पत्रों की मूल विषयवस्तु भारतीयों को जागृत करना तथा सत्य, न्याय और कर्त्तव्यनिष्ठा का प्रसार करना तथा जनता को एकता की भावना का पाठ पढ़ाना था।बालमुकुन्द गुप्त ने 'शिवशम्भु के चिट्ठे' में ब्राह्मण शिवशम्भु शर्मा के छद्म नाम सेलॉर्ड कर्जन की नीतियों पर व्यंग्य किया।'॥॥ "जब हम सोचते हैं तो पृथम दृष्टी हमारी भाषा पर पड़ती है, क्योंकि जब तक निष्कपट विशुद्ध भाषा की उन्नति नहीं होयगी जब तक निष्कपटसभ्यता और देश की उन्नति भी नहीं होगी" हिन्दी साहित्य का दिशा-निर्देश करने वाली पत्रिका'सरस्वती'का प्रकाशन जनवरी 1900 को हुआ जिसके संपादक मण्डल में जगन्नाथदास रत्नाकर, राधाकृष्णदास, श्यामसुंदर दास जैसे सुप्रसिद्ध विद्वज्जन थे। 1903 में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका कार्यभार संभाला। एक ओर भाषा के स्तर पर और दूसरी ओर प्रेरक बनकर मार्गदर्शन का कार्य संभालकर द्विवेदी जी ने साहित्यिकऔर राष्ट्रीय चेतना को स्वर प्रदान किया। द्विवेदी जी ने भाषा की समृद्धि करके नवीन साहित्यकारों को राह दिखाई. उनका वक्तव्य है: हमारी भाषा हिन्दी है। उसके प्रचार के लिए गवर्नमेंट जो कुछ कर रही है, सो तो कर ही रही है, हमें चाहिए कि हम अपने घरों का अज्ञान तिमिर दूर करने और अपना ज्ञानबल बढ़ाने के लिए इस पुण्यकार्य में लग जाएं। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने'सरस्वती'पत्रिका के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ, अपनी'भाषा' हिन्दी की समृद्धि के लिए व्याख्यान भी लिखे।

हिंदी के पत्र-पत्रिकाएँ उसके प्रकाशक तथा संपादक का एकमात्र उद्देश्य हिन्दी के स्तर को उन्नत करना है। माध्यम इलाहाबाद से निकलती थी, जो कुछ समय तक बंद भी रही किन्तु पुन: प्रकाशित हुई. माध्यम के संपादकीय में बालकृष्ण राव ने लिखा है कि माध्यम का उद्देश्य हिन्दी जगत का नेतृत्व करना नहीं है। जैसा उसके नाम से और निमित्त मात्र भव के उसके मूल मंत्र से स्पष्ट है। उसका ध्येय केवल यही है कि उसके माध्यम से हिन्दी का स्वर प्रत्येक दिशा में फैले और देश के कोने-कोने तक पहुंचे। उसके निमित्त से हिन्दी के विराट और उदात्त वाङ्मय के प्रति अधिकाधिक व्यक्ति आकृष्ट हों। उसकी सहायता से हिन्दी जगत में हिंदीतर भारतीय साहित्यों की जानकारी उत्तरोत्तर बढ़ती रहे।

एक ओर भाषा के स्तर पर और दूसरी ओर प्रेरक बनकर मार्गदर्शन का कार्य संभालकर द्विवेदी जी ने साहित्यिकऔर राष्ट्रीय भाषा चेतना को स्वर प्रदान किया। द्विवेदी जी ने भाषा की समृद्धि करके नवीन साहित्यकारों को राह दिखाई. उनका वक्तव्य है -"हमारी भाषा हिन्दी है। उसके प्रचार के लिए गवर्नमेंट जो कुछ कर रही है, सो तो कर ही रही है, हमें चाहिए कि हम अपने घरों का अज्ञान तिमिर दूर करने और अपना ज्ञानबल बढ़ाने के लिए इस पुण्यकार्य में लग जाएं"। महावीरप्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' पत्रिका के माध्यम से ज्ञानवर्धन करने के साथ-साथ नए रचनाकारों को भाषा का महत्त्व समझाया व गद्य और पद्य के लिए राह निर्मित की। महावीर प्रसाद द्विवेदी की यह पत्रिका मूलतः साहित्यिक थी और हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त से लेकर कहीं-न-कहीं निराला के निर्माण में इसी पत्रिका का योगदान था परंतु साहित्य के निर्माण के साथ राष्ट्रीयता का प्रसार करना भी इनका उद्देश्य था। भाषा का निर्माण करना साथ ही गद्य-पद्य के लिए खड़ी बोली को ही प्रोत्साहन देना इनका सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य था.1901 में प्रकाशित होने वाले पत्रों में चंद्रधर शर्मा गुलेरी का 'समालोचक' महत्त्वपूर्ण है। इस पत्र का दृष्टिकोण आलोचनात्मक था और इसी दृष्टिकोण के कारण यह पत्र चर्चित भी रहा.1905 में काशी से 'भारतेंदु' पत्र का प्रकाशन हुआ। यह पत्र भारतेंदु हरिश्चंद्र की स्मृति में निकाला गया। 'जग मंगल करै' के उद्घोष के साथ इस पत्र ने संसार की भलाई करने का महत् उद्देश्य अपने सामने रखा परंतु लंबे समय तक इसका प्रकाशन नहीं हो सका।

1907 का वर्ष समाचार पत्रों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण रहा। महामना मालवीय ने 'अभ्युदय' का प्रकाशन किया वहीं बाल गंगाधर तिलक के 'केसरी' की तर्ज पर माधवराव सप्रे ने 'हिंदी केसरी' का प्रकाशन किया। 'मराठी केसरी' के महत्त्वपूर्ण अंशों और राष्ट्रीय चेतना का उद्बोधन करने वालेअवतरणों का हिन्दी अनुवाद करके 'हिंदी केसरी' ने उसे जन-साधारण तक पहुँचाया।महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बाल गंगाधर तिलक की प्रशंसा करते हुए और माधवराव सप्रे के भाषा संबंधी प्रयास को सराहते हुए लिखा:॥॥ आशा है इससे वही काम होगा जो तिलक महाशय के केसरी से हो रहा है। इसके निकालने का पूरा श्रेय पं॰ माधवरावसप्रे बी.ए. को है। महाराष्ट्री होकर हिन्दी भाषा पर आपके अखण्ड और अकृत्रिम प्रेम को देखकर उन लोगों को लज्जित होना चाहिए जिनकी जन्मभाषा हिन्दी है पर जो हिन्दी में एक सतर भी लिख नहीं सकते या लिखना नहीं चाहते।

1910 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने 'प्रताप' का प्रकाशन किया। छायावाद काल में पत्रिकाओं का प्रकाशन अधिक हुआ। इस काल की प्रमुख पत्रिकाओं में इन्दु, प्रभा, चाँद, माधुरी एवं शारदा, मतवाला थी। सभी साहित्यकारों: जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, निराला, महादेवी वर्मा ने पत्रिकाएँ निकालीं। इन साहित्यकारों ने अपने लेखों के माध्यम से जनजागृति का कार्य किया। 1909 में जयशंकर प्रसाद ने 'इन्दु' पत्रिका का प्रकाशन किया। हिन्दी काव्यधारा में छायावाद का आरंभ इसी पत्रिका से ही हुआ।प्रभा'का प्रकाशन सन् 1913 में हुआ। इसके संपादक कालूराम गंगराडे थे। इस पत्रिका ने ही माखनलाल चतुर्वेदी जैसे राष्ट्रीय चेतना के कवि को जगत् के समक्ष प्रस्तुत एवं स्थापित किया। माखनलाल चतुर्वेदी ने इस पत्र को उग्र एवं सशक्त स्वर जागरण का माध्यम बनाया। उनके शब्दों में: "हमारा अनुरोध है कि तुम अन्यायों, अत्याचारों और भूलों के संबंध में जो कुछ लिखना हो, वहदबकर नहीं, खुलकर लिखो। तुम्हारे पत्रों के संपादकों का विद्वता का ज्वर तभी शायद उतरेगा।"'चाँद' का प्रकाशन सन् 1920में हुआ। आरंभ में यह साप्ताहिक पत्र था बाद में मासिक हो गया। इस पत्रिका में अनेक सामाजिक, धाख्रमक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों पर लेख प्रकाशित किए जाते थे।

'माधुरी' का प्रकाशन 1921 से हुआ। यहछायावाद की प्रमुख पत्रिका थी परंतु अनेक अस्थिर नीतियों का इसे भी सामना करना पड़ा तथापि यह छायावाद की सबसे लोकप्रिय पत्रिका रही। श्री विष्णुनारायण भार्गव इस पत्रिका के संस्थापक थे। 1922 में रामकृष्ण मिशन से जुड़े स्वामी माधवानन्द के संपादनमें 'समन्वय' का प्रकाशन हुआ। यह मासिक पत्र था। निराला ने हिन्दी भाषा सीखने के लिए 'सरस्वती' पत्रिका को आधार बनाया। वह इस पत्रिका के प्रति अपना धन्यवाद ज्ञापन करते हुए कहते हैं: "जिसकी हिन्दी के प्रकाश के परिचय के समक्ष मैं आँख नहीं मिला सका, लजाकर हिन्दी शिक्षा के संकल्प से कुछ दिनों बाद देश से विदेश, पिता के पास चला गया था और उस हिन्दी हीन प्रांत में बिना शिक्षक के 'सरस्वती' की प्रतियां लेकर पदसाधना की और हिन्दी सीखी।" 1923 में निकलने वाला 'मतवाला' निराला के गुणों से प्रदीप्त, अपने स्वरूप में भी निराला ही था। यद्यपि इसके संस्थापक महादेव प्रसाद सेठ थे तथापि इस पत्र की पूर्ण जिम्मेदारी शिवपूजन सहाय, सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' व पाण्डेय बेचन शर्मा 'उग्र' की ही थी।

'सुधा' का संपादन 1927 में श्री दुलारे लाल भार्गव व पं॰ रूपनारायण पाण्डेय ने किया। इस पत्रिका का मूल उद्देश्य बेहतर साहित्य उत्पन्न करना, नए लेखकों को प्रोत्साहन देना, कृतियों को पुरस्कृत करना व विविध विषयों पर लेख छापना था। 'निराला' के आगमन से 'सुधा' को एक नई दिशा मिली। इस पत्रिका के प्रमुख विषयों में समाज सुधार, विज्ञान से लेकर साहित्य औरगृहविज्ञान की सामग्री भी प्रकाशित होती थी।

'जूही की कली', 'सरोज स्मृति', 'बादल राग' जैसी निराला की उत्कृष्ट कविताएँ 'मतवाला' में प्रकाशित हुईं। 'जूही की कली' को मुक्त छंद के प्रवर्तन का श्रेय दिया जाता है।'चाँद' पत्रिका में ही महादेवी वर्मा का अधिकांश साहित्य छपा। 'छायावाद' के प्रसिद्ध रचनाकारों में से सुमित्रानंदन पंत जी ने 'रूपाभ' का प्रकाशन किया।

प्रेमचंद ने 1932 में 'जागरण' और 1936 में 'हंस' का प्रकाशन किया। 'हंस' का उद्देश्य समाज का आह्नान करना था। 'हंस' साहित्यिक पत्रिका थी जिसमें साहित्य की विविध विधाओं का प्रकाशन किया जाता था। महात्मा गांधी की अहिंसा को साहित्य के माध्यम से स्थापित करने वाले प्रेमचंद ने'हंस' में भी इसी आदर्श को स्वर दिया। गांधी की नीतियों का समर्थन, स्वराज्य स्थापना के लिए जागरण का प्रयास और साहित्यिक विधाओं का विकास ही 'हंस' का लक्ष्य था॥इसी के साथ भाषा के विविधवर्णी रंगों की खोज और साहित्यके दोनों पक्षों: गद्य एवं पद्य की स्थापना करना भी इनका लक्ष्य था जिसे कवि-हृदय पत्रकारों ने पूर्ण किया।

आजादी के बाद हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिलवाने और हिन्दी भाषा का प्रचार प्रसार करने के लिए ही हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन अपेक्षाकृत बढ़ना प्रारम्भ हुआ। इस संदर्भ में इस तथ्य को भी ध्यान में रखना होगा कि हिन्दी क्षेत्रों के बाहर भी विशेषकर हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में भाषाको राष्ट्रीय अस्मिता का वाहक मानकर सभी पत्रकारों ने हिन्दी को ही अपनी 'भाषा' के रूप में चुना और हिन्दी भाषा के पत्र-पत्रिकाओं के संवर्धन में अपना योगदान दिया.12 मई, 1963 को 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में बांके बिहारी भटनागर ने हिन्दी के समर्थन में लिखा: "भारत के सुदर्शनधारियों आँखें खोलकर देखो, अंग्रेजी का दुःशासन आज राष्ट्रभाषा का चीर हरने की हठधर्मी ठाने खड़ा है। सब भाषाओं को मिलकर राष्ट्रभाषा का चीर बढ़ाना होगा।" पत्र-पत्रिकाओं में नवीन विचारों और मान्यताओं को स्थान मिलने के कारण भाषा व शिल्प में भी लचीलापन आयाहै। कविताओं में छंदबद्धता के प्रति आग्रह टूटा है। नित नई कहानी व कविता प्रतियोगिता आयोजित की जाती हैं और उनसे जुड़े रचनाकारों को सम्मानित भी किया जाता है।अनेक पत्रिकाएँ तो किसी विशेष विधा को केंद्र में रखकर ही कार्य कर रही हैं। इससे उस विधा विशेष का तो विकास होता ही है साथ ही पाठकों को भी रुचि के अनुरूप चयन की सुविधा मिल जाती है यथा -रंग प्रसंग'(नेशनल स्वूफल ऑफ ड्रामा) राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय द्वारा निकाली जाती है। इसके प्रत्येक नए अंक में एक नएनाटक को प्रस्तुत किया जाता है। इसके अतिरिक्त नाट्य एवं रंगकर्मियों के अनुभवों से जनता को रू-ब-रू कराया जाता है।'नटरंग'भी नाट्य जगत् की सुप्रसिद्ध पत्रिका है जिसका प्रकाशन अभी तक नेमिचंद जैन जी द्वारा किया जाता रहा। नाटक के विविध रंगों की छटा उकेरती यह पत्रिका अपने आप में अनुपम है।आजकल के महत्त्वपूर्ण समाचार पत्रों में'हिंदुस्तान'का नाम एवं स्थान अग्रणी है। इस पत्र में राजनीतिक, सामाजिक, आख्रथक सूचनाओं के साथ-साथ साहित्य संबंधी सामग्री, पुस्तक समीक्षा विशेष रूप से प्रकाशित की जाती है।हिंदुस्तान टाइम्स प्रकाशन द्वारा ही'साप्ताहिक हिंदुस्तान','नंदन'और'कादम्बिनी'का प्रकाशन किया गया।साप्ताहिक हिंदुस्तान' का प्रकाशन 1950 सेहुआ। इस पत्र ने हिन्दी भाषा की स्थापना के लिए चल रहे प्रयासों को अत्यंत उत्कृष्टता से स्वर प्रदान किया साथ ही युद्ध के समय जनता को बलिदान के लिए प्रेरित भी किया।'नवभारत टाइम्स' का ही सांध्य संस्करण 'सांध्य टाइम्स' के नाम से निकलता है। यह पत्र भाषा के स्तर पर नए-नए शब्दों के प्रयोग के लिए विशेष प्रसिद्ध है। नए विषयों और साज-सज्जा में परिवर्तन भी इसकी प्रमुख विशेषता है।'धर्मयुग' एक उत्कृष्ट साहित्यिक पत्रिका थी जिसे निकालने में इलाचंद्र जोशी, सत्यदेव विद्यालंकार और सबसे बढ़कर डॉ॰ धर्मवीर भारती की भूमिका महत्त्वपूर्ण थी। इसमें जनता की रुचि को परिष्कृत रूप देने के लिए उच्चकोटि का साहित्य प्रकाशित किया जाता था।राष्ट्रीय सहारा'के नाम से इसकी भूमिका का ज्ञान हो जाता है। राष्ट्रीय चेतना, अखण्डता को आधार बनाकर 15 अगस्त, 1991 से प्रकाशित होने वाला यह पत्र सहारा इण्डिया समूह द्वारा प्रकाशित किया जाता है। उत्तर प्रदेश में यह पत्र विशेष रूप से पठनीय है। इसका लखनउफ संस्करण अत्यंत उत्कृष्ट व लोकप्रिय है। इसका परिशिष्ट'हस्तक्षेप'नाम से प्रकाशित होता है।दैनिक समाचार-पत्रों में'अमर उजाला'का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह पत्र 1948 से प्रकाशित हो रहा है। यह पत्र भी उत्तर प्रदेश में विशेष रूप से लोकप्रिय है।'वीर अर्जुन'का प्रकाशन 1954 से आरंभ हुआ। राष्ट्रीयता, कर्त्तव्य परायणता व ओजस्विता को आधार बनाकर चलने वाले इसपत्र में गंभीर साहित्यिक पत्रकारिता के भी दर्शन होते हैं। इस पत्र का प्रकाशन नई दिल्ली से किया जाता है। सहारा ग्रुप द्वारा प्रकाशित सप्ताह में एक बार आने वाला पत्र'सहारा समय'विविध विषयों से पूर्ण है। साहित्यिक, राजनीतिक, मनोरंजन, व्यापार आदि अनेकानेक विषयों पर प्रचुर सामग्री प्रस्तुत करने के साथ-साथ बेहतर स्तर के विषय व शिल्प की विविधता इस पत्र की प्रमुख विशेषता है। आज के प्रतियोगी माहौल में विविध अवसरों की खोज और उनके विषय में जानने की इच्छा प्रत्येक युवा में पाई जातीहै। एक ही साथ अनेक अवसरों, अनेक नवीन विषयों, प्रतियोगी परीक्षाओं, परीक्षा की तिथियों की जानकारी के साथ नवीन अवसरों और दिशाओं की जानकारी'रोजगार समाचार'के माध्यम सेप्राप्त होती है। यह पत्र कुल 64 पृष्ठों में'सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय'से प्रकाशित किया जाता है। आजकल इसके संपादक राजेन्द्र चौधरी हैं।'हिंदुस्तान टाइम्स समूह द्वारा प्रकाशित एक महत्त्वपूर्ण पत्रिका है - कादम्बिनी। इसका प्रकाशन 1960 से आरंभ हुआ। इसके प्रथम संपादक बालकृष्ण राव थे। पहले ज्ञानोदय के नाम से निकलने वाली प्रसिद्ध पत्रिका अब 'नया ज्ञानोदय' के नाम से लीलाधर मंडलोई के संपादन में प्रकाशित होती है। विविध कथाओं के अनुवाद करने और भाषाओं को समानांतर स्तर पर लाने के संदर्भ में इस पत्रिका का विशिष्ट योगदान है। भारतीय-अमरीकी मित्रो के सहयोग से आरंभ की गई पत्रिका 'अन्यथा' कृष्ण किशोर के संपादन में संयुक्त राज्य अमरीका से निकाली जाती है। 'कसौटी' के कुल 15 अंक ही प्रकाशित हुए. साहित्य के क्षेत्र में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज कराती पत्रिका 'वागर्थ' आज की समस्याओं - विशेषकर महानगरीय उपभोक्ता संस्कृति को दर्शाती इस पत्रिका ने अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाया है। वित्तीय संकटों के बावजूद बेहतर पत्रिका का नमूना प्रस्तुत करती पत्रिका 'इतिहास बोध' लाल बहादुर वर्मा के संपादनमें इलाहाबाद से प्रकाशित की जाती है। दैनिक भास्कर समूह द्वाराप्रकाशित पत्रिका 'अहा! जिन्दगी' साहित्य के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों के विशिष्ट व्यक्तियों के जीवन को जानने का प्रयास करती है। 'भाषा' पत्रिका भारतीय भाषाओं एवं साहित्य की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है। केंद्रीय हिन्दी निदेशालय, माध्यमिक शिक्षा और उच्चतर शिक्षा विभाग मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित यह पत्रिका डॉ॰ शशि भारद्वाज के संपादन में प्रकाशित की जाती है। केन्द्रीय हिन्दी संसथान आगरा द्वारा मीडिया एवं गवेषणा जैसी शोध पत्रिकाओं का प्रकाशन किया जाता है। आजकल, एवम कुरुक्षेत्र हिन्दी एवं विकास योजनाओं को समर्पित पत्रिकाएँ है। कुल 72 पृष्ठों में सजी 'योजना'पत्रिका का प्रकाशन विश्वनाथ त्रिपाठी के संपादन में योजनाभवन, नई दिल्ली से होता है॥ इसके अतिरिक्त प्रत्येक सरकारी संसथान का राजभाषा विभाग अपनी एक राजभाषा पत्रिका प्रकाशित करता है जिनमे राजभाषा मंजूषा, मंथन, राजभाषा किरण राजभाषा रश्मि इत्यादि प्रमुख हैं।अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर निकलने वाली पत्रिकाएँ यथा – यू के से प्रकाशित पुरवाई, कनाडा से वसुधा, प्रयास, विश्वा, न्यूजीलेंड से भारत दर्शन, ऑस्ट्रेलिया से हिन्दी गौरव इत्यादि पत्रिकाओं ने विश्ब भर में हिन्दी की कीर्ति पताका फेह्राई है जिसका नतीजा यह है कि वर्तमान में हिन्दी मंदारिन के बाद विश्व में सबसे ज़्यादा बोली जाने वाली दूसरी भाषा बन चुकी है।कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने अनेक उतार-चढ़ाव का सामना करते हुए राष्ट्र भाषा को परिपक्व किया है व इसका पूरी सामर्थ्य से प्रचार प्रसार करके विश्व में हिन्दी को सशक्त उपस्थिति दर्ज करने में अभूतपूर्व योगदान दिया है।