हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 10 / प्रकाश मनु
इस इतिहास-ग्रंथ पर दर्जनों आलोचनात्मक लेख और समीक्षाएँ लिखी गईं, जिनमें अनेक वरिष्ठ साहित्यकारों की लेखनीय टिप्पणियाँ भी शामिल हैं। इनमें से प्रायः सभी लेखकों ने इस बात को ज़रूर रेखांकित किया कि यह इतिहास-ग्रंथ आलोचना या विवेचन की बनी-बनाई जड़ीभूत दृष्टि से बहुत अलग है। यह एक तरह की सर्जात्मक भाषा में लिखा गया है, जिसमें इतना है कि कोई चाहे तो इस इतिहास को इतिहास के साथ-साथ एक रोचक उपन्यास या महागाथा के तौर पर भी पढ़ सकता है और उसे इसमें वाकई आनंद आएगा।
कुछ लेखकों ने लिखा कि इस इतिहास-ग्रंथ को पढ़ते हुए, किसी संवेदनशील पाठक को लगेगा वह एक ऐसी फुलवारी से गुजर रहा है, जिसमें तरह-तरह के रंग और गंधों वाले बेशुमार फूल खिले हैं और तरह-तरह की मोहक वीथियाँ हैं। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, जीवनी, ज्ञान-विज्ञान साहित्य—बाल साहित्य की ये अलग-अलग विधाएँ ही जैसे उस सुंदर उद्यान की अलग-अलग सरणियाँ हैं। इनमें घूमते हुए पाठक एक रचनात्मक आनंद से भीगता है और उसका मन प्रफुल्लित होता है। इसलिए कि हर विधा की शक्ति और खूबसूरती को मैंने जगह-जगह बड़े आत्मीय ढंग से उजागर किया है।
हालाँकि कुछ स्नेही मित्रो ने तनिक आक्षेप भी किया है। उन्होंने इतिहासकार के रूप में मेरी एक कमजोरी की ओर इंगित किया है। उनका कहना है कि अपने प्रिय लेखकों के बारे में मैंने अधिक विस्तार से लिखा है और उन्हें कुछ अतिरिक्त महत्त्व दिया है। कुछ आलोचकों का कहना था कि मैंने कतिमय लेखकों की बहुत भावविभोर होकर चर्चा की है। इससे इतिहासकार के रूप में मेरी तटस्थता भंग होती है।
मैं समझता हूँ कि यहाँ मुझे एक स्वीकारोक्ति करनी चाहिए और वह यह कि मैं कुछ फूलों की सुंदरता पर इतना मुग्ध हो जाता हूँ कि उनके रस-माधुर्य का वर्णन करते हुए भूल ही जाता हूँ कि इस चक्कर में कुछ दूसरे उपेक्षित भी हो रहे हैं। एक इतिहासकार के नाते मैंने भरसक तटस्थ रहने की कोशिश की, पर मैं अपने मन और विचारों का क्या करूँ? जिन रचनाकारों की रचनाओं से मैं अधिक मुग्ध होता हूँ, तो जाहिर है, इतिहास में उनका प्रमुखता से और बार-बार ज़िक्र होता चलता है। मैं चाहूँ या न चाहूँ, इससे बच ही नहीं सकता। शायद एक अच्छे इतिहासकार के नाते मुझे अपनी रुचियों से थोड़ा और ऊपर उठना चाहिए था। पर यह मामला क्या इतना आसान है?
फिर आचार्य शुक्ल जी का ही संदर्भ देता हूँ। मैं देखता हूँ कि अगर इस तरह की दुर्बलता की बात की जाए तो आचार्य शुक्ल भी इससे परे नहीं हैं। वहाँ भी तुलसी की बात हो तो शुक्ल जी का मन जैसे बह उठता है, पर वही जब कबीर की बात करते हैं, तो उनका लहजा हमें बदला-बदला-सा नज़र आता है और इन्हीं कबीर पर जब आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं, तो कैसे उनके भीतर से भावनाओं का झरना फूट पड़ता है। वे जो गद्य लिखते हैं, वह किस कविता से कम है? जाहिर है, कबीर ने बाल कविताएँ नहीं लिखीं और वे मेरे इतिहास की परिधि में नहीं आते। पर अगर वे आते होते तो मैं उन पर उसी भावावेगमयी भाषा में लिखता, जो हजारी बाबू की है। कबीर के बारे में शुक्ल जी की नपी-तुली भाषा मुझे नाकाफी लगती है, बल्कि अन्यायपूर्ण भी।
असल में, हमें नहीं भूलना चाहिए कि इतिहासकार कोई कोरा इतिहासकार तो नहीं होता। इसके साथ-साथ वह एक मनुष्य, एक रचनाकार, आलोचक और साहित्य का पाठक भी तो है। वह अपने विचारों से तटस्थ कहाँ तक हो सकता है? हाँ, निजी सम्बंधों के घेरे से बेशक उसे ऊपर उठना चाहिए और यह शुक्ल जी के इतिहास में भी आपको नज़र आएगा और सौभाग्य से मेरे बाल साहित्य के इतिहास में भी। पर अपने विचारों से एक हद से ज़्यादा तटस्थता तो किसी इतिहासकार के इतिहास को एक मृत इतिहास ही बनाएगी। एक ऐसी निष्प्राण कृति, जिसमें भावनाओं की धड़कन ही न होगी और तब उसे कोई पढ़ेगा ही क्यों?