हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 2 / प्रकाश मनु

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अब मुझे इस बृहत् इतिहास-ग्रंथ की रचना-प्रक्रिया की भी कुछ बात करनी चाहिए। इस लिहाज़ से सबसे पहले मैं यह स्वीकार करूँगा कि निश्चित रूप से मेरे इतिहास लेखन के पीछे ‘नंदन’ पत्रिका की बड़ी भूमिका और योगदान है। अगर मैं ‘नंदन’ पत्रिका से न जुड़ा होता, क्या तब भी मेरे मन में इतिहास लेखन का सपना उत्पन्न होता और वह होते-होते इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता कि मैं इस तरह बरसोंबरस तक जुटे रहकर इस इतिहास-ग्रंथ को आकार दे पाना। मेरे लिए कह पाना कठिन है। इस इतिहास-ग्रंथ के लिखे जाने के भगीरथ प्रयत्न में ‘नंदन’ पत्रिका का योगदान बेशक बड़ा है और इतना ही ‘नंदन’ के उत्साही संपादक भारती जी का भी, जिनके मन में बच्चों और बाल साहित्य के लिए अपरंपार प्रेम था। वे बार-बार मुझसे कहते थे, “चंद्रप्रकाश जी, हिन्दी बाल साहित्य में अच्छे संदर्भ ग्रंथ नहीं हैं और जिस साहित्य में अच्छे संदर्भ ग्रंथ न हों, उसका सम्मान नहीं होता!”

कई बार वे मुझे अपने पास बैठाकर कहते, “चंद्रप्रकाश जी, कविता, कहानी तो सब लोग लिख लेते हैं। पर कोई अच्छा और बड़ा संदर्भ ग्रंथ तैयार करने में बहुत समय और श्रम लगता है। इसलिए कोई इधर आना नहीं चाहता।”

उनकी बातें सुनकर मेरे भीतर एक सुगबुहाहट-सी पैदा हो जाती और मैं अपने पंख तोलने लगता। मन ही मन अपने आप से कहता, ‘जो काम कोई और नहीं कर सका, उसे तुम क्यों नहीं करते प्रकाश मनु? आगे बढ़ो और करो...!’ और मैं महसूस करता कि अपनी उत्तेजना को सँभालने में मुझे बहुत शक्ति लगानी पड़ रही है।

निस्संदेह बाल पत्रिका ‘नंदन’ से जुड़ने पर ही मुझे पता चला कि बाल साहित्य का विस्तार कितनी दूर-दूर तक है। साथ ही उसमें बचपन की ऐसी खूबसूरत बहुरंगी छवियाँ हैं कि उनका आनंद लेने के लिए आप फिर से बच्चा बन जाना चाहते हैं।... ‘नंदन’ में काम करते हुए जब भी मुझे फुर्सत मिलती, मैं पत्रिका की पुरानी फाइलें उठा लेता और पढ़ने लगता। मुझे यह बड़ा आनंददायक लगता था। इसलिए कि उन्हें पढ़ते हुए बरसों पहले ‘नंदन’ में छपे रचनाकारों से मेरी बड़ी जीवंत मुलाकात हो जाती और मैं अभिभूत हो उठता।...फिर ‘नंदन’ के शुरुआती अंक देखे तो मेरी आँखें खुली की खुली रह गईं। उनमें ऐसा अपूर्व खजाना था कि मैं झूम उठा। वहाँ अमृललाल नागर के ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी-नौरंगी’ ऐसे जबरदस्त उपन्यास थे कि पढ़ते हुए मैं किसी और ही दुनिया में पहुँच गया। जैसे मैं बाल पत्रिका का सहयोगी संपादक नहीं, एक छोटा, बहुत छोटा-सा बच्चा हूँ, जो नागर जी के उपन्यास के नायक बजरंगी पहलवान के साथ ही दुश्मन के किले में जा धमका हैं और दुश्मन की सेना को बुरी तरह तहस-नहस करने में जुट गया हूँ। अद्भुत थे वे भावोत्तेजना के पल! मैं कैसे कहूँ, शब्द साथ नहीं देते।

इसी तरह ‘नंदन’ के प्रारंभिक अंकों में छपी कमलेश्वर की ‘होताम के कारनामे’ एक विलक्षण कहानी थी। उसमें पुराने ज़माने के चमत्कारी होताम को नए ज़माने के माहौल में इस क़दर हैरान-परेशान और ठिठका हुआ-सा दिखाया गया था कि उस महाबली होताम की बेचारगी पर हँसी आती थी। मनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘आओ करें चाँद की सैर’ भी ऐसा ही अद्भुत था। यहाँ तक कि राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी और मोहन राकेश की बड़ी दिलचस्प कहानियाँ पढ़ने को मिलीं। मोहन राकेश ने बच्चों के लिए कुल चार कहानियाँ लिखी हैं और वे चारों आपको ‘नंदन’ के पुराने अंकों में मिल जाएँगी। हरिशंकर परसाई, वृंदावनलाल वर्मा, रघुवीर सहाय, सबने बच्चों के लिए लिखा और जमकर लिखा। इनकी रचनाएँ मुझे ‘नंदन’ के पुराने अंकों में पढ़ने को मिलीं।

मैं अकसर सुना करता था कि हिन्दी में बड़े साहित्यकारों ने बच्चों के लिए नहीं लिखा, पर यह तो उलटा ही मामला था। यानी मैं देखता कि भला कौन बड़ा साहित्यकार है जिसने बच्चों के लिए नहीं लिखा!...यह एक विलक्षण चीज थी मेरे लिए। मुझे लगता, यह बात तो किसी को पता ही नहीं। तो किसी न किसी को तो यह सब लिखना चाहिए। इसी संकल्प के साथ मैंने बाल साहित्य पर विस्तृत लेख लिखने शुरू किए जिनमें इन सारी बातों का ज़िक्र होता। ये ऐसे लेख थे, जिनमें कई महीनों का लंबा श्रम होता, पर उनमें बहुत कुछ ऐसा होता जो बहुतों को ज्ञात न होता। यहाँ तक कि बहुत सारे जाने-माने बाल साहित्य अध्येता और दिग्गज साहित्यकार भी उनसे अवगत न होते। वे मुझसे इन नए और अभी तक अनुपलब्ध रहे तथ्यों के स्रोत के बारे में पूछते और विस्मय प्रकट करते।

धीरे-धीरे मुझे लगा कि हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए ज़मीन खुद-ब-खुद तैयार हो गई है और फिर मैं इस काम में जुट गया। तो इसमें शक नहीं कि मैं ‘नंदन’ में था, इस कारण हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिख पाया। नहीं तो शायद मेरे लिए इतना बड़ा काम कर पाना कतई संभव न हो पाता। बेशक हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखने में बहुत लंबा वक़्त लगा और यह मेरे ‘नंदन’ से मुक्त होने के कोई आठ बरसों बाद आया। हालाँकि इस इतिहास की ही एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में मेरा लिखा ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ तो सन् 2003 में ही मेधा बुक्स से बड़े सुंदर और आकर्षक कलेवर में छपकर आ गया था।