हिन्दी साहित्य में घर / स्मृति शुक्ला

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

'घर' एक बड़ा खूबसूरत और अर्थवान् बहुअर्थी शब्द है। प्रेमी-प्रेमिका के लिए घर एक स्वप्न की भाँति है जिसे वे साकार करना चाहते हैं। एक मध्यम वर्गीय गृहस्थ के लिये घर बनाना उसके जीवन की सबसे बड़ी साध हो सकती है। परदेश में रह रहे परदेशी के लिये घर स्वदेश का पर्याय है। किसी के लिये घर चार दीवारी से घिरा आवास मात्र है तो किसी के लिए घर देवालय से कम नहीं। किसी के लिये घर नर्क है तो किसी के लिये प्रेम का मंदिर। इस घर को लेकर हमारे लोक में और हिन्दी भाषा में कई मुहावरे प्रचलित हैं। 'घर घुसरा' , 'घर जमाई' , 'घर डूबना' , 'न घर के न घाट के' , 'घर की मुर्गी दाल बराबर' , 'घर का भेदी' , 'घर का चिराग' , 'घर फूँक तमाशा देखना' , 'घर फोड़ना' , 'घर बिगाड़ना' , 'घर बसाना' , 'घर से पाँब निकालना' आदि-आदि। इस घर पर साहित्य में न जाने कितना लिखा गया है। कबीर ने अपनी जमात में उन्हीं लोगों को शामिल करने की बात कही है जो अपना घर जलाने का माद्दा रखते हों-

कबीरा खड़ा बाज़ार में लिये लुकाठा हाथ।

जो घर फूँके आपना चले हमारे साथ॥

कबीर ने अपने पदों में घर के रूपक का अनेक बार प्रयोग किया है। ज्ञान की आँधी आने पर भ्रम के सारे पर्दे हट जाते हैं। मोह रूपी बड़ेरा जिस पर घर का छप्पर टिका था टूट जाता है। स्वार्थ की थुनियाँ (स्तंभ) धराशायी हो जाती हैं। अब वे योग-युक्ति से ऐसा घर बनायेंगे जिसमें विषय-विकार रूपी जल की एक भी बूँद नहीं टपक सकेगी।

हित चित की है थूनि गिरानी, मोह बलिण्डा टूटा।

त्रिस्ना छानि परी घर उपर कुबुधि का भांडा फूटा॥1

कबीर ने बोधवृत्ति रूपी स्त्री के साथ घर बसाने की भी बात की है-

अबकी घरी मेरी घर कर सी

साध संगति ले मोकौं तिरसी.

भक्तिकाल के प्रायः सभी कवियों की रचनाओं में घर का प्रयोग विभिन्न संदर्भों में हुआ है। गोस्वामी तुलसीदास ने तो सीता के सौन्दर्य वर्णन में 'गृह' शब्द का प्रयोग किया है-

सुन्दरता कह सुंदर करहिं, छवि गृह दीपशिखा जनु बरहीं।

प्रसिद्ध साहित्यकार जयशंकर प्रसाद ने अपने साहित्य में राजमहलों से लेकर झोंपड़ीनुमा घरों का वर्णन किया है। 'प्रेम पथिक' में कवि प्रसाद ने वन के एकांत में बनी कुटिया का वर्णन किया है। सरिता के रम्य तट पर वह सुन्दर कुटिया लताओं के झुरमुट से घिरी एकदम शांत है। वह कुटिया मृगछाला, कौशेय, कमण्डल और वल्कल वस्त्रों से ही सजी हुई हैं। इसके आगे अनोखी सज-धज और सौन्दर्य लिये हुए नवीन मालती कुंजों से घिरी दालान भी है।

अज्ञेय की अनेक कविताओं में घर और घर के अनेक हिस्सों का अलग-अलग वर्णन है। घर का आँगन उन्हें प्रिय है। 'आँगन के पार द्वार' उनके कविता संग्रह का शीर्षक है। अज्ञेय के अंतिम कविता संग्रह का नाम है-'ऐसा कोई घर आपने देखा है'। इस कविता में अज्ञेय कहते हैं-घर मेरा कोई है नहीं / घर मुझे चाहिए / घर के भीतर प्रकाश हो / इसकी भी मुझे चिंता नहीं। प्रकाश के घेरे के भीतर मेरा घर हो। इसी की मुझे तलाश है। ऐसा कोई घर आपने देखा है? देखा हो / तो मुझको भी इसका पता दें। न देखा हो / तो आपको भी / सहानुभूति तो दे ही सकता हूँ / मानव होकर भी हम-आप / अब ऐसे घरों में नहीं रह सकते / जो प्रकाश के घेरे में है / पर हम बेघरों की परस्पर हमदर्दी के घेरे में तो रह ही सकते हैं / यहाँ अज्ञेय ने बेघर लोगों की परस्पर आत्मीयता और सहानुभूति को अंधेरे तोड़ने का एक जरिया माना है।

किसी कवि ने लिखा है कि कैसे हम बचपन में घरौंदे बनाते थे। रेत को इन घरों को सजाते-सँवारते थे; लेकिन बड़े होने पर हमने जो घर बनाया वह ऐसा घर है जो बिना जमीन और छत का है। न धरती न आसमान कुछ भी तो नहीं अपना एक बड़ी-सी बिल्डिंग के फिफ्थ फ्लोर पर बना यह घर पूर्ण रूप से घर का अहसास नहीं कराता।

नवगीतकारों ने भी घर पर बड़े भावपूर्ण गीत लिखे हैं। ओम प्रभाकर ने अपने नवगीत 'घर नियराया' में बहुत दिनों बाद परदेश से लौटे बेटे के मनोभावों को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया है-

जैसे-जैसे घर नियराया।

बाहर बापू बैठे दीखे लिये उमर की बोझिल घड़ियाँ

भीतर अम्मॉ रोटी करती / लेकिन जलती नहीं लकड़ियाँ

कैसा है यह दृश्य कटखना / मैं तन से मन तक घबराया।

दिखा तुम्हारा चेहरा ऐसे / जैसे छाया कमल-कोष की।

आँगन की देहरी पर बैठी / लिये बुनाई थालपोश की।

मेरी आँखें जुड़ी रह गई, बोलों मैं सावन लहराया। 2

इस गीत में एक मध्यवर्गीय घर का सच्चा दृश्य है। बुजुर्ग माता-पिता को देखकर बेटा दुखी है किन्तु पत्नी के सुन्दर मुख को देखकर वह आन्तरिक प्रसन्नता अनुभव करता है।

घर पर हिन्दी के अनेक युवा कवियों ने बड़ी सुन्दर कविताएँ लिखी हैं। हिन्दी के युवा कवि पवन करण ने अपनी कविता 'घुटने' में उस घर का जिक्र किया है जिसमें भाइयों-भाइयों के बीच दुश्मनी है। स्नेह का स्रोत सूख गया है अब केवल दुश्मनी की कटीली बाड़ है-घर में कोई पड़ा हो बीमार या हो झगड़े में घायल या हो पीछे सलाखों के / किसी का उसे पूछने तक नहीं जाना, किसी के बच्चे को हो जाये, स्कूल से आने में देर तड़प रही हो उसकी माँ / देखकर भी कर देना अनदेखी, चल देना मुँह फेरकर अपने काम से / कोई सीखना चाहे तो भाइयों के बीच दुश्मनी निभाना इनसे सीखे / शायद ये वे घुटने है जो अब कभी अपने पेट की तरफ नहीं मुड़ेंगे / इन पंक्तियों में कवि यह बताना चाहता है कि एक पिता की संतति, सगे भाई एक ही घर में अलग-अलग कमरों में रहते हैं लेकिन इस ईंट, सीमेंट की दीवारों वाले घर में स्नेह की तरलता और संवेदनाओं की उष्णता समाप्त हो चुकी है। उन्होंने घर को केन्द्र में रखकर कई कविताएँ लिखी है। उनका मकान उनकी कल्पना में बनकर तैयार हो चुका है। उनके भीतर के कारीगर ने उस मकान को गढ़ा है। उसमें लगे एक पत्थर और एक-एक ईट की पीठ उन्होंने थपथपाई है। अब इस घर के निर्माण में वे किसी का हस्तक्षेप सहन नहीं कर पायेंगे-

किसी का हस्तक्षेप अब शायद नहीं कर सकूँगा मैं सहन, घर के भीतर एक-एक रंग, एक-एक चीज के लिये सही-सही जगह पहले ही कर चुका हूँ मैं, सच कहूँ तो उसके भीतर सपनों और अपनों के संग मैं अभी से रहने लगा हूँ। 3

हिन्दी कविता में घर ने पूरी ताकत से अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। यह घर अनेक रूपों में, कहीं दार्शनिक अर्थ में तो कहीं प्रतीकात्मक अर्थ में आया है। कविता के अतिरिक्त कथा साहित्य में भी घर उपस्थित है।

श्रीकांत वर्मा की कहानी 'घर' ने बहुत प्रसिद्धि पाई. घर केवल दीवारों और छत से होता बल्कि सही मायनों में घर तभी होता है जब उसमें रहने वाले व्यक्तियों में आपस में प्रेम हो। कहानी का नायक अपने भव्य और महल जैसे घर के अहाते में एक भिखारी-भिखारिन के आपसी प्रेम को देख रहा है उसे लगता है कि दंपति के परस्पर प्रेम स्नेह की पुलकमान धारा ही घर को घर बनाती है यदि पत्नी-पत्नी में प्रेम नहीं, तो महल जैसे घर भी घर नहीं। एस.आर.हरनोट की कहानी 'लिटन ब्लॉक गिर रहा है' एक भव्य किन्तु जीर्ण-शीर्ण भवन के गिराये जाने की कहानी है। ब्रिट्रिश राज के दौरान लार्ड रिटन 1876-1880 तक शिमला के वॉयसराय थे उन्हीं के नाम पर लिटन ब्लॉक भवन बनाया गया था। जीर्ण-शीर्ण हो जाने के बाद 2010 में इस भवन को गिरा दिया गया। एस.आर.हरनोट ने इस ब्लॉक को अपनी आँखों से गिरते हुए देखा है। कहानीकार को लगता है कि इस ब्लॉक के गिरने से बेहतरीन कारीगरी का एक नमूना तो नष्ट हुआ ही, कई जानवरों और भिखारियों का आशियाना भी उजड़ गया। इस खंडहर के कोने में नसमू और उसकी कुबड़ी पत्नी रहते थे, कई बंदर और कुत्तों का परिवार भी रहता था; लेकिन इन सब का घर अब उजड़ चुका था।

इन्दु बाली की कहानी 'बिना छत का मकान' मालती जोशी की कहानी 'एक घर सपनों का' , रामदरश मिश्र की कहानी 'खाली घर' , शिवानी की कहानी 'लाल हवेली' , राजकुमार भ्रमर की 'शाीशों का घर' , मनहर चौहान की कहानी 'घर घुसरा' , आदि के शीर्षक घर पर केन्द्रित है। इनमें से कुछ कहानियाँ प्रतीकात्मक हैं।

उपन्यासकार रांगेय राघव का 'घरौंदे' और राजस्थान की पृष्ठभूमि पर लिखा उपन्यास 'धरती मेरा घर' भैरव प्रसाद गुप्त का 'हवेली' , राही मासूम रजा का 'गूँगा आँगन गूँजा कमरा' रामदरश मिश्र का उपन्यास 'बिना दरवाजे का मकान' आदि उपन्यासों की शीर्षक ही घर पर केन्द्रित हैं। श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास 'मकान' अत्यंत प्रसिद्ध उपन्यास है। इस उपन्यास में श्रीलाल शुक्ल ने प्रशासकीय जड़ता और व्यवस्था के भ्रष्ट होने के संकेत मकान के माध्यम से दिये हैं। श्री नारायण बंदोपाध्याय उच्च कोटि के सितार वादक है तथा नगर निगम में असिस्टेंट एकाउंटेंट हैं। वे अपने लिए एक मकान अलाट कराना चाहते हैं। तमाम ज़रूरी कागजात होने पर भी नगर निगम का अधिकारी उन्हें मकान अलाट नहीं करता, यद्यपि वह उनकी कला का समर्थक है। महीनों दौड़धूप करने के बाद वे मकान प्राप्त करने में असफल रहते हैं फिर स्वामी शान्तानंद जी की सिफारिश से उन्हें घर मिलता है; लेकिन वे उसमें रह नहीं पाते और उनकी मृत्यु हो जाती है। उनकी मृत्यु के बाद उसी घर में बन्दोपाध्याय जी का स्मृति दिवस मनाया जाता है और उन्हें उस्ताद विलायत खॉ और पंडित रविशंकर के समकक्ष घोषित किया जाता है। उपन्यासकार श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास में एक कलाकार की उस पीड़ा को व्यंजित किया है, जिसमें वह जीवन की बुनियादी आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र और आवास में से एक की तमन्ना हृदय में लिये हुए मृत्यु को प्राप्त करता है। भारतीय ज्ञानपीठ से 2016 में प्रकाशित संतोष चौबे का उपन्यास 'जल तरंग' का प्रारंभ ही एक सुन्दर मकान से ही होता है। उपन्यास के नायक देवाशीष के पिता ने अपना पूरा जीवन ईमानदारी से गुजारा था। रिटायरमेंट के बाद उन्होंने घर बनाया और गृह प्रवेश के समय आम के पौधे लगाये थे जो अब छायादार और फलदार वृक्ष बन चुके हैं। शहर की संभ्रांत कालोनी में पार्क के ठीक सामने आम के पेड़ों से घिरा हुआ यह घर संगीतकार देवाशीष को बहुत प्रिय है। उपन्यासकार संतोष चौबे ने संगीत की पृष्ठभूमि पर केन्द्रित इस उपन्यास के चतुर्थ खंड में बड़ी तेजी से परिवर्तित सामाजिक परिवेश और भूमंडलीकरण के फलस्वरूप तीव्रगामी परिवर्तनों को पूरी सच्चाई के साथ उकेरा है। इस परिवर्तन से देवाशीष का मन-मस्तिष्क पूरी तरह से हिल गया है और वह संगीत साधना में दत्तचित्त नहीं हो पा रहा है उसकी एकाग्रता भंग हो गई है। देवाशीष को अपने पिता के बनाए हुए घर से अत्यधिक लगाव है। अब शोर गुल के बढ़ने के कारण वह इस घर में शांति अनुभव नहीं कर पाता है। देवाशीष अपने इस घर और संगीत को बचाने के लिए एक लम्बी लड़ाई कानूनी लड़ता है और काफी संघर्ष के बाद अंततः विजयी होता है।

प्रसिद्ध आलोचक कवि कथाकार, संस्मरण और निबंध लेखक रमेशचन्द्र शाह ने तो अपनी पुस्तक 'वाद-संवाद' में घर के बारे में पूरा एक निबंध ही लिख दिया-

बहुत दिनों की बात है बच्चो, बूढ़ा एक शहर था।

उसके बीचो-बीच हमारा, फटा पुराना घर था।

उन्होंने लिखा कि "यों तो हम अपनी आयु के लगभग हर दशक में स्वयं को नए संसार में पाते हैं, फिर भी कुछ चीजें नहीं बदलती। अब ऐसा क्यों है कि वह 'फटा-पुराना घर' जिसमें बचपन लड़कपन का सबसे बड़ा हिस्सा बीता, वह अपने लिए मानो समूची संस्कृति का ही नहीं; बल्कि समूची मानवीय उपस्थिति का भी प्रत्यक्ष वस्तु-पाठ और जीता जागता प्रतीक बन गया। निश्चय ही भारतीय घर में आँगन (और छत) का जो अत्यधिक महत्त्व रहा है, वह इसी खुलेपन की कामना को व्यक्त करता है। वह घर क्या जिसमें छोटा-सा ही सही, आँगन न हो, छत न हो और वह घर क्या, जिसमें बंदी मानव के मुक्त संचार में सहायक देवता न हो, उनका देवताथान न हो। वेद के अनुसार, ये देवता ही है, जो हर तरह से बंदी और बाधित मर्त्य मानव के मुक्त संचार के लिए अवकाश बनाने में सहायक होते हैं। मेरी स्मृति में उस फटे-पुराने घर में जिया गया बचपन इस तथ्य का साक्षी है कि दिनारंभ की सूचना देवताथान में बजती घंटी से ही मिलती थी और दिन ही क्यों, पक्ष, मास और संवत्सर-समूचा ऋतु चक्र ही मानो देवताथान से ही उगता और उसी के इर्द-गिर्द घूमता प्रतीत होता था।" (वाद-संवाद रमेशचन्द्र शाह, सत्साहित्य प्रकाशन, दिल्ली पृ.116) दरअसल रमेशचन्द्र शाह ने घर के बहाने से पूरी भारतीय संस्कृति को ही जीवंत कर दिया है। उन्होंने वैदिक शब्द 'वरिवस्या' के माध्यम से मुक्ति (मनुष्य) की बात कही है बड़े गहरे दार्शनिक आशयों से मुक्त बातें कहीं है। आगे उन्होंने इसी घर के माध्यम से बदलते सामाजिक परिवेश, बदलती मनस्थितियों की बात की है। चार्ल्स डिकेंस का उदाहरण देते हुए रमेशचन्द्र शाह कहते है कि वह बचपन में दूर एक ऊँचे टीले पर बने प्रसाद को देखा करता था। एक दिन उसके पुरुषार्थ से उसका यह स्वप्न यथार्थ में बदल गया। परन्तु उसका संपूर्ण श्रेष्ठ साहित्य उसके घूरे जैसे घर में रचा गया उस भव्य प्रसाद में एक भी उपन्यास नहीं लिखा गया। "घर' मनुष्य का शायद सबसे बड़ा सपना है। घर बुनियादी आवश्यकता भी है। रमेशचन्द्र शाह के कथन से यह आलेख समाप्त करना चाहूँगी कि साहित्य में हमारी संवेदनाएँ, स्मृतियाँ और अनुभूति अपना घर खोजती हैं, अपना घर ही तो बनाती हैं।" 4

संदर्भ;

1कबीर रचनावली-संपादक, रामकिशोर शर्मा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ। 237

2.नवगीत सप्तक-शंभुनाथ, जवाहर पब्लिशर्स, नई दिल्ली, पृ.63

3.आलोचना-प्रधान संपादक, नामवर सिंह, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, सहस्राब्दी अंक-10, 11, पृष्ठ 88 4.वाद-संवाद-रमेशचन्द्र शाह, सत्साहित्य प्रकाशन दिल्ली, पृ.111