हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 7 / प्रकाश मनु

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इस इतिहास-ग्रंथ की जितनी चर्चा हुई, उतनी ही चर्चा इसके काल-विभाजन को लेकर भी हुई, जिसमें मैंने एक बिल्कुल अलग पद्धति का इस्तेमाल किया। कई मित्रो और आलोचकों ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इतिहास के काल-विभाजन से उसकी तुलना की है, पर कहना न होगा कि मैंने शुक्ल जी की तरह प्रवृत्तिगत काल-विभाजन न करके, एक अलग ही पद्धति अपनाई, जिसका बहुत सीधा सम्बंध बाल साहित्य की उत्तरोत्तर आगे बढ़ती और निरंतर विस्तीर्ण होती विकास-धारा से है।

जाहिर है, आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने हिन्दी साहित्य के इतिहास में जो काल-विभाजन किया है, उससे मेरा काल-विभाजन बहुत भिन्न है। इसलिए भी कि हिन्दी साहित्य की परंपरा कई सदियों पुरानी है, जबकि हिन्दी में बाल साहित्य की शुरुआत मोटे तौर से बीसवीं शताब्दी से ही हुई। तो मुझे केवल सौ-सवा सौ साल की कालावधि में ही वर्गीकरण करना था। शुक्ल जी ने अलग-अलग कालखंडों में हिन्दी साहित्य की प्रवृत्तियों के अनुसार काल-विभाजन किया, जबकि मेरा काल-विभाजन हिन्दी बाल साहित्य की विकास-यात्रा या उसके ग्राफ को लेकर था। इसलिए बीसवीं सदी के प्रारंभ से आज़ादी हासिल होने तक के कालखंड, यानी स्वतंत्रता-पूर्व काल को मैंने हिन्दी बाल साहित्य का प्रारंभिक दौर या आदि काल माना।

आजादी के बाद हिन्दी बाल साहित्य की ओर बहुत से प्रतिभाषाली साहित्यिकों का ध्यान गया और इस कालखंड में बहुत उत्कृष्ट रचनाएँ सामने आईं। खासकर छठे दशक से आठवें दशक तक का बाल साहित्य बड़ी ही अपूर्व कलात्मक उठान वाला बाल साहित्य है, जिसमें बाल साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में एक से एक उम्दा रचनाएँ लिखी गईँ। इसलिए इस दौर को मैंने हिन्दी बाल साहित्य का गौरव काल कहा।

सन् 1981 से लेकर अब तक के बाल साहित्य में बहुत विस्तार है। बहुत से नए लेखकों का काफ़िला बाल साहित्य से जुड़ा और काफ़ी लिखा भी गया गया। पर इस दौर में वह ऊँचाई नहीं है, जो विकास युग में नज़र आती है। इस कालखंड को मैंने विकास युग का नाम दिया। इस तरह हिन्दी बाल साहित्य के इतिहास में मेरा काल- विभाजन प्रवृत्तिगत न होकर, बाल साहित्य की विकास-यात्रा को लेकर है।

मोटे तौर से यह अध्ययन की सुविधा के लिए है। इस पर कोई बहुत अधिक मताग्रह मेरा नहीं है कि इन कालखंडों के नाम और कालावधि बस यही हो सकती है। पर मैं देखता हूँ कि सामान्यतः सभी बाल साहित्य अध्येताओं ने इसे खुले मन से स्वीकार कर लिया है और इसी आधार पर बाल साहित्य के अध्ययन की परंपरा चल निकली है। मुझे निश्चित रूप से यह सुखद लगता है। इसलिए कि काल-विभाजन पर निरर्थक विवाद के बजाय हमारा ध्यान तो बाल साहित्य की विकास की गतियों को जाँचने और आँकने में होना चाहिए।

यों इस काल-विभाजन का औचित्य परखना हो, तो हमें हिन्दी बाल साहित्य की समूची विकास-धारा पर एक नज़र डालनी होगी। ज़रा बाल साहित्य के प्रारंभिक काल को देखें। बहुत मोटे तौर से कहूँ तो, बाल साहित्य के प्रारंभिक दौर में अभिव्यक्ति सीधी-सादी थी, बाल साहित्य की चौहद्दी भी बहुत बड़ी नहीं थी। बहुत थोड़े से विषय थे जिन पर कविता, कहानियाँ, नाटक लिखे जाते थे। फिर वह दौर हमारी पराधीनता का काल था, इसलिए बच्चों में देशराग और देश के गौरव की भावना भरना भी ज़रूरी था, ताकि ये बच्चे बड़े होकर आज़ादी की ल़ड़ाई के वीर सिपाही बनें और देश के लिए बढ़-चढ़कर काम करें।

आजादी के बाद हिन्दी बाल साहित्य में बहुत कलात्मक उठान के साथ ही अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते खुले और बाल साहित्य का परिदृश्य भी बड़ा होता गया। सन् 1947 से 1980 तक के कालखंड को देखें तो आप पाएँगे कि इस दौर के हिन्दी बाल सहित्य में एक से एक सुंदर और कलात्मक कृतियों का भंडार है, जिसका किसी को पता ही नहीं है। अमृतलाल नागर के उपन्यास ‘बजरंगी पहलवान’ और ‘बजरंगी नैरंगी’ ऐसे ही थे, जिन्हें आप पढ़ लें तो बिल्कुल बच्चे ही बन जाएँ। प्रेमचंद की ‘कुत्ते की कहानी’ का मैंने ऊपर वर्णन किया है। वह एक अद्भुत उपन्यास है। भूपनारायण दीक्षित के ‘नानी के घर में टंटू’ और ‘बाल राज्य’ भी ऐसे ही अनूठे उपन्यास हैं, जिनमें बड़ा रस, बड़ा कौतुक है। इसी तरह बच्चों के लिए लिखी गई बड़ी ही अद्भुत कहानियाँ और नाटक मुझे मिले, जो मेरे लिए किसी अचरज से कम न थे और बाल कविता की बात करें तो दामोदर अग्रवाल, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, रघुवीर सहाय, शेरजंग गर्ग, डा. श्रीप्रसाद, निरंकारदेव सेवक, द्वारिकाप्रसाद माहेश्वरी, इनके यहाँ ऐसी कविताओं का अनमोल खजाना है जिसे हम दुनिया की किसी बड़ी से बड़ी भाषा के बाल साहित्य के समने बड़े गर्व से रख सकते हैं। सच कहूँ तो उनमें ऐसी बहुत-सी चीजें भी थीं, जिन्हें पढ़ते हुए लगा कि शायद बड़ों के साहित्य में भी रचनात्मक ऊँचाई वाली वाली ऐसी सुंदर और भावपूर्ण रचनाएँ न होंगी।

सन् 80 के बाद तो हमारे समाज में बड़ी तेजी से परिवर्तन हुआ और उसकी सीधी अभिव्यक्ति बाल साहित्य में देखने को मिलती है। इस कालखंड में बाल साहित्य में कहीं अधिक खुलापन आया और बाल मन की अभिव्यक्ति के नए-नए रास्ते दिखाई पड़े। कहीं बच्चे कंधों पर लटके भारी बस्ते की शिकायत कर रहे हैं, कहीं वे खेलकूद की आज़ादी माँगते दिखाई देते हैं और कभी विनम्रता से बड़ों से कह रहे हैं कि वे उन्हें दोस्तों के सामने न डाँटें, क्योंकि इससे उन्हें बहुत कष्ट होता है। मोबाइल फोन, कंप्यूटर, गूगल, ईमेल तथा रोबोट समेत आधुनिक प्रोद्यौगिकी की बहुत-सी चीजें भी इधर बाल साहित्य में आई हैं। आज़ादी से पहले इनकी कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

हालाँकि इसमें संदेह नहीं कि हिन्दी बाल साहित्य में साधारण चीजों का भी बड़ा जखीरा है। उसे देखते हुए बार-बार लगता था कि बाल साहित्य में जो उत्कृष्ट है, उसे अलगाकर दिखाने और मूल्याँकन की बहुत ज़रूरत है, क्योंकि असल में तो यही बाल साहित्य है। सच कहूँ तो मेरे इतिहास लेखन के पीछे जो तीव्रतम प्रेरणाएँ थीं, उनमें एक यह भी थी कि अपने इतिहास ग्रंथ में मैं हिन्दी बाल साहित्य की स्थायी महत्त्व की उन कालजयी रचनाओं को रेखांकित करूँ, जिन्होंने सच में बाल साहित्य को एक बड़ा मोड़ दिया है और साथ ही इतिहास गढ़ने का काम भी किया है।