हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 13 / प्रकाश मनु
हिंदी बाल साहित्य के इतिहासकार के नाते एक सवाल मुझसे बार-बार पूछा जाता है कि बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य और बाल साहित्य की तुलना करें, तो क्या दोनों के विकास के ग्राफ में कोई बड़ा अंतर है। इसका जवाब यह है कि मोटे तौर से देखा जाए, तो बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य के समकालीन परिदृश्य में कोई बहुत अंतर नहीं है। दोनों ही रचनात्मक दृष्टि से खासे समृद्ध हैं और एक उत्साह भरा माहौल दोनों में ही नज़र आता है। जिस तरह बड़ों के लिए लिखी जा रही कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि में नई पीढ़ी बहुत प्रचुरता से हिस्सा ले रही है और एक ताज़गी भरी फिजाँ दिखाई देती है, लगभग वही मंज़र बाल साहित्य में भी है, जिसमें एक साथ तीन या चार पीढ़ियों के साहित्यकार निरंतर लिख रहे हैं और हर ओर खासी सक्रियता नज़र आती है।
शायद बड़ों के लिए लिखे जा रहे साहित्य का ही बाल साहित्य पर यह प्रभाव पड़ा कि अभी तक उपेक्षित रही विधाओं संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, रेखाचित्र, आत्मकथा आदि में भी अब खासी हलचल दिखाई देती है और यहाँ तक कि जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य में भी बहुत कुछ नयापन और कलातमक ताज़गी नज़र आती है। खासकर युवा पीढ़ी की सक्रियता दोनों ही जगह उत्साह भरा मंज़र उपस्थित करती दिखाई देती है। इससे कई जगह तो पुरानी पीढ़ी के अंदर भी थोड़ी सक्रियता और कुछ नया करने की ललक पैदा हुई है। इसे मैं शुभ संकेत मानता हूँ।
इसी तरह बड़ों का साहित्य हो या बाल साहित्य, दोनों ही जगह अगर एक ओर उत्कृष्ट साहित्य नज़र आता है तो दूसरी ओर बहुत-सी साधारण चीजों की बाढ़ भी है, जिनके बीच से श्रेष्ठ और उत्कृष्ट को निरंतर अलगाने की ज़रूरत है। पर बड़ों के साहित्य को समीक्षा, आलोचना आदि के जैसे सुअवसर मिल जाते हैं, वैसा बाल साहित्य में बहुत कम है और इसका कुछ खमियाजा भी उसे सहना पड़ता है। इसके कारण बाल साहित्य में जो श्रेष्ठ है, उस पर हमारा ध्यान नहीं जाता और कई बार औसत साहित्य इतनी जगह घेर लेता है कि बहुत लोग पूछते हैं कि मनु जी, क्या यही है वह बाल साहित्य, जिसके आप इतने गुण गाते हैं? तब उन्हें समझाना पड़ता है कि देखिए, बाल साहित्य में बहुत-सी साधारण चीजें भी हैं। जैसे कोई भूसे से भरी कोठरी हो, जिसमें बीच-बीच में बहुत मीठे रसभरे दाने भी नज़र आ जाते हैं। पर किसी भी साहित्य का मूल्याँकन तो उसकी श्रेष्ठ रचनाओं से ही होना चाहिए। यह जितना बड़ों के साहित्य के बारे में सच है, उतना ही बाल साहित्य के बारे में भी।
तो कुल मिलाकर हिन्दी में बड़ों के लिए लिखा जाने वाला साहित्य और बाल साहित्य—ये दोनों दो समांतर चलती निरंतर प्रवहमान नदियाँ हैं, जो एक-दूसरे को भी कुछ न कुछ प्रेरणा देती हैं। मैं समझता हूँ, यह किसी भी भाषा के लिए बड़े गौरव की चीज है।
इसी तरह एक प्रश्न बार-बार मेरे मन में उठता है कि अपने जीवन के इतने बहुमूल्य वर्ष इतिहास-लेखन में खपा देने के बाद, आख़िर वे कौन-सी सबसे मूल्यवान और उत्फुल्लता भरी निधियाँ हैं, जो मेरी इस थकान को कम कर देती हैं। या जिनसे लगता है कि मेरा यह श्रम अकारथ नहीं गया। इसका जवाब यह है कि इतिहास लिखते समय जो सबसे अद्भुत चीजें मुझे मिलीं, वे थीं हमारे बड़े साहित्यकारों द्वारा बच्चों के लिए लिखी गई एक से एक मनोरम रचनाएँ। हिन्दी बाल साहित्य का यह पक्ष बहुतों के लिए अज्ञात है। पर वह इतना सुंदर, मोहक, अनुपम और रोमांचित करने वाला है कि सच पूछिए तो मैं हैरान रह गया।
हिंदी में बार-बार यह कहा जाता है कि बड़े साहित्यकारों ने बाल साहित्य नहीं लिखा, पर इतिहास लिखते समय निरंतर अध्ययन और खोजबीन से यह धारणा ग़लत साबित हुई। लगा कि हिन्दी के एक से एक दिग्गज कवियों, कथाकारों ने बच्चों के लिए लिखा है और बहुत अच्छा लिखा है। मैं प्रेमचंद का ज़िक्र तो पहले कर ही चुका हूँ, जिन्होंने बच्चों के लिए पहला उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ लिखा और इसे मैं बाल साहित्य का बहुत बड़ा गौरव और सौभाग्य मानता हूँ। इसी तरह प्रेमचंद ने ‘जंगल की कहानियाँ’ शीर्षक से बच्चों के लिए विशेष रूप से कुछ कहानियाँ लिखीं, जिनका आज भी बहुतों को पता नहीं है।
बाल साहित्य के प्रांरंभिक काल में हरिऔध, मैथिलीशरण गुप्त, दिनकर, सुभदाकुमारी चौहान, रामनरेश त्रिपाठी सरीखे कवियों ने बच्चों के लिए एक से एक सुंदर कविताएँ लिखीं। ये कविताएँ सचमुच निराले और अनमोल रत्नों सरीखी हैं। इसी तरह मैथिलीशरण गुप्त की लिखा एक बड़ी सुंदर बाल कहानी भी मुझे मिली, जो ‘बाल भारती’ पत्रिका में छपी थी। कहानी का नाम है, ‘जगद्देव’ और यह वाकई मन को बाँध लेने वाली कहानी है, जिसमें जगद्देव का त्यागमय, उदात्त चरित्र भूलता नहीं है। बाद के दौर में भवानी भाई, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना सरीखे कवियों ने एक से एक अद्भुत कविताएँ लिखीं। पंत और महादेवी ने भी बच्चों के लिए रसपूर्ण कविताएँ लिखीं और निराला की ‘सीख भरी कहानियाँ’ तो बहुत ही दमदार हैं। निराला ने बच्चों के लिए सुंदर जीवनियाँ भी लिखीं, जिनका बहुतों को पता नहीं है। इसी तरह कमलेश्वर, मोहन राकेश, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, कृष्ण चंदर, कृष्ण बलदेव वैद, हरिशंकर परसाई सरीखे लेखकों ने बच्चों के लिए ख़ूब लिखा। बल्कि बहुत सारे पाठकों को यह जानकर हैरानी होगी कि मैंने कृष्णा सोबती के भी कुछ सुंदर कल्पनापूर्ण शिशुगीत पढ़े हैं, जो ‘नंदन’ के पुरानी फाइलों में सुरक्षित हैं। मैंने उनका ज़िक्र इस इतिहास-ग्रंथ में किया है।
इसी तरह बाद के दौर में रमेशचंद्र शाह, राजेश जोशी, नवीन सागर समेत बहुत से लेखकों-कवियों ने बच्चों के लिए लिखा, जिनका कोई ज़िक्र नहीं करता और बहुतों को इसकी जानकारी भी नहीं है। पर इस इतिहास-ग्रंथ में उनके लिखे बाल साहित्य का मैंने बड़े सम्मान से जिक किया है। इसी तरह श्रीलाल शुक्ल ने रवींद्रनाथ ठाकुर की एक पद्यकथा के आधार पर इतना अद्भुत हास्य-विनोदपूर्ण बाल नाटक लिखा है कि उसे पढ़कर बच्चा बन जाने का मन करता है। यह नाटक है, ‘आविष्कार जूते का’। पढ़ते जाइए और खुदर-खुदर हँसते जाइए।
मैं समझता हूँ, इस इतिहास-ग्रंथ में ऐसे एक से एक अनमोल नगीने हैं, जिन्हें पढ़कर बहुतों की आँखें खुल जाएँगी और बाल साहित्य की सीमाएँ कहाँ-कहाँ तक जा पहुँची हैं, जानकर वे अचरज में पड़ जाएँगे।...मेरा मन है कि बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक आदि के बड़े संचयन निकालूँ, जिसमें मौजूद दौर के रचनाकारों के साथ-साथ पुराने साहित्य महारथियों के ऐसे अनमोल नगीनों को भी शामिल करूँ। वह कब तक हो पाएगा, हो पाएगा भी कि नहीं, मैं नहीं जानता। इसलिए कि अब मेरी शक्तियाँ क्षीण हो रही हैं। पर अगर साँसों की डोर चलती रही, तो ऐसे कुछ बड़े और यादगार काम तो मैं ज़रूर करना चाहूँगा।
फिर इतिहास लिखते समय एक और महत्त्वपूर्ण बात जो मैंने रेखांकित की, वह हिन्दी बाल साहित्य की अनवरत विकास-धारा है, जो किसी अचरज की तरह निरंतर फैलती हुई आगे बढ़ती रही और निरंतर समृद्ध होती रही है। इसके साथ ही हिन्दी का बाल साहित्य हर दौर में बच्चों से और अपने समय से करीबी तौर से जुड़ा रहा है और उसमें लगातार आशा, जिजीविषा के स्वर सुनाई देते रहे हैं, जिनसे बच्चों में कुछ कर दिखाने का हौसला पैदा होता है।
फिर एक बड़ी बात है, बाल साहित्य की शाश्वत अपील की। आज से साठ बरस पहले की पीढ़ी जिस बाल साहित्य को पढ़कर बड़ी हुई, उसे उनके बच्चों ने और आगे चलकर नाती-पोतों ने भी पढ़ा और वही आनंद हासिल किया। इसका सीधा-सा अर्थ यह है कि बाल साहित्य हमारी भाषा और हमारे देश-समाज की स्थायी धरोहर है। वह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे देश के बचपन को सँवार रहा है। बच्चों को बचपन की उत्फुल्लता से जोड़ने के साथ-साथ बाल साहित्य उनके अनुभव-क्षितिज का भी निरंतर विस्तार करता है और उनकी आत्मा को उजला करता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर निश्चित रूप से देश के बहुत सजग, ज़िम्मेदार और संवेदनशील नागरिक बनेंगे और बड़े-बड़े काम कर दिखाएँगे।
और सबसे बड़ी बात तो यह है कि बाल साहित्य हमें अच्छा मनुष्य बनाता है। ऐसे बच्चे बड़े होकर इंजीनियर बने तो वे अच्छे और कुशल इंजीनियर साबित होंगे, डॉक्टर बने तो अच्छे और सहानुभूतिपूर्ण डॉक्टर बनेंगे और अध्यापक बने तो बड़े स्नेहिल और ज़िम्मेदार अध्यापक बनेंगे। मैं समझता हूँ, बाल साहित्य की यह बहुत बड़ी सेवा है। यह इतिहास लिखते हुए मैंने पाया कि ऐसा सुंदर, कल्पनापूर्ण और सुंदर भावों से भरा बाल साहित्य हमारे देश में हर काल में लिखा गया और उसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारे बचपन को सँवारा। इसका सीधा मतलब यह है कि इस देश को समृद्ध करने और सही दिशा में आगे बढ़ाने में बाल साहित्य की बहुत बड़ी भूमिका रही है। यह निस्संदेह बड़ी सुखद और रोमांचित करने वाली बात है, जो हमारे भीतर आशा और उम्मीदों का उजाला भर देती है।