हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 12 / प्रकाश मनु

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हिंदी बाल साहित्य के इतिहास लेखन के कारणों और ज़रूरत की चर्चा मैं पहले कर चुका हूँ। पर एक और कारण भी था, जिससे बाल साहित्य के इतिहास का लिखा जाना मुझे बेहद ज़रूरी लगा। वह यह कि बाल साहित्य के प्रति हमारे आलोचकों का रवैया शुरू से ही दुराग्रहपूर्ण रहा है। क्षमा करें, यह असल में, हमारे समाज के कुंठित होने की निशानी है, जिसमें न बच्चे के लिए सम्मानपूर्ण स्थान है और न बाल साहित्य के लिए। हालाँकि दुनिया की हर संपन्न भाषा में बाल साहित्य और बाल साहित्य रचने वालों के लिए बहुत गहरे आदर और सम्मान की भावना है। फिर हमारे यहाँ बाल साहित्य और बाल साहित्यकारों के प्रति यह दुर्भाव क्यों है, यह समझना मुश्किल है।...

मैं समझता हूँ, ज़रूर इसके पीछे हमारे आलोचकों की कोई कुंठा है। हालाँकि जैसी कि मैंने पहले भी चर्चा की है, प्रेमचंद सरीखे हिन्दी के दिग्गज कथाकार ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कहानियाँ लिखीं, बल्कि ‘कुत्ते की कहानी’ सरीखा उपन्यास भी, जिसे हिन्दी का पहला बाल उपन्यास होने का गौरव हासिल है। पर पता नहीं क्यों, ज्यादातर लोग इस बात से अनजान हैं। इसी तरह बहुतों को यह पता ही नहीं है कि प्रेमचंद की ‘ईदगाह’, ‘गुल्ली-डंडा’, ‘बड़े भाईसाहब’, ‘दो बैलों की कथा’ सरीखी कहानियाँ असल में बड़ों के लिए लिखी गई थीं। यह अलग बात है कि बच्चे भी इनका आनंद लेते हैं।...पर बहुत सारे लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि प्रेमचंद ने विशेष रूप से बच्चों के लिए ‘गुब्बारे में चीता’ सरीखी कई सुंदर और भावपूर्ण कहानियाँ लिखी थीं, जो उनकी पुस्तक ‘जंगल की कहानियाँ’ में शामिल हैं। ये इतनी सुंदर और रसपूर्ण कहानियाँ हैं कि इन्हें पढ़ते हुए आपका भी बच्चा बन जाने का मन करेगा, ताकि आप इनका भरपूर आनंद ले सकें।

और अकेले प्रेमचंद ही क्यों, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी और आगे चलकर निराला, पंत, महादेवी वर्मा, भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना—सबने बच्चों के लिए लिखा और ख़ूब लिखा। यह परंपरा आगे भी चलती आई और आज के दौर के कई बड़े और प्रतिभाषाली लेखक भी बच्चों के लिए लिख रहे हैं। निराला की ‘भिक्षुक’ जैसी मर्मस्पर्शी कविताएँ तो बच्चे पढ़ते ही हैं। पर उन्होंने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखी हैं। इसी तरह निराला ने अपनी ‘सीख भरी कहानियाँ’ पुस्तक में ईसप की कथाओं को बच्चों के लिए बड़े ही खूबसूरत कलेवर में पेश किया है।

इस पुस्तक की भूमिका भी बहुत महत्त्वपूर्ण है, जिसमें निराला कहते हैं कि वही लेखक अमर हो पाता है, जिसकी रचनाएँ बच्चे रस लेकर पढ़ते हैं। यानी जो साहित्य बच्चों के दिल में उतर जाता है, वही अमर साहित्य है। बाल साहित्य के लिए ये सम्मानपूर्ण अल्फाज किसी और के नहीं, महाप्राण निराला के हैं, जो हमारे शीर्षस्थ साहित्यकार हैं और बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि। फिर भी अगर आलोचकों को बाल साहित्य का यह विशाल वैभव नहीं नज़र आता तो यह हमारी आलोचना का दुर्भाग्य है, हिन्दी के बाल साहित्य का नहीं।

मेरे लिए यह दुख और हैरानी की बात है कि हमारे आलोचक इतने पूर्वाग्रही हैं कि जब वे रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, महादेवी वर्मा, रघुवीर सहाय या सर्वेश्वर के रचनाकार व्यक्तित्व की चर्चा करते हैं तो उनके बाल साहित्य को एकदम ओट कर देते हैं। पर वे नहीं जानते कि बाल साहित्य की चर्चा के बगैर इनमें से किसी भी साहित्यकार के व्यक्तित्व और संवेदना को वे ठीक से समझ ही नहीं सकते। हमें उम्मीद करनी चाहिए कि हिन्दी की आलोचना अपनी पिछली भूल-गलतियों और सीमाओं से उबरेगी और बाल साहिय के महत्त्व को स्वीकारेगी।

हालाँकि आज बाल साहित्य इस बुलंदी पर पहुँच चुका है कि आलोचक स्वीकारें या नहीं, इससे हिन्दी बाल साहित्य की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ता। वह तो है और अपने मीठे रस से लाखों बालकों को आनंदित कर रहा है, उनके व्यक्तित्व को दिशा दे रहा है। यह अपने आप में बड़ी बात है। आज आलोचना भूल कर रही है तो यकीनन कल वह भूल-सुधार भी करेगी और तब उसे समझ में आएगा कि जिस बाल साहित्य को वह छोटा पोखर समझ रही थी, वह तो एक महासिंधु है। बस, आँखें खोलकर उसे देखने, समझने और सराहने की ज़रूरत है।

सच कहूँ तो वर्तमान दौर बाल साहित्य की सर्वांगीण उन्नति और बहुमुखी विकास का दौर है, जब कि उसकी पताका आसमान में ऊँची लहरा रही है। ‘नंदन’ के यशस्वी संपादक जयप्रकाश भारती जी बड़े जोर-शोर और उत्साह से इक्कीसवीं सदी को बालक और बाल साहित्य की सदी कहा करते थे। तब उनकी बात हमें ज़्यादा समझ में नहीं आती थी। पर यह एक सुखद आश्चर्य है कि समय ने इसे सच कर दिया है। निस्संदेह इक्कीसवीं सदी बाल साहित्य के असाधारण उत्कर्ष की सदी है। इसे आज बड़ों के साहित्यकार भी महसूस कर रहे हैं और वे ख़ुद बड़ी जिम्मेदारी के साथ बच्चों के लिए लिख रहे हैं। अगर कोई खुली आँखों से देखे तो उसे आज बाल साहित्य की विजय-गाथा हवाओं के मस्तक पर लिखी हुई नज़र आ सकती है। जो लोग आज इसे स्वीकार नहीं कर पा रहे, वे कल इसे स्वीकार करेंगे। इसके अलावा उनके पास दूसरा कोई रास्ता ही नहीं है।

इसी तरह बाल साहित्य की प्रतिनिधि पत्रिका ‘बालवाटिका’ में अकसर कहानी, कविता के साथ-साथ बड़े ही भावपूर्ण संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, आत्मकथा, उपन्यास-अंश, एकांकी आदि भी पढ़ने को मिल जाते हैं। इससे इतना तो पता चलता ही है कि आज बाल साहित्य का चौतरफा विकास हो रहा है और उसके उपेक्षित पहलुओं पर भी हमारे बाल साहित्यकारों का ध्यान गया है। यों बाल साहित्य की कोई विधा आज एकदम उपेक्षित नहीं रह गई।

सबसे सुखद बात यह है कि ‘बालवाटिका’ के उत्साही संपादक भैरूँलाल गर्ग जी ने अपनी विनय और आग्रहशीलता से नई और पुरानी पीढ़ी के लगभग सभी साहित्यकारों को उससे जोड़ा है। वे बाल साहित्यकारों की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आग्रह कर-करके मँगवाते और उतने ही आदर के साथ सँजोते भी हैं। ‘बालवाटिका’ संपादक भैरूँलाल गर्ग जी के मन में लेखकों और साहित्यकारों के प्रति जो सम्मान का भाव है, उसका सौवाँ अंश भी मुझे किसी और पत्रिका में नज़र नहीं आता। पर इसे मैं इन पत्रिकाओं की बड़ी कमजोरी मानता हूँ। अगर बाल साहित्यकारों के प्रति आपके मन में सम्मान नहीं है, तो बाल साहित्य के प्रति आपका अनुराग भी सच्चा नहीं हो सकता।