हिन्दी लघुकथा के वर्तमान परिदृश्य की पड़ताल / सुकेश साहनी

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पिछले दिनों लघुकथा डॉट काम के लिए प्राप्त एक लेख में लेखक मित्र लिखते हैं–

उपन्यास टेस्ट मैच है, कहानी एक दिनी मैच की तरह है और लघुकथा की तुलना ट्वेंटी–ट्वेंटी क्रिकेट मैच से की जा सकती है। इस बार कथादेश की लघुकथा प्रतियोगिता में प्राप्त लघुकथाओं ने गत वर्ष की तुलना में निराश किया। बहुत से लघुकथाकारों ने ट्वेंटी–ट्वेंटी क्रिकेट की तरह इसमें हाथ आजमाया है–रन आने चाहिए चाहे जैसे भी आएँ –लघुकथा लिखनी है ,चाहे जैसे भी लिखी जाए। अधिकतर लघुकथाएँ इसी तर्ज पर लिखी गई प्रतीत होती हैं।

विडम्बना यह कि इस तरह की लघुकथाएँ लिखने वालों के रचनाकर्म को पंख लग जाते हैं ;जब उनकी लघुकथा देश की जानी–मानी पत्रिका में प्रकाशित हो जाती है–

जंगल की गोद में अवस्थित विश्रामागार! साहब आने के साथ ही चाय की फरमाइश करते हैं, अब कल्लु करें तो क्या करें! दूध है नहीं,चाय कैसे बने!

कल्लु दौड़कर घर जाता है शायद थोड़ा सा भी दूध बचा हो, लेकिन वहाँ भी बरतन खाली है। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही हैं, पता नहीं नौकरी बचेगी या नहीं। बड़ा साहब है । पत्नी सब समझ जाती है और पूछती है

‘‘पाउडर दूध नहीं है क्या?’’

’‘क्या कहें रानी ,अपना ही दूध दे दो और नौकरी बचा लो।’’

फिर क्या था। आनन- फानन में रानी ने मुन्ना के हिस्से का दूध अँधेरे में निचोड़ा।

फिर तो माँ के दूध से चाय बनी और कल्लु नॉट आउट। प्राइवेट नौकरी की डोर कितनी कमजोर है!

एक दूसरी लघुकथा में

पिता अपनी बेटी के लिए हर प्रकार से सुयोग्य वर से इसलिए रिश्ता नहीं करना चाहता ;क्योंकि उसे लगता है कि वहाँ उसकी बेटी की अस्मत नहीं बचेगी। कारण? लड़के वालों का घर पुलिस थाने के सामने है।

प्रसिद्ध दैनिक के साहित्यिक पृष्ठ पर इसी तरह की रचना प्रकाशित होने के पश्चात् ऐसे लेखक पीछे मुड़कर नहीं देखते और एक ही साँचे में ढली अपनी लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित करवाने में देर नहीं करते–

सामने बुक स्टाल देखते ही अविनाश की किताबी भूख जाग उठी। कई महीने से एक अच्छी किताब की तलब थी। पसंदीदा लेखक की नवीनतम कृति कांउटर पर रखी थी। सुंदर आवरण,बढ़िया कलेवर,मनोनुकूल सामग्री.....। पन्ने पलटते–पलटते ही हुलस पड़ा।

‘‘भले आदमी, यही खड़े–खड़े पूरी किताब चाटोगे क्या?’’ बुकसेलर ने टोका।

अब अविनाश की नज़र छपे मूल्य पर पड़ी, ‘तीन सौ सार रुपए मात्र’ मन उचाट हो गया। किताब चुपचाप रख दी। दो रुपए वाला अखबार खरीदा और चलता बना।

इस बार प्रतियोगिता हेतु प्राप्त लघुकथाओं में से कुल बीस (प्राप्त लघुकथाओं का लगभग 0.05 प्रतिशत) लघुकथाओं को निर्णायकों ने विचार योग्य पाया। पिछले वर्ष तेरह लघुकथाएँ पुरस्कृत हुई थी, शेष सताइस लघुकथाएँ कथादेश के सामान्य अंकों में प्रकाशनार्थ स्वीकृत हुई थी। लघुकथा के नाम पर वर्षों से नाक–भौं सिकोड़ने वाले लेखकों/पाठकों ने भी गत वर्ष की पुरस्कृत लघुकथाओं की दिल खोलकर प्रशंसा की थी।

आगे चर्चा से पूर्व स्पष्ट करना आवश्यक है कि सभी पुरस्कृत रचनाएँ सत्कार योग्य हैं । तीन निर्णायकों के अंकों के आधार पर इनका चयन हुआ है। पुरस्कृत रचनाओं पर चर्चा का उद्देश्य लघुकथा के विकास के लिए बेहतर ज़मीन तैयार करना है न कि रचनाओं की कमजोरियाँ गिनाना।

लघुकथाओं में गज़लों,दोहों जैसी जिस बारीक ख़याली की बात अक्सर की जाती है, वह उर्मिल कुमार थपलियाल जी की लघुकथा को छोड़कर दूसरी लघुकथाओं में दिखाई नहीं देती। जब कोई घटना स्वाभाविक रूप से लेखक के भीतर सृजन की आँच में पककर लघुकथा के फार्म में ढलती है तो कैमिस्ट्री की भाषा में कहें तो उसमें नख से शिख तक सामग्री की सान्द्रता होनी चाहिए। यह सामग्री की सान्द्रता स्वत: बारीग्क ख़याली को जन्म देती है। इसे काफ़्का की ‘पुल’ में देखा जा सकता है–

मैं कठोर और ठंडा था। मैं एक पुल था। मैं एक अथाह कुंड पर पसरा था। मेरे पाँव की अँगुलियाँ एक छोर पर,मैं भुरभुरी मिट्टी में अपने दाँत कसकर गड़ाए था। मेरे कोट के सिरे मेरे अगल–बगल फड़फड़ा रहे थे। दूर नीचे बर्फ़ीली जलधारा गड़–गड़ करती बह रही थी। कोई सैलानी इस अगम्य ऊँचाई पर नहीं निकलता था, पुल अभी तक किसी नक्शे पर विहित नहीं हुआ था। मैं केवल प्रतीक्षा ही तो कर सकता था। एक बार बन जाने के बाद,जब तक वह गिरे नहीं, किसी पुल के पुल होने का अंत नहीं हो सकता।

एक दिन शाम होते की बात है, यह पहली शाम थी या हजारवीं? मैं कह नहीं सकता,मेरे विचार हमेशा गड्ड–मड्ड और हमेशा चक्कर में रहते थे। जलधारा का निनाद और गहरा हो चला था कि मैंने मानव कदमों की आहट सुनी। मेरी ओर,मेरी ओर। अपने आपको तानो, पुल तैयार हो जाओ,बिना रेलिंग की शहतीर,सँभालो उस यात्री को, जिसे तुम्हारे सुपुर्द किया गया है। उसके कदम बहकते हों तेा चुपचाप उन्हें साधो, लेकिन वह लड़खड़ाता हो तो अपने आपको चौकन्ना कर लो और एक पहाड़ी देवता की तरह उसे उस पार उतार दो।

वह आया, उसने अपनी छड़ी को लोहे की नोंक से मुझे ठकठकाया, फिर उसने उसके सहारे मेरे कोट के सिरों को उठाया और उन्हें मेरे ऊपर रख दिया। उसने अपनी छड़ी की नोंक मेरे झाड़नुमा बालों में धँसा दी और देर तक उसे वहीं रखे रहा, बेशक इस बीच वह अपने चारों ओर दूर तक आँखें फाड़कर देखता रहा था। लेकिन फिर मैं पहाड़ और घाटी पर विचारों में उसका पीछा कर ही रहा था कि वह अपने दोनों पाँवों के बल मेरे शरीर के बीचो–बीच कूदा।

मैं भंयकर पीड़ा से थर्रा उठा। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि यह क्या हो रहा था। कौन था वह?बच्चा? सपना? बटोही? आत्महत्या? प्रलोभक? विनाशक? और मैं उसे देखने के लिए मुड़ा। पुल का मुड़ना! मैं पूरी तरह मुड़ा भी नहीं था कि मेरे गिरने की शुरुआत हो गई। मैं गिरा, और एक क्षण में उन नुकीली चट्टानों ने मुझे चीर–फाड़कर रख दिया, जो तेज बहते पानी में से हमेशा चुपचाप मुझे ताकती रहती थीं।

काफ्का की इस लघुकथा में सामग्री की सांद्रता/बारीक ख़याली देखते ही बनती है। लेखक की दूसरी रचनाओं की तरह यह जटिल भी नहीं है। पूरा फोकस ‘पुल’ के गुण धर्म पर हुआ है। पुल की मुड़कर देखने की कोशिश यानी अपने गुण धर्म से विचलित होना। देखते ही देखते पुल का विनाश हो जाता है।

पुरस्कृत लघुकथाओं में थपलियाल जी की लघुकथा ‘गेटमीटिंग’ को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। ‘‘माचिस में तीलियाँ नहीं हैं’’में रचना का मूल स्वर निहित है। कथादेश जुलाई 2012 में प्रकाशित उर्मिल जी की एक अन्य लघुकथा ‘सामाजवाद’ भी बारीक खयाली का आदर्श उदाहरण है। लघुकथा का समापन देखें–

उसे लगा आते जाते लोग मुड़–मुड़ कर उसे देख रहे हैं। कुछ हैरत में है, कुछ चकित। कुछ देर बाद लोगों के हँसने की आवाज सुनाई देने लगी। उसे रोना आने लगा। वह रेाने लगा। उसे लगा, कुछ गड़बड़ जरूर है। क्योंकि जब वह रोने लगा तो उसके आँसू उसकी पीठ पर बह रहे थे।

आनंद लगातार श्रेष्ठ लघुकथाएँ लिखते रहे हैं। कथादेश की लघुकथा प्रतियोगिता में कई बार पुरस्कृत हुए हैं। कुछ लोग मानते हैं कि लघुकथा का समापन बिंदु धमाकेदार,पैना होना ही चाहिए लेकिन ‘शुभ–अशुभ’ के समापन में नौकर की उदासी और खामोशी पाठकों को अपने साथ जोडने में सफल रही है, यह समापन बिंदु ही इस कथा की ताकत है। रचना में धनकुबेर पति के अपने बच्चों के जन्म के बारे में पत्नी से किए गए सवाल अस्वाभाविक लगते हैं। कथा के पात्र लेखक के रिमोट कंट्रोल से संचालित प्रतीत होते हैं। राम कुमार आत्रेय की ‘टूटी चूडि़याँ’ का प्रभाव भी इसी कमी के चलते कम हो जाता है। आत्रेय जी की इस लघुकथा को नए विषयों की तलाश के रूप में देखा जा सकता है। रचना की बुनावट और कथा–प्रवाह प्रभावित करते हैं।

पुष्पा चिले की ‘यथार्थ’ अपने कांटेंट के कारण निर्णायकों का ध्यान खींचने में सफल रही है। किसी फ़िल्म या सीरियल में देखे जा रहे दृश्य की तरह पाठक खुद को धनौती परिवार के साथ खड़ा महसूस करता है और उनकी जीत पर राहत भी महसूस करता है। रचना की बुनावट ‘कहानी’ की तर्ज पर हुई है। ‘एक दिन धनौती आई’ जैसे वाक्य लघुकथा की सीमा का अतिक्रमण करते हैं।

सीताराम शर्मा ‘चेतन’ की लघुकथा ‘सच्ची मशीन’ में लघुकथा वहीं समाप्त हो जाती है, जहाँ पाठक तीनों प्रश्नों के उत्तर जान जाता है। यहाँ अन्तिम अवतरण की कोई आवश्यकता प्रतीत नहीं होती।

अनुराग आर्य की ‘इमोशनल इडियट’ को एक प्रयोग के रूप में देखा जा सकता है। लघुकथा में ऐसे प्रयोगों की आवश्यकता भी है। लेखक ने डायरी शैली में हमारा ध्यान उस पौध की ओर आकृष्ट किया है जो नर्सरी के अभाव में पनप ही नहीं पाती और दम तोड़ देती है। सर्दी, गर्मी,बरसात और बाढ़ में मरने वाले असंख्य बच्चों पर रचनाकार ने फोकस किया है। लघुकथा किसी झील की तरह शांत दिखाई देती है, बिना अपनी गहराई का अहसास कराए। दिक्कत यह है कि पाठक भी इसकी गहराई तक नहीं पहुँच पाता। यही इस रचना की कमजोरी है। सम्प्रेषणीयता के संकट के चलते लघुकथा का प्रभाव कम हो जाता है।

संतोष सुपेकर की ‘हम बेटियाँ हैं’ लोकेन्द्र सिंह कोट की ‘दंभ’ अखिलेश श्रीवास्तव चमन की ‘बीमारी’ और शशि भूषण मिश्र की ‘इस्सरबा का स्कूल’ अपने आप में मुकम्मल उद्देश्यपूर्ण लघुकथाएँ हैं। इन विषयों पर बहुत से लेखकों की लघुकथाएँ मिल जाएगी। विषयों का दोहराव भी लघुकथा के विकास में बाधक बना हुआ है। बहुत से लिखने वाले एक ही विषय पर पचास लघुकथाएँ तक लिख देते हैं। यहाँ एक ही विषय पर कुछ चर्चित लघुकथाओं के उल्लेख से बात और स्पष्ट होगी–

ऊँचाई/खलील जिब्रान

अगर आप बादल पर बैठ सके तो एक देश से दूसरे देश को अलग करने वाली सीमा रेखा आपको कहीं दिखाई नहीं देगी और न ही एक खेत से दूसरे खेत को अलग करनेवाला पत्थर ही नजर आएगा। च्च...च....च... आप बादल पर बैठना ही नहीं जानते। (अनुवाद :सुकेश साहनी)

फर्क/विष्णु प्रभाकर

उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा–रेखा को देखा जाए,जो कभी एक देश था, वह अब दो हेाकर कैसा लगता है। दो थे तो दोनों एक–दूसरे के प्रति शंकालघु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था–पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक ओर उनका कमाण्डर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे। इतना ही नहीं, कमाण्डर ने उसके कान में कहा,

‘‘उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं,जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।’’

उसने उत्तर दिया, ‘‘जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?’’

और मन ही मन कहा, मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इन्सान हूँ, अपने –पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।

वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रोबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिला। उस दिन ईद थी। उसने उन्हें मुबारकवाद कहा। बड़ी गरमजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले,

‘‘इधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।’’

इसका उार उसके पास तैयार था। अत्यन्त विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, ‘‘बहुत–बहुत शुक्रिया। बड़़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही लौटना है और वक्त बहुत कम हैं आज तो माफ़ी चाहता हूँ,।’’

इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ बातें हुई कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा।

एक क्षण बाद उसने पूछा, ‘‘ये आपकी हैं?’’

उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, ‘‘जी हाँ जनाब, हमारी हैं, जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।’’

सरहद/रतन सिंह

एक दिन हवा एक मुल्क की सीमा को पार करके दूसरे मुल्क में जाने लगी,तो सीमा के रक्षक फौजी ने उसे रोक कर कहा, ‘‘अपना पासपोर्ट दिखाओ’’

हवा ने सरसर करते हुए कहा,‘‘मैं सारी दुनिया की साँझी हूँ। मुझे पासपोर्ट की जरूरत नहीं। ’’

‘‘वह कैसे ?’’ फौजी ने पूछा।

‘‘मैं किसी मतभेद के बिना कण–कण को ज़िन्दगी देती हूँ। हर जीव को, हर जन्तु को। यहाँ तक कि पेड़–पौधों को भी।’’

हवा एक पल रुकी और फिर कहा, ‘‘अगर धरती के बन्दे भी इसी तरह मजहब, कौम,रंग,नस्ल के भेद को मिटाकर एक दूसरे को जिंदगी बाँटे तो इन्हें हदबंदियों की जरूरत न पड़े।’’

इस प्रकार कहते हुए वह फौजी के देखते ही देखते सर-सर करती आगे बढ़ गई। उसी समय एक चिड़िया पंख फड़फड़ाती,चूँ–चूँ करती फौजी की आँखों के सामने से उड़ती हुई एक मुल्क से दूसरे मुल्क में दाखिल हो गई।

उसकी चूँ– चूँ– हवा की बात की पुष्टि कर रही थी। (अनुवाद :सुरजीत)

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सीमा/डॉ श्याम सुंदर दीप्ति

एक अदालत में मुकदमा आया, ‘‘यह पाकिस्तानी है, साहब। अपने देश की सीमा पार करता हुआ पकड़ा गया है। ’’

‘‘तुम्हें इस आरोप के बारे में कुछ कहना है?’’मजिस्ट्रेट ने पूछा।

‘‘मुझे क्या कहना है जनाब? मैं खेत में पानी लगाकर बैठा था। मुझे किसी की सुरीली की आवाज में ‘हीर’ के बोल सुनाई दिए। मैं उस आवाज को सुनता चला गया। मुझे तो कोई सीमा नजर नहीं आई।’’

यहाँ चारों रचनाओं का मूल स्वर ‘मुल्क की सीमा’ पर केन्द्रित है। खलील जिब्रान कहते हैं कि अगर आप बादल पर बैठ सके तो एक देश से दूसरे देश को अलग करने वाली सीमा रेखा आपको नज़र नहीं आएगी। खलील ज़िब्रान उन लोगों पर तरस (व्यंग्य) खाते हैं जिन्हें बादल पर बैठना ही नहीं आता। इसी बात को तीनों हस्ताक्षर अपने–अपने ढंग से कहते हैं। मूल स्वर एक होते हुए भी लघुकथाओं में लगातार कुछ न कुछ जुड़ता जाता है। बाकी तीन रचनाओं को खलील ज़िब्रान की ‘ऊँचाई’ की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन यह भी देखने की बात है कि जहाँ जिस रचना में दोहराव की स्थिति है, वहाँ लघुकथा का प्रभाव कम हो जाता है। अभिप्राय यह है कि लघुकथा में सक्रिय वर्तमान पीढ़ी के लिए यह आवश्यक है कि वह लघुकथा साहित्य का भली प्रकार से अध्ययन करे और जहाँ तक सम्भव हो लघुकथा में विषयों के दोहराव से बचें।

कस्तूरी लाल तागरा की ‘गुलाब के लिए’ को लघुकथा की परिभाषा के परिप्रेक्ष्य में आदर्श लघुकथा के रूप में पेश किया जा सकता है। शीर्षक,प्रारम्भ,कथ्य विकास,समापन–सब एकदम सटीक। पाठकों से सम्वाद स्थापित करती ,लेखकीय दायित्व का निर्वहन करती लघुकथा। इन तमाम विशेषताओं के बाद भी निर्णायकों की पहली पसंद में सम्मिलित होने से रह गई। फिर बात विषय की आती है । रचना के पाठ के दौरान मस्तिष्क में समानान्तर निराला की लम्बी कविता की कुछ पंक्तियाँ घूमती रहीं–

आया मौसम खिला फारस का गुलाब
बाग पर उसका जमा था रोबोदाब
वहीं गंदे पर उगा देता हुआ बुत्ता
उठाकर सर शिखर से अकड़कर बोला कुकुरमुत्ता
अबे, सुन बे गुलाब
भूल मत जो पाई खुशबू, रंगोआब
खून चूसा तूने खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतरा रहा है कैपटलिस्ट
........XXX..
देख तुझको मैं बढ़ा
डेढ़ बालिश और ऊँचे पर मैं चढ़ा
और अपने से उगा मैं
नहीं दाना पर चुगा मैं
कलम मेरा नहीं लगता
मेरा जीवन आप जगता...

कस्तूरी लाल तागरा की लघुकथा ‘गुलाब के लिए’ सशक्त लघुकथा कही जाएगी। यहाँ कुकुरमुत्तों की जगह घास (मजदूर)की पीड़ा को नये कोण (मौलिक) से देखने का प्रयास हुआ है लेकिन यह भी सच है कि दोनों रचनाओं के पाठ के बाद ‘उठाकर सिर शिखर से अकड़ कर बोला कुकुरमुत्ता’ ही मस्तिष्क पर छाया रहता है। -0-