हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 11 / प्रकाश मनु
बाल साहित्य का इतिहास लिखते समय एक सवाल मेरे सामने यह भी था, जिसकी ओर मेरे कुछ स्नेही मित्रो और आलोचकों ने इंगित भी किया है कि उसकी परिधि या विस्तार कहाँ तक हो। कुछ का कहना था कि मैंने सूर और तुलसी के वात्सल्य और बाल वर्णन को अपने इतिहास-ग्रंथ में क्यों शामिल नहीं किया, या अमीर खुसरो की पहेलियों से बाल साहित्य की शुरुआत क्यों नहीं मानी। ऐसे ही कुछ साहित्यिक मित्रो का कहना था कि मैंने मौखिक बाल साहित्य की उतने विस्तार से चर्चा नहीं की, जितनी अपेक्षित थी।
यह मौखिक बाल साहित्य क्या है, इसे ज़रा स्पष्ट कर दूँ। असल में लोककथाओं की तरह बच्चों के खेलगीतों की परंपरा भी सदियों पुरानी है। ‘खेल कबड्डी आल-ताल, मेरी मूँछें लाल-लाल...’ सरीखे गीत हमारे यहाँ बरसोंबरस से गाए जाते रहे हैं। कितनी ही पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते हुए गुजरा। इसी तरह ‘बरसो राम धड़ाके से, बुढ़िया मर गई ख़ाके से...’, ‘सूख-सूख पट्टी, चंदन गट्टी... ’, ‘चंदा मामा दूर के, खोए पकाए दूर के... ’ ऐसे गीत हैं, जिनका आज से साठ-पैंसठ बरस पहले मैंने अपने बचपन में आनंद लिया था। अंदाजा लगाया जा सकता है कि वे पिछले तीन-चार सौ बरसों से तो चल ही रहे हैं। पिछली जाने कितनी पीढ़ियों का बचपन इन्हें गाते-गुनगुनाते हुए, इनके साथ झूमते-गाते हुए बड़ा हुआ और आज के बच्चे भी इन्हें भूले नहीं हैं। हम नहीं जानते कि कब से यह परंपरा चली आती है, शायद पाँच-छह सौ बरस पहले से या शायद और भी पहले थे। कहना चाहिए कि यह मौखिक बालगीतों की परंपरा थी। मैंने बाल कविताओं की चर्चा करते हुए, बीचबीच में बालगीतों की इस मौखिक परंपरा की भी चर्चा की है और मैं समझता हूँ कि इतना पर्याप्त था।
बीसवीं सदी में आकर मौखिक बालगीतों की वही धारा कुछ अधिक संयत होकर, नए-नए बालगीतों में ढलकर एक नया साहित्यिक कलेवर ले लेती है और बच्चों के गले का हार बन जाती है। यों इससे पहले सूर, तुलसी के वात्सल्य वर्णन में, या फिर अमीर खुसरो की पहेलियों में बहुत कुछ ऐसा है, जो बालगीतों के बहुत नज़दीक है। पर इसकी कोई अनवरत परंपरा नहीं बन पाई। मेरा मानना है कि यह बाल साहित्य की पूर्व पीठिका है। बाल साहित्य की सुव्यवस्थित परंपरा तो बीसवीं सदी के प्रारंभ से ही बन पाई। मैंने अपने इतिहास में प्रमुख रूप से उसी की चर्चा की है। इसीलिए बाल साहित्य की मौखिक परंपरा के बारे में अधिक विस्तार से मैंने नहीं लिखा, तथा मध्यकाल में सूर, तुलसी आदि की बाल छवियों और क्रीड़ा आदि के वर्णन को मैंने शामिल नहीं किया। यही बात अमीर खुसरो की पहेलियों आदि को लेकर कही जा सकती है।