हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 14 / प्रकाश मनु
मेरे गुरु देवेंद्र सत्यार्थी जी, जो लोकगीतों के यशस्वी संग्रहकर्ता और यायावर थे तथा वर्षों तक गाँधी जी और गुरुदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के सान्निध्य में रहे थे, एक बात अकसर कहा करते थे कि “याद रखो मनु, अगर तुम किसी कृति को रचते हो तो वह कृति भी तुम्हें ज़रूर रचती है।” अगर इस लिहाज़ से अपने लिखे बाल साहित्य के इतिहास पर बात करूँ, तो कहना होगा कि सिर्फ़ मैंने ही इस इतिहास को नहीं रचा, बल्कि इस इतिहास ने भी मुझे रचा है।
यही कारण है कि बाल साहित्य का इतिहास लिखने के बाद मेरे विचारों में एक बड़ा परिवर्तन आया है। बल्कि एक नहीं, कई परिवर्तन। सबसे बड़ा परिवर्तन तो यह है कि इतिहास लेखन के बाद बाल साहित्य की शक्ति, रचनात्मक समृद्धि तथा बच्चों के भीतर भाव और संवेदना के विस्तार की उसकी अपरिमित सामर्थ्य को लेकर मेरे भीतर आस्था कहीं अधिक गहरी हुई है। मुझे लगता है कि आज जब हमारे समाज में चारों ओर निराशा का पसारा है, तो ऐसे माहौल में बाल साहित्य एक बड़ी संभावना है, जो हमारे दिलों में उम्मीद के दीए जलता है। यहीं एक बात और जोड़नी ज़रूरी लगती है कि बाल साहित्य बच्चों के लिए तो ज़रूरी है ही, पर वह केवल बच्चों के लिए ही नहीं, बड़ों के लिए भी उतना ही ज़रूरी है। बड़े उसे पढ़ते हैं तो उन्हें अपना भोला बचपन याद आता है। बचपन की उस निश्छल दुनिया में पहुँचना उन्हें कहीं अंदर से निमज्जित करता है और पवित्र बनाता है।
फिर एक बात और। बड़े जब बाल साहित्य पढ़ेंगे, तो बच्चों के मन और संवेदना को अच्छी तरह समझ पाएँगे। इससे उन्हें यह भी समझ में आएगा कि हम कोई ऐसा काम न करें, जिससे बच्चों के कोमल हृदय को चोट पहुँचे। वे बच्चों के मन की उमंग और सपनों को बेहतर ढंग से समझ पाएँगे और उसे पूरा करने के लिए दोस्त बनकर मदद करेंगे। इससे बच्चों का व्यक्तित्व तो निखरेगा ही, बड़ों का व्यक्तित्व भी निखरेगा। वे अच्छे माता-पिता, अभिभावक और स्नेहशील अध्यापक बन सकेंगे।