हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 16 / प्रकाश मनु
आज जब कि इतिहास लेखन का कार्य संपन्न हो गया है, मैं कभी-कभी बाल साहित्य के इतिहास लेखन के शुरुआती पलों को याद करता हूँ, तो बड़ा रोमांच-सा होता है। एक बात बहुत साफ़ तौर से नज़र आती है कि जब इस दिशा में मैंने अपना पहला झिझकता क़दम उठाया, तब वाकई मुझे पता नहीं था कि यह काम इतना बड़ा है कि इसे करते हुए मैं ख़ुद इसके नीचे दब जाऊँगा...और बाक़ी सब कुछ छूट जाएगा। पर काम करता गया, आगे बढ़ता गया और महसूस होता गया कि यह काम कितना गुरुत्वपूर्ण है। मुझे बाल साहित्य के इतिहासकार के रूप में अपनी जिम्मेदारी का पूरा अहसास था और बार-बार एक ही बात मन में उठती कि यह हिन्दी बाल साहित्य का पहला इतिहास है तो कोई कसर बाक़ी न रहे। लगता था, मैं अपनी आखिरी बूँद तक इसमें निचोड़ दूँ, ताकि यह सच में मुकम्मल हो, अद्वितीय भी। फिर भी थोड़े-थोड़े समय बाद मन में गहरा असंतोष उभरता। कारण यह था कि लगातार लेखकों की नई-नई रचनाएँ सामने आती थीं। उनमें जो उत्कृष्ट लगतीं, उन्हें मैं इतिहास का अंग बना लेता और फिर अध्ययन-मनन में डूब जाता। पर बहुत सारा काम करके पसीने से लथपथ हो रहा होता, तो भी अंदर से तृप्ति के बजाय अतप्ति ही अधिक उभरती। लगता था कि ‘अरे, यह तो छूट ही गया...वह तो छूट ही गया...!’
तब मैं फिर किताबों की तलाश में निकलता। हजारों रुपए मूल्य की किताबें खरीदकर लाता। गंभीरता से उन्हें पढ़ने के बाद उनमें जो कुछ अच्छा और उत्कृष्ट नज़र आता, उसे इतिहास में जोड़ता। पर इतने में ही भीतर फिर अतृप्ति धधक उठती कि अरे, यह तो अभी लिखा ही नहीं गया...अभी वह भी तो जोड़ना है...!! मैं इतना थककर चूर हो जाता कि लगता था, यह काम इस जन्म में तो पूरा होने से रहा। मैं चला जाऊँगा, पर यह काम तब भी अधूरा ही रहेगा। ऐसे हालत में मेरी पत्नी सुनीता और कुछ कृपालु मित्रो ने बड़ी हिम्मत बँधाई, मुझे टूटने नहीं दिया और आख़िर यह काम संपन्न हुआ। इसके पूरा होते ही पहली अनुभूति यह हुई कि जैसे सिर से एक बड़ा भारी पहाड़ उतर गया हो, जो हर वक़्त मेरी चेतना पर सवार था।
हालाँकि यह काम संपन्न हो जाने के बाद भी यक़ीन नहीं आता कि सचमुच मैंने इसे किया है। मैं तो कहूँगा कि कोई अज्ञात शक्ति थी, जिसने मुझसे इतना बडा काम करवा लिया, जो एक व्यक्ति नहीं, बल्कि पूरी एक टीम के लिए भी खासा टेढ़ा और दुश्वार काम था। यह इतिहास लिखते हुए हर क्षण मुझे महसूस होता, जैसे बाल साहित्य में अपना समूचा जीवन अर्पित करने वाले बहुत से बड़े और दिग्गज साहित्यकारों का आशीर्वाद मेरे सिर पर बरस रहा है और देश भर के हजारों बाल साहित्यकों की शुभकामनाएँ हर पल मेरे साथ हैं। वे न होतीं तो यह काम पूरा हो ही नहीं सकता था। इसलिए मैं मन ही मन उन सभी कृपालु मित्रो और दिग्गज साहित्यकारों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता से सिर झुकाता हूँ।
कुछ मित्र और वरिष्ठ साहित्यकार तो इस काम से इस क़दर उत्साहित थे कि लगातार दरयाफ्त करते रहते कि मनु जी, काम कहाँ तक पहुँचा? कब आ रहा है आपका इतिहास...? अफसोस, यह इतिहास सामने आ पाता, इससे पहले ही वे चल बसे। उनका प्यार और विश्वास याद करता हूँ तो मेरी आँखें नम हो जाती हैं।
आज इस ख़ुशी की वेला में जब कि यह इतिहास सामने आ चुका है और पूरे देश भर में फैले हिन्दी के बाल साहित्यकारों की ओर से सराहा गया है, मैं अपने उन मित्रो और अग्रज साहित्यकारों को याद करना चाहता हूँ जो इसकी प्रतीक्षा करते-करते चले गए। इसी तरह ऐसे बहुत से प्यारे मित्र हैं, जिनका स्नेह-सम्बल इस काम में मेरे लिए पाथेय बन गया। मैं कृतज्ञता से भरकर उन सभी को धन्यवाद देता हूँ। सच पूछिए तो यह इतिहास-ग्रंथ केवल मेरी सृष्टि नहीं, हम सभी के साझे उद्यम का फल है और आज यह मेरे हाथों से निकलकर समूचे हिन्दी बाल साहित्य की अनमोल निधि बन चुका है।
बरसों पहले मेरे एक स्नेही मित्र श्याम सुशील ने मुझसे एक लंबा इंटरव्यू किया था, जिसमें इस इतिहास-ग्रंथ पर भी काफ़ी बातें हुई थीं। उन दिनों यह इतिहास लिखा जा रहा था और मैं आपादमस्तक इस काम में डूबा था। तब इस इतिहास की चर्चा करते हुए मैंने भावोत्तेजना में जो बातें कही थीं, वे आज भी मेरी स्मृति में तैर रही हैं। हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास पर अपने आत्मकथ्य का अंत मैं उन्हीं शब्दों से करना चाहूँगा, जो बरसों पहले मैंने भाई श्याम सुशील से कहे थे—
“...ऐसे एक नहीं पचासों कवि-लेखक हमारे यहाँ हैं, जिन्होंने बच्चों से जुड़कर, बच्चों के सपनों और इच्छा-संसार से जुड़कर इतना अच्छा लिखा है, इतना प्यारा लिखा है और इतनी ऊँची ज़मीन पर लिखा है कि कई बार मैं यह सोचकर अकुलाता हूँ कि ऐसे अपने कद्दावर शख्सियत वाले बाल साहित्यकारों के लिए हम क्या कर रहे हैं, जिन्होंने अपना पूरा जीवन ही बाल साहित्य के लिए समर्पित कर दिया! अपने जीवन-काल में उन्होंने निर्धनता और अपमानों के धक्के खाए, उन्हें समझा नहीं गया और आज भी जब वे चले गए हैं, उन्हें समझने और मूल्याँकन की कोशिश कोई नहीं कर रहा। सिर्फ़ हवा में चिल्ल-पों और चीखों का शोर है और आश्चर्य है, इसी को वे विचार या विचार-गोष्ठियाँ कहते हैं। मेरे भाई, मुझे तो इससे बड़ी चिढ़ है और अगर मैं पिछले कुछ वर्षों में इस सबसे उपराम होकर बाल साहित्य का इतिहास लिखने में जुटा हूँ—और अपने ढंग से अथाह कष्ट पाते हुए भी सुख महसूस करता हूँ तो इसका कारण भी शायद यही है कि मैं यह महसूस करता हूँकि हिन्दी बाल साहित्य अब वहाँ आ गया है, जहाँ सचमुच कुछ ठोस काम करने की ज़रूरत है...
“इसे लिखते हुए मैं किन-किन दुस्सह अनुभवों से गुजरा और कैसी मर्मांतक चोटें खाई, इनकी चर्चा रहने दीजिए, फिर कभी...! हाँ, यह पूरा हो जाए और हिन्दी साहित्य का यह पहला इतिहास लिखा जा सके, तो मुझे ऐसा ज़रूर लगेगा कि आकाश में बैठे तमाम देवता मेरे ऊपर फूल बरसा रहे हैं! लेकिन भाई सुशील जी, ये आकाश के देवता वह देवता नहीं है जिन्हें दूसरे समझेंगे। मेरी दुनिया के ये आकाश के देवता तो हरिऔध, स्वर्ण सहोदर, विद्याभूषण विभु, रामनरेश त्रिपाठी, दिनकर, सुभद्राकुमारी चौहान या सर्वेश्वर सरीखे वे बाल साहित्य के प्रदीप्त रचनाकार हैं जिनके जाने के बाद भी उनका प्रकाश क्षीण नहीं हुआ, वह क्षण-क्षण और निरंतर बढ़ता ही जाता है।”
आज जब मैं अपने इतिहास-ग्रंथ पर चंद सतरें लिखने बैठा हूँ, तो मेरी आँखें सचमुच भीगी हुई हैं और मैं बड़ी विनम्रता और आदर से हाथ जोड़कर अपना अपना यह महत् ग्रंथ इन्हीं साहित्यिक देवताओं के चरणों में अर्पित करता हूँ।