हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 1 / प्रकाश मनु
हिंदी बाल साहित्य का इतिहास लिखना मेरे जीवन का सबसे बड़ा सपना था। इक्कीसवीं सदी तक आते-आते बहुत अधिक विस्तीर्ण और व्यापक हो चुके हिन्दी बाल साहित्य का यह पहला इतिहास है। एक बृहत् इतिहास, जिसे लिखने में मेरे जीवन के कोई बीस-बाईस वर्ष लगे। पर एक धुन थी, एक बहुत गहरी-गहरी-सी धुन—कृष्ण के अलौकिक वंशीनाद सी, जिसने इस काम में एक के बाद एक आती गई सैकड़ों बाधाओं के बावजूद, मुझे इस काम से विरत नहीं होने दिया। शायद इसलिए कि यह न सिर्फ़ मेरे जीवन का बड़ा सपना था, बल्कि हिन्दी बाल साहित्य के सैकड़ों लेखकों का भी सपना था कि हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखा जाए, जिसमें पिछले कोई सवा सौ वर्षों में लिखी गई बाल साहित्य की बहुविध रचनाओँ की सम्मानपूर्वक चर्चा हो और अलग-अलग कालखंडों की जो सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण, प्रतिनिधि और पूरे बाल साहित्य की धारा को सार्थक मोड़ देने वाली कालजयी रचनाएँ हैं, उन्हें स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जाए। बल्कि उन्हें केंद्र में रखकर ही यह समूचा इतिहास लेखन हो।
इस इतिहास-ग्रंथ की भूमिका में मैंने अपने मन की उन भावदशाओं का वर्णन किया है, जिनसे इतिहास लिखने की प्रक्रिया में मुझे गुजरना पड़ा। पर इसके बावजूद इस कार्य के पूरा होने का अहसास इतना आनंदपूर्ण और सुखदायी था कि मैं अपने सारे कष्ट भूल गया। याद रहा तो बस, इतना ही कि बरसोंबरस की रात-दिन की मेहनत से आख़िर यह यज्ञ संपन्न हुआ। इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ की भूमिका की प्रारंभिक सतरें कुछ इस तरह हैं—
“इक्कीसवीं सदी हिन्दी बाल साहित्य के बहुमुखी विकास और चरम उत्कर्ष की सदी है, जब कि उसकी प्रायः हर विधा में लीक को तोड़ता हुआ नया निराला साहित्य लिखा जा रहा है और संभावनाओं के असंख्य नए द्वार खुल गए हैं। कोई सवा सौ बरसों से निरंतर अपनी जीवंत उपस्थिति का अहसास कराता हिन्दी बाल साहित्य का कारवाँ इक्कीसवीं सदी के इस दूसरे शतक में अप्रत्याशित सक्रियता और धमक के साथ अपनी मौजूदगी साबित कर रहा है। यहाँ तक कि ज्ञान का भारी-भरकम टोकरा उठाए हिन्दी साहित्य के बहुत से विद्वान जो अभी तक बाल साहित्य की विकास-धारा, जीवंत हलचलों और गूँजों-अनुगूँजों को जान-बूझकर अनसुना करते रहे, अब अपनी ग़लती स्वीकार कर रहे हैं और बाल साहित्य की अजस्र सृजनात्मकता, सक्रिय ऊर्जा और जिजीविषा को समझने की कोशिश कर रहे हैं।...
“मेरे लिए यह ख़ुशी और राहत की बात है कि जिस बाल साहित्य के इतिहास लेखन के लिए मैं पिछले दो-ढाई दशकों से निरंतर खट रहा था, उसकी पूर्णाहुति ऐसे सुखद काल में हुई, जब बाल साहित्य की दमदार उपस्थिति पर कोई सवाल नहीं उठाता। बाल साहित्य की यह विकास-यात्रा बड़े-बड़े बीहड़ों से निकलकर आई और अब एक प्रसन्न उजास हमें चारों ओर दिखाई देता है। बेशक यह यात्रांत नहीं है। होना चाहिए भी नहीं। अभी तो एक से एक बड़ी चुनौतियाँ बाल साहित्य के आगे मुँह बाए खड़ी हैं। संभावनाओं के नए से नए पुष्पद्वार भी। पर इतना सच है कि बाल साहित्य ने अपना ‘होना’ साबित कर दिया है। अब पहले की तरह कोई भी ऐरा-गैरा मुँह उठाकर सवाल नहीं दाग देता कि क्या हिन्दी में भी बाल साहित्य है?...”
यह एक यज्ञ के पूर्ण होने की ख़ुशी थी। मेरा बहुत लंबा और बीहड़ वाङ्मय तप सफल हुआ था। पर यह कोई आसान काम न था। मेरे लिए तो यह जीवन भर की तपस्या ही थी, जिसमें मैं तन, मन, धन से जुटा था। कुछ इस क़दर तन्मयता से कि देह का भी होश न था। बस, सामने एक पहाड़ है, यह नज़र आता था। पिछले सौ-सवा सौ सालों में हिन्दी बाल साहित्य की प्राय सभी विधाओं में इतना काम हुआ है कि उस सब को एक ग्रंथ में समेटना किसी पहाड़ को उठा लेने से कम न था। कई बार लगता था कि काम इतना बड़ा है कि मेरे इस जीवन में तो पूरा न होगा और मैं इसके बोझ के नीचे दब जाऊँगा। पर सौभाग्य से मेरी पत्नी सुनीता जी ने किसी आत्मीय दोस्त की तरह हमेशा मेरा मनोबल बढ़ाया। सुख-दुख में वे चट्टान की तरह मेरे साथ खड़ी रहीं। कुछ मित्रो ने भी समय-समय पर सामग्री जुटाने में मेरी मदद की और निरंतर प्रीतिकर चर्चाओं से मेरे आत्मविश्वास को सँभाले रखा।
आज याद करता हूँ तो आँखें फैलती हैं। कोई सौ से ज़्यादा प्रारूप इस इतिहास-ग्रंथ के बने। आज यह बात कहना-सुनना आसान है, पर उसे समझ पाना उतना ही मुश्किल। इसलिए कि कोई एक प्रारूप बनाने में ही छह-आठ महीने लग जाते। फिर प्रिंट लेने पर हमेशा कुछ न कुछ नया जुड़ जाता और यह इतिहास-ग्रंथ बहुत अधिक फैल न जाए, इसलिए बहुत कुछ नए सिरे से संपादित भी होता। कई बार तो पूरा का पूरा प्रारूप ही बदल जाता और नई दृष्टि से फिर से काम शुरू करना पड़ता। बाल साहित्य के सैकड़ों दुर्लभ ग्रंथों की खोज तो साथ ही साथ चल रही थी। वे मिलते तो फिर से एक नई और व्यापक दृष्टि से पूरी सामग्री को संपादित करना आवश्यक हो जाता। कई बार तो चीजों को बिल्कुल नए सिरे से लिखना पड़ता।
मेरे लिए तो यह एक तप ही था। जीवन भर का तप। इसे आप वाङ्मय तप कह सकते हैं। पर जब यह बृहत् इतिहास-ग्रंथ सामने आया तो पूरे बाल साहित्य जगत ने जिस तुमुल उत्साह से इसका स्वागत किया, उसने जैसे मेरी सारी थकान को धो डाला। मेरे लिए यह अकल्पनीय है। अद्भुत! अपूर्व...!!
मेरे जीवन के ये सर्वाधिक यादगार पल थे। बाल साहित्यकारों के इतने उत्साह भरे पत्र मुझे मिले कि लगा, यह तप अकारथ नहीं गया। अब जबकि इसका पहला संस्करण लगभग समाप्ति की ओर है, हिन्दी का शायद ही कोई महत्त्वपूर्ण बाल साहित्यकार, या फिर बाल साहित्य का अध्येता हो, जिसके पास बाल साहित्य का यह गौरव ग्रंथ न हो। बाल साहित्य के शोधार्थियों के लिए तो यह सर्वाधिक प्रतिनिधि और प्रामाणिक आधार सामग्री के रूप में, एक बड़ा विश्वसनीय ज्ञान-स्रोत बन गया और उन साहित्यकारों या साहित्य के अध्येताओं से हुई उत्साहपूर्ण फोन-चर्चाओँ की बात करूँ तो शायद कई पन्ने भर जाएँगे।