हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 15 / प्रकाश मनु
अगर हिन्दी बाल साहित्य के इतिहासकार के रूप में आज के बाल साहित्य की दशा और दिशा पर मेरी राय पूछी जाए तो मैं बेहिचक कहूँगा कि यह बाल साहित्य का एक अपरिमित संभावनाओं भरा दौर है। आज हिन्दी में बच्चों के लिए अच्छी पत्रिकाएँ तो हैं ही, इसके अलावा उनके लिए बहुत पुस्तकें छपती हैं और वे बिकती भी हैं। यह एक संकेत तो है कि बाल साहित्य बच्चों तक पहुँच रहा है और पढ़ा जा रहा है। फिर राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी तथा सूचना और प्रसारण मंत्रालय का प्रकाशन विभाग—ये सभी संस्थान बच्चों के लिए सुंदर ढंग से पुस्तकें छापकर उन्हें बच्चों तक पहुँचाने में बड़ी मदद कर रहे हैं। ख़ुद मेरे पास अकसर बच्चों के फ़ोन आते हैं कि अंकल, हमने आपकी यह कहानी पढ़ी और हमें अच्छी लगी।...वे दूर-दराज के बच्चे हैं, कोई बिहार, कोई छत्तीसगढ़ का—पर कोई अच्छी रचना पढ़कर लेखक से बात करने की इच्छा उनके भीतर ज़ोर मारती है। इसका मतलब यह है कि बाल साहित्य पढा जा रहा है और वह बच्चों के दिलों में भी अपनी जगह बना रहा है। मैं समझता हूँ, यह बड़ा शुभ संकेत है, जो मन को सुकून देता है।
यों बाल साहित्य का सबसे सबल पक्ष तो वह रस-आनंद है, जो बच्चों के लिए लिखी गई प्रायः सभी रचनाओं में मिलता है और पढ़ने वाले को अपने साथ बहा ले जाता है। इसी तरह बाल साहित्य आशा और उम्मीद का साहित्य है और यह बात भी प्रायः सभी लेखकों की कविताओं और कहानियों में नज़र आ जाती है। बड़ों के साहित्य और बाल साहित्य में एक बड़ा फ़र्क़ ही यह है कि बाल साहित्य उम्मीद के दीए जलाकर हमारी आत्मा को उजला और प्रकाशित करता है। इसीलिए मैं बार-बार आग्रह करता हूँ कि बाल साहित्य केवल बच्चों के लिए नहीं है, उसे बच्चों के साथ-साथ बड़ों को भी पढ़ना चाहिए और अगर बड़े उसे पढ़ेंगे तो वे नाउम्मीदी के अँधेरे से निकलकर आशा और उम्मीद के उजाले की ओर बढ़ेगे। यह बहुत बड़ी शक्ति है बाल साहित्य की कि वह हमें आनंदित ही नहीं करता, हमारे जीवन और दृष्टिकोण को भी पूरी तरह बदल देता है।
इसी तरह बाल पुस्तकों के प्रकाशन की स्थिति कम से कम हिन्दी में तो बहुत उम्मीद भरी है। प्रकाशक बाल साहित्य की अच्छी पुस्तकों के प्रकाशन के लिए उत्सुक और लालायित नज़र आते हैं। बल्कि बड़ों के साहित्य की तुलना में बाल साहित्य को छापने में उनकी रुचि कहीं अधिक है। जितने भी प्रकाशकों को मैं जानता हूँ या कहूँ, जिन-जिन प्रकाशकों ने मेरी पुस्तकें छापी हैं, उन सभी का कहना कि बच्चों के लिए लिखी गई पुस्तकें बिकती हैं। किसी प्रकाशक ने यह नहीं कहा कि बाल साहित्य बिकता नहीं है। बड़ों के लिए लिखी गई पुस्तकों को लेकर तो कभी-कभी सुनना पड़ा कि पुस्तक अधिक बिकी नहीं, पर बच्चों की चीजों के लिए प्रायः सभी प्रकाशकों का कहना है कि बाल साहित्य ख़ूब बिकता है। मैं समझता हूँ, बाल साहित्य के लिए यह बड़ी सुखद स्थिति है।
यह एक सुपरिचित तथ्य है कि हिन्दी में बड़ों के लिए लिखी गई कविताएँ प्रकाशक अकसर नहीं छापना चाहते। उनका कहना है कि कविताओं के पाठक नहीं हैं यानी वे ज़्यादा पढ़ी नहीं जातीं और वे बिकती भी नहीं है। पर बाल साहित्य में स्थिति एकदम उलट है। बच्चों के लिए लिखी गई कविताओं की किताबें ख़ूब पढ़ी और सराही जाती हैं और बहुत बिकती भी हैं। इस लिहाज़ से बाल साहित्य में प्रकाशन की स्थिति कहीं अधिक आशा और उम्मीद भरी है।
इसी तरह बाल साहित्य के वर्तमान दौर की एक बड़ी उम्मीद भरी स्थिति यह भी है कि आज का बाल साहित्य बच्चों के कहीं अधिक नज़दीक आया है। बल्कि कहना चाहिए कि बच्चे ही उसके केंद्र में हैं और यह बात बाल कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास सभी विधाओं में देखी जा सकती है। आप पाएँगे कि इन सभी में बच्चों की उपस्थिति बहुत अधिक बढ़ी है और आज की बाल कहानी हो, नाटक या उपन्यास, सभी में मुख्य या केंद्रीय पात्र बच्चे ही हैं। इतना ही नहीं, आज के बच्चों के सुख-दुख और समस्याएँ, उनका नटखटपन, शरारतें, यहाँ तक कि बड़ों की दुनिया से उनकी शिकायतें भी बड़ी प्रमुखता से आज के बाल साहित्य में मिल जाएँगी। इससे वर्तमान पीढ़ी के बच्चों का उससे सीधा रिश्ता जुड़ता है।
इस लिहाज़ से बाल कहानियों का रूप तो आश्चर्यजनक ढंग से बदला है और उन्हें सही मायनों में आधुनिक बाल कहानियाँ कहा जा सकता है। उनमें बच्चों की भीतरी दुनिया के भाव भी हैं, विचार भी और संवेदनाएँ भी। बाल कहानियों के नाम पर लोककथाएँ लिख देने का चलन अब काफ़ी कम हुआ है। जबकि बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में लोककथाओं पर बहुत ज़ोर था और बाल कहानियों के नाम पर अकसर विभिन्न तरह की लोककथाएँ ही पढ़ने को मिलती थीं। यहाँ तक कि ‘बालसखा’ सरीखी उस दौर की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में भी लोककथाओं की ही प्रमुखता थी। पर आज स्थिति बिल्कुल बदल गई है। आज उन्हीं कहानियों को बाल साहित्य में सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त है, जिनके केंद्र में बच्चा और उसकी दुनिया है। उसके छोटे-छोटे सुख-दुख, उलझनें, परेशानियाँ, उसकी आशा और आकांक्षाएँ, उसके सपने और कुछ कर गुजरने की आकांक्षा। मोटे तौर से आज की ज्यादातर बाल कहानियाँ इन्हीं स्थितियों से उपजती हैं और इसलिए आज के बच्चों के बहुत करीब हैं।
बहुत-सी ऐसी बाल कहानियाँ भी लिखी गईं, जिनमें बड़ों की दुनिया से बच्चों की शिकायतें हैं और ऐसी चीजें ख़ूब खुलकर लिखी गई हैं। इन कहानियों में कहीं गुस्सा, कहीं खीज तो कहीं हँसी-विनोद सब कुछ हो सकता है। फिर ऐसी कथाएँ फंतासी के रूप में भी हो सकती हैं और यथार्थ कथन के रूप में भी। एक तीसरा रास्ता यह भी है कि कहानी में एक साथ फंतासी और यथार्थ दोनों हों और वे परस्पर एकरूप होकर सामने आएँ। कुल मिलाकर कहानी में बच्चे नायक के रूप में सामने आएँ, तभी आज के बच्चों की वे पसंदीद कहानियाँ बन सकती हैं।
इसमें संदेह नहीं कि अच्छी और सुरुचिपूर्ण लोककथाएँ भी बच्चे पसंद करते हैं, पर मेरे खयाल से उन्हीं लोककथाओं को बाल कथा साहित्य के अंतर्गत लिया जा सकता है, जिन्हें नई भाषिक ताज़गी और बड़ी कल्पनाशीलता के साथ प्रस्तुत किया गया हो। असल में तो लोककथाएँ बच्चों के लिए तो गढ़ी नहीं गई थीं। वे ग्राम्य स्त्री-पुरुषों की अपनी चीजें थीं, जिनमें उनके सुख-दुख, मान-अपमान, हर्ष, शोक, उदासी और इस विषमतापूर्ण समाज में उपजी मन की अकथ पीड़ाएँ हैं। इसी के साथ-साथ पारिवारिक भावनाएँ, मन की रागात्मकता तथा स्वजनों के लिए हृदय का स्वाभाविक प्रेम, अनुराग, ख़ुशी, उत्साह—लोककथाओं में यह सब बहा चला आता है। इनमें से कुछ लोककथाएँ अगर ढंग से बच्चों के लिए लिखी जाएँ और उनमें एक तरह की क्रिएटिविटी या सर्जनात्मकता भी हो, तो वे बेशक बाल कहानी के अंतर्गत आ सकती हैं।
राजस्थान में बिज्जी ने लोककथाओं को बड़े खूबसूरत और रचनात्मक कलेवर में बाल पाठकों के लिए प्रस्तुत किया। ऐसे ही घुमंतू साहित्यकार देवेंद्र सत्यार्थी जी ने बड़े अनोखे और मोहक अंदाज़ में लोककथाओं को प्रस्तुत किया है। उनकी ‘अदारंग-सदारंग’ सरीखी कहानियों का तो जवाब ही नहीं। इसी तरह ढंग के कुछ प्रयास और भी हुए हैं और सच पूछिए तो कायदे से बस ऐसी ही लोककथाओं को बाल कथा साहित्य माना जा सकता है, जो परंपरावादी होते हुए भी कहीं न कहीं आधुनिक सोच और मूल्यों से जुड़ती हैं। उनमें किस्सागोई और रोचकता तो अपार होती ही है। इसलिए उनकी प्रासंगिकता को नकारा नहीं जा सकता। अपने इतिहास-ग्रंथ में भी मैंने इसी दृष्टिकोण से बच्चों के लिए लिखी गई अच्छी और सार्थक लोककथाओं की चर्चा की है।