हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 6 / प्रकाश मनु
यहीं एक प्रश्न मन में उठता है कि बाल साहित्य क्या है और इसका निमित्त या प्रयोजन क्या है? इसका सीधा-सी जवाब यह है कि जो साहित्य बच्चों के लिए लिखा जाता है, जो बच्चों को आनंदित करता है, साथ ही खेल-खेल में अनजाने ही कोई मीठी-सी सीख भी दे देता है और यों उनके व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास करता है, वह बाल साहित्य है। हालाँकि अगर वे रचनाएँ बाल पाठकों को आनंदित करने के साथ-साथ एक तरह की रचनात्मक संतुष्टि भी दे पाती हैं और उनके भीतर ख़ुद कुछ गढ़ने, कुछ रचने का विचार आता है तो मेरी निगाह में उनका महत्त्व कहीं अधिक बढ़ जाता है। इस तरह अच्छा और सार्थक बाल साहित्य बच्चों की शख्सियत को सँवारने और उसके सर्वांगीण विकास में अपनी अहम भूमिका निभाता है। दूसरे शब्दों में, उत्कृष्ट बाल साहित्य वह है जो बच्चों को आनंदित करने के साथ ही उसे संस्कारित भी करे और जीवन जीने का सही दृष्टिकोण भी दे।
इसमें संदेह नहीं कि बच्चों के लिए लिखी गई कविता, कहानियाँ, उपन्यास, नाटक और दूसरी विधाओं में रचे गए साहित्य का एक बड़ा हिस्सा बच्चों को एक गहरी रचनामक संतुष्टि और आनंद देता है और अपने साथ बहा ले जाता है। वह जाने-अनजाने बाल पाठकों के व्यक्तित्व को निखारता और उन्हें जीवन जीने की सही दिशा और सकारात्मक ऊर्जा देता है। साथ ही उनके आगे विचार और कल्पना के नए-नए अज्ञात झरोखे खोलकर, उनके व्यक्तित्व का विकास करता है, उनके सामने नई संभावनाओं के द्वार खोलता है। यह काम ऊँचे दर्जे का साहित्य ही कर सकता है। मैं समझता हूँ कि बच्चों के लिए लिखी गई कविता कहानी, उपन्यास, नाटकों आदि की परख के लिए यह एक सही कसौटी है, जिसके आधार पर उनका मूल्याँकन किया जाना चाहिए और यही काम मैंने बाल साहित्य के इतिहास में किया है।
यहाँ एक बात स्पष्ट कर दूँ कि निस्संदेह बच्चों के लिए लिखी गई सभी रचनाएँ समान महत्त्व और ऊँचाई की नहीं हैं। बहुत-सी साधारण रचनाएँ भी हैं। पर बाल साहित्य का इतिहास लिखते हुए मेरी निगाह बच्चों के लिए लिखी गई श्रेष्ठ और कलात्मक रूप से सुंदर रचनाओं पर ही रही है। मैं समझता हूँ कि उनके आधार पर ही बाल साहित्य का मूल्याँकन किया जाना चाहिए और यह तो बड़ों के साहित्य में भी है। वहाँ भी साधारण रचनाओं की काफ़ी भीड़ है, पर हम किसी भी विधा की उत्कृष्ट रचनाओं के आधार पर ही उसका मूल्याँकन करते हैं, तथा उसकी शक्ति और संभावनाओं की पड़ताल करते हैं।
मोटे तौर से इस इतिहास-ग्रंथ को पूरा करने में मुझे कोई बीस-बाईस बरस लगे। शुरू में पता नहीं था कि काम इतना बड़ा है कि मैं इसके नीचे बिल्कुल दब जाऊँगा।...धीरे-धीरे जब पुस्तकों की खोज में जुटा तो समझ में आया कि यह काम कितना कठिन है। हर कालखंड की सैकड़ों पुस्तकों को खोजना, गंभीरता से उन्हें पढ़ना, फिर उनके बारे में अपनी राय और विचारों को इस इतिहास-ग्रंथ में शामिल करना खेल नहीं था। बीच-बीच में साँस फूल जाती और लगता था कि यह काम कभी पूरा हो ही नहीं पाएगा। पर इसे ईश्वरीय अनुकंपा ही कहूँगा कि अंततः यह काम पूरा हुआ...और मुझे लगा कि सच ही मेरे जीवन का एक बड़ा सपना पूरा हो गया है।
याद पड़ता है, सन् 1997 में यह काम शुरू हुआ, जब मैंने बाल साहित्य पर पत्र-पत्रिकाओं में ख़ूब लंबे-लंबे लेख लिखने शुरू किए थे। वे लेख ऐसे थे, जिनके पीछे काफ़ी तैयारी थी और जो महीनों की मेहनत से तैयार किए गए थे। सन् 2003 में मेरा लिखा हुआ इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल कविता का इतिहास’ आया। वह भी इसी योजना का एक हिस्सा था। कहना न होगा कि इस इतिहास को ख़ूब सराहा गया। दामोदर अग्रवाल और डा. श्रीप्रसाद सरीखे बाल साहित्यकारों ने बड़े उत्साहवर्धक पत्र लिखे। दामोदर अग्रवाल जी का कहना था कि यह ऐसा काम है, जिसे आगे आने वाले सौ सालों तक भुलाया नहीं जा सकता। दूरदर्शन ने एक विशेष कार्यक्रम इस पर केंद्रित किया, जिसमें मेरे अलावा डा. शेरजंग गर्ग और बालस्वरूप राही जी भी सम्मिलित थे। यह एक स्मरणीय विचार-गोष्ठी थी। डा. शेरजंग गर्ग और राही जी ने बड़े सुंदर अल्फाज में इस इतिहास के महत्त्व पर प्रकाश डाला।
कुल मिलाकर हिन्दी बाल कविता के इतिहास का बहुत उत्साहपूर्वक स्वागत हुआ। इससे जाहिर है, मेरी हिम्मत भी बढ़ी। सन् 2003 में मैंने निश्चय कर लिया कि अब चाहे जितनी भी मुश्किलें आएँ, पर समूचे हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास लिखना है। यह सिर पर पहाड़ उठा लेना है, तब यह न जानता था। पर एक थरथराहट भरे पवित्र संकल्प के साथ यह काम विधिवत मैंने शुरू कर दिया था।
तब से इसके कई प्रारूप बने और बदले गए। बीच-बीच में सैकड़ों नई-पुरानी पुस्तकें जुड़ती गईं। बच्चों के लिए लिखी गई जो भी अच्छी और महत्त्वपूर्ण पुस्तक मुझे मिलती, मैं गंभीरता से उसे पढ़ता, फिर पुस्तक का संक्षिप्त ब्योरा और उस पर अपनी राय वगैरह दर्ज कर लेता। यों इस इतिहास-ग्रंथ का कलेवर भी समय के साथ-साथ बढ़ता गया। इसलिए बीच-बीच में लगातार संपादन भी ज़रूरी था। शुरू में इतिहास की जो परिकल्पना मन में थी, वह भी बाद में जाकर कुछ बदली और इसमें बहुत कुछ नया जुड़ता और घटता रहा और यह एक अनवरत सिलसिला था, जो करीब दो दशकों तक चला।
मेरे निकटस्थ साथियों और आत्मीय जनों में देवेंदकुमार, रमेश तैलंग और कृष्ण शलभ ऐसे करीबी मित्र थे, जिनसे लगातार इसे लेकर बात होती थी। इतिहास-ग्रंथ की पूरी परिकल्पना की उनसे दर्जनों बार चर्चा हुई। इसमें आ रही कठिनाइयों की भी। सबने अपने-अपने ढंग से मेरी मदद की। उन्होंने कुछ दुर्लभ पुस्तकें तो उपलब्ध कराईं ही, बीच-बीच में जब मेरी हिम्मत टूटने लगती थी, तो वे हौसला बँधाते। बाद के दिनों में श्याम सुशील भी जुड़े और उनका बहुत सहयोग मिला। उन्होंने यह पूरा इतिहास-ग्रंथ पढ़कर कई उपयोगी सुझाव दिए। संपादन में भी मदद की। सच पूछो तो ऐसे प्यारे और निराले दोस्त न मिले होते, तो यह काम शायद कभी पूरा ही न हो पाता और अगर पूरा होता भी, तो शायद इतने सुचारु ढंग से संपन्न न होता।
यहीं एक बात और स्पष्ट कर दूँ कि मेरा मकसद केवल इतिहास लिखना ही न था। बल्कि मैं चाहता था कि इस इतिहास-ग्रंथ की जो परिकल्पना मेरे मन में है, यह ठीक उसी रूप में पूरा हो। इस बृहत् कार्य में किसी भी तरह का समझौता मैं नहीं करना चाहता था। ऐसा भी हुआ कि लाखों रुपए ख़र्च करके जो पुस्तकें मैं खरीदकर लाया, उनमें से किसी पर सिर्फ़ दो-चार लाइनें ही लिखी गईं, किसी पर मात्र दो-एक पैरे। पर मुझे संतुष्टि थी कि हर पुस्तक को मैंने ख़ुद पढ़ा और अपने ढंग से अपने विचारों को दर्ज किया। दूसरों के विचार मैं उधार नहीं लेना चाहता था और वह मैंने नहीं किया। पुस्तकें ख़ुद पढ़कर राय बनाई और फिर उसे उचित क्रम में तसल्ली से लिखा। इससे काम कई गुना बढ़ गया, पर इसी का तो आनंद था। इसीलिए जब यह इतिहास-ग्रंथ पूरा हुआ तो लगा, मेरी जीवन भर की तपस्या पूरी हो गई और मेरी आँखों से आनंद भरे आँसू बह निकले।
मैं कितना योग्य या प्रतिभावान हूँ, मैं नहीं जानता। इसके बारे में तो दूसरे लोग ही कहेंगे। पर अपने बारे में मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि बहुत खुले दिल और खुले विचारों का आदमी हूँ। मेरे जीवन में कुछ भी दबा-ढका नहीं है और जो भी है वह सबके सामने है। इसलिए इतिहास लेखन के दौरान जो भी लेखक या मित्र मिलते, मैं इनसे खुलकर इस काम की चर्चा करता। फिर उनकी जो प्रतिक्रिया होती, उस पर भी पूर्वाग्रह मुक्त होकर खुले दिल से विचार करता। जो भी सुझाव मुझे काम के लगते, उन्हें मैं अपनाने की कोशिश करता।
जाहिर है कि इससे मुझे बहुत लाभ हुआ और इतिहास कहीं अधिक मुकम्मल रूप में सामने आया।