हिन्दी साहित्य में प्रेम के पर्याय: राधा-कृष्ण / स्मृति शुक्ला
प्राचीन भारतीय वांग्मय से आधुनिक काल तक कृष्ण और राधा के प्रेम को आधार बनाकर अनेक रचनाएँ लिखी गई हैं। 'कृष्ण' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम ऋग्वेद के अष्टम मंडल के सूक्त 85, 86, 87 एवं दशम मंडल के सूक्त 42, 43, 44 के ऋषि का नाम कृष्ण है। महानारायणोपनिषद्, कृष्णोपनिषद् कृष्ण के स्वरूप का वर्णन है। 'गोपालतापिनी उपनिषद्' अथर्ववेदीय है, जो पाँच खंडों में वर्गीकृत है। 'कृष्णो वे परमं देवतम् कहकर इसमें कृष्ण की श्रेष्ठता प्रतिपादित की है। राधा उपनिषद् में श्रीराधा के स्वरूप और नामों का वर्णन है। इसमें श्रीराधा की महिमा का वर्णन श्रुतियों द्वारा कराया गया है। श्रुतियाँ कहती हैं कि संपूर्ण देवताओं में जो देवत्वशक्ति हैं, वह श्री राधिका जी की ही हैं। सबकी अधिदेवता श्री राधिका ही हैं।' महाभारत'में कृष्ण तो है; लेकिन राधा का उल्लेख महाभारत में नहीं है।' ब्रह्मवैवर्तपुराण'का द्वितीय भाग' प्रकृतिखंड'है। इस खंड में शिव ने प्रकृति को राधा की उत्पत्ति का रहस्य और महात्म्य सुनाया है। कृष्ण के मन में जब रमण करने की इच्छा उत्पन्न हुई, तब उनके' शरीर के दो भाग हो गये। उसके दक्षिणांग को श्रीकृष्ण और वामांग को राधा कहा जाता है।"
बारहवीं 'शताब्दी में जयदेव ने राधा-कृष्ण की लीलाओं को' गीत-गोविंद के माध्यम से अमर कर दिया। संस्कृत साहित्य में 'गीत गोविंद' कोमलकांत पदावली और सुंदर गीतिकाव्य, कोमल-मधुर भावों तथा उत्कृष्ट काव्यकला का बेजोड़ उदाहरण है।
राधा और कृष्ण का प्रेम भारतीय जन-मानस को सदियों से सरस बनाता रहा है। राधा कृष्ण का प्रेम एक प्रतीति है जिसे प्रत्येक किशोर या किशोरी अपने हृदय में अनुभूत करता रहा है। लीला पुरुषोत्तम कृष्ण, गीता में कर्म का संदेश प्रसारित करने वाले कृष्ण, इंद्र के प्रकोप से गोप-गोपिकाओं की रक्षा करने वाले कृष्ण, कंस का वध करने वाले कृष्ण, महाभारत के नायक कृष्ण, गीता का उपदेश देने वाले कृष्ण ये कृष्ण के अनेक रूप हैं; लेकिन साहित्यकारों को कृष्ण के लीला पुरुषोत्तम अद्भुत प्रेमी के रूप ने ही लुभाया है। राधा कृष्ण के प्रेम को विद्यापति ने अपनी पदावलियों के माध्यम से अंतर कर दिया है। सूफी कवियों में जायसी ने अपने ग्रंथ 'कान्हावत' में लिखा है-
अइस प्रेम कहानी, दोसर जग मँह नाहिं।
तुरकी, अरबी, फारसी, सब देखेऊँ अवगाहिं॥
कृष्ण कथा के विकास में निम्बार्क सम्प्रदाय, चैतन्य सम्प्रदाय, हरिदासी सम्प्रदाय, ललित सम्प्रदाय, के कवियों ने अपना योगदान दिया। भक्ति काल में सूरदास ने राधा-कृष्ण के प्रेम को उनके अलौकिक सौन्दर्य को, उनके प्रथम मिलन और प्रेम के क्रमिक विकास, शृंगार में मिलन और विरह को जितनी भाव प्रवणता और कलात्मकता से चित्रित किया है, हिन्दी में संभवतः दूसरा कोई कवि नहीं कर पाया है। सूरदास ने राधा और कृष्ण के प्रथम मिलन का बहुत ही मनोहारी चित्र उपस्थित किया है। कृष्ण हाथों में भौरा, चक्र और डोरी लेकर खेलने के लिए निकले हैं। अचानक रास्ते में उन्होंने प्रथम बार राधा को देखा। इस स्थिति को सूरदास ने बड़े सुन्दर रूप में अभिव्यक्त किया है-
औंचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल भाल दिये रोरी।
सूर श्याम देखत ही रीझे, 'नैन-नैन मिली परी ठगौरी'॥
सूरदास ने इन पंक्तियों में प्रेम का बड़ा मनोवैज्ञानिक चित्रण किया है। नेत्रों के मिलने से दोनों अपलक एक दूसरे को ठगे से देखते रह गए। फिर आपस के वार्तालाप से यह प्रेम धीरे-धीरे बढ़ने लगा। दोनों साथ-साथ खेलने लगे और एक दूसरे का साथ पाने को व्याकुल हो उठते हैं। प्रेम में राधा और कृष्ण दोनों की स्थिति एक जैसी है। राधा यदि कृष्ण को नहीं पाती है, तो उनकी बेचैनी बढ़ जाती है। सूरदास कहते हैं-
देखे जाइ तहाँ हरि नाहीं, चकृत भई सुकुमारि।
कबहुँ इत, कबहुँ उत डोलति लागी प्रीति सँभारि॥
राधा ब्रज से वापस जाती है तो बार-बार नंद की गली को मुड़-मुड़कर देखती है। कृष्ण ने उनका मन मोह लिया है। सूर ने राधा और कृष्ण के हृदय में प्रेम का विकास बहुत ही स्वाभाविक ढंग से दिखाया है। कृष्ण गायों को दुहते-दुहते दूध की धार राधा के मुख पर डाल देते हैं। राधा और कृष्ण अपने हृदयगत प्रेम को छुपाना चाहते हैं; इसलिए अपने-अपने माता-पिता से एक दूसरे की बुराई करते हैं। राधा अपनी माँ से कहती है- कृष्ण बड़ा दुष्ट है सारा दही ढरका देता है, मैं उस रास्ते नहीं जाऊँगी। इस प्रकार कृष्ण कहते हैं-माँ, राधिका बड़ी चोर है, हमारी मुरली चुराकर ले जाएगी; इसलिए इसे सँभालकर रखना। इस पर सूरदास यशोदा के मुख से कहलवाते हैं-
'मेरे लाल के प्राण खिलौना ऐसो को ले जे है री।'
इस प्रकार राधा और कृष्ण बड़ी चतुराई से अपने प्रेम को छुपाते हैं। कृष्ण राधा के नीवी बंधन को खोल रहे हैं, तभी माँ यशोदा वहाँ आ जाती है, तो कृष्ण गेंद चुराने का बहाना बना देते हैं। सूर ने राधा-कृष्ण के प्रेम को चित्रित करते हुए प्रेमी-प्रेमिका के मनोविज्ञान का, उनके क्रियाकलापों का बड़ा स्वाभाविक और मनोरम चित्रण किया है।
चुंबत अंग परस्पर जनु जुगबंद करत हित वार।
गुरु सागर अरु रस सागर मिलि मानत सुख व्यापार॥
गोरी राधिका और साँवले कृष्ण के मिलन को सूर ने बड़ी सुंदर उपमाओं के माध्यम से अंकित किया है। वे लिखते हैं कि गोरी राधा और साँवले कृष्ण का मिलाप ऐसा लग रहा है मानो नव जलद ने विधु को बन्धु बना दिया है जिससे नभ में अनियारी कला का उदय हो गया है।
सूर ने पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के आधार पर राधा को स्वकीया नायिका के रूप में भी चित्रित किया है। भाँवर और गाँठ बाँधना ये विवाह की रीतियाँ हैं, सूर कहते हैं-
तब देत भाँवरि कुंज-मंडप प्रीति ग्रंथि हिये परी
सूर ने बसंतकाल में फाग-क्रीड़ा और झूला प्रसंग में राधा-कृष्ण को दंपति रूप में वर्णित किया है-
झूलत 'याम' यामा-संग।
निरख दंपति-अंग शोभा लजत कोटि अनंग॥
मध्यकाल में राधा और कृष्ण के प्रेम की अनन्यता का जितना सुन्दर चित्रण सूर ने किया है, उतना किसी अन्य कवि ने नहीं किया। सूर की राधा स्वयं प्रेम की साकार प्रतिमा है। कृष्ण के प्रति उनका प्रेम अनन्य है। उन्हीं के द्वारा ब्रज के कण-कण में कृष्ण का प्रेम व्याप्त है। राधा के मानिनी एकनिष्ठ प्रेमिका, अनन्य सखि रूप का चित्रण सूरदास ने बहुत मार्मिकता से किया है। राधा के रूप शृंगार का जो चित्र सूर ने खींचा है, वह पाठकों के सामने राधा की छवि को साकार करने वाला है-
रत्नजटित गजरा बाजूबंद, सोभा भुजन अपार।
फूँदा फूँदा सुभग फूल फूले मनु मदन विटप की डार॥
छिदकि रह्यौ लहँगा रंग, ता संग तन सुखवत सुकुमार।
सूर सुअंग सुगंध समूहनि भँवर करत गुंजार॥
प्रेम की वास्तविक पहचान वियोग में ही होती है। विरह की आग में तपकर ही प्रेम उदात्तता के ऊँचे सोपान पर चढ़कर अध्यात्म तक पहुँच पाता है। कृष्ण के मथुरा चले जाने पर गोप-गोपिकाएँ, यशोदा माता-नंद बाबा सभी बहुत दुखी हैं; लेकिन राधा की स्थिति तो इन सबसे अलग है। सूरदास ने वियोगिनी राधा का चित्रण करते हुए लिखा है कि राधा गंभीर सोच में डूबी, जंधा पर कुहनी टिकाए, कपोल पर हाथ धरे, नखों से भूमि पर रेखाएँ खींच-खींचकर, कृष्ण का चित्र बना रही हैं। राधा की उँगलियाँ श्याम के एक-एक अंग के सौन्दर्य को अंकित करने में लीन हैं। राधा अनवरत अश्रु बहा रही है। राधा का गोरा रंग वियोग के ताप से साँवला हो गया है, रेशमी काले बाल बरगद की जटाओं की भाँति हो गए हैं। राधा ने उन वस्त्रों को नहीं बदला है, जिनको पहनकर उसने कृष्ण के साथ क्रीड़ाएँ की थीं। वियोगिनी राधा वियोग में कृष्ण-माधव रटते-रटते स्वयं कृष्णमय हो गई है। सूरदास ने राधा कृष्ण की प्रीति का भावपूर्ण और सहज चित्रण किया है।
रीतिकाल में राधा कृष्ण के प्रेम के ब्याज से लौकिक शृंगार का वर्णन ही अधिक किया गया है। भिखारीदास ने लिखा है-
आगे के सुकवि रीझि हैं तो कविताइए न त,
राधिका कन्हाई सुमिरन को बहानो है। (काव्य-निर्णय)
लेकिन मतिराम को राधा-कृष्ण का प्रेम अत्यंत प्रिय है इस प्रेम की आलोचना करने वाले उन्हें कतई पसंद नहीं है वे लिखते हैं-'राधा-मोहन लाल को जिन्हें न भावत नेह। परयो मुठि हज़ार दस, तिनकी आँखन खेह।' रीतिकाल के रीति सिद्ध कवि बिहारी ने भी बिहारी सतसई में राधाकृष्ण के प्रेम का बहुत सुंदर चित्रण किया है। 'बिहारी सतसई के मेरी भव बाधा हरौ' तथा 'तजि तीरथ हरि राधिका' इन दो दोहों में राधा कृष्ण की स्तुति एक भक्त कवि की ओर से की गई है, अन्य स्तवन हैं शेष अनेक स्थलों पर राधाकृष्ण के प्रेम का शृंगारिक वर्णन है। बिहारी की राधा के रूप के प्रभाव से कृष्ण अपनी सुध-बुध खो चुके हैं। उन्हें न अपनी मुरली का ध्यान है और न पीताम्बर का। बिहारी लिखते हैं-
कहा लड़ैते दृग करें, परे लाल बेहाल।
कहुँ मुरली कहुँ पीत पटु, कहँ मुकटु, बन माल॥
बिहारी के राधा कृष्ण सामान्य नायक नायिका की भाँति क्रीड़ाएँ करते हैं बिहारी जैसे रसिक कवि राधा-कृष्ण के हास परिहास को, आपसी प्रेम को व्यक्त करते हुए लिखते हैं-
बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय
सौंह करे भौंहन हसे, दैन कहे नटि जाय।
राधा का सान्निध्य पाने की चाह कृष्ण के मन है इस हेतु वे भाँति-भाँति के उपाय करते हैं। राधा के प्रति कृष्ण का प्रेम इतना है कि राधिका को देखकर वे कंपायमान हो जाते हैं। बिहारी ने कृष्ण के इस भाव को उस स्थिति में भी बरकरार रखा है, जब कृष्ण अपनी अँगुली पर गोवर्धन पर्वत उठाए हुए हैं। उसी समय उनकी दृष्टि राधा पर पड़ती है और प्रेम के सात्विक कंप के कारण पहाड़ डगमगाने लगता है-
डिगत पानि डिगुलात गिरि, लखि सब ब्रज बेहाल।
काँपि किसोरी दरसि कै, खरै, लजाने लाल॥
बिहारी ने राधा कृष्ण की संयोग शृंगारिक छवियों का अंकन करते हुए कहीं-कहीं मर्यादा की सीमाओं का उल्लंघन किया है। बिहारी ने राधा कृष्ण के प्रेम को सांसारिक प्रेम के समान ही चित्रित किया है। बिहारी ने काव्यशास्त्रीय नायक-नायिका प्रेम के आधार पर राधा कृष्ण के प्रेम का चित्रण किया है। सूर भक्त कवि थे; अतः सूर ने राधा कृष्ण के प्रेम के स्वाभाविक विकास का यथार्थ चित्रण करते हुए उसे अध्यात्म की ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। । सूर यह मानते हैं कि कृष्ण परमब्रह्म है और राधा उनकी ' शक्ति है। मध्यकाल में कृष्ण और राधा और प्रेम की अभिव्यक्ति अधिक हुई है।
बिहारी के अतिरिक्त पद्माकर, ग्वाल रसखान, घनानन्द आदि ने भी अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण के प्रेम को स्थान दिया है। रीतिकाल के सामंती परिवेश में राधा-कृष्ण के प्रेम की गहनता का चित्रण तो इन कवियों ने अधिक नहीं किया, वरन लौकिक प्रेम व्यापारों को राधा-कृष्ण के प्रेम के आवरण में व्यक्त किया। राधा कृष्ण के अमर प्रेम ने आधुनिक काल में भी अनेक कवियों को लिखने की प्रेरणा दी। द्विवेदी युग में 'प्रियप्रवास' ओर स्वातंत्र्योत्तर युग में धर्मवीर भारती ने 'कनुप्रिया' में राधा-कृष्ण के प्रेम को नये अर्थ दिए। राधा-कृष्ण का प्रेम अनेक साहित्यिक रचनाओं का उपजीव्य बना और आगे भी बनता रहेगा।
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