हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 4 / प्रकाश मनु
अलबता बाल साहित्य के इतिहास पर बात करने से पहले थोड़ा बाल साहित्य की परिधियों और उसकी विकास-यात्रा पर डाल ली जाए। मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी का प्रारंभिक काल ही बाल साहित्य के प्रारंभ का समय भी है। तब से कोई सौ-सवा सौ बरसों में बाल साहित्य की हर विधा में बहुत काम हुआ है। बाल कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, बाल जीवनी और ज्ञान-विज्ञान साहित्य—सबमें बहुत साहित्य लिखा गया है और उनमें कुछ कृतियाँ तो इतनी उत्कृष्ट और असाधारण हैं कि चकित रह जाना पड़ता है।
बाल साहित्य के इतिहास की भूमिका में मैंने लिखा है कि बाल साहित्य जिसे एक छोटा पोखर समझा जाता है, वह तो एक ऐसा अगाध समंदर हैं, जिसमें सृजन की असंख्य उत्ताल तरंगें नज़र आती हैं। बीच-बीच में बहुत उज्ज्वल और चमकती हुई मणियाँ भी दिखाई दे जाती हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि हिन्दी साहित्य के बड़े से बड़े दिग्गजों ने बाल साहित्य लिखा और उस धारा को आगे बढ़ाया है। बहुत से पाठकों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि हिन्दी का पहला बाल उपन्यास प्रेमचंद ने लिखा था। ‘कुत्ते की कहानी’ उस बाल उपन्यास का नाम है और वह प्रेमचंद ने तब लिखा, जब वे ‘गोदान’ लिख चुके थे और अपने कीर्ति के शिखर पर थे। क्या पता, अगर वे और जीते रहते तो कितनी अनमोल रचनाएँ बच्चों की झोली में डालकर जाते।
प्रेमचंद के समय बाल साहित्य में मौलिक उपन्यास तो न थे, पर अनूदित उपन्यास बहुत थे। पर प्रेमचंद को उनसे संतोष न था। उन्हें लगा कि पराई भाषा के उपन्यासों से बच्चों का उतना जुड़ाव नहीं हो पाता और उन्हें सही परिवेश भी नहीं मिल पाता। इसलिए हिन्दी में बच्चों के लिए कोई ऐसा उपन्यास लिखना चाहिए, जो उन्हें बिल्कुल अपना-सा लगे और तब लिखा उन्होंने बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’, जिसका नायक एक कुत्ता कालू है। उपन्यास में उसके कमाल के कारनामों का वर्णन है, पर इसके साथ ही प्रेमचंद ने भारतीय समाज की जाने कितनी विडंबनाएँ और सुख-दुख भी गूँथ दिए हैं। यहाँ तक कि गुलामी की पीड़ा भी। उपन्यास के अंत में कालू कुत्ते को हर तरह का आराम है। उसे डाइनिंग टेबल पर खाना खाने को मिलता है। तमाम नौकर-चाकर उसकी सेवा और टहल के लिए मौजूद हैं। पर तब भी वह ख़ुश नहीं है। वह कहता है, मुझे सारे सुख, सारी सुविधाएँ हासिल हैं, पर मेरे गले में गुलामी का पट्टा बँधा हुआ है और गुलामी से बड़ा दुख कोई और नहीं है।
ऐसे कितने ही मार्मिक प्रसंग और मार्मिक कथन हैं, जो प्रेमचंद का बाल उपन्यास ‘कुत्ते की कहानी’ पढ़ने के बाद मन में गड़े रह जाते हैं। यह है प्रेमचंद के उपन्यास-लेखन की कला, जो उनके लिखे इस बाल उपन्यास में भी देखी जा सकती है।
पर अकेले प्रेमचंद नहीं हैं, जिन्होंने बच्चों के लिखा लिखा। अमृतलाल नागर, रामवृक्ष बेनीपुरी, मैथिलीशरण गुप्त, रामनरेश त्रिपाठी, सुभदाकुमारी चौहान, दिनकर, जहूरबख्श, मोहन राकेश, कमलेश्वर, राजेंद यादव, मन्नू भंडारी, शैलेश मटियानी, बच्चन, भवानी भाई, प्रभाकर माचवे, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय—सबने बच्चों के लिए लिखा और ख़ूब लिखा। तो जैसे-जैसे मैं बाल साहित्य के इस अगाध समंदर में गहरे डूबता गया, बाल साहित्य की एक से एक सुंदर और चमकीली मणियों से मैं परचता गया और बहुत बार तो लगा कि ऐसी दमदार कृतियाँ तो बड़ों के साहित्य में भी नहीं हैं, जैसी बाल साहित्य में हैं।
तब मुझे लगा कि यह बात तो दर्ज होनी चाहिए, कहीं न कहीं लिखी जानी चाहिए। पर मैं देखता था कि ज्यादातर बाल साहित्यकार इस चीज को लेकर उदासीन थे, या कम से कम वैसी व्याकुलता उनमें नहीं महसूस होती थी, जैसी मैं महसूस करता था और भीतर-भीतर तड़पता था।
तो उसी दौर में कहीं अंदर से पुकार आई कि प्रकाश मनु, तुम यह काम करो। बेशक यह काम बहुत चुनौती भरा है, पर तुम इसे कर सकते हो, तुम्हें करना ही चाहिए और मैं इसमें जुट गया। मैं कितना कामयाब हो पाऊँगा या नहीं, इसे लेकर मन में संशय था। पर जैसे-जैसे काम में गहरे डूबता गया, यह संशय ख़त्म होता गया। मुझे लगा कि यह तो मेरे जीवन की एक बड़ी तपस्या है और सारे काम छोड़कर मुझे इसे पूरा करना चाहिए। तो सारे किंतु-परंतु भूलकर मैं इस काम में लीन हो गया।
ऐसा नहीं कि बाधाएँ कम आई हों। मेरे पास कुछ अधिक साधन भी न थे। फिर भी किताबें खरीदना तो ज़रूरी था। बिना इसके इतिहास कैसे लिखा जाता? इन बीस बरसों में कोई डेढ़-दो लाख रुपए मूल्य की पुस्तकें खरीदनी पड़ीं। जो सज्जन कंप्यूटर पर मेरे साथ बैठकर घंटों कंपोजिंग और निरंतर संशोधन भी करते थे, वे बहुत धैर्यवान और मेहनती थे। पर उन्हें उनके काम का मेहनताना तो देना ही था। कोई बीस बरस यह काम चला और दो-ढाई लाख रुपए तो कंपोजिंग आदि पर ख़र्च हुए ही। हर बार नई किताबें आतीं तो मैं उन्हें बीच-बीच में जोड़ता। इतिहास का विस्तार बहुत अधिक न हो, इसलिए बार-बार उसे तराशना पड़ता। लिखना और संपादन, काट-छाँट...फिर लिखना, फिर संपादन, यह सिलसिला बीस बरस तक चलता रहा।
इस पूरे महाग्रंथ के कोई सौ के लगभग प्रिंट लिए गए। हर बार काट-छाँटकर फिर नया प्रिंट।...सिलसिला कहीं रुकता ही न था। कभी-कभी तो लगता था कि मैं मर जाऊँगा और यह काम पूरा न होगा।...पर अंततः पिछले बरस यह काम पूरा हुआ और लगा कि सिर पर से कोई बड़ा भारी पहाड़ उतर गया हो। काम पूरा होने के बाद भी यक़ीन नहीं हो रहा था कि मैंने सच ही इसे पूरा कर लिया है।