हिन्दी बाल साहित्य का इतिहास / भाग 8 / प्रकाश मनु

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पिछले दिनों बाल साहित्य के एक जिज्ञासु अध्येता ने मुझसे पूछा कि मनु जी, आचार्य शुक्ल का हिन्दी साहित्य का इतिहास आने के बाद बहुत सारे इतिहास लिखे गए। तो आपको क्या लगता है, क्या आपके इस इतिहास-ग्रंथ के बाद बाल साहित्य में भी आपके इतिहास को ही थोड़ा फेर-फार कर बहुत सारे इतिहास लिखे जाएँगे?

सवाल रोचक था, पर मैं इसका क्या जवाब देता? यों इसमें संदेह नहीं कि आचार्य शुक्ल के बाद हिन्दी साहित्य के इतिहास बहुत लिखे गए। थोड़ा फेर-फार करके नया इतिहास लिख देने का खेल भी बहुत चला। पर इससे आचार्य शुक्ल के इतिहास-ग्रंथ का महत्त्व तो कम नहीं हो जाता। बल्कि समय के साथ-साथ उसका महत्त्व निरंतर बढ़ता ही गया है। हो सकता है कि मेरे इतिहास-ग्रंथ ‘हिंदी बाल साहित्य का इतिहास’ को पढ़कर और लोग भी बाल साहित्य का इतिहास लिखने के लिए उत्साहित हों। अगर ऐसा है, तो उनका स्वागत। चूँकि इस क्षेत्र में जमीनी काम मैंने बहुत कर दिया, इसलिए हो सकता है कि उनका बहुत श्रम बच जाए। जिस काम को करने में मेरे बीस बरस लगे, उसे वे थोड़े कम समय में भी कर सकते हैं। पर मेरा कहना है कि किसी इतिहास लेखक को गंभीर अध्येता भी होना चाहिए और उसे इतिहास लिखते समय निज और पर की बहुत-सी सीमाओं से ऊपर उठना चाहिए।

इसी सिलसिले में एक बात और मुझे कहनी है और वह यह कि किसी इतिहास लेखक के अपने विचार तो हो सकते हैं, होने चाहिए भी, पर उसे निजी सम्बंधों के घेरे से तो यकीनन ऊपर उठना होगा, क्योंकि अंततः तो महत्त्व कृति का है। इतिहास लेखक का मूल्याँकन जितना तटस्थ होगा, पूर्वाग्रहों से परे होगा, उतना ही उसके इतिहास को मान-सम्मान भी मिलेगा। मुझे ख़ुशी है कि मेरे इस इतिहास-ग्रंथ का बहुत उत्साह से स्वागत हुआ तथा लेखकों और पाठकों की बड़े व्यापक स्तर पर प्रतिकियाएँ मिलीं। अधिकतर लेखकों ने बहुत भावविभोर होकर इस महत् कार्य की प्रशंसा की। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ।

यों इस इतिहास-ग्रंथ को लिखने के लिए एक से एक दुर्लभ पुस्तकें कहाँ-कहाँ से जुटाई गईं, अगर मैं यह बताने बैठूँ तो यह ख़ुद में एक इतिहास हो जाएगा। अपनी बहुत साधारण आर्थिक स्थिति के बावजूद कोई डेढ़-दो लाख रुपए की पुस्तकें मैंने स्वयं खरीदीं। दिल्ली में जहाँ भी कहीं पुस्तक-पदर्शनी होती, मैं वहाँ जाता। जेब में डेढ़-दो हज़ार रुपए होते। उनसे जितनी अधिकतम पुस्तकें मैं खरीद सकता था, खरीद लेता। बस, वापसी के लिए बस या रेलगाड़ी के टिकट के पैसे बचा लेता, ताकि घर पहुँच सकूँ। फिर दोनों हाथों में भारी-भारी थैले पकड़े हुए, पसीने से लथपथ मैं घर आता। उन किताबों को अपनी अलमारी में सहेजकर रखता। फिर उन्हें पढ़ने का सिलसिला चलता और पढ़ने के बाद अलग-अलग विधा की पुस्तकों का वर्गीकरण करता। फिर इन पुस्तकों को इतिहास-ग्रंथ में उपयुक्त स्थान पर शामिल करने की मुहिम में जुट जाता। यह एक अंतहीन सिलसिला था। इसीलिए मैंने इसे अपने जीवन की सबसे बड़ी तपस्या कहा।

मुझे इस बात की ख़ुशी है कि मेरे इतिहास-ग्रंथ के आने पर बाल साहित्य में खासी हलचल हुई। वैसे भी किसी साहित्य के इतिहास-ग्रंथ के आने पर जाने-अनजाने बहुत सारी हलचल होती ही है और यह स्वाभाविक है। इसके कुछ बहुत अच्छे नतीजे भी सामने आते हैं। उदाहरण के लिए, हिन्दी बाल साहित्य में दर्जनों ऐसे साहित्यकार होंगे, जिनके लिखे पर पहले लोगों का ध्यान नहीं गया था, पर इतिहास में विशेष चर्चा और फोकस होने पर बहुतों का ध्यान उनकी तरह गया। ऐसा बहुत से पुराने प्रतिभाषाली लेखकों के साथ हुआ और नए उभरते हुए लेखकों के साथ भी। पुराने लेखकों में भी बहुत से समर्थ रचनाकार किन्हीं कारणों से अलक्षित रह जाते हैं। उनकी रचना की शक्ति और विलक्षणता पर लोगों का ध्यान नहीं जाता। एक इतिहासकर का काम उन्हें खोजकर सामने लाना है और बेशक वह काम मैंने किया। ऐसा करके मैंने किसी पर उपकार नहीं किया, बल्कि इतिहासकार का एक स्वाभाविक कर्तव्य है यह।

आजादी से पहले के लेखकों में स्वर्ण सहोदर और विद्याभूषण विभु बड़े ही समर्थ बाल साहित्यकार हैं, जिनकी कविताओं में बड़ी ताज़गी है, जो आज भी हमें लुभाती है और भी ऐसे लेखक हैं, जिनकी तरफ़ पहले अधिक ध्यान नहीं गया था। पर पहले मेरे हिन्दी बाल कविता के इतिहास और अब इस इतिहास-ग्रंथ में भी उनके महत्त्व की इस ढंग से चर्चा हुई, जो आँखें खोल देने वाली है। इसी तरह बहुत से नए उभरते हुए, लेकिन समर्थ लेखकों की ओर भी मेरा ध्यान गया। प्रदीप शुक्ल, अरशद खान, फहीम अहमद, शादाब आलम ऐसे ही साहित्यकार हैं, जिनके महत्त्व को मैंने बाल साहित्य में एक नई संभावना के रूप में रेखांकित किया। उनकी रचनाओं की शक्ति, नएपन और ताज़गी की चर्चा की। मैं समझता हूँ, इससे उनका हौसला तो बढ़ा ही होगा, औरों को भी इसी तरह बढ़-चढ़कर कुछ कर दिखाने की चुनौती मिली होगी। या उनके आगे एक नया मार्ग खुला होगा।...

और अगर ऐसे और भी नए समर्थ लेखक आगे आए, तो मैं सबसे पहले उनका नोटिस लूँगा और इतिहास के अगले संस्करण में उन्हें शामिल करूँगा। इतिहास-लेखक के रूप में यह मेरा दायित्व है, इसलिए इससे मैं बच नहीं सकता। बल्कि सच पूछिए तो मुझे इसमें आनंद आता है।